पर्यावरण और वन-विनाश


सभ्यता के विकास के साथ ही हमने भौतिक उन्नति, प्राकृतिक सम्पदा का दोहन, मशीनों, रसायनों, लवणों एवं खनिजों के भरपूर उपयोग को पूँजीवादी विकासात्मक तकनीकी के साथ प्राथमिकता प्रदान की। फलतः विकास और पर्यावरण के नाजुक सम्बन्ध बदतर होने लगे और उन्हीं विसंगतियों ने पर्यावरण प्रदूषण को नया अर्थ दिया। जिसके अन्तर्गत अब वनों की कटाई, भूमि और मिट्टी के अत्यधिक उपयोग से उत्पन्न बाढ़ और अकाल, प्रदूषित हवा, असुरक्षित जलापूर्ति से उत्पन्न बीमारियाँ, बालकों में बढ़ती हुई कुपोषणता तथा बढ़ती हुई जनसंख्या से प्राकृतिक संसाधनों पर पड़ने वाला भयंकर दबाव आदि विभिन्न समस्याएँ पर्यावरण प्रदूषण समस्या के साथ जुड़ गयी हैं।

पर्यावरण संरक्षण के लिये प्रत्येक व्यक्ति को समाज, देश पृथ्वी और पर्यावरण के प्रति अपने कर्तव्यों को समझना पड़ेगा। यह मामला शाही फरमान से कम और लोगों के अरमान से अधिक जुड़ा है। मनुष्य का जीवन पेड़ों पर निर्भर है और पेड़ों का जीवन मनुष्य पर। इसलिये संरक्षण के प्रति नयी चिन्तनधारा को विकसित करने की जिम्मेदारी केवल मनुष्य के जिम्मे है, केवल और केवल मनुष्य के जिम्मे है।

यदि हम अपने इतिहास में झांक कर देखें तो मालूम होता है कि पहले पर्यावरण की समस्या नहीं थी। थोड़ा भी असंतुलन होने पर प्रकृति स्वयं उसका निराकरण भी करती थी। मनुष्य स्वयं पर्यावरण के प्रति अत्यधिक सचेत रहता था। प्राकृतिक असंतुलन होने ही न पाये इसके लिये वह अपने पर्यावरण शान्ति हेतु ईश्वर से प्रार्थना करता रहता था। यथा “ऊँ द्यौ शान्तिऽन्तरिक्ष (ग्वं) शान्तिः पृथ्वी शान्ति रापः शान्ति रोषधयः शान्तिर्वनस्पतयः शान्तिः शान्तिरेधि’’- मनुष्य का यह शान्ति पाठ उसकी दूर दृष्टि चिन्तन का प्रतीक है। धीरे-धीरे मनुष्य ने विभिन्न क्षेत्रों में भौतिक उपलब्धियों एवं विकास के लिये प्रतिस्पर्धात्मक एवं असंयमित रूप से अन्धाधुंध दौड़ लगानी शुरू की। यह कार्य प्रकृति की जड़ में मट्ठा डालने की तरह सिद्ध हुआ। उन्नीसवीं-बीसवीं सदी आते-आते औद्योगिकीकरण एवं प्रगति की चकाचौंध के आगे पर्यावरण के प्रति सावधानी एवं जागरुकता कम होती गयी। एक दीर्घ अवधि तक इस विषय पर निश्चेष्टता बनी रही। इस महत्त्वपूर्ण एवं गम्भीर विषय पर विश्व का ध्यान पहली बार उस समय आकृष्ट कराया गया जब 5-10 जून 1972 को स्वीडन की राजधानी स्टाॅकहोम में प्रथम संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण महासम्मेलन का आयोजन हुआ। राष्ट्रसंघ स्तरीय कार्यक्रम की विधिवत स्थापना के साथ प्रतिवर्ष जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाने का संकल्प लिया गया। तभी से यह विश्व के गम्भीर एवं ज्वलंत विषयों की चिन्तन शृंखला की मुख्यधारा से जुड़ गया।

पर्यावरण एवं वन


पर्यावरण के सम्बन्ध में वनों और पेड़ों का बहुत महत्त्व है। प्राचीनकाल से ही भारत में वृक्षों की अत्यधिक उपयोगिता को स्वीकार कर और मानवीय भावनाओं के वशीभूत होकर उन्हें ईश्वर का अवतार माना गया है। वृक्षों की पूजा करना यह कर्तव्य हमें उत्तराधिकार में मिला है। अपने घर के दरवाजे पर अपने आंगन में, अपने लाॅन, बुर्ज एवं टेरेस हर जगह हम हरियाली देखना पसन्द करते हैं। सहज ही हमने तुलसी के चौरे को अपने घरों के आंगन में स्थापित नहीं कर दिया है। सबके पीछे वैज्ञानिक सत्य है। मत्स्यपुराण में भी कहा गया है कि.......‘‘दश कूपसमावापी दशवापीसमो हृदः दश हृद समः पुत्रो दशपुत्र समो वृक्ष’’ (एक पुत्र दस तालाबों के बराबर होता है और एक वृक्ष दस पुत्रों के बराबर)। वास्तव में प्रकृति हमारी संरक्षक है, पोषक है। स्वस्थ विकास वहीं है जिसमें हम प्रकृति की मूल सम्पदा को बचाये रखते हुए भी उसके ब्याज से काम चलाते रहे हैं और उसे अपनी भावी पीढ़ियों के लिये संजोकर, बचाकर रखें। वनों के प्रति सजग न रहना और भावी पीढ़ियों की चिन्ता न करना उनके प्रति अनाचार है, अन्याय है और यह हिंसा भी है।

यह अन्याय हिंसा अब बढ़ती जा रही है। हमारे देश में विश्व की कुल मानव आबादी का 15 प्रतिशत और मवेशी संख्या का 14 प्रतिशत है जबकि मात्र 2 प्रतिशत है। भारत में मात्र 19.5 प्रतिशत हिस्से में वन हैं जबकि किसी भी देश के लिये 33 प्रतिशत हिस्से में वन अनिवार्य है। हमारे यहाँ वनों का ह्रास तेजी से होता जा रहा है। एक पेड़ से इतनी शीतल छाया मिलती है जितनी पाँच एयर कंडीशनर 20 घंटे लगातार चलकर देते हैं। 93 घन मी. में लगा वन 8 डेसीबल ध्वनि प्रदूषण को दूर करता है। एक हेक्टेयर में लगा वन 20 कारों द्वारा उत्पन्न कार्बनडाईआक्साइड एवं धुआँ को शोषित करता है। अखिल भारतीय विज्ञान कांग्रेस की वाराणसी में आयोजित गोष्ठी में एक वृक्ष जिसकी आयु पचास साल हो उसके द्वारा प्राप्त प्रत्यक्ष आय-लाभ यथा-फल, फूल, काष्ठ, ईंधन के अतिरिक्त उसका अप्रत्यक्ष मूल्य 15.70 लाख रुपए आंका गया था जो इस प्रकार है.... छाया के रूप में पचास हजार, पशु प्रोटीन के रूप में बीस हजार, ऑक्सीजन एवं भूमि सुरक्षा के रूप में ढाई-ढाई लाख रुपये, एवं जल चक्र व वायु शुद्धीकरण के रूप में पाँच-पाँच लाख रुपये आंके गये।

वन राष्ट्रीय एवं वैश्विक पर्यावरण तथा प्राकृतिक संतुलन के प्रमुख अंग हैं लेकिन देशों में वनों पर बड़ी बेरहमी से आक्रमण हुआ है। हरे आवरण के इस तरह नष्ट हो जाने से भू-संरक्षण और बाढ़ की घटनायें बहुत बढ़ गयी हैं जिसके फलस्वरूप मात्र भारतवर्ष में हर वर्ष 1000 करोड़ रुपए से अधिक की हानि होती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की 1981 की रिपोर्ट के अनुसार वानिकी के नये कार्यक्रमों के बावजूद एशियाई क्षेत्र में वन आवरण को पूर्व स्थिति में आने के लक्ष्य न्यून हैं।

धरती के सदाबहारी वनों का विस्तार भूमध्य रेखा के निकट स्थित तृतीय विश्व के देशों तक सीमित हैं। लगभग 15 करोड़ वर्ष पुराने इन वनों का जिस गति से सफाया हो रहा है, वह चिंतनीय है। इन वनों की अधिकांश लकड़ी औद्योगिक रूप से विकसित देशों की विलासिता की तुष्टि में प्रयोग होती है। औद्योगिक देशों के अपने संशोधन भी कम नहीं हैं उनका काष्ठ उद्योग विश्व के सम्पूर्ण औद्योगिक काष्ठ का 80 प्रतिशत का स्वयं उत्पादित करता है लेकिन विलासिता की तृप्ति नहीं होती। उनके अपने भण्डार तृष्णा को शान्त नहीं कर पाते अतः वे तृतीय विश्व के देशों की लकड़ी का बड़ा भाग अपने यहाँ आयात कर लेते हैं। इसका अधिकांश इमारतों फर्नीचरों और विलासितापूर्ण वस्तुओं के निर्माण में प्रयोग हो जाता है। दुर्लभ सामग्री का स्वामी होने का तथाकथित अहम विश्व के सदाबहारी वनों के त्वरित विनाश का कारण बन गया है। प्रायः यह आरोप लगाया जाता है कि इस विनाश में आदिवासियों का प्रमुख हाथ है। लेकिन यदि सच्चाई देखी जाय तो स्पष्ट होता है कि इसमें आदिवासियों का कम एवं सम्पन्न लोगों का अधिक योगदान है। लोगों को यह जानना चाहिये कि अब भी जापानी रेस्तराओं में एक व्यक्ति एक बार उपयोग में लाकर फेंक दी जाने वाली ‘चोपस्टिक’ का प्रयोग करता है या अपने स्नानघर को अधिक स्तरीय बनाने के लिये कोई ब्रिटिश महोगनी को ‘टॉयलेट-सीट’ लगाता है तो एक मत से माना जायेगा कि वह व्यक्ति जंगलों के सफाये में अपना योगदान दे रहा होता है। आदिवासी तो प्रकृति के अविछिन्न घटक हैं। वन ही उनका आधार है। क्यों अपने आधार को ही यह काट डालना चाहेगा, निश्चित ही नहीं।

हमारी पृथ्वी की हरित पट्टी ट्राॅपिकल ‘टेनफॉरेस्ट’ अपने आप में वनस्पतियों और जीव-जन्तुओं की विविधता का विशेष रूप लिये हुए है। सम्पूर्ण पृथ्वी की जैविक प्रजातियों का एक तिहाई भाग इस गूढ़ प्राकृतिक वास में पाया जाता है। यहाँ सामान्य क्षेत्रों की अपेक्षा दस गुना ज्यादा वनस्पतियों की किस्में पायी जाती हैं। लगभग दस वर्ष पूर्व एक विश्व व्यापी सर्वेक्षण के आधार पर ट्रोपिकल रेनफॉरेस्ट का पूरा अध्ययन किया गया था। दक्षिणी अमरीका, मध्य अमरीका, कैरेवियन, अफ्रीका, दक्षिण एशिया, उ.प्र. एशिया, प्रशांत द्वीप समूह एवं आस्ट्रेलिया का विशाल क्षेत्र बरसाती जंगलों से भरा पड़ा है। अब तो इनका एक भाग नष्ट हो चुका है। सन 1980 में अमरीका विज्ञान अकादमी ने 2 करोड़ हेक्टेयर भूमि से जंगलों का वार्षिक सफाया होने का अनुमान लगाया था। जबकि विश्व वन्य जीव संगठन ने एक मिनट में 25-25 एकड़ वन के सफाये का अनुमान लगाया है।

अपने देश में हिमालय की तराई जो कभी अपने घने वृक्षों वनों के लिये प्रसिद्ध थी आज बड़े-बड़े कृषि फार्मों के रूप में जानी जाती है। यहाँ वन कट गये हैं, और उनकी जगह अनाज मंडिया और सुविधा सम्पन्न शहर बस गये हैं। जिन जगहों पर कभी निर्भय होकर मृग विचरण करते थे आज वहाँ पाँच सितारा होटल, सिनेमाघर और विशाल अट्टालिकायें हैं और अपने दीवारों की कैनवास में वन्य जीवों को जकड़े जा रहे हैं। यह सब हुआ है जंगलों के और उन पर अपेक्षित ध्यान न देने से। यदि उत्तर-प्रदेश के ही वन क्षेत्र को देखा जाय तो स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ पहाड़ी, जनपदों में जागरुकता की कमी है। सरकारी आँकड़े 39 प्रतिशत भाग पर वन बताते हैं जबकि इसमें गिरावट ही आयी है। लगभग 30 प्रतिशत क्षेत्र पर ही वन खड़े हैं। पर्वतीय अंचलों में तो यह प्रतिशत 60 प्रतिशत होना चाहिये जबकि उपलब्धता आवश्यकता से कहीं अधिक कम है। ऐसा नहीं कि इसका प्रभाव नहीं दिखायी पड़ रहा है। पर्यावरण प्रभाव आ रहे हैं। कई स्थायी जलस्रोत सूख गये हैं। जिसके कारण कई परियोजनायें असफल हो गयी हैं। जलस्रोतों के सूखने का असर छोटी-बड़ी नदियों पर भी पड़ा है। मध्य हिमालय और शिवालिक श्रेणियों में बहने वाली रामगंगा, मालन, खोह, नयार, मधुगंगा, व टांस का जलस्तर घट रहा है। वापखत व हकूक (अधिकार) के नाम पर पहाड़ी क्षेत्र रेत के टीले सदृश्य हो रहे हैं। जंगलों को नष्ट करने पर तुले ठेकेदार व वन माफिया सरकारी संरक्षण में व्यापार कर रहे हैं।

वन विनाश के कारण


शहरीकरण एवं जनसंख्या में वृद्धि, पर्यावरणीय संरक्षण की जागरुकता में कमी, अनियंत्रित पशुचारण, स्लश या बर्न विधि से खेती (झूम कृषि), वनों में आग लगना, ईंधन हेतु व्यापक कटाई, बाँध एवं सड़क निर्माण, सैलानियों का दबाव, वन-विभाग, ठेकेदार एवं वन-माफियाओं का कहर, सरकार की दोषपूर्ण वन-नीति, ईंट-भट्ठा उद्योग द्वारा निकला प्रदूषण/कार्बन, भू-स्खलन, प्राकृतिक आपदा भूकम्प, आँधी, तेज हवायें, कीड़ों, दीमकों एवं बीमारियों का प्रकोप, व्यापारिक फसलों के लिये वन क्षेत्रों का सफाया, वन उत्पादों का उद्योगों में व्यापक उपयोग, अंधाधुंध वनों का कटाव और वनों का दोहन, यथा चीड़ से लीसा निकालना।

वन विनाश के परिणाम


भूमि अपरदन में वृद्धि, मिट्टी की उर्वरा वृद्धि का ह्रास, पारिस्थितिकी तंत्र में असंतुलन, वनोत्पादन का अभाव, मानवता को खतरा, इमारती व जलाऊ लकड़ी का अभाव, वन्य जीवों का अस्तित्व संकट में, आर्थिक साधनों का दुरुपयोग, ग्रीन हाउस इफेक्ट, तापमान वृद्धि, अम्ल वर्षा, मरुभूमि का विस्तार, कार्बनडाईऑक्साईड की मात्रा में वृद्धि ऑक्सीजन की कमी, जलवायु में परिवर्तन, भू-स्खलन में वृद्धि, नदियों का जलस्तर गिरना, जलाभाव, जलस्रोतों का सूखना और वृक्ष जातियों और वनस्पतियों का विनाश।

वन विनाश के कारण यदि अति क्रूर हैं तो उसके परिणाम अतिभयानक। इनसे निपटना ही होगा। वन विनाशियों से दो-दो हाथ करना ही होगा, अन्यथा वे हमारी स्थिति ‘जल बिन मीन पियासी’ की कर देंगे। वैसे भी वन एवं वन्य जीव के विनाश का सवालिया प्रश्न सबके सामने मुँह सुरक्षा के मुख की भांति रौद्र रूप धारण करता जा रहा है। यह पर्यावरण प्रेमियों को तो कुरेद रहा ही है, समाज के जागरुक और बुद्धिजीवी सभी वर्ग को वन-संरक्षण के प्रति सोचने को भी विवश कर रहा है। सरकारी चिन्तन नीति भी सुधरी है। नयी बोली का प्रवेश हो रहा है। जिसमें प्रमुख हैं- पर्यावरण संतुलन बनाये रखना, प्राकृतिक साधनों का संरक्षण, भूमि-संरक्षण, सामाजिकी वानिकी, ईंधन, चारे और ईमारती लकड़ी की व्यवस्था करना, वनों की उत्पादकता बढ़ाना, वन-उत्पादों के स्थान पर वैकल्पिक साधनों के प्रयोग को प्रोत्साहन देना और महिलाओं का सहयोग लेकर व्यापक जन-जागरण अभियान प्रारम्भ करना शामिल है। पर्यावरण संरक्षण के लिये प्रत्येक व्यक्ति को समाज, देश पृथ्वी और पर्यावरण के प्रति अपने कर्तव्यों को समझना पड़ेगा। यह मामला शाही फरमान से कम और लोगों के अरमान से अधिक जुड़ा है। मनुष्य का जीवन पेड़ों पर निर्भर है और पेड़ों का जीवन मनुष्य पर। इसलिये संरक्षण के प्रति नयी चिन्तनधारा को विकसित करने की जिम्मेदारी केवल मनुष्य के जिम्मे है, केवल और केवल मनुष्य के जिम्मे है।

डाॅ. शीलप्रिय त्रिपाठी
प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष, अर्थशास्त्र विभाग राजकीय महाविद्यालय, जालौन, उ.प्र.

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