पर्यावरण अध्ययन की अनुशासनात्मक प्रकृति, क्षेत्र तथा महत्व

प्रदूषण पर्यावरण का नहीं, परंतु मनुष्य के मस्तिष्क से निकला आग का गोला है, जो अपनी गर्माहट से प्यारी धरती की प्यास बढ़ा रहा है। जरूरत है, मनुष्य को अपने विचारों में बदलाव लाने की। जीवन तो चल ही रहा है और आगे भी चल ही जाएगा, परंतु लक्ष्य होना चाहिए कि आगे की पीढ़ी को स्वच्छ सृष्टि दी जाए, न कि प्रदूषण की गोद, जिससे वह चाहे भी तो न उबर पाए। अगर हर मनुष्य अपने हिस्से का कार्य पूर्ण आस्था, निष्ठा और प्रतिष्ठा के साथ करे तो वह धरती में प्रदूषण से बढ़ी प्यास को अपनी सोच की बारिश से बुझा सकता है। ‘प्रदुषण’ का शाब्दिक अर्थ है मालिन्य या दूषित करना। प्रदूषण की सही मायने में परिभाषा उसके शाब्दिक अर्थ से अधिक गहरी तथा विचारणीय है। प्रदूषण एक मानव निर्मित कृत्य है, न केवल उसके परिवेश, बल्कि स्वयं उसकी अंतरात्मा को दूषित करता है। प्रदूषण इसलिए एक ऐसा अहम् मुद्दा है, जिस पर पर्याप्त अध्ययन एवं चिंतन की आवश्यकता है।

प्रतिदिन अखबारों में, किताबों में, पुस्तिकाओं में हम पर्यावरण संबंधी विशेष सामग्री तथा प्रदूषण से जुड़ा बेहद संगीन लेख पढ़ते रहते हैं, परंतु हर मनुष्य यह अवश्य जानता है कि वह जिन आंकड़ों तथा प्रभावों को पढ़ रहा है, वे सिर्फ असलियत का एक हिस्सा है। मनुष्य एक ऐसा जीव है, जिस पर उसके आस-पास हो रहे बदलाव से असर तो पड़ता है, परंतु वह अपने विचारों को संकुचित कर आगे बढ़ने में विश्वास रखता है। इसलिए कह सकते हैं कि प्रदूषण मानव के मस्तिष्क की उपज है, जिसकी रचना करके वह अपने जीवन के भविष्य की तरफ गतिमान हो चुका है। धरती स्वयं वर्तुलाकार है और सूर्य के चारों ओर एक चक्राकार पथ पर घूमती है, परंतु इस गति के साथ-साथ वह मानव-निर्मित चक्रव्यूह में फंसती चली जा रही है। इस चक्रव्यूह में धरती माता को न कवल शारीरिक किंतु आत्मिक विपदाओं से भी युद्ध करना पड़ रहा है, क्योंकि एक मां का स्वयं के पुत्रों को एक प्रतिद्वंदी के रूप में देखना आंतरिक आघात है।

इस लेख में भी आंकड़ों, विभिन्न क्षेत्रों में हो रहे विभिन्न प्रकार के प्रदूषण, प्रदूषण से उत्पन्न हो रही जटिल समस्याएं और व्यवधान, प्रदूषण से हो रही बीमारियों इत्यादि अनेक प्रकार की चीजों का व्याख्यान किया जा सकता है, परंतु अहम् विषय-वस्तु प्रदूषण है, जो केवल मनुष्य के आस-पास हो रहे प्रदूषण से ही नहीं, बल्कि हृदय से जुड़े तारों से भी संबंध रखती है। मनुष्य का जीवन तीन अहम् भूमिकाओं से बना है-आस्था, निष्ठा और प्रतिष्ठा, जिसके लिए वह किसी भी हद तक जा सकता है।

‘आस्था’ इंसान के जीवन में लयबद्धता लाती है। उसे जिस कार्य पर पूर्णतः विश्वास रहता है, वह उस कार्य को पूरी जीवटता से करता है। आस्था मनुष्य के विश्वास को प्रतिबिंबित करता है, चाहे वह परमपिता पर ही क्यों न हो। आस्तिकता का प्रतीक हो या अन्य कोई और वस्तु हो, परंतु मनुष्य यह भूल जाता है कि क्या आस्था अंधी तो नहीं? वह उसे एक ऐसे अंधकार में तो नहीं डाल रही, जहां रोशनी की उम्मीद भी नहीं? यह एक राक्षसी हंसी तो नहीं, जो अधर्मी बोलों से उसे आकर्षित तो नहीं कर रही? क्या वह आस्था के नाम पर प्रदूषण के सागर में गोते तो नहीं लगा रहा? दैविक भक्ति मनुष्य जाति की एक तरह की आस्था है, परंतु इसी ईश्वरीय भक्ति से वह पर्यावरण को हानि पहुंचा रहा है। अखंड विश्व में भक्ति का आवरण है ही। वह जन्म से मृत्यु तक का सफर परमात्मा के समक्ष शीश झुकाकार प्रारंभ तथा अंत तक किया करता है। परंतु इस यात्रा में यात्रीगण अवश्य ही भूल जाते हैं कि वह प्राकृतिक संपदाओं को नष्ट कर रहे हैं, जैसे शिशु के इस धरती पर जन्म लेते ही माता-पिता की सारी आकांक्षाएं उससे जुड़ जाती हैं, वे दोनों उसकी हर इच्छा सम्मानीय रूप से पूरा करना चाहते हैं, जिसमें हर उम्र के अनुरूप उसे हर वह चीज का उपभोग कराया जाता है, जो उसके लिए आवश्यक भी नहीं है। जैसे खेल-कूद की उम्र में नन्हें हाथों में वीडियो गेम, इलेक्ट्रॉनिक साइकिल पकड़ा दी जाती है, जो ऊर्जा को नष्ट कर रही है। मनुष्य के मस्तिष्क में अनेक न्यूट्रान कोशिकाएं हैं, जिनका क्षय होता है। इसके कारण दादी की कहानी से जो ऊर्जा प्राप्त होती है, इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के कारण न्यूट्रॉन बढ़ने की बजाए घटते जाते हैं, जिससे याददाश्त कम होती जाती है। बारह-तेरह वर्ष की उम्र में बच्चों को मोटर साइकिल दे दी जाती है, जो न केवल दूषित धुएं का स्रोत है तथा हादसों का एक कारण भी है। खैर, यह सब माता-पिता की इच्छाएं एवं आस्था को तो नहीं दर्शाती, परंतु अवश्य ही प्रदूषण के विभिन्न कारणों में से एक हैं। आस्था को ईश्वरीय भक्ति का नाम देकर ऐसे उपभोग किया जाता है, जैसे, शिशु के जन्म के उपरांत माता-पिता यज्ञ तथा हवन करने में विश्वास रखते, दिखावे के स्वरूप वृहद मात्रा में भोजन कराने हेतु सैकड़ों लोगों को आमंत्रित करते हैं। हवन में पेड़ों की काटी हुई लकड़ियों तथा भोजन में व्यर्थ का अनाज नष्ट होता है। क्या यह एक तरह का प्रदूषण नहीं, जो आस्था के नाम पर शिशु के कोमल भावों से नाता बताकर धरती को दूषित कर रहा है? क्या यह अंतरात्मा का प्रदूषण नहीं, जो यह चीख-चीखकर कह रहा है कि इस दिखावे के आडंबर को रोको।

क्या हमने सोचा है कि ‘बफे’ प्रक्रिया में भोजन कैसे किया जाता है? क्या मनुष्य अपनी इस पातकी सोच का प्रदूषण नहीं बना रहा? शिशु जन्म की तो अपनी ही एक आस्था है, परंतु मृत्यु तो दुःख का प्रतिरूप है, परंतु मानव इस पर भी आस्था का रंग लगाकर एक अद्भुत तस्वीर बनाकर नीलामी के लिए पेश कर देता है। भारतीय समाज में पुत्र का पिता की मृत्यु के पश्चात् संपत्ति पर अधिकार होता है। परंतु उस संपत्ति का अधिकार पाने हेतु वह कोर्ट-कचहरी के इतने चक्कर लगाता है मानों स्वयं का जीवन में लक्ष्य ही नहीं कि स्वयं वह अपने खर्चे उठा सके, लेकिन कोर्ट-कचहरी की फीस चुकाना अनिवार्य है। क्या यह एक आंतरिक प्रदूषण नहीं, जो पिता-पुत्र के पवित्र संबंधों को दूषित कर रहा है। मृत्यु भी पर्यावरण को दूषित करने में पूर्ण सहभागी है। हिंदुओं के विभिन्न धर्म ग्रंथों में यह लिखित रूप से मौजूद है कि मृतक की चिता जलाकर उसकी अस्थियों को गंगा के पवित्र जल में विसर्जित किया जाए। आज भारत देश की जीवन गंगा मैया का नीर जो अतृप्त आत्मा को पवित्र कर स्वर्ग का पथ-प्रदर्शक है, इतना विषैला हो चुका है कि स्वयं मनुष्य ही उसके प्रयोग से स्वर्ग का आधा रास्ता तय कर लेता है। नवरात्रि के पावन पर्व पर जहां आस्था हर मनुष्य के हृदय में बहती रहती है, वह प्रदूषण का साक्षी बना रही है। हजारों की संख्या में ज्योति जलाकर देवी मां अर्पित की जाती हैं। इन दीयों में क्या सचमुच शुद्ध तेल का उपयोग किया जाता है, जिससे पर्यावरण को स्वच्छ किया जाए। यदि एक बार मान भी लिया जाए कि दीयों से हुई रोशनी में शुद्ध तेल का उपयोग किया जाता है, परंतु क्या वह तेल जो आम आदमी में वितरित किया जाता है, भोजन बनाने हेतु, वह दीपों में इस्तेमाल किए गए हजारों लीटर तेल की ही भांति अस्वच्छ व विषैला नहीं है। कहां से आता है इतनी कम उपज तैलीय पदार्थों से हाजारों लीटर तेल? क्या यह विचारणीय प्रश्न नहीं है कि जिस देश में कुछ जीवन दो वक्त की रोटी को तरसते हैं, वहां इंसान आस्था का सहारा लेकर हजारों की संख्या में खाद्य पदार्थों का नाश कर दिया जाता है? क्या यह प्रदूषण को प्रतिबिंबित करता एक दर्पण नहीं है। भगवान पर चढ़ाए गए आस्था के फूल जब मुरझाकर खराब हो जाते हैं तो उन्हें भी पवित्र नदी में विसर्जित कर दिया जाता है। ऐसी आस्था का क्या लाभ जो पर्यावरण को हानि के गर्त में पहुंचा रही हो। क्या इस अंधी आस्था के लिए मनुष्य स्वयं जिम्मेदार नहीं? क्या उसे सदियों से चली आ रही व्यर्थ की परंपराओं और दिखावे के बंधन से उत्पन्न हुए प्रदूषण को दूर नहीं करना चाहिए। क्या पर्यावरण से प्रदूषण दूर करने से पहले इस आस्था के नाम पर अपने हृदय में बसे प्रदूषण को मनुष्य को स्वच्छ नहीं करना चाहिए? ऐसे अनेक प्रश्न हमें मनुष्य जीवन की दूसरी भूमिका के समक्ष लाकर खड़ा करते हैं।

मनुष्य-जीवन की दूसरी भूमिका है ‘निष्ठा’। निष्ठा मानव को कर्मठ बनाती है। अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठा रखने वाला व्यक्ति हमेशा अपने जीवन में अग्रसर रहता है। परंतु प्रश्न यह है कि कर्तव्य निष्ठा सच के प्रति है या झूठ के प्रति? यह निष्ठा पर एक प्रश्नचिन्ह लगा देता है। प्रदूषण के हाथ निष्ठा तक भी पहुंच चुके हैं और निष्ठा भी अछूती नहीं रही है। मनुष्य हमेशा अपनी कल्पनाओं की उड़ान भरना चाहता है तथा अपनी कर्मठता तथा कर्तव्यनिष्ठा उसी दिशा में और पूरी शक्ति के साथ लगाना चाहता है। परंतु हमेशा वह संभव नहीं है।

पथ में आई कठिनाइयों से मनुष्य अपने सच के पथ पर से दिग्भ्रमित हो जाता है और प्रदूषण के आगोश में चला जाता है। अनेक कार्य हैं जहां मानव अपनी गतिमान बुद्धि तथा तंदुरुस्त शरीर का पूरा उपयोग करता है, परंतु आज के इस भागमभाग जीवन में जहां सांस लेने को इंसान को फुर्सत नहीं, वहां कर्तव्यनिष्ठा का भाषण महज एक चुटकुला लगता है।

समय का इतनी तेज गति से चलना मनुष्य जीवन की सच्चाई, प्रेम, विश्वास से जुड़ी इच्छाओं और सपनों को रौंदता चला जा रहा है और इन्हीं कारणों से मनुष्य को स्वार्थ लोलुपता, बाह्य आडंबर, असत्य, क्रोध, चिंता और आलस्य से बने प्रदूषण की शरण में जाना पड़ रहा है। आज के इस समाज में कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति को जीवन में क्या मिला है?

सिर्फ कार्यभार का बोझ, जो उसकी कमर पर लाद दिया गया है, जिसे उसकी कमजोर पीठ उठा भी नहीं पा रही। सरकारी मेजों पर सालों से बंद पड़ी फाइलें जो कर्तव्यनिष्ठा अफसरों की पदोन्नति की सूची रखतीं, आज धूल खा रही हैं। लोग फाइलों में नियमानुसार कार्य करने के बदले कवि-लेखक बन गए हैं। बिलासपुर जिले में एक श्रम न्यायालय के मजिस्ट्रेट एवं एक कमिश्नर ऐसे हुआ करते थे, जो न्याय-कार्य में कम समय देते तथा किताबें ज्यादा लिखते थे।

संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत सामान्य से कम ईमानदार तथा नौसिखिए अफसर आरक्षण के नाम पर पदोन्नति के उपहार को ग्रहण करते जा रहे हैं। क्या यह प्रदूषण का एक हिस्सा नहीं? मूलतः प्रदूषण जो फैला हुआ है, वह मुद्राओं का एक घिनौना खेल है, जहां मनुष्य धन के वजन से, सामने वाले मनुष्य के मन तो तौल सकता है, वहां काम निकालकर आगे बढ़ सकता है।

अब तो ऐसी स्थिति आ चुकी है कि यदि कोई मनुष्य राजनीतिज्ञों के शरीर पर स्वर्ण की परत चढ़ाने की क्षमता रखता है, तभी वह सुखमय जीवन जीने की परिकल्पना कर सकता है। चाहे वह अपना कार्य पूर्णनिष्ठा से क्यों न करे। इस प्रदूषण को केवल सरकारी महकमें में गिनना गलत होगा, क्योंकि आज लगभग सारे क्षेत्र इस प्रदूषण से अछूते नहीं हैं।

सामर्थ्यवान व्यक्ति को भी अपनी योग्यता के अनुरूप फल प्राप्त नहीं होता, क्योंकि आज ‘निष्ठा’ चाटुकारिता करने में तथा चापलूसी करने की साक्षरता मांगती है। केवल भारत को ही लोकतांत्रिक व्यवस्था से प्रदूषित हुए इस निष्ठा के प्रदूषण का भागीदार नहीं गिना जा सकता, चीन, पाकिस्तान, थाईलैंड इत्यादि भी इस प्रदूषण को फैलाने के उतने ही जिम्मेदार हैं। चीन में हड़ताल एवं बंद की सख्त मनाही है, इसलिए वहां के मजदूर किसी भी वस्तु का इतना निर्माण करते हैं कि जिसको रखने तक की भूमि कमी पड़ जाती है। इलेक्ट्रानिक सामान इतने घटिया, जिसे उत्मता का बनाकर भारतीय बाजार में बेचते हैं कि न वह इस्तेमाल किया जा सकता है और न ही नष्ट किया जा सकता है।

ऐसी कर्तव्यनिष्ठा भी किस काम की, जो प्रदूषण के लिए जिम्मेदार है। निष्ठा की कोख में प्रदूषण का पनपना मनुष्य जाति के कर्मों का ही फल है। अन्य देशों में हो रहे प्रदूषण को एक दरकिनार कर भारत की आंतरिक परिस्थिति को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति के पेशे पर हमेशा धर्म और समाज की बेड़िया पहना दी जाती हैं (नाई का बेटा नाई, बढ़ाई का बेटा बढ़ई)। इसका उदाहरण दिया जा सकता है कि कुछ समय पूर्व ‘बाबा रामदेव’ पर यह आरोप लगाए गए कि पतंजलि योगपीठ में बनी औषधियों में मानव-हड्डी का उपयोग होकर ‘हड्डी भस्म’ बनाई जा रही है, इस आरोप से पर्यावरण प्रेमीजन विचलित हुए होंगे, लेकिन सोचा गया कि गाय को माता के रूप में देखते हुए जिसका हर अंग (विसर्जित भी) स्वयं में एक औषधि है।

गाय की हड्डियां कैल्शियम की अच्छी स्रोत मानी गई हैं तो मानव हड्डी भी तो कैल्शियम का अच्छा स्रोत हो सकती हैं, लेकिन मानव द्वारा मानव को खा जाने की प्रक्रिया में देखा गया। उल्लेखनीय है कि राख से अच्छा सुपरफास्फेट बनता है। एक बहुत बड़े राजनेता द्वारा अपनी अंतिम इच्छा में व्यक्त किया गया था, उनकी मृत्यु के उपरांत उनके शरीर की राख भारत के दूर-दूर के खेतों में डाली जाए, जहां भारत माता निर्वासित है। स्व. प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल मृत्यु उपरांत भी जन-कल्याण के बारे में सोचते थे। पिछले दिनों समाचार-पत्रों में पढ़ा कि एक प्रेफेसर, जो राजनीति में प्रवेश कर मंत्री पद पर आसीन रहे, के द्वारा अपना मृत शरीर मेडिकल कॉलेज में अध्ययन हेतु दान कर दिया गया है। क्या मानव-कल्याण के लिए मृत शरीर का उपयोग नहीं करना चाहिए?
क्या देश/मानव जाति के लिए इस निष्ठा का हमें सम्मान नहीं करना चाहिए? पक्ष-विपक्ष, धर्म-अधर्म के नाम पर मनुष्य सामाजिक हितों को भूलकर केवल स्वार्थलिप्सा का सौंदर्यीकरण करेगा तो क्या प्रदूषण को दूर कर सकेगा? अतः यह कहा जा सकता है कि निष्ठा का बेहद गहरा संबंध धन से है, चाहे वह बनाने में उपयोग हो या बिगाड़ने में। क्या निष्ठा का सहारा लेकर यह हरी पत्ती की बेल प्रदूषण तक का रास्ता नहीं बना रही है? क्या मनुष्य का अपने कर्म के प्रति परित्याग व्यर्थ है? क्योंकि वह देश के रखवाले कहलाने वाले छलियों की तिजोरी भरने में अक्षम्य है? क्या अंतरात्मा के प्रदूषण का प्रकोप निष्ठा पर उतना ही पड़ रहा है, जितना आकाशीय बिजली का प्रकोप धरती पर रखी एक लौह वस्तु पर पड़ता है, इस तरह मनुष्य की आखिरी भूमिका के कपाट यहां खुलते हैं।

तीसरी तथा अंत की भूमिका है ‘प्रतिष्ठा’। प्रतिष्ठा मानव-जीवन की गरिमा को दर्शाती है। वह जितना गरिमामय जीवन जीना चाहता है, वह उतना ही अपनी सुख की गठरी भरता जाता है। एक समय तो ऐसा लगता है कि प्रतिष्ठा का प्रदूषण से दूर-दूर तक नाता नहीं है, परंतु यह पंक्ति अपनी जगह-सही व गलत दोनों है। प्रतिष्ठा मनुष्य का स्वयं के लिए भाव है, जो उसके आंतरिक मन में स्वयं ही पल्लवित होती है। इसी एक प्रतिष्ठा की तुलना वह सिर्फ स्वं के मान-सम्मान से करता है और यही वजह है कि प्रतिष्ठा भी प्रदूषण की उतनी ही भागीदारी बनती है, जितनी की ‘आस्था’ और ‘निष्ठा’।

किसी भी परिवेश में मनुष्य का पालन-पोषण हुआ हो, परंतु वह अपनी प्रतिष्ठा के लिए हमेशा सक्रिय रहता है। वह हमेशा मान-सम्मान के तीखे व्यंजन को चखने की चेष्टा जरूरत करता है, इसी वजह से वह प्रदूषण की ओर कदम बड़ाने लगता है। इसके अनेक उदाहरण जैसे, भारतीय परिवेश में गृह-निर्माण, हृहस्थाश्रण की महत्वपूर्ण उपयोगिता भी है और प्रतिष्ठा का प्रश्न भी है। भारतीय निवासी अनुपयोगिता के अनुरूप गृह-निर्माण किया करते हैं, रहना दो लोगों को, परंतु गृह इतना बड़ा कि पूरी फौज समा जाए। क्या यह भूमि, मजदूरी तथा निर्माण वस्तु का व्यर्थ का नाश नहीं है।

खैर, गृह निर्माण में कम-से-कम रहने का तो एक आसरा मिल जाता है, परंतु प्रतिष्ठा के नाम पर अनेक गाड़ियां खरीदी जा रही हैं, जिनमें पेट्रोल की खपत भी ज्यादा तथा धुएं से प्रदूषण सो अलग। प्रतिष्ठा के नाम पर गरीब पिता की पुत्री के विवाह को भी बाहरी आडंबरों से सजाना पड़ता है। झूठी प्रतिष्ठा के नाम पर दूल्हा लाखों के खर्चे की सूची बनवा लेता है, जिसको एक सरल नाम प्रदान किया जा चुका है ‘दहेज’। प्रतिष्ठा के नाम पर एक नेता अपनी आमदनी से कई गुना अधिक दर्जनों कारों की सवारी करता है तथा चुनाव में करोड़ों का गोरखधंधा करके कुर्सी के लालच से स्वयं को बचा नहीं पाता। ‘प्रतिष्ठा’ तो आजकल शायद शिशु मां की कोख से ही मन के भीतर उपजाकर आता है।

दूध मुहे बच्चे भी आजकल महंगी टॉफी, महंगी चॉकलेट इत्यादि की जिद अपने माता-पिता के समक्ष चाय-नाश्ते-सी परोस देते हैं। प्रतिष्ठा तो आजकल परिधानों से भी टपकती है। ब्रांड के नाम पर युवक-युवतियां अपने कपड़ों पर हजारों रुपए बर्बाद कर देते हैं, जबकि सस्ते से भी काम चलाया जा सकता है। प्रतिष्ठा भी इसी वजह से उतने ही अंक प्राप्त करती है, जितने प्रदूषण की परीक्षा में उत्तीर्ण होने हेतु आवश्यक हैं। यह तो दिनचर्या की प्रतिष्ठा है, जिसे मनुष्य ने आत्मसात् कर लिया है। प्रतिष्ठा से उत्पन्न प्रदूषण सिर्फ भारत में नहीं, परंतु अमेरिका, इंग्लैंड इत्यादि देशों को भी अपनी पोटली भरता है। अमेरिका सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा के कारण ही तो आज 9/11 के दुःख को झेल रहा है।

सिर्फ इस झूठी शान के कारण आतंकवादियों का निशाना अमेरिका की ओर है। विभिन्न बम धमाके, मानव का मानव से बैर, परमाणु हस्तक्षेप, अफगानिस्तान से युद्ध ईराक से युद्ध आदि यह सब प्रतिष्ठा के नाम पर तानाशाही सोच का नतीजा है। इस असत्य प्राण-प्रतिष्ठा से हुए दो विश्वयुद्ध तथा अनेक गृहयुद्धों से पर्यावरण का इतना नाश हुआ, जिसकी भरपाई आजतक हिरोशिमा और नागासाकीवासियों को करनी पड़ रही है। क्या यह प्रदूषण सागर में बोझिल हो रही डूबते सूर्य की लालिमा को दर्शाता है? क्या यह प्रदूषण धरती की अश्रुपूरित जीवन का व्याख्या नही करता? क्या प्रतिष्ठा का बोझ एक मासूम पुत्री और उसके निर्मल पिता पर सदियों तक रहेगा? क्या प्रतिष्ठा के नाम पर हुई निर्मम हत्याएं शहीदी का इंतजार करती रहेंगी? यह सब प्रदूषण से हाथ मिलाए मनुष्य के विभिन्न चेहरे हैं।

अंततः प्रदूषण पर्यावरण का नहीं, परंतु मनुष्य के मस्तिष्क से निकला आग का गोला है, जो अपनी गर्माहट से प्यारी धरती की प्यास बढ़ा रहा है। जरूरत है, मनुष्य को अपने विचारों में बदलाव लाने की। जीवन तो चल ही रहा है और आगे भी चल ही जाएगा, परंतु लक्ष्य होना चाहिए कि आगे की पीढ़ी को स्वच्छ सृष्टि दी जाए, न कि प्रदूषण की गोद, जिससे वह चाहे भी तो न उबर पाए। अगर हर मनुष्य अपने हिस्से का कार्य पूर्ण आस्था, निष्ठा और प्रतिष्ठा के साथ करे तो वह धरती में प्रदूषण से बढ़ी प्यास को अपनी सोच की बारिश से बुझा सकता है। जरूरत है सिर्फ एक नेक कदम की, जो परम् पिता के बंदों को परम् पिता के दिखाए पथ पर आगे बढ़ा सके। अगर मनुष्य ही घबराकर भयग्रसित हो जाएगा तो प्रदूषण रूपी हैवान से युद्ध कैसे करेगा? अंततः सिर्फ विश्वास की नींव पर मनुष्य को स्वच्छ जीवन का निर्माण करना चाहिए जिसमें वह यह प्रतिज्ञा ले कि वह प्रदूषण को परछाई भी अपने जीवन में नहीं पड़ने देगा तथा ईश्वरीय आराधना के साथ सुखमय जीवन की मजबूत बस्ती बनाएगा।

बी-14, नेहरू नगर, बिलासपुर (छ.ग.)

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