कुछ वृक्षों को अनादि काल से आज तक पूजा जाता है। लोक-आस्था और लोक-विश्वास के अतिरिक्त धार्मिक ग्रंथों में इनकी महिमा, गुण एवं उपयोगिता वैज्ञानिक कसौटी पर खरी उतरती है। कुछ वृक्षों को वैसा ही सम्मान दिया जाता है, जैसे पुरातन पुरुषों को दिया जाता है। कुछ वृक्ष केवल वंदनीय ही नहीं होते, अपितु औषधीय गुणों से परिपूर्ण होते हैं, इसलिए सेव्य और उपयोगी होते हैं। कुछ वृक्ष शांतिकारक होते हैं। इसलिए यज्ञ में समिधा के निमित्त इनकी लकड़ियों का प्रयोग किया जाता है। इस तरह इन वृक्षों के साथ हमारा गहरा और आत्मीय रिश्ता है। सदाबहार वन अगर इस धरती को शीतल छाया और समृद्धि प्रदान करते हैं तो उसकी गोद से निकली धाराएं अपने अमृत से न केवल धरती को सींचती हैं, वरन् प्राणीमात्र के जीवन को आधार भी प्रदान करती है। वन, वायु, जल, भूमि, आकाश हमारे लिए प्रकृति के अमूल्य उपहार हैं। मानव की संस्कृति का विकास इन्हीं उपादनों के मध्य हुआ है। मानव ने अपनी संस्कृति व सभ्यता का विकास सर्वप्रथम नदी घाटी से किया। नदियां हमारे अस्तित्व को बनाए रखने के लिए अमृत तुल्य जल देती हैं, इसलिए ये हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं। वायु और जल, पृथ्वी पर जीवन के अस्तित्व के लिए नितांत आवश्यक हैं।
वनों का सदा से मानव-जीवन में विशेष महत्व रहा है। प्राकृतिक संपदा स्रोत के रूप में ये महत्वपूर्ण तो रहे ही हैं, इनकी उपयोगिता प्राकृतिक संतुलन को बनाए रखने में भी है। प्रकृति ने उपहारस्वरूप हमें जो कुछ भी दिया है, उसके दोहन का अवसर भी प्रकृति ने हमें दिया है, किंतु प्रगति की दौड़ में बहुत तेजी से डग भरने वाला मानव प्राकृतिक संतुलन को अव्यवस्थित करने लगा है। यह भविष्य में उसके विनाश का कारण बन सकता है।
वर्तमान समय में संस्कृति ह्रासोन्मुख है और पर्यावरण विघटन की ओर। इस दौर में मानव भौतिक रूप से जितना समृद्ध होता जा रहा है, सांस्कृतिक और पर्यावरणिक दृष्टि से उतना ही विपन्न। पर धन्य है छत्तीसगढ़ की पावन धरा की महिलाएं, जो सांस्कृतिक परंपरा को बनाए रखने के बहाने इन प्राकृतिक धरोहरों के संरक्षण का सफल प्रयास कर संस्कृति और पर्यावरण दोनों को बचाए रखने में महत्वपूर्ण योगदान दे रही हैं। यह प्रयास न केवल अनुकरणीय हैं, अपितु स्तुत्य भी है।
छत्तीसगढ़ की महिलाएं स्वभाव से सरल हृदया, कर्मठ, कोमलतायुक्त दृढ़ता और त्यागमयी गुणों से युक्त अन्नपूर्णा हैं, जो देना ही जानती हैं, लेने की आकांक्षा जिनमें कभी नहीं रही। जो सेवा को अपना अधिकार समझती हैं, इसलिए देवी हैं, जो त्याग करना जानती हैं, इसलिए साम्राज्ञी हैं, जो संस्कृति-संरक्षण के बहाने पर्यावरण का संरक्षण करती हैं। इस तरह विश्व इनके वात्सल्यमय आंचल में स्थान पाता है, इसलिए जगत् माता है। ब्रह्म की यह सौंदर्यशाली अनुपम रचना जानती है कि प्रकृति रूपी अमूल्य धरोहर को कैसे बचाया जा सकता है, इसलिए वे समाज की ही नहीं, प्रकृति की भी संरक्षिका हैं।
विचार करें तो महिलाएं पर्यावरण संरक्षण के प्रति प्राचीनकाल से ही सजग और सचेत रही हैं। प्राचीनकाल से ही वे जल के शुद्धिकरण, संग्रहण और संरक्षण का प्रयास करती रही है। बुजुर्ग महिलाओं ने सांस्कृतिक और धार्मिक आस्थाओं के बहाने जल के संरक्षण के लिए ऐसे-ऐसे सामाजिक आचार-विचार बनाए, जो सबी युग और देश-काल के लिए ग्राह्य सिद्ध हुए कालांतर में ही रीति-रिवाज और परंपरा के रूप में निवेशित होते हुए हमारी संस्कृति के प्रमुख घटक बन गए। जैसे पुत्र की कुशलता की कामना से रखा जाने वाला छत्तीसगढ़ का ‘हलषष्ठी व्रत’।
इस व्रत के लिए यहां की महिलाएं सगरी की पूजा करती हैं। दरअसल यह सगरी वृहद तालाब है और कालांतर में सगरी का रूप धारण कर चुकी है। इस सगरी में महिलाएं पानी डालती हैं। सगरी के चारों ओर वनोपज और वनस्पतियां लगाती हैं और दो सगरी के मध्य एक छिद्र करती हैं। ये क्रमशः जल संग्रहण, जो को प्रदूषण को बचाए रखन और जल शुद्धि के उपाय हैं।
गणगौर में यहां की महिलाएं गंगा नदी के प्रतीक स्वरूप महानदी और अन्य नदियों की पूजा करती हैं। कहने को तो गंगा मात्र नदी है, किंतु गंगा ने अविच्छिन्न उर्वरता भारत को दी है। गंगा की न टूटने वाली धाराएं अपने से अधिक जलभार वाली नदियों को अपनी पीठ पर लादकर अनंत महासागर तक पहुंचाती है, ताकि उनके जल को, ताप के भाप के पूर्ण रूप में सूर्य की किरणें उठा लें और बादलों के माध्यम से निखरे हुए रूप में फिर दरका दे, ताकि जल-संग्रहण की निरंतरता बनी रहे। इस तह महिलाएं प्रकृति की पूजा की परंपरा को जीवित रखकर सामूहिक लोक और नागर जीवन के अस्तित्व की रक्षा का प्रयास करती हैं।
चूंकि पर्यावरण और स्वास्थ्य दोनों के लिए ही प्रदूषण एक जटिल समस्या है, अतः इस समस्या से निपटने के लिए महिलाएं वृक्षों की पूजा करती हैं। मनुष्य का जब पृथ्वी पर जन्म हुआ तो सबसे पहले वृक्षों ने उसका साथ दिया। उसे रहने के लिए छाया दी, शरीर ढकने के लिए पत्ते दिए, खाने के लिए फल दिए और साथ में आज का तार्किक पर्यावरण संरक्षण भी।
पीपल, आम, बरगद, नीम, बेल, अशोक, अर्जून, तुलसी आदि वे पवित्र वृक्ष हैं, जिनकी पूजा करके छत्तीसगढ़ की महिलाएं अपनी धार्मिक आस्थाओं को तो जीवित रखती ही हैं, साथ ही पर्यावरण को भी स्वच्छ बनाए रखती हैं। नीम के पेड़ जहां होते हैं, वहां का पर्यावरण स्वच्छ ही रहता है। हवा को शुद्ध रखने में पीपल का बहुत योगदान है। पीपल रात में भी ऑक्सीजन देता है। बरगद अपनी विशालता के अनुसार बड़ी सीमा तक प्रदूषण को कम करता है। यह कहना बहुत कठिन है कि मानव सभ्यता और पर्यावरण का रिश्ता कितना पुराना है, किंतु विष्णु पुराण के प्रथम अंश में मनुष्य और वृक्ष के बीच एक बेहद आत्मीय संबंध का संकेत मिलता है, जिससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि मानव की सभ्यता और संस्कृति के विकास में इन वृक्षों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यही कारण है कि आज लोग कहते हैं कि समय बदल रहा है, मान्यताएं बदल रही हैं, किंतु भारतीय संस्कृति में वृक्षों के प्रति लोगों की आस्था और विश्वास ज्यों-का-त्यों बना है।
कुछ वृक्षों को अनादि काल से आज तक पूजा जाता है। लोक-आस्था और लोक-विश्वास के अतिरिक्त धार्मिक ग्रंथों में इनकी महिमा, गुण एवं उपयोगिता वैज्ञानिक कसौटी पर खरी उतरती है। कुछ वृक्षों को वैसा ही सम्मान दिया जाता है, जैसे पुरातन पुरुषों को दिया जाता है। कुछ वृक्ष केवल वंदनीय ही नहीं होते, अपितु औषधीय गुणों से परिपूर्ण होते हैं, इसलिए सेव्य और उपयोगी होते हैं। कुछ वृक्ष शांतिकारक होते हैं। इसलिए यज्ञ में समिधा के निमित्त इनकी लकड़ियों का प्रयोग किया जाता है। इस तरह इन वृक्षों के साथ हमारा गहरा और आत्मीय रिश्ता है।
पीपल, आम, बरगद, नीम, बेल, अशोक, अर्जून, तुलसी आदि वे पवित्र वृक्ष हैं, जिनकी पूजा करके छत्तीसगढ़ की महिलाएं अपनी धार्मिक आस्थाओं को तो जीवित रखती ही हैं, साथ ही पर्यावरण को भी स्वच्छ बनाए रखती हैं। नीम के पेड़ जहां होते हैं, वहां का पर्यावरण स्वच्छ ही रहता है। हवा को शुद्ध रखने में पीपल का बहुत योगदान है। पीपल रात में भी ऑक्सीजन देता है। बरगद अपनी विशालता के अनुसार बड़ी सीमा तक प्रदूषण को कम करता है।
इन वृक्षों के अध्ययन से पता चलता है कि बरगद और पीपल मात्र वृक्ष नहीं है, वरन् अपने आप में एक संपूर्ण पारिस्तितिकीय-तंत्र (इको सिस्टम) हैं। वनों में ऐसे वृक्ष अन्य पौधों के अस्तित्व को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अशोक वृक्ष प्रदूषण कम करने के अतिरिक्त औषधि के रूप में प्रयुक्त होता है। तुलसी के पौधे की यहां देवी-तुल्य पूजा की जाती है, उसकी जड़ों में यहां की नारियां प्रतिदिन जल देती हैं सायंकाल तुलसी चबूतरे पर दीपक जलाती हैं। दरअसल तुलसी का पौधा भी प्रचुर ऑक्सीजन सांस के साथ निष्कासित करता है, उसकी पत्तियां पूर्णतः हरी-भरी और अत्यधिक प्राणवान होती हैं। इन पत्तियों का उपयोग छत्तीसगढ़ के हर घर में पूजा होती है, जिसमें इसका सेवन कर और सुगंध पाकर अनजाने ही साधक स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर लेता है।
इसी तरह शीतला अष्टमी व्रत में नीम, वटसावित्री में बरगद, सोमवती अमवस्या में पीपल और मांगलिक अवसरों पर आम और चंदन के वृक्षों की पत्तियों और लकड़ियों की पूजा करके धार्मिक परंपराओं के साथ पर्यावरण का भी संरक्षण करती हैं। महिलाओं की आस्था के कारण ही वैदिक परंपरानुसार यज्ञ, हवन आदि संपन्न किए जाते हैं, इससे पर्यावरण संतुलन बनाए रखने का उद्देश्य पूर्ण होता है।
वायुमंडल का शुद्धिकरण होता रहता है। इतना ही नहीं, छत्तीसगढ़ की महिलाएं वृक्षारोपण, बाग-बगीचे, फल-फूल वाले पौधे तथा सुगंधित वाटिका लाने में भी रुचि रखती हैं, जिसका सीधा प्रभाव घर-परिवार के लोगों के सुख और स्वास्थ्य पर पड़ता है और तो और वे भवन, वरुण, सूर्य-चंद्रमा, नक्षत्र, अग्नि आदि से भी अपना साहचर्य बनाए रखती हैं और इनके पूजन के बहाने पर्यावरण-संतुलन पर विशेष ध्यान देती हैं।
महिलाएं राष्ट्र की धुरी हैं। वे सजगतापूर्वक पूरी सृष्टि को संरक्षित रखने के साथ-साथ राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोने का अभूतपूर्व कार्य कर रही हैं। इनके प्रयासों से न केवल प्रकृति संतुलन की अव्यवस्था सुधर रही है, अपितु विकास की योजनाएं भी दीर्घजीवी हो रही हैं। यह सृजनशीलता बनी रहे, सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामयः की उदात्त भावना जन-जन में जागृत हो सके, वातावरण सुखमय, आनंदित बन सके, संस्कृति सद्साहित्य और नैतिक भावनाओं में वृद्धि हो एवं धरा पर ही स्वर्ग के दर्शन होते रहें, प्राणिमात्र को अब यही प्रयास करना चाहिए।
इसके लिए जरूरी है, समवेत स्वर में न केवल महिलाएं, अपितु संपूर्ण जन यदि संकल्प लें कि पर्यावरण संरक्षण करते हुए वातावरण में संतुलन बनाए रखेंगे एवं वनों को कभी नष्ट नहीं करेंगे, सर-सरिताओं को मैला नहीं होने देंगे, गंदे पानी की नालियों, गटरों, कल-करखानों के धुओं एवं अपशिष्ट पदार्थों की निकासी का उचित प्रबंधन कराएंगें, गोला-बारूद, बम-बंदूकों का विनाशकारी दुरुपयोग न तो स्वयं करेंगे और न करने देंगे तो समाज हित के साथ-साथ राष्ट्रहित भी होगा, जन-जागृति का वातावरण निर्मित होगा, जिससे मानवीय जीवन-मूल्यों की रक्षा हो सकेगी। हमारी आस्थाएं अभी धूमिल नहीं हुई हैं और हमारा यह विश्वास अभी बरकरार है-
कल नए क्षितिजों में सूर्य फिर उगेगा
कोई और होगा वह नवोदित सूर्य
वह गहरा नीला आकाश
उसकी अनंतता
कोई और होगा
कोई और होगा उस नए सूर्य की तेजस्वी किरणें
कल को और होगा इसविशाल सागर की समुज्जवल परिपूर्णता।
इस परिचित शिखर का दुकेलापन कोई और होगा।
प्राद्यापक हिंदी, शा. माता कर्मा कन्या महाविद्यालय, महासमुंद (छ.ग.)
वनों का सदा से मानव-जीवन में विशेष महत्व रहा है। प्राकृतिक संपदा स्रोत के रूप में ये महत्वपूर्ण तो रहे ही हैं, इनकी उपयोगिता प्राकृतिक संतुलन को बनाए रखने में भी है। प्रकृति ने उपहारस्वरूप हमें जो कुछ भी दिया है, उसके दोहन का अवसर भी प्रकृति ने हमें दिया है, किंतु प्रगति की दौड़ में बहुत तेजी से डग भरने वाला मानव प्राकृतिक संतुलन को अव्यवस्थित करने लगा है। यह भविष्य में उसके विनाश का कारण बन सकता है।
वर्तमान समय में संस्कृति ह्रासोन्मुख है और पर्यावरण विघटन की ओर। इस दौर में मानव भौतिक रूप से जितना समृद्ध होता जा रहा है, सांस्कृतिक और पर्यावरणिक दृष्टि से उतना ही विपन्न। पर धन्य है छत्तीसगढ़ की पावन धरा की महिलाएं, जो सांस्कृतिक परंपरा को बनाए रखने के बहाने इन प्राकृतिक धरोहरों के संरक्षण का सफल प्रयास कर संस्कृति और पर्यावरण दोनों को बचाए रखने में महत्वपूर्ण योगदान दे रही हैं। यह प्रयास न केवल अनुकरणीय हैं, अपितु स्तुत्य भी है।
छत्तीसगढ़ की महिलाएं स्वभाव से सरल हृदया, कर्मठ, कोमलतायुक्त दृढ़ता और त्यागमयी गुणों से युक्त अन्नपूर्णा हैं, जो देना ही जानती हैं, लेने की आकांक्षा जिनमें कभी नहीं रही। जो सेवा को अपना अधिकार समझती हैं, इसलिए देवी हैं, जो त्याग करना जानती हैं, इसलिए साम्राज्ञी हैं, जो संस्कृति-संरक्षण के बहाने पर्यावरण का संरक्षण करती हैं। इस तरह विश्व इनके वात्सल्यमय आंचल में स्थान पाता है, इसलिए जगत् माता है। ब्रह्म की यह सौंदर्यशाली अनुपम रचना जानती है कि प्रकृति रूपी अमूल्य धरोहर को कैसे बचाया जा सकता है, इसलिए वे समाज की ही नहीं, प्रकृति की भी संरक्षिका हैं।
विचार करें तो महिलाएं पर्यावरण संरक्षण के प्रति प्राचीनकाल से ही सजग और सचेत रही हैं। प्राचीनकाल से ही वे जल के शुद्धिकरण, संग्रहण और संरक्षण का प्रयास करती रही है। बुजुर्ग महिलाओं ने सांस्कृतिक और धार्मिक आस्थाओं के बहाने जल के संरक्षण के लिए ऐसे-ऐसे सामाजिक आचार-विचार बनाए, जो सबी युग और देश-काल के लिए ग्राह्य सिद्ध हुए कालांतर में ही रीति-रिवाज और परंपरा के रूप में निवेशित होते हुए हमारी संस्कृति के प्रमुख घटक बन गए। जैसे पुत्र की कुशलता की कामना से रखा जाने वाला छत्तीसगढ़ का ‘हलषष्ठी व्रत’।
इस व्रत के लिए यहां की महिलाएं सगरी की पूजा करती हैं। दरअसल यह सगरी वृहद तालाब है और कालांतर में सगरी का रूप धारण कर चुकी है। इस सगरी में महिलाएं पानी डालती हैं। सगरी के चारों ओर वनोपज और वनस्पतियां लगाती हैं और दो सगरी के मध्य एक छिद्र करती हैं। ये क्रमशः जल संग्रहण, जो को प्रदूषण को बचाए रखन और जल शुद्धि के उपाय हैं।
गणगौर में यहां की महिलाएं गंगा नदी के प्रतीक स्वरूप महानदी और अन्य नदियों की पूजा करती हैं। कहने को तो गंगा मात्र नदी है, किंतु गंगा ने अविच्छिन्न उर्वरता भारत को दी है। गंगा की न टूटने वाली धाराएं अपने से अधिक जलभार वाली नदियों को अपनी पीठ पर लादकर अनंत महासागर तक पहुंचाती है, ताकि उनके जल को, ताप के भाप के पूर्ण रूप में सूर्य की किरणें उठा लें और बादलों के माध्यम से निखरे हुए रूप में फिर दरका दे, ताकि जल-संग्रहण की निरंतरता बनी रहे। इस तह महिलाएं प्रकृति की पूजा की परंपरा को जीवित रखकर सामूहिक लोक और नागर जीवन के अस्तित्व की रक्षा का प्रयास करती हैं।
चूंकि पर्यावरण और स्वास्थ्य दोनों के लिए ही प्रदूषण एक जटिल समस्या है, अतः इस समस्या से निपटने के लिए महिलाएं वृक्षों की पूजा करती हैं। मनुष्य का जब पृथ्वी पर जन्म हुआ तो सबसे पहले वृक्षों ने उसका साथ दिया। उसे रहने के लिए छाया दी, शरीर ढकने के लिए पत्ते दिए, खाने के लिए फल दिए और साथ में आज का तार्किक पर्यावरण संरक्षण भी।
पीपल, आम, बरगद, नीम, बेल, अशोक, अर्जून, तुलसी आदि वे पवित्र वृक्ष हैं, जिनकी पूजा करके छत्तीसगढ़ की महिलाएं अपनी धार्मिक आस्थाओं को तो जीवित रखती ही हैं, साथ ही पर्यावरण को भी स्वच्छ बनाए रखती हैं। नीम के पेड़ जहां होते हैं, वहां का पर्यावरण स्वच्छ ही रहता है। हवा को शुद्ध रखने में पीपल का बहुत योगदान है। पीपल रात में भी ऑक्सीजन देता है। बरगद अपनी विशालता के अनुसार बड़ी सीमा तक प्रदूषण को कम करता है। यह कहना बहुत कठिन है कि मानव सभ्यता और पर्यावरण का रिश्ता कितना पुराना है, किंतु विष्णु पुराण के प्रथम अंश में मनुष्य और वृक्ष के बीच एक बेहद आत्मीय संबंध का संकेत मिलता है, जिससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि मानव की सभ्यता और संस्कृति के विकास में इन वृक्षों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यही कारण है कि आज लोग कहते हैं कि समय बदल रहा है, मान्यताएं बदल रही हैं, किंतु भारतीय संस्कृति में वृक्षों के प्रति लोगों की आस्था और विश्वास ज्यों-का-त्यों बना है।
कुछ वृक्षों को अनादि काल से आज तक पूजा जाता है। लोक-आस्था और लोक-विश्वास के अतिरिक्त धार्मिक ग्रंथों में इनकी महिमा, गुण एवं उपयोगिता वैज्ञानिक कसौटी पर खरी उतरती है। कुछ वृक्षों को वैसा ही सम्मान दिया जाता है, जैसे पुरातन पुरुषों को दिया जाता है। कुछ वृक्ष केवल वंदनीय ही नहीं होते, अपितु औषधीय गुणों से परिपूर्ण होते हैं, इसलिए सेव्य और उपयोगी होते हैं। कुछ वृक्ष शांतिकारक होते हैं। इसलिए यज्ञ में समिधा के निमित्त इनकी लकड़ियों का प्रयोग किया जाता है। इस तरह इन वृक्षों के साथ हमारा गहरा और आत्मीय रिश्ता है।
पीपल, आम, बरगद, नीम, बेल, अशोक, अर्जून, तुलसी आदि वे पवित्र वृक्ष हैं, जिनकी पूजा करके छत्तीसगढ़ की महिलाएं अपनी धार्मिक आस्थाओं को तो जीवित रखती ही हैं, साथ ही पर्यावरण को भी स्वच्छ बनाए रखती हैं। नीम के पेड़ जहां होते हैं, वहां का पर्यावरण स्वच्छ ही रहता है। हवा को शुद्ध रखने में पीपल का बहुत योगदान है। पीपल रात में भी ऑक्सीजन देता है। बरगद अपनी विशालता के अनुसार बड़ी सीमा तक प्रदूषण को कम करता है।
इन वृक्षों के अध्ययन से पता चलता है कि बरगद और पीपल मात्र वृक्ष नहीं है, वरन् अपने आप में एक संपूर्ण पारिस्तितिकीय-तंत्र (इको सिस्टम) हैं। वनों में ऐसे वृक्ष अन्य पौधों के अस्तित्व को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अशोक वृक्ष प्रदूषण कम करने के अतिरिक्त औषधि के रूप में प्रयुक्त होता है। तुलसी के पौधे की यहां देवी-तुल्य पूजा की जाती है, उसकी जड़ों में यहां की नारियां प्रतिदिन जल देती हैं सायंकाल तुलसी चबूतरे पर दीपक जलाती हैं। दरअसल तुलसी का पौधा भी प्रचुर ऑक्सीजन सांस के साथ निष्कासित करता है, उसकी पत्तियां पूर्णतः हरी-भरी और अत्यधिक प्राणवान होती हैं। इन पत्तियों का उपयोग छत्तीसगढ़ के हर घर में पूजा होती है, जिसमें इसका सेवन कर और सुगंध पाकर अनजाने ही साधक स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर लेता है।
इसी तरह शीतला अष्टमी व्रत में नीम, वटसावित्री में बरगद, सोमवती अमवस्या में पीपल और मांगलिक अवसरों पर आम और चंदन के वृक्षों की पत्तियों और लकड़ियों की पूजा करके धार्मिक परंपराओं के साथ पर्यावरण का भी संरक्षण करती हैं। महिलाओं की आस्था के कारण ही वैदिक परंपरानुसार यज्ञ, हवन आदि संपन्न किए जाते हैं, इससे पर्यावरण संतुलन बनाए रखने का उद्देश्य पूर्ण होता है।
वायुमंडल का शुद्धिकरण होता रहता है। इतना ही नहीं, छत्तीसगढ़ की महिलाएं वृक्षारोपण, बाग-बगीचे, फल-फूल वाले पौधे तथा सुगंधित वाटिका लाने में भी रुचि रखती हैं, जिसका सीधा प्रभाव घर-परिवार के लोगों के सुख और स्वास्थ्य पर पड़ता है और तो और वे भवन, वरुण, सूर्य-चंद्रमा, नक्षत्र, अग्नि आदि से भी अपना साहचर्य बनाए रखती हैं और इनके पूजन के बहाने पर्यावरण-संतुलन पर विशेष ध्यान देती हैं।
महिलाएं राष्ट्र की धुरी हैं। वे सजगतापूर्वक पूरी सृष्टि को संरक्षित रखने के साथ-साथ राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोने का अभूतपूर्व कार्य कर रही हैं। इनके प्रयासों से न केवल प्रकृति संतुलन की अव्यवस्था सुधर रही है, अपितु विकास की योजनाएं भी दीर्घजीवी हो रही हैं। यह सृजनशीलता बनी रहे, सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामयः की उदात्त भावना जन-जन में जागृत हो सके, वातावरण सुखमय, आनंदित बन सके, संस्कृति सद्साहित्य और नैतिक भावनाओं में वृद्धि हो एवं धरा पर ही स्वर्ग के दर्शन होते रहें, प्राणिमात्र को अब यही प्रयास करना चाहिए।
इसके लिए जरूरी है, समवेत स्वर में न केवल महिलाएं, अपितु संपूर्ण जन यदि संकल्प लें कि पर्यावरण संरक्षण करते हुए वातावरण में संतुलन बनाए रखेंगे एवं वनों को कभी नष्ट नहीं करेंगे, सर-सरिताओं को मैला नहीं होने देंगे, गंदे पानी की नालियों, गटरों, कल-करखानों के धुओं एवं अपशिष्ट पदार्थों की निकासी का उचित प्रबंधन कराएंगें, गोला-बारूद, बम-बंदूकों का विनाशकारी दुरुपयोग न तो स्वयं करेंगे और न करने देंगे तो समाज हित के साथ-साथ राष्ट्रहित भी होगा, जन-जागृति का वातावरण निर्मित होगा, जिससे मानवीय जीवन-मूल्यों की रक्षा हो सकेगी। हमारी आस्थाएं अभी धूमिल नहीं हुई हैं और हमारा यह विश्वास अभी बरकरार है-
कल नए क्षितिजों में सूर्य फिर उगेगा
कोई और होगा वह नवोदित सूर्य
वह गहरा नीला आकाश
उसकी अनंतता
कोई और होगा
कोई और होगा उस नए सूर्य की तेजस्वी किरणें
कल को और होगा इसविशाल सागर की समुज्जवल परिपूर्णता।
इस परिचित शिखर का दुकेलापन कोई और होगा।
प्राद्यापक हिंदी, शा. माता कर्मा कन्या महाविद्यालय, महासमुंद (छ.ग.)
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Post By: Shivendra