प्रतिक्रिया
दलित बस्तियां आजादी के छह दशक बाद भी कूड़े-करकट और गंदे पानी की नालियों से बदबदा रही हैं, वहां साफ-सफाई और शुद्ध हवा-पानी का कोई माकूल इंतजाम देखने को नहीं मिलता तो उसके लिए कौन जिम्मेवार है? वे प्रशासक जो शहर की अमीर बस्तियों में साफ-सफाई की चाक-चौबंद व्यवस्था रखते हैं, लेकिन उसी शहर के एक कोने पर आबाद सफाईकर्मियों की बस्ती की ओर मुंह उठा कर देखते भी नहीं। कारण कि ये दलित गरीब हैं जो आपकी पूंजीवादी सरकारों की प्राथमिकता में कभी आते नहीं। जिस व्यक्ति और जिस दल की गांधीवादी सिद्धांतों और मूल्यों में तनिक भी आस्था न रही हो, यकायक उसकी निष्ठा अगर गांधीवादी सफाई-कर्म में जग जाए, तो ऐसी निष्ठा पर संदेह क्योंकर न किया जाए। राजधानी दिल्ली के कश्मीरी दरवाजे वाली उसी हरिजन बस्ती और उसी वाल्मीकि मंदिर से प्रधानमंत्री ने सफाई अभियान की शुरुआत की, जहां कभी पूना पैक्ट के बाद गांधीजी आकर लगभग ढाई सौ दिन रहे थे। अछूत को हरिजन की संज्ञा देने वाले गांधीजी का यह हरिजन सेवा वाला कार्यक्रम दलितों को कांग्रेसी स्वाधीनता आंदोलन और हिंदू समाज से जोड़े रखने की मुहिम का हिस्सा था। पर साफ-सफाई जैसे अति महत्वपूर्ण कार्य को हेय दृष्टि से देखने वाला ब्राह्मणवादी हिंदू समाज आज भी सफाईकर्मियों और हरिजनों को सम्मान देने तैयार नहीं है।
आज भी एक राज्य के दलित मुख्यमंत्री के मंदिर प्रवेश से हिंदुओं का मंदिर अपवित्र हो जाता है। ब्रिटिश शासनकाल में आधुनिक भारतीय शहरों-महानगरों की स्थापना के साथ-साथ इन शहरों की सफाई-व्यवस्था के लिए आसपास के गांवों से दलितों को शहरों में लाकर दलित बस्तियां भी बसाई गईं। लेकिन शहरी प्रशासन द्वारा गांवों से खदेड़ कर शहर में बसाने पर भी दलित उस अपमान और अस्पृश्यता से मुक्ति न पा सके जो सामंती ग्रामीण भारत की कड़वी सच्चाई रही है।
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या प्रधानमंत्री इन शहरी सफाईकर्मियों और दलित बस्तियों की सुध लेने की तत्परता भी दिखाएंगे या सिर्फ शहरों की खूबसूरती में बदनुमा दाग बन रही इन दलित बस्तियों के मतों की राजनीति तक वे सीमित रहेंगे। अगर उनके प्रति प्रधानमंत्री संवेदनशील हैं, तो उन्हें पहले उनका जीवन-स्तर सुधारने का प्रयास करना चाहिए था। आजादी के बाद जहां दलित राजनीति अपना महत्त्व खोती गई, वहीं निजीकरण और उदारीकरण के वर्तमान दौर में सफाईकर्मियों का जीवन-स्तर दयनीय हो गया।
सैंतालीस के तुरंत बाद सफाई सेवा को अत्यावश्यक सेवाओं की सूची में डाल कर सफाईकर्मियों से हड़ताल का अधिकार छीन लिया गया। अब वे अपनी वाजिब मांगों को लेकर हड़ताल और काम रोको प्रदर्शन करने के भी हकदार न रहे। हालांकि सफाईकर्मी के पद पर होने वाली सरकारी नियुक्ति से आजीविका की सुरक्षा पैदा हुई थी और दलितों के जीवन-स्तर में भी कुछ सुधार आया था। लेकिन नगर पालकाएं और नगर निगम अपनी कमजोर आर्थिक स्थिति का हवाला देकर जानबूझ कर सफाईकर्मी के पद पर स्थाई नियुक्तियां करने से मुंह चुराते रहे हैं। उदाहरण के लिए, गौतम घोष की फिल्म ‘पार’ में कोलकता शहर में नगर निगम के अंदर अस्थाई पदों पर रखे गए दलितों के भयावह शोषण और बेरोजगारी का जिक्र आया है। और अब नब्बे के बाद निजीकरण की जो सर्वभक्षी आंधी चल रही है, उसने तो साफ-सफाई करने वाली जातियों को एकदम हाशिये पर ही ला पटका है। नगर पालिकाएं और नगर निगम आदि निकाय साफ-सफाई का काम अब ठेके पर दे रहे हैं। और ये ठेके लेने वाले अधिकतर लोग सवर्ण हैं जो न तो सफाई-कार्य की समस्याओं को जानते हैं और न मूलभूत सेवा-शर्तों का पालन करते हैं। पिछली सरकार की तर्ज पर बल्कि पहले से भी ज्यादा द्रुत गति से मोदी सरकार विदेशी निवेश को सुगम बनाने और भारतीय औद्योगिक घरानों को बेजा लाभ पहुंचाने के लिए जिस प्रकार श्रम कानूनों को सिलसिलेवार कमजोर करती जा रही है, वैसे में सफाईकर्मी के काम में लगे और अन्य दलित कैसे मोदी सरकार के स्वच्छ भारत अभियान की मंशा पर शक न करें।
गांधी के नाम पर स्वच्छ भारत अभियान चलाने वाले हमारे प्रधानमंत्री महोदय को पहले गांधीवादी का ककहरा सीखना चाहिए। गांधीजी खुद के घर की सफाई खुद करने पर बल देते थे, ताकि सफाई कर्म से किसी जातिविशेष को जोड़ना और फिर उसका अपमान करना बंद हो सके। लेकिन प्रधानमंत्री के पूर्व के एक बयान से तो यह साफ पता चलता है कि उन्हें दलित सफाईकर्मी की पीड़ा का अहसास तक नहीं है। वे तो सफाई कर्म में दलित की आनंदानुभूति की बातें करते हैं। गांधीजी तथाकथित आधुनिक शहरी सभ्यता के प्रदूषण और गंदगी के स्थान पर स्वच्छ आत्मनिर्भर ग्रामीण भारत का विकल्प दे रहे थे। गांधीजी बड़े-बड़े नगरों और महानगरों के इसलिए विरोधी रहे क्योंकि ये विशाल मानव अधिवास गंदगी और प्रदूषण के केंद्र बन जाते हैं। एक स्थान पर बड़ी संख्या में लोगों का जमाव कुदरती संतुलन को बिगाड़ देता है। और फिर ऊपर से आधुनिक नगरीय सभ्यता अधिकाधिक उपभोग और इस्तेमाल करो और फेंको (यूज ऐंड थ्रो) के दर्शन पर टिकी हुई है।
निजी स्वार्थ तक सीमित रहने वाली नगरीय सभ्यता को इससे कोई मतलब नहीं कि उपयोग के बाद कूड़े के ढेर बढ़ाने वाली इन उपभोक्ता वस्तुओं से हमारा पर्यावरण कितना ज्यादा नष्ट हो रहा है। अपने घर को चकाचक चमका कर सड़क पर घर का कचरा डाल पड़ोसी के लिए सिरदर्द पैदा करने वाले शहरी लोगों में शेष समाज और प्रकृति के प्रति किसी जबावदेही के दर्शन दीपक लेकर खोजने पर भी नहीं हो पाते। गांधीवाद गंदगी और प्रदूषण की जड़ नगरीय सभ्यता के दर्शन को ही सिरे से खारिज करने में यकीन करता है, न कि एक दिन का सफाई अभियान चला कर ऊपर से लीपापोती करना गांधीवादी सफाई कर्म है। पर हमारे प्रधानमंत्री तो अमेरिका के दिखाए रास्ते पर चल कर ‘स्मार्ट सिटी’ का राग अलापते नहीं थकते।
शहर के एक मुस्लिम मुहल्ले में कुछ उच्च जातीय कांग्रेसी कार्यकरता गांधीजी के निर्देश पर तामीरी काम पर निकलते हैं। इनमें से एक कार्यकर्ता मास्टर रामदास दिन की रोशनी में झाड़ू हाथ में ले साफ-सफाई करना अपनी ब्राह्मण जाति की तौहीन बताता है। उसकी हिचकिचाहट और नाराजगी पर एक दूसरा कांग्रेसी शंकर कहता है कि ‘मास्टर जी हमें प्रचार करना है, कौन सचमुच की नालियां साफ करनी हैं।’ कथनी और करनी का यही अंतर कांग्रेसियों को आजाद भारत में गांधीवाद से दूर ले गया है। वाल्मीकि बस्ती से इस अभियान की शुरुआत के और मायने विखंडनवाद के माध्यम से आसानी से समझे जा सकते हैं। ऐसा करने पर प्रधानमंत्री की इस पहल के पीछे छिपे हिंदूवादी पूर्वग्रह भी निकल पर सामने आ जाते हैं। जातीय पवित्रता के झूठे फलसफे में विश्वास करने वाले ब्राह्मणवादी लोग उस जाति पर गंदा रहने और गंदगी फैलाने का आरोप लगाते हैं जो दुनिया भर में सफाई कर्म के लिए जानी जाती है। आपके अवचेतन में सदियों से घर कर रही यही उच्च जातीय मानसिकता आपके चेतन को निर्देशित करती है कि किसी दलित बस्ती से ही आप सफाई कर्म का आगाज करें ताकि आपके इस अहं को भी संतुष्टि मिल सके कि आप तो स्वच्छता के पुजारी हैं, पर दलित ही गंदे हैं। और दलितों की बस्ती से सफाई अभियान चला कर आप कोई मसीहाई काम करने जा रहे हैं। इस सोच में तब्दीली लाने की जरूरत है।
अगर दलित बस्तियां आजादी के छह दशक बाद भी कूड़े-करकट और गंदे पानी की नालियों से बदबदा रही हैं, वहां साफ-सफाई और शुद्ध हवा-पानी का कोई माकूल इंतजाम देखने को नहीं मिलता तो उसके लिए कौन जिम्मेवार है? वे प्रशासक जो शहर की अमीर बस्तियों में साफ-सफाई की चाक-चौबंद व्यवस्था रखते हैं, लेकिन उसी शहर के एक कोने पर आबाद सफाईकर्मियों की बस्ती की ओर मुंह उठा कर देखते भी नहीं। कारण कि ये दलित गरीब हैं जो आपकी पूंजीवादी सरकारों की प्राथमिकता में कभी आते नहीं।
आज उपभोगक्तावाद उपभोग के स्तर से नागरिकता परिभाषित कर रहा है, अतः आपके समाज में न दलित आ सकते हैं और न उनकी बस्तियों को नितांत मूलभूत नागरिक सुविधाएं प्रदान करना आपकी कार्यसूची का हिस्सा बन सकता है। एक-एक कर सरकारी सेवाओं को बंद करके उनका निजीकरण करना आम दलित व्यक्ति के हित में कैसे हो सकता है?
इस संदर्भ में भीष्म साहनी कृत ‘तमस’ के उस प्रसंग को फिर से पढ़ने की जरूरत है जहां शहर के एक मुस्लिम मुहल्ले में कुछ उच्च जातीय कांग्रेसी कार्यकरता गांधीजी के निर्देश पर तामीरी काम पर निकलते हैं। इनमें से एक कार्यकर्ता मास्टर रामदास दिन की रोशनी में झाड़ू हाथ में ले साफ-सफाई करना अपनी ब्राह्मण जाति की तौहीन बताता है। उसकी हिचकिचाहट और नाराजगी पर एक दूसरा कांग्रेसी शंकर कहता है कि ‘मास्टर जी हमें प्रचार करना है, कौन सचमुच की नालियां साफ करनी हैं।’ कथनी और करनी का यही अंतर कांग्रेसियों को आजाद भारत में गांधीवाद से दूर ले गया है।
आंबेडकर हिंदू कांग्रेसियों के इन दुरंगी नीतियों के चलते ही दलितों के भाग्य का फैसला उनके हाथों में सौंपने को तैयार न थे। 2014 के आम चुनावों में हुई कांग्रेस की ऐतिहासिक पराजय का कारण गांधीवादी आदर्शों का खुला परित्याग ही था। लेकिन जो नया निजाम गद्दी पर बैठा है, वह भी कांग्रेसियों की तरह क्या सिर्फ गांधी के नाम और सफाईकर्मियों की झाड़ू का चुनावी राजनीति में मात्र प्रतीक की तरह इस्तेमाल करेगा? या, इस स्वच्छ भारत अभियान के कुछ सामाजिक निहितार्थ भी निकलेंगे? कथनी और करनी की इस खाई को आंबेडकर ब्राह्मणवाद की मूलभूत चारित्रिक विशेषता बताते थे। गांधीजी को सच्ची श्रद्धांजलि कथनी और करनी के इस भेद को दूर करना ही हो सकती है।
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