परशुराम कुंड

भारत की करीब-करीब उत्तर-पूर्व के पास लोहित-ब्रह्मपुत्र के किनारे ब्रह्मकुंड या परशुराम कुंड नाम का एक तीर्थ स्थान है। तिब्बत, चीन और ब्रह्म देश की सरहद के पास, वन्य जातियों के बीच, भारतीय संस्कृति का यह प्राचीन शिविर था। पश्चिमी समुद्र के किनारे सह्याद्रि की तराई में जिसने ब्राह्मणों को बसाया ऐसे भार्गव परशुराम ने सारे भारत की यात्रा करते-करते उत्तर-पूर्व सीमा तक पहुंचकर ब्रह्मकुंड के पास शांति पायी। यह है इस स्थान का माहात्म्य।

इन सब नदियों के किनारे हमारे जो पहाड़ी भाई रहते हैं उनको अपनाना हमारा परम कर्तव्य है। यह काम सरकार के जरिये पूरी तरह नहीं होगा। उसके लिए परशुराम और बुद्ध के जैसे संस्कृतिधुरीण महापुरुषों की आवश्यकता है। अर्थात उनके पास नयी दृष्टि, नयी शक्ति और नया आदर्श होना चाहिये।जब से मैं असम प्रान्त में जाने लगा तब से परशुराम कुंड जाकर स्नान-पान-दान का सुख पाने की मेरी इच्छा थी। राजनैतिक भौगोलिक और सामयिक कठिनाइयों के कारण आज तक वहां न जा सका था। लेकिन जब सुना कि महात्मा जी की चिता-भस्म का विसर्जन अन्यान्य तीर्थों के जैसा परशुराम कुंड में भी हुआ है, तब वहां जाने की उत्कंठा बढ़ी। इस साल सुना कि असम प्रांत के कई लोकसेवक 12 फरवरी को सर्वोदय मेले के निमित्त वहां जाने वाले हैं, तब तो मन का निश्चय ही हो गया कि इस मौके को छोड़ना नहीं चाहिये। पलाशवाड़ी के पास कई बरसों से चलने वाले मोमान आश्रम के श्री भुवनचंद्र दास को मुझे बुलाने में कुछ भी तकलीफ न पड़ी।

बार-बार भू-भ्रमण करके भूगोल-विद्या को बढ़ाने वाले हमारे प्रधान भूगोलविद् पुराणों में पाये जाते हैं, उनमें नारद, व्यास, दत्तात्रेय परशुराम और बलराम के नाम सब जानते हैं। इनमें भी व्यास और परशुराम अपनी-अपनी विभूति की विशेषता के कारण चिरंजीवी हो गये हैं। भारतीय संस्कृति के संगठन और प्रचार का कार्य महर्षि व्यास ने जैसा किया वैसा और किसी ने नहीं किया होगा इसलिए तो उनको वेद-व्यास (organiser) का उपनाम मिला। उनका असली नाम था कृष्ण द्वैपायन।

और परशुराम थे अगस्त ऋषि के जैसे संस्कृति-विस्तारक (pioneer of culture) । प्राचीन काल में मनुष्य-जाति को जीने के लिए दारूण युद्ध करना पड़ता था- जंगलों के साथ और जंगलों के पशुओं के साथ। जंगलों ने आक्रमण करके मानव संस्कृति को कई बार हजम किया है। इसका सबूत आज भी कम्पूचिया में आन्कोर वाट और आन्कोर थॉम में मिलता है। ऊंचे-ऊंचे राजप्रासाद और बड़े-बड़े मंदिरों के शिखरों तक मिट्टी के ढेर लग गये; और जंगल के महावृक्षों ने अपनी पताका उन पर लगा दी। हमारी यहां भी असंख्य छोटे-बड़े मंदिर अश्वत्थ और पीपल की जड़ों के जाल में फंसकर टेढ़े-मेढ़े हो गये, और पाये जाते हैं।

ऐसे युग में परशु (कुल्हाडी) लेकर मानव-संस्कृति का रक्षण और विस्तार करने का काम किया था भगवान परशुराम ने। पुराण की कथा कहती है कि जन्म के साथ परशुराम के हाथ में परशु था। धनी-मां-बाप के घर जिसका जन्म हुआ है उसके बारे में अंग्रेजी में कहते हैं कि ‘He is born with a silver spoon in his mouth’- चांदी का चम्मच मुंह में लेकर ही यह बच्चा जन्मा है। ऐसी ही बात परशुराम की थी।

परशुराम जाति का ब्राह्मण थे, लेकिन उसके सब संस्कार क्षत्रिय के थे। जंगलों का नाश करने के लिए कुल्हाड़ी चलाते-चलाते उसने सम्राट सहस्त्रार्जुन के हजार हाथों पर भी कुल्हाड़ी चलायी और क्षत्रियों के आतंक से चिढ़कर उसने उनके विरुद्ध 21 बार युद्ध किया। क्षात्र-पद्धति से क्षत्रियों का नाश करने की कोशिश इस क्षत्रिय ब्राह्मण ने 21 बार की। उसी का अनुभव उसके अनुगामी ब्राह्मण क्षत्रिय गौतम बुद्ध ने एक गाथा में ग्रथित किया हैः

नही वेरेन वेरानि संमंतीध कुदाचनं।

इस परशुराम के क्रोधी पिता ने अपने अन्य पुत्रों की आज्ञा दी कि ‘तुम्हारी माता कुलटा है, उसे मार डालो।’ उन्होंने इनकार किया। जमदग्नि की क्रोधाग्नि और भी बढ़ गयी। उसने परशुराम की ओर मुड़कर कहा, ‘बेटा, तुम मेरा काम करो। इस रेणुका को मार डालो।’ कुल्हाड़ी चलाने की आदत वाले आज्ञाधारी पुत्र को सोचना नहीं पड़ा। उसने माता का सिर तुरंत उड़ा दिया। पिता प्रसन्न हुए और कहा, ‘चाहे जितने वर मांग। तूने मेरा प्रिय काम किया है.’ पुत्र को अब मौका मिल गया। पिता की सारी तपस्या चार वर में उसने निचो ली। ‘मेरी माता फिर से जीवित हो, मेरे भाइयों को आपने शाप देकर जड़ पाषाण बनाया है वे भी जीवित हों, अपनी हत्या और सजा की बात वे भूल जायं। मैं मातृहत्या के पाप से मुक्त हो जाऊं, और चिरंजीवी बनू।’ पिता ने कहा, ‘और तो सब दे दूंगा, लेकिन मातृहत्या का पाप धो डालने की शक्ति मेरी तपस्या में भी नहीं है। मायूस होकर परशुराम वहां से चला गया। आगे जाकर परशुधर राम को धनुर्धर राम ने परास्त किया, क्योंकि युद्धशास्त्र बढ़ गया था। परशु की अपेक्षा धनुष-बाण की शक्ति अधिक थी; और दूर तक पहुंचती थी। परशुराम ने भारत-भ्रमण में सारी आयु बितायी। अनेक तीर्थों का और, संतों का दर्शन किया। चित्तवृत्ति में उपशम का उदय हुआ और लोहित-ब्रह्मपुत्र के किनारे ब्रह्म-कुण्ड में उसके हाथ की कुल्हाड़ी छूट गयी। यहीं शस्त्र-संयास के इस तीर्थ स्थान का महात्म्य है। परशुराम की जीवन-कथा में पश्चिम किनारे से लेकर उत्तर-पूर्व सिरे तक का भारत का, किसी जमाने का, सारा इतिहास आ जाता है। परशुराम कुंड की यात्रा करके कई साधु संतों ने यहां की वन्य जातियों को भारत की संस्कृति के संस्कार दिये हैं। इस प्रदेश का लोक-मानव कहता है कि रुक्मिणी हमारे यहां की राजकन्या थी, इसलिए श्री कृष्ण हमारे दामाद होते हैं।’

जिस तरह प्राचीन काल के सांस्कृतिक अग्रदूत यहां आये, वैसे ‘अवेर’ का उपदेश करने वाले बुद्ध भगवान के शिष्य भी यहां आये होंगे। बौद्ध भिक्षु हिमालय लांघकर तिब्बत भी गये थे, और जहाज के रास्ते चीन भी गये थे। उसके बाद असम प्रान्त में अहिंसा धर्म की नयी बाढ़ आयी श्री शंकर देव के जमाने में। श्री शंकर देव असली शाक्त थे। उस पंथ के दुराचार से ऊबकर वे वैष्णव हुए और उन्होंने सारे असम प्रान्त में धर्मोपदेश, नाट्य, संगीत, चित्रकारी आदि द्वारा समाजशुद्धि का और संस्कृति-विस्तार का काम दीर्घकाल तक किया। इसी तरह चैतन्य महाप्रभु के वैष्णव धर्म का प्रचार मणिपुर की तरफ हुआ। शंकरदेव का प्रभाव असम प्रान्त के पर्वतीय लोगों में पड़ना अभी बाकी है।

अहिंसा-धर्म की ताजी और सबसे बड़ी बाढ़ महात्मा गांधी जी के सत्याग्रह स्वराज्य-आंदोलन से असम प्रान्त में पहुंची। उसका अधिक से अधिक असर पड़ना चाहिये। खासी, नागा, मिशमी, अबोर, डफला आदि पहाड़ी जातियों पर इसके लिए शिलाँग, कोहीमा, मणिपुर, सादिया आदि प्रधान केंद्रों के इर्द-गिर्द अनेक आश्रमों की स्थापना करना जरूरी है।

इनमें सादिया एक ऐसा स्थान है जिसके आसपास ब्रह्मपुत्र से मिलने वाली अनेक नदियों और उपनदियों का पंखा बनता है। नोआ डिहंग, टेंगापानी, लोहित, डिगारू, देवपाणी, कुण्डिल, डीबंग, सेसेरी, डिहंग, लाली आदि अनेक नदियां अपना पानी दे देकर ब्रह्मपुत्र को जलपुष्ट करती बनाती हैं। सादिया से अनेक रास्ते अनेक दिशा में जाकर अनेक वन्य जातियों की सेवा करते हैं। खुद सादिया के इर्द-गिर्द जो चुलेकाटा मिशमी लोग रहते हैं वे स्वभाव के सौम्य है। इसलिए शायद उनके अंदर सभ्य समाज के कई दुर्गुण और रोग फैल गये हैं। मूल ब्रह्मपुत्र का उत्तरी नाम दिहंग है। उसके भी ऊपर जब वह मानस सरोवर से निकलकर हिमालय के समानांतर पूरब की ओर बहती आती है, तब उसे सानपो कहते हैं।

इन सब नदियों के किनारे हमारे जो पहाड़ी भाई रहते हैं उनको अपनाना हमारा परम कर्तव्य है। यह काम सरकार के जरिये पूरी तरह नहीं होगा। उसके लिए परशुराम और बुद्ध के जैसे संस्कृतिधुरीण महापुरुषों की आवश्यकता है। अर्थात उनके पास नयी दृष्टि, नयी शक्ति और नया आदर्श होना चाहिये।

यह सारा काम कौन करेगा? भारत के नवयुवकों का और युवतियों का यह काम है। ईसाई मिशनरियों ने अपनी दृष्टि से भला-बुरा बहुत कुछ काम किया है। उनकी नीयत हमेशा साफ रही है, ऐसा भी हम नहीं कह सकते। ऐसी हालत में देश के नेताओं को चाहिये कि वे दीर्घ दृष्टि से इन सब स्थानों का निरीक्षण करें और नवयुवकों को मानवता के नाम से शुद्ध संस्कृति की प्रेरणा देने के लिए इस प्रदेश में भेजे।

वर्धा, 21-3-50

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