पर्यावरण और भारतीय संस्कृति

मनुष्य द्वारा पृथ्वी पर अपनी सभ्यता को विकसित करने की धुन में जिस प्रकार ऊर्जा के स्रोतों का उपयोग किया गया है, उससे जल और वायु के प्रदूषण में वृद्धि, भूमि का अनउपजाऊ होना, नदियों के जल का कम तथा दूषित होना, ध्वनि-प्रदूषण, रेडियोधर्मी विकिरण का बढ़ना आदि समस्याएं मुख्य हैं, इनके कारण पृथ्वी का पर्यावरण संतुलन छिन्न-भिन्न हो गया है। हिंदू मान्यताओं के अनुसार प्रकृति एवं पुरुष के संयोग से जीवन विकसित हुआ। प्रकृति को मां एवं पुरुष को पिता माना गया है। संतानोत्पति में पिता का योग तो होता है, किंतु उसे गर्भ में एवं बाद में भी पालने का कार्य मां अर्थात प्रकृति करती है। इस कारण प्राणीजगत् चर एवं अचर सभी की मां पृथ्वी है। पूरे विश्व का लालन-पालन करने के लिए पृथ्वी पर प्रकृति-जन्य वे सभी चीजें, जो उसमें जीवन के लिए आवश्यक हैं, पृथ्वी पर मनुष्य, पशु-पक्षी, पेड़ पौधे एवं अन्य सभी जीव-जंतु एक ऐसे प्रकृति प्रदत्त चक्र से बंधे हुए हैं, जिसमें वे अपने जीवन को सफलतापूर्वक चला सकें। कभी-कभी, दैविक आपदाओं, प्रकृति-जन्य बदलाव के कारण या कभी मानवीय क्रिया-कलापों के कारण प्रकृति-चक्र टूटते हैं, जिससे पर्यावरण असंतुलित होता है और सभी प्राणी असंतुलन से प्रभावित होते हैं। इस असंतुलन से पैदा हुई विसमताओं के कारण बड़ी-बड़ी सभ्यताएं समाप्त हो गईं पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों एवं अन्य जीवों की पूरी जाति समाप्त हो चुकी हैं। वर्तमान में भी, पेड़-पौधों एवं पशु-पक्षियों की कई प्रजातियां समाप्त हो चुकी हैं। या समाप्त होने के कगार पर हैं और इसमें बहुत बड़ा योगदान मानव-जाति के क्रिया-कलापों का है।

मनुष्य के क्रिया-कलापों में मुख्य रूप से युद्ध के कारण प्रयोग किए गए रासायनिक एवं आणविक हथियारों ने प्रकृति को दुष्प्रभावित किया है। इस प्रयास में प्रकृति का आवरण छिन्न-भिन्न हुआ है, जिससे प्रकृति का संतुलन बिगड़ा है। लेकिन वर्तमान में जहां सुख-सुविधा के लिए प्रयुक्त होने वाली सामग्री तथा विद्युत आदि के निर्माण, उत्पादन के लिए कार्यरत कल-कारखानों, ताप विद्युत-गृहों से निकलने वाली विषैली गैसों, दूषित पानी तथा अन्य विषाक्त पदार्थों में भी प्रदूषण फैल रहा है, वहीं दूसरी ओर इन्हें रोकने या कम करने वाले पेड़ों और पौधों को अंधाधुंध काटने के कारण प्रकृति प्रदूषण रोकने में सफल नहीं हो पा रही है।

वर्तमान परिस्थितियां मनुष्य के लिए कठिन चुनौती के रूप में उपस्थित हुई है। प्रकृति की विपरीत परिस्थितियों का सामना करने में यदि थोड़ी-बहुत सफलता मिल जाए, तब भी एक बड़ी संख्या में पशु-पक्षियों को प्राणोत्सर्ग देने पड़ सकते हैं। इतना ही नहीं मानव-जाति को भी इस विषम परिस्थिति में निरंतर कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा, जो भविष्य में तीव्र रूप से बढ़ेगा। पर्यावरण ‘परि’ और ‘आवरण’ इन दो शब्दों से मिलकर बना है। परि का अर्थ है, चारों ओर और पर्यावरण का अर्थ है ढकने वाला वस्त्र है-वायु, पानी, पेड़-पौधे, घास के मैदान, बर्फ के पहाड़, हिमनद एवं समुद्र आदि। इस आवरण से प्रकृति सुंदर, हरी-भरी और गरिमामयी लगती है। सूखे नंगे पहाड़, मरुस्थल एवं सूखी नदी ने कभी किसी का मन नहीं मोहा होगा। वर्तमान में मनुष्य ने अपनी सभ्यता को विकसित करने के लिए जिस प्रकार तेजी से कंक्रीट के जंगल फैलाए हैं, पेड़ों को काट-काटकर, मैदानों और पहाड़ों को नंगा किया है, कल-कारखानों से निकली विषैली वायु ने जिस प्रकार प्राकृतिक जल प्रणालियों एवं मृदा को दूषित किया है, उससे प्रकृति-चक्र दुष्प्रभावित हुए हैं और प्रकृति असंतुलित हुई है।

मनुष्य द्वारा पृथ्वी पर अपनी सभ्यता को विकसित करने की धुन में जिस प्रकार ऊर्जा के स्रोतों का उपयोग किया गया है, उससे जल और वायु के प्रदूषण में वृद्धि, भूमि का अनउपजाऊ होना, नदियों के जल का कम तथा दूषित होना, ध्वनि-प्रदूषण, रेडियोधर्मी विकिरण का बढ़ना आदि समस्याएं मुख्य हैं, इनके कारण पृथ्वी का पर्यावरण संतुलन छिन्न-भिन्न हो गया है। पिछली दो सदी में वायु में कार्बन डाइऑक्साइड के घनत्व में 25 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है, जो पृथ्वी के गर्म होने का मुख्य कारण है।

ऐसा नहीं है कि पृथ्वी पर किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता है। होता है, क्योंकि पृथ्वी गतिमान है तथा आकाश मे अन्य खगोलीय पिंडों के साथ घूम रही है। इस कारण परिवर्तन निश्चित है। व्यापक दृष्टि से देखा जाए तो संसार में सभी कुछ परिवर्तनशील है और इसी परिवर्तन से जीवन है। परंतु गति के कारण, पृथ्वी पर परिवर्तन का प्रभाव हजारों वर्षों में दिखलाई पड़ता है, जैसे समुद्र के जल-स्तर में वृद्धि, पृथ्वी के तापमान में वृद्धि, ध्रुवों की स्थिति में परिवर्तन आदि। वैसे तो 5000 से 7000 वर्षों में पृथ्वी पर 1 डिग्री सेल्सियस ताप में वृद्धि होती है, परंतु यदि यह परिवर्तन सौ या पचास वर्ष के अंतराल में होने लगे तो प्राणियों को उस परिवर्तन के अनुकूल ढालना कठिन हो जाएगा।

पृथ्वी द्वारा आकाशीय पिंडों की सहायता या अपनी अंतर्निहित शक्ति से इस असंतुलन को संतुलित करने की कोशिश में, भयंकर तूफान, भूकंप, ज्वालामुखी का फटना, अति/अनावृष्टि का होना आदि निश्चित है। परंतु पृथ्वी द्वारा इस असंतुलन को संतुलित करने की प्रक्रिया में जीवन का नष्ट होना, धन व संपदा की हानि, नदी का मार्ग बदलना, अन्न की पैदावार में कमी होना या ऐसी संक्रामक बीमारियों का फैलना, जो निश्चित ही किसी भी सभ्यता के लिए घातक है, का होना भी अवश्यंभावी है।

यदि हम कल्पना करें कि अपनी गति एवं जीवन के साथ-साथ पृथ्वी प्राणवान भी है, जैसे-तेज, मंद एवं तूफानी हवाएं उसकी सांस हों, नदियां उसकी रक्तवाहिनी हों, लहराता हुआ महासागर उसका दिल हो, हिमालय-सा उन्नत पर्वत उसका मुख हो तथा अन्य पर्वत उसके हाथ-पैर और झीलें उसकी आँखें हों तथा पेड़ पौधे उसकी रोमावलियां या फिर कल्पना करें, यदि ऐसे विशाल मनुष्य की आंखें निस्तेज कर दी जाएं, धमनियों में अशुद्ध रक्त का प्रवाह होने लगे या कुछ धमनियां बंद अथवा सकरी कर दी जाएं, उसके शरीर का अंग-भंग करने का निरंतर प्रयास किया जाए तथा उसकी रोमावलियां नोच ली जाएं तो ऐसा प्राणी कितना कुरूप लगेगा? ऐसा रुग्ण व्यक्ति यदि दुःख से कहरेगा तो आपका हृदय भी पसीज उठेगा। फिर पृथ्वी के साथ इतना अमानवीय व्यवहार क्यों? जबकि यह वसुंधरा, मां की तरह प्रत्येक जीव का पोषण करती है। इस पृथ्वी ने सभी प्राणियों के लिए भोजन, औषधि, वस्त्र आदि दिए हैं, मन को लुभाने वाले सुंदर फूल और स्वादिष्ट फल मौसम के अनुरूप जाड़े में गूदेदार तथा गर्मी में रसदार फल। ऐसा कौन है, जो पृथ्वी का ऋणी नहीं है? क्या हमारा यह कर्तव्य नहीं कि हम पृथ्वी को सुंदर एवं रहने लायक रहने दें?

किसी भी प्राणी के शरीर में ज्वर होने से या रोग-ग्रस्त होने से जो प्रभाव उसकी शक्ति पर पड़ता है, वहीं प्रभाव पृथ्वी का ताप बढ़ने पर होगा। जिन पंच-तत्वों से पृथ्वी का निर्माण हुआ है, उससे ही हमारा शरीर बना है। यदि पृथ्वी में असंतुलन होगा तो हमारा शरीर भी असंतुलित होकर बीमार पड़ जाएगा। जैसे बीमार मां अपने बच्चे का ठीक से पोषण नहीं कर सकती, वैसे ही वसुंधरा बीमार होकर जीवनदान देने में असमर्थ होगी, उसकी यह असमर्थता पृथ्वी पर जीवन को नष्ट होने से नहीं रोक सकती। सामान्यतया अधिक परिवर्तन होने पर पशु-पक्षी अपना स्थान बदल लेते हैं। स्थान परिवर्तन उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग है, किंतु मनुष्य के लिए कई कारणों से यह संभव नहीं है। मनुष्य के लिए प्रकृति के अनुरूप अपने को ढालना ही समस्या का समाधान है। किंतु व्यापक बदलाव के कारण शरीर तदनुसार ढल नहीं पाता। सामान्यतया ऊँचे पहाड़ी स्थान पर जाने पर शरीर को प्रकृति के अनुरूप ढालने की सलाह दी जाती है। इसीलिए यह कहावत भी कही गई है, ‘लामा की भूमि पर गामा मत बनो’।

मानव द्वारा तैयार वे समस्त वैज्ञानिक उपकरण, जिस पर उसे गर्व है, वे कुछ चंद लोगों की जान तो बचा सकते हैं, किंतु न तो वह संपूर्ण मानव-जाति की समस्या का हल बन सकते हैं और न प्रकृति के बदलाव को रोक सकते हैं। बस चंद लोगों को आलू की तरह शीतगृह में सुरक्षित रख सकता है, जब तक कि बिजली का उत्पादन संभव है, किंतु कितने दिन?

मानव स्वभाव से स्वार्थी है, वह सभी वस्तुओं को अपने ऐश्वर्य, विलासिता एवं अहम के लिए प्राप्त करना चाहता है। मनुष्य ने अपनी बुद्धि के बल पर इसमें सफलता प्राप्त कर ली है, यहां तक कि उसके पांव चंद्रमा तक पहुंच चुके हैं और मंगल पर जाने की तैयारी में लगा हुआ है। अपने इसी गुण के कारण उसने पृथ्वी को अपना दास समझ लिया है। यह किसी भी सभ्यता के लिए पतन की पहली सीढ़ी है। क्या बुद्धिमान कहा जाने वाला मानव, समाज का और अपना ही दुश्मन है? क्या उसका ज्ञान सीमित है या वह आगे आने वाली पीढ़ी के प्रति अपना कोई दायित्व नहीं मानता? या वह ऐसी कठिनाई के दौर से गुजर रहा है कि उसके सामने कोई विकल्प नहीं? या वह प्रकृति का स्वामी बनना चाहता है? या आत्माघात करना चाहता है? यह उसे समझना होगा।

किंतु शायद पृथ्वी पर बढ़ती हुई आबादी सभी वस्तुओं को किसी भी कीमत पर प्राप्त करने की ललक, स्वार्थ, जिद, मनुष्य द्वारा मनुष्य को जीतने की चाह, प्रकृति का विच्छेदन एवं विश्लेषण कर समझने की कोशिश तथा पृथ्वी द्वारा सब कुछ प्राप्त करने की कोशिश ने तथा पृथ्वी से अपने को अलग समझने की भूल ने मनुष्य को ऐसी परिस्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है, जहां आगे बढ़ना दुष्कर और पीछे मुड़कर देखना आर्थिक दौड़ से बाहर दिखाई देता है।

आज से लाखों वर्ष पूर्व मनुष्य जंगलों में रहता था- पेड़ों, गुफाओं और चट्टानों से वह भोजन और घर दोनों प्राप्त करता था। परंतु उसके पास समय देखने के लिए घड़ी हवा का दबाव मापने के लिए दाबमापी नहीं था। फिर भी मनुष्य, पशु-पक्षियों की गतिविधियों तथा पेड़ों, कीड़े-मकोड़ों की गतिविधियों, हवा के रूख, समय का अंदाजा तथा पानी बरसने की संभावना को मालूम कर लेता था, यहां तक कि भूकंप आने का पूर्वानुमान पशु-पक्षियों की गतिविधियों से लगा लेता था, जिसके लिए आज बड़ी-बड़ी वैज्ञानिक विधियों द्वारा तैयार करोड़ों रुपए के यंत्र लगाकर जानने की कोशिश की जाती है।

समय के साथ-साथ मनुष्य ने जंगलों और गुफाओं को छोड़कर खेती करना तथा मकान बनाकर रहना शुरू किया, फिर भी जानवरों का सहयोग उपयोगिता के आधार पर प्राप्त किया। अग्नि की खोज ने मनुष्य के जीवन में क्रांति ला दी और सभ्यता का मार्ग वहीं से शुरू हुआ। मनुष्य द्वारा जानवरों को वश में करने के बाद, मनुष्य ने मनुष्य को वश में करने को कोशिश की और यहीं से सभ्यता का इतिहास शुरू हुआ। फिर शुरू हुई किले-बंदी, समूह का गठन, सीमा-रेखा, राजा-प्रजा, धन की व्यवस्था, सुरक्षा के तरीके, शासन-प्रणाली और अपने को मजबूत करने की होड़ ने मनुष्य द्वारा हथियारों के लिए पत्थरों से लेकर तांबा, लोहा, पीतल, कांसा आदि धातुओं का प्रयोग शुरू किया। समय ने करवट बदली, सुरक्षा के हथियार जैसे तीर-कमान, तलवार, कटार, भाले, बर्छी आदि ने अपना रूप बदला और उनकी जगह ली पिस्तौल, राइफल, बंदूक, तोप और मशीनगन ने तथा रथ, हाथी-घोड़ों का स्थान लिया ट्रक, जीप, मोटर साइकिल तथा टैंकों ने।

आज पूरे विश्व के वैज्ञानिक परंपरागत ऊर्जा के स्रोतों की कमी एवं उससे उत्पन्न प्रदूषण को रोकने के लिए ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों को उपयोग में लाने के लिए हुए है, जिनसे न प्रदूषण-वृद्धि की संभावना है और न उनके समाप्त होने की। इसके लिए शोध एवं विकास कार्यों में तीव्रता आई है और दूसरी ओर ऊर्जा के परंपरागत स्रोतों की उपयोगिता को समझते हुए ऊर्जा को पूर्ण क्षमता, मितव्ययता, उपयोगिता और वैज्ञानिक कुशलता के साथ प्रयोग में लाने की आवश्यकता पर भी बल दिया जा रहा है।सभ्यता को जिन चिन्हों द्वारा आज भी पहचाना जाता है, उन चिन्हों ने आधुनिक सभ्यता को सोचने पर विवश कर दिया। कला, साहित्य, संगीत, वास्तु-कला, भवन निर्माण तथा हस्तशिल्प से लेकर कुछ वैज्ञानिक उपलब्धियां ऐसी भी हैं, जिन्हें आज का वैज्ञानिक युग आश्चर्य से देखता है। मनुष्य ने हमेशा लड़-भिड़कर एक-दूसरे को समझने की कोशिश की है, दूसरे से ऊंचा सिद्ध करने की हवस, अपनी जीवन-पद्धति को दूसरे से अच्छा समझने की सोच ने बहुत बार जमीन को खून से रंगा है। फिर भी समय-समय पर ऐसे लोग हुए है, जैसे भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण, गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी, प्रभू यीशु, मोहम्मद साहब तथा महात्मा गांधी, जिन्होंने मानव समाज को प्रेम का संदेश दिया तथा पूरे संसार को सोचने-समझने के लिए नई दिशा दी।

आज का युग भौतिकवाद का युग है। मनुष्य अपने पास मौजूद भौतिक उपलब्धियों से पहचाना जाता है। इस युग की सबसे बड़ी उपलब्धि है, पूरे संसार को पास लाना और इसका कारण है तीव्रगामी वाहन, एक स्थान से दूसरे स्थान को देखने एवं बातचीत करने के साधन तथा सुरक्षित एवं सुख-सुविधा संपन्न रहने के स्थान तथा मार्ग, परंतु इसी के साथ घातक हथियार एवं विस्फोटक सामग्री भी इसकी उपलब्धि है, जिसका उपयोग कल्याण कार्य के लिए कम तथा एक-दूसरे को नष्ट करने के लिए अधिक हुआ है।

प्राकृतिक गैसों का उपयोग विद्युत ऊर्जा, उर्वरक तथा पेट्रो रसायन उद्योगों के लिए किया जाता है तथा घर के लिए भी ईंधन के रूप में मुख्य रूप से प्रयोग किया जा रहा है। रेडियोधर्मी तत्वों का उपयोग-विद्युत ऊर्जा, चिकित्सा, वैज्ञानिक उपकरण तथा आणविक हथियारों के अतिरिक्त तीव्रगामी सैनिक वाहनों में भी किया जाता है।

उपर्युक्त सभी ऊर्जा-पदार्थों से विद्युत ऊर्जा तैयार की जाती है। विद्युत का महत्व, अन्य ऊर्जाओं से उसकी उपयोगिता, सरल प्रेषण, सुलभ प्राप्ति और आवश्यकतानुसार वैभव को बढ़ाने तथा घटाने आदि के कारण है। इस कारण आज के युग के अधिकतम संसाधन विद्युत ऊर्जा पर आधारित है। आज के सुसंस्कृत समाज में विद्युत ऊर्जा की प्रति खपत उस देश की विकास का मापदंड है जो देश जितनी अधिक विद्युत ऊर्जा की खपत करता है, वह उतना ही विकसित माना जाता है, परंतु जिस तरह प्रति व्यक्ति विद्युत ऊर्जा की खपत बढ़ रही है, उससे जहां एक ओर प्रदूषण बढ़ रहा है, वहीं दूसरी ओर उनके स्रोतों में निरंतर कमी हो रही है, जो पूरे विश्व के वैज्ञानिकों के लिए चिंता का विषय बन गया है। इस सबके अतिरिक्त युद्ध के कारण एक ओर विस्फोटकों तथा दूसरी ओर तेल के कुओं में आग लगाने के कारण प्रदूषण में वृद्धि हो रही है।

विद्युत ऊर्जा बनाने के लिए प्रयुक्त कोयला, पेट्रोल एवं प्राकृतिक गैसों द्वारा निकला धुआं तथा शोर और आणविक भट्टी द्वारा तथा अन्य औद्योगिक इकाई द्वारा निकला अवशेष प्रकृति में वायु, ध्वनि एवं जल प्रदूषण को बढ़ाकर बीमारियों एवं असाध्य रोगों को जन्म दे रहे हैं। संसार की बढ़ती हुई आबादी के कारण खेती, घरेलू और औद्योगिक उपयोग के लिए लकड़ी काटने से वन-संपदाएं निरंतर कम हो रही हैं, जिससे प्रदूषण रोकने में यह सक्षम पेड़ हमारी सहायता नहीं कर पा रहे। मनुष्य द्वारा मांस खाने, उद्योग एवं सजावट के लिए जानवर की खाल टांगने के शौक ने शिकार खेलकर वन्य-जीवन को खतरे में डाल दिया है। इस कारण हमारी प्राकृतिक समस्याएं निरंतर बढ़ रही हैं। हमारी आगे आने वाली पीढ़ी परिस्थितिजन्य रोगों के निदान में प्राकृतिक साधनों के अभाव में निरंतर समस्याओं से जूझती रहेगी।

आज पूरे विश्व के वैज्ञानिक परंपरागत ऊर्जा के स्रोतों की कमी एवं उससे उत्पन्न प्रदूषण को रोकने के लिए ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों को उपयोग में लाने के लिए हुए है, जिनसे न प्रदूषण-वृद्धि की संभावना है और न उनके समाप्त होने की। इसके लिए शोध एवं विकास कार्यों में तीव्रता आई है और दूसरी ओर ऊर्जा के परंपरागत स्रोतों की उपयोगिता को समझते हुए ऊर्जा को पूर्ण क्षमता, मितव्ययता, उपयोगिता और वैज्ञानिक कुशलता के साथ प्रयोग में लाने की आवश्यकता पर भी बल दिया जा रहा है। इस पर शोध एवं विकास कार्यों के अतिरिक्त प्रचार तथा प्रसार तथा प्रत्येक स्तर पर शिक्षा की आवश्यकता है। ऊर्जा उपभोग के तरीके को ऊर्जा-संरक्षण कहते हैं। यदि ऊर्जा संरक्षण के कार्य में तत्परता एवं जन-साधारण का सहयोग मिलेगा तो पर्यावरण के बढ़ते असंतुलन में कमी लाई जा सकती है। साथ ही प्रदूषण को कम करके पर्यावरण में सुधार लाया जा सकता है। यदि यह कहा जाए कि ये एक-दूसरे के पूरक हैं तो अनुचित न होगा।

पूर्व में भी कई बार ऐसा हुआ है कि जब अपने क्रियाकलापों से मानव सभ्यताएं नष्ट हुई और उनकी संस्कृति, सभ्यता की लड़खड़ाती सीढ़ियों के साथ गिरकर जमीन पर ढेर हो गईं। लेकिन कहावत है कि ‘जहां चाह वहां राह’ प्रकृति की व्यापकताओं और उसकी अथाह शक्ति का अनुभव करने के फलस्वरूप भौतिक सुखों की कमी ने उन्हें पुनः सोचने पर विवश किया कि भविष्य में विकास का मार्ग अपने को प्रकृति के अनुरूप ढालने पर ही संभव है। हमारी भारतीय हिंदू सभ्यता एवं संस्कृति इसका जीता-जागता उदाहरण है। युग-परिवर्तन एवं प्रलय के बाद नए सिरे से नए तंत्र की स्थापना के लिए जिस प्रकार प्रकृति के अनुरूप ढालने का प्रयास भारतीय संस्कृति में किया गया, अन्यत्र ऐसा उदाहरण नहीं मिलता। कोई भी सभ्यता तभी सफल मानी जाती है, जब वह दूसरे से श्रेष्ठ दिखाई दे। श्रेष्ठता समय के साथ-साथ कम-ज्यादा हो सकती है, किंतु किसी भी सभ्यता के लंबे समय का इतिहास उसके सामाजिक संगठन, प्राकृतिक संसाधनों का मितव्ययिता के साथ सदुपयोग और प्रकृति से सामंजस्य स्थापित करने पर ही रह सकता है। भारतीय दर्शन, चिंतन, परंपरा और संस्कृति इस कसौटी पर खरे उतरते हैं अन्यथा हिंदू संस्कृति कभी की समाप्त हो चुकी होती। पूर्वजों ने पेड़ों, नदियों, पहाड़ों, मिट्टी, वायु, जल तथा पशु एवं पक्षियों को अपने ही परिवार का अंग समझा और सभी के प्राकृतिक गुणों को समझकर एक ऐसी संस्कृति की नींव डाली, जिसमें सभी की सहभागिता हो सके। पशुओं से प्रेम करने, प्रकृति को समझने, पेड़ों के सहयोग के प्रभाव को समझकर उनके प्रकृति-प्रदत्त गुणों का लाभ उठाने और प्रकृति एवं मानव में सामंजस्य स्थापित करने के लिए मानव ने स्वयं का अध्ययन कर तथा अन्य प्राकृतिक तत्वों का समावेश कर अपनी जीवन-पद्धति विकसित की।

पेड़-पौधे, पशु-पक्षी एवं वनों का महत्व समझाते हुए हिंदू-धर्म में स्वस्थ जीवन निर्वाह के चार आश्रमों की नींव डाली गई और इस प्रकार चार आश्रमों में दो-ब्रह्मचर्य तथा संन्यास-दोनों का वन में रहकर ही पालन किया जाता था। इतना ही नहीं वानप्रस्थ आश्रम वन की ओर प्रस्थान करने वाला आश्रम हैं, जिसमें धन-धान्य का संग्रह करना वर्जित था। मात्र गृहस्थ- आश्रम उपभोग के लिए पूर्ण रूप से स्वतंत्र था। इसका सीधा अर्थ हुआ कि जीवन का 25 प्रतिशत भाग ही पूरी सामाजिक व्यवस्था की धुरी था, जो भौतिक सुखों के लिए सभी सुख-सुविधाओं का उपभोग कर सकता था। यदि कोई व्यक्ति अपने जीवन का 50 प्रतिशत जीवन जंगल में बिताएगा तो जंगल को काटने का अव्यावहारिक निर्णय कभी नहीं ले सकता, साथ ही और अधिक पेड़ लगाएगा और पशु-पक्षियों को समझने की कोशिश भी करेगा। घर के आगे नीम का पेड़ लगाना, चौबारे या चौराहे पर पाकड़, पीपल और बरगद का पेड़ लगाना हिंदू संस्कृति का अंग है। अभी भी पेड़ों को काटना उचित नहीं माना जाता। यहां तक कि आवश्यकता पड़ने पर ही पेड़ों की पूजा करके उसे काटा जाता हैं ताकि कम–से–कम पेड़ों के काटने की आवश्यकता पड़े। पीपल, वट, आंवला, आम और नीम की पूजा, तुलसी का पौधा घर में लगाना आदि महत्वपूर्ण कार्य मात्र ज्ञान और विज्ञान का समाज के लिए सुलभतम उपयोग है, क्योंकि हम चिकित्सा-उपयोगी पौधों एवं पेड़ों के विभिन्न भागों का प्राकृतिक रूप से प्रयोग करने में विश्वास रखते हैं न कि पेस्ट बनाकर ट्यूब में भरकर बेचने में। अन्य सभ्यताओं से विपरीत हिंदू-संस्कृति की धारणा मानव की सेवा करना था, उसे वाणिज्यिक रूप देने की नहीं।

इसी कारण गांव-गांव में, लोगों को विभिन्न पेड़-पौधों के फूल-पत्ती, जड़, छाल आदि का उपयोग चिकित्सा हेतु करना आता था। यह परंपरा पैतृक धरोहर के रूप में समाज में जीवित है, किंतु मूल वैज्ञानिक तथ्यों को न जानने एवं परीक्षण (टेस्ट) के लिए विकसित प्रणाली न होने एवं उनका प्रयोगशाला-परीक्षण न होने पाने के कारण अब उनका उपयोग प्रतिदिन कम होता जा रहा है।

गीता का यह श्लोकांश ‘अश्वत्थः सर्ववृक्षाणाम्...वृक्षों की पर्यावरण को संतुलित रखने की महती भूमिका को रेखांकित करने का सजीव उदाहरण है कि वृक्षों में भी जीवन है।

गीता में भगवान् कृष्ण का कथन है कि वृक्षों में मैं पीपल हूं और मत्स्य पुराण में पेड़ों को पुत्रों की संख्या से अभिहित करना पेड़ों के महत्व को स्पष्ट करते हैं। हमारी संस्कृति में नीम को पूर्ण चिकित्सक, आंवले को पूर्ण भोजन, पीपल को शुद्ध वायुदात्री, पाकड़ और वट के युग्म वृक्षों को जल संग्राहक एवं वट को पूर्ण घर माना गया है। भारतीय संस्कृति में त्योहारों का विशेष महत्व है। अपनी प्राचीन एवं पारंपरिक संस्कृति को जानने के साथ-साथ विभिन्न त्योहारों में वट, पीपल, नीम, आम के पेड़ों, केला एवं तुलसी के पौधे की पूजा तथा गाय, कुत्ता, चिड़ियों यहां तक कि कौवों आदि को भोजन खिलाना हमारी संस्कृति का अंग है। यह हमारी प्रकृति एवं मनुष्य के विभिन्न सहभागियों के प्रति जागरूकता का द्योतक है। नदियों एवं पहाड़ों का मानवीयकरण करके हमने उसमें जीवंतता ही नहीं पैदा की वरन् उन्हें अपना हिस्सा बनाया।

प्रकृति से सामंजस्य स्थापित कर जीवनयापन करने के लिए आध्यात्मिकता को अपने जीवन का अंग बनाकर प्रकृति से केवल आवश्यकता भर प्राप्त करने का मूल-मंत्र हमने सीखा है। इस कारण विभिन्न धर्मों-सनातन, जैन एवं बौद्ध धर्म में अन्न को बर्बाद होने से रोकना, अधिक अन्न का संग्रह न करना, अपने शरीर को प्रकृति के अनुरूप ढालना, स्वस्थ शरीर के लिए शुद्ध जल एवं वायु पर निर्भर रहना, पशु-पक्षियों के साथ रहना एवं उनवके प्रति करुणा का भाव रखना आदि पर विशेष जोर दिया गया।

सामान्य मानता है कि विज्ञान जहां समाप्त होता है, अध्यात्म वहां से प्रारंभ होता है, किंतु ऐसा नहीं है। यदि हम ध्यान में देखें तो विज्ञान और अध्यात्म एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। हां, यह सही है कि दोनों के दृष्टिकोण एक-दूसरे के विपरीत हैं। इस कारण विज्ञान और अध्यात्म एक-दूसरे से दूर दिखाई देते हैं। विज्ञान भौतिक सुख-सुविधाएं आप तक उपलब्ध कराता है और आपके शरीर के अनुकूल वातावरण तैयार करता है, जैसे शरीर को सुखद लगने वाले ताप के लिए एयरकंडीशन का उपयोग, हवा के लिए पंखा, सुखद यात्रा के लिए वाहन का प्रयोग आदि। अध्यात्म द्वारा आप अपने शरीर को वातावरण के अनुकूल बनाते हैं, ताकि ताप के अंतर से आपको कष्ट का अनुभव न हो। अधिक ऊर्जा प्राप्त कर आप कठिन मार्ग पर चल सकें। अध्यात्म की यौगिक क्रिया द्वारा शरीर को हल्का करके उड़ना, यहां तक कि किसी भी स्थान पर ताप में बदलाव लाना, अध्यात्म के एक विशिष्ट अंग की तकनीक है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि विज्ञान और अध्यात्म एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

इन दोनों में विशेष अंतर है, जो प्रकृति और पर्यावरण से सीधा जुड़ा है। वैज्ञानिक तरीके से भौतिक सुखों को प्राप्त करने में प्रकृति में विकृति, प्रदूषण की वृद्धि, पर्यावरण में असंतुलन एवं प्रकृति के चक्रों में बाधा उत्पन्न होती है, जबकि अध्यात्म के मार्ग से जीवनयापन करने से प्रकृति से सामंजस्य स्थापित करना आवश्यक होता है। अतः प्रकृति का निर्बाध चक्र और पर्यावरण संतुलन दोनों ही संयोजित रहते हैं। अतः किसी भी कठिनाई का अनुभव नहीं होता। हां, इस पर चलने का कार्य कठिन अवश्य है, किंतु सुखद है।

अध्यात्म का एक और बड़ा गुण है-यौगिक क्रिया द्वारा अपने शरीर को स्वस्थ रखना, जो किसी भी जीवन के सुख का आधार होती है। विज्ञान यह सुख नहीं दे सकता, मात्र आप दवाओं के दास बनकर ही रह सकते हैं। कष्ट तो आपको उठाना ही पड़ेगा, कम या अधिक। अब या तो कठिन मार्ग से चलकर सुख उठाएं या सुखद मार्ग से चलकर कष्ट झेलें, इसका निर्णय मनुष्य को ही करना है। यही है अध्यात्म का लक्ष्य और भारतीय चिंतन का परम उद्देश्य।

विज्ञान के विभिन्न महत्वपूर्ण ज्ञान को जीवन में उतारना भी हमारे दर्शन का मुख्य उद्देश्य रहा है। दक्षिण एवं पूर्व की ओर सिर करके सोना, सूर्य नमस्कार, ध्यान, योग और पूजा द्वारा अपनी मानसिक शक्ति को दृढ़ करना आदि ऐसे तमाम क्रियाकलापों को जीवन का अंग बनाया गया, जिससे लोग कम-से-कम बीमारी का शिकार हो और समाज स्वस्थ हो। भगवान् दत्तात्रेय के 24 गुरुओं में 11 पशु-पक्षी, 5 मनुष्य, 5 प्रकृति के पंचतत्व तथा समुद्र, सूर्य और चंद्रमा थे, इसी कारण ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ हिंदू दर्शन का महत्वपूर्ण अंग है। कबूतर, अजगर, पतंग, भौंरा, मधुमक्खी, हाथी, हिरण, मछली, कुररी पक्षी, सर्प, मकड़ी, भृड़ीकीट, शहद निकालने वाला, पिंग्ला, वेश्या, बालक, कुंवारी कन्या, बाण चलाने वाला, वायु, आकाश, जल, अग्नि, चंद्रमा, सूर्य और समुद्र।

अधिशासी अभियंता, उत्तर प्रदेश जल विद्युत निगम लि., लखनऊ

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