पर्वतीय विकास का चश्मा बदलिए

भारत डोगरा

पर्वतीय विकास की विसंगतियों की शुरुआत ही यहां से होती है कि इस अंचल को बाहरी असरदार लोगों ने या तो होटल के रूप में देखा है या संसाधनों के पिटारे के रूप में। अंगरेजों व राजे-रजवाड़ों के दिनों से लेकर आज तक यहां वनों की कटाई और खनिजों का दोहन बदस्तूर चलता रहा है। ऐसे पर्यटन स्थल बनते रहे, जो पहाड़ी लोगों से कटे हुए थे। इन वनों के साथ कितने गांव वासियों का अस्तित्व जुड़ा हुआ है, इससे ठेकेदारों या अधिकारियों को कोई मतलब नहीं रहा। खनन के जोरदार विस्फोटों से कुछ गांवों का जीवन खतरे में पड़ जाएगा, इसकी चिंता ठेकेदारों को नहीं थी। उन्हें तो अधिक से अधिक खनिज पहाड़ से खोदकर ले जाना था। पहले तो पेड़ काटकर होटल बनाए गए, फिर पर्यावरण संरक्षण का शोर मचा, तो शेर बचाने के नाम पर गांव वालों को वनों के आसपास से खदेड़ दिया। जब वन-खनन दोहन बहुत हो चुका, तो निर्माण कंपनियां व इंजीनियर सरकार की सहायता से बांध बनाकर ज्यादा बिजली पैदा करने की संभावना तलाशने लगे। उन्हें यह देखने की फुरसत नहीं है कि वहां कितनी पीढ़ियों की मेहनत से सीढ़ीदार खेत व फलदार बगीचे तैयार हुए हैं, बच्चों की तरह यहां के पेड़ों को बड़ा किया गया है। शायद उन्हें यह सब देखने का प्रशिक्षण भी नहीं मिला है।

पर्वतीय गांवों में परंपरागत आजीविका की स्थिति इतनी कठिन हो गई कि गांव वासियों को रोजगार की तलाश में बाहर जाना पड़ा। जब उनमें असंतोष बढ़ने लगा, तो बाहरी अभिजात लोगों के साथ स्थानीय असरदार वर्ग को भी दोहन-शोषण की पुरानी नीतियों के साथ जोड़ लिया गया। पुरखों के बनाए घरों के खंडहरों को कृत्रिम जलाशयों में डुबोकर जब इनके ऊपर से पर्यटन विभाग की रंगीन किश्ती गुजरने लगी, तो इन विकास की तालियों के बीच विस्थापितों की आहें दब गईं। इस विकृत विकास से पर्वतीय गांव वासियों का विस्थापन हुआ। साथ ही देश भर में बाढ़ व सूखे का संकट बढ़ने लगा। उत्तराखंड के पहाड़ों में बहुत तोड़-फोड़ और कटाव हो, तो नीचे के गंगा-यमुना के मैदानी क्षेत्रों में बाढ़ या सूखे का संकट खड़ा हो जाता है।

पानी के बड़े कृत्रिम जलाशय बनाने में अरबों रुपये खर्च किए जाते हैं। लेकिन इस तथ्य को भुला दिया जाता है कि पहाड़ों के चौड़ी पत्ती वाले स्थानीय प्रजातियों के पेड़ों की पर्याप्त संख्या वाले वन वास्तव में बहुत बडे़ प्राकृतिक जलाशय हैं। वे वर्षा के जल का भंडारण जमीन के नीचे करते हैं। वर्षा के अतिरिक्त जल का सरंक्षण कर जहां ये पर्वतीय वन बाढ़ का संकट कम करते हैं, वहीं बाद में शुष्क मौसम में इसे झरनों के माध्यम से नदियों में पहुंचाकर जल की कमी दूर करने में भी सहायक सिद्ध होते हैं। वहीं, पहाड़ों में अंधाधंुध खनन से भूस्खलन बढ़ने लगता है। बहुत-सा मलबा नदियों व जल स्त्रोतों में भी गिर जाता है। चूना पत्थर एक ऐसा खनिज है, जो जल का भंडार एकत्र कर रखने में बहुत सक्षम है।

यदि पर्वतीय गांव वासियों को टिकाऊ जीविका देने वाली नीतियां अपनाई जाएं, तो इससे मैदानी क्षेत्रों को भी सूखे-बाढ़ का संकट हल करने में मदद मिलेगी। पर्वतीय गांव वासियों की टिकाऊ आजीविका के लिए वनों को बचाना जरूरी है। विशेषकर, चारा देने व जल-मिट्टी संरक्षण में जो पेड़ अधिक सक्षम हैं, उन्हें बचाना होगा। खेती व पेयजल के लिए छोटी-छोटी पहाड़ी नदियों, झरनों व प्राकृतिक जल-स्त्रोतों की रक्षा जरूरी है। पर्यावरण बचाने के इस तरह के पर्वतीय प्रयास स्थानीय लोगों की जीविका का आधार हैं। ये नदियों के पानी का नियमन कर मैदानी इलाकों को भी राहत पंहुचाते हैं। हिमालय जैसी विशाल पर्वत श्रृंखला में घने वन होंगे, तो इसका समग्र असर जलवायु व वर्षा के लिए भी अच्छा होगा। ध्यान देने योग्य बात यह है कि वनों से तरह-तरह की लघु वनोपज प्राप्त करने, जड़ी-बूटी एकत्र करने और खेती व पशुपालन में टिकाऊ रोजगार उपलब्ध है, जबकि वन काटने व खनन में कुछ समय के लिए कम मात्रा में रोजगार प्राप्त होता है।

केंद्र सरकार को पर्वतीय वनों की रक्षा के लिए हिमालय क्षेत्र के राज्यों को विशेष अनुदान देना चाहिए। जैव-विविधता के संरक्षण के लिए तरह-तरह की परियोजनाएं आ ही रही हैं। ध्यान यह रखना है कि बायो डायवर्सिटी बचाने के इस कार्य को ऐसे किया जाए कि वह लोगों की टिकाऊ आजीविका की रक्षा से अच्छी तरह घुल-मिल जाए। दुर्भाग्यवश आजकल बायो डायवर्सिटी व वाइल्ड लाइफ के नाम पर बहुत-सा देशी-विदेशी धन ऐसी परियोजनाओं के लिए आ रहा है, जो लोगों को विस्थापित करती हैं। इनसे बचना होगा। युवाओं को गांव के पास ही जैव-विविधता संरक्षण, लघु व कुटीर स्तर के उद्यमों में पर्याप्त रोजगार के नए अवसर उपलब्ध होने चाहिए। लोक-संस्कृति व दस्तकारियों को बचाने के प्रयास होने चाहिए व इन्हें पर्यटन जैसे नए अवसरों से जोड़ना भी चाहिए।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार व सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

साभार – अमर उजाला

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