मानव समाज में सदैव से प्रकृति के रहस्यों को जानने एवं समझने की इच्छा रही है और मानव की इसी रुचि ने विज्ञान के नये-नये आयाम खोले हैं। मानव, विज्ञान के माध्यम से सदैव सूक्ष्म से लेकर दीर्घाकाय तथा जटिल जीवों के आंतरिक तथा बाहरी संरचनात्मक गुणों को जानने की कोशिश करता आ रहा है। मानव के इन जिज्ञासु गुणों के कारण विज्ञान की विभिन्न शाखाओं का जन्म हुआ। विज्ञान की विभिन्न शाखाओं में एक शाखा प्रोटिओमिक्स है जो विज्ञान की उभरती हुई वह शाखा है जिसके अंतर्गत किसी जीव विशेष या पादप विशेष के प्रोटीन्स की संरचना, अभिव्यक्ति एवं पारस्परिकता का विश्लेषण किया जाता है। किसी भी कोशिका, ऊतक अथवा जीव के संपूर्ण प्रोटीन संगठन को ‘‘प्रोटिओम’’ कहते हैं। मार्क विलिकन्स ने सर्वप्रथम सन 1994 ई. में ‘‘प्रोटिओम’’ शब्द का प्रयोग किया तथा इसके अध्ययन की शाखा को प्रोटिओमिक्स कहा गया। प्रोटिओमिक्स शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम सन 1997 ई. में प्रयुक्त हुआ। मानव जीनोम परियोजना के पश्चात यह ज्ञात हुआ है कि मानव में लगभग 20,500 जीन्स उपस्थित हैं, जबकि किसी भी जीव में उत्पन्न होने वाली प्रोटीन्स की संख्या लगभग 20 लाख तक हो सकती है। चूँकि प्रोटीन्स की संख्या जीनोम में उपस्थित जीन्स से कई गुना अधिक होती है अत: प्रोटिओमिक्स की सहायता से विभिन्न प्रकार की जीन्स का पता लगाया जा सकता है जो अभी भी अज्ञात हैं।
प्रोटीन अमिनो एसिड इकाई से बना होता है जिस पर किसी भी जीव का प्रोटिओम निर्भर करता है। प्रोटीन की संरचना को चार भागों में विभाजित किया गया है- प्राथमिक, द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ संरचना। प्रत्येक प्रोटीन संरचना का अपना महत्त्व होता है। प्राथमिक संरचना अमिनो एसिड इकाई की रेखीय क्रमांक होती है जिसका निर्धारण उसके सापेक्ष जीन्स द्वारा होता है जो कोशिका केंद्रक में उपस्थित न्यूक्लिओटाइड से निर्धारित होता है जिसे जेनेटिक कोड कहते हैं। प्रोटीन की द्वितीय तथा तृतीय संरचना का निर्धारण भी प्राथमिक संरचना पर निर्भर करता है। प्राथमिक संरचना में हाइड्रोजन बॉन्डिग द्वारा द्वितीय संरचना बनती है। तृतीय संरचना प्रोटीन की त्रिगुणीय संरचना होती है तथा चतुर्थ संरचना दो या दो से अधिक प्रोटीन से निर्मित होती है। उपर्युक्त दिये गये चित्र में प्रोटीन की प्राथमिक, द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ संरचना दिखाई गयी है। तृतीय संरचना में सक्रिय क्षेत्र होते हैं जो विभिन्न क्रियाओं में भाग लेते हैं।
प्रोटिओमिक्स अध्ययन की आवश्यकता क्यों?
ऐसा माना जाता है कि किसी कोशिका के कार्य तथा संरचना की सूचना सिर्फ जीन के अध्ययन से नहीं प्राप्त की जा सकती क्योंकि कोशिका का बाह्य आकार एवं आंतरिक क्रियाएं उसके द्वारा संश्लेषित प्रोटीन्स पर निर्भर करती है। प्रोटिओमिक्स एक ऐसी विधा है जिससे प्रोटीन की संरचना तथा उसके विभिन्न कार्यों का अध्ययन कर सकते हैं। निम्नलिखित शीर्षकों द्वारा प्रोटिओमिक्स की उपयोगिता को समझा जा सकता है।
जीनोम की व्याख्या - ऐसा हमें ज्ञात है कि संश्लेषित प्रोटीन किसी भी जीन की अभिव्यक्ति होती है क्योंकि प्रोटीन की इकाई एमिनों एसिड का संश्लेषण न्यूक्लिओटाइड से होता है। अत: प्रोटीन्स के अध्ययन द्वारा किसी दिये गये, जीनोम में उपस्थित जीन्स का पता लगाया जा सकता है क्योंकि जीनोम में उपस्थित एक्सॉन तथा इन्ट्रान के कारण जीन के जीनोमिक डाटा द्वारा यथार्थ का पता लगा पाना अभी भी जटिल है। अत: इस जटिलता को दूर करने के लिये जीनोमिक्स डाटा से प्राप्त सूचना को प्रोटिओमिक्स अध्ययन से प्राप्त सूचना के साथ सम्मिलित कर किसी भी जीन्स के कार्य को पूर्णरूप से व्यक्त कर सकते हैं।
प्रोटीन अभिव्यक्ति का अध्ययन - वर्तमान समय में विभिन्न तकनीकों द्वारा आरएनए का विश्लेषण किया जाता है। यद्यपि एमआरएनए प्रोटीन संश्लेषण का प्रथम चरण होता है जो किसी कोशिका के केंद्रक में उपस्थित जीन से संश्लेषित होता है और वह कोशिका द्रव्य तक उस सूचना को प्रोटीन संश्लेषण के लिये पहुँचाता है। परंतु, एमआरएनए इस्प्लाइसिंग, पॉलीएडेनाइलेसन तथा एडिटिंग के पश्चात प्राप्त एमआरएनए के द्वारा संश्लेषित प्रोटीन गुण एवं संख्या में भिन्न होती है तथा प्रोटीन संश्लेषण से प्राप्त प्रोटीन्स में पोस्ट ट्रांसलेशनल परिवर्तन होते हैं। अत: इस प्रकार प्रोटिओमिक्स प्रोटीन संश्लेषण से पूर्व तथा पश्चात होने वाले परिवर्तन को भी ज्ञात करने में सक्षम हैं।
प्रोटीन परिवर्तन - प्रोटिओमिक्स अध्ययन का एक महत्त्वपूर्ण लक्ष्य प्रोटीन में हुए किसी भी परिवर्तन को ज्ञात करना है। कोशिका में आंतरिक तथा बाह्य सिग्नलिंग द्वारा हुए प्रोटीन परिवर्तन को समझने में प्रोटिओमिक्स का विशेष महत्त्व है। उदाहरणस्वरूप फास्फोराइलेशन एक महत्त्वपूर्ण सिग्नलिंग तंत्र है तथा इसके अनियमितता से साधारण कोशिका कैन्सरस कोशिका में परिवर्तन हो जाती है। अत: इस परिवर्तन को ज्ञात करने में प्रोटिओमिक्स तकनीक अतिउपयोगी है।
प्रोटीन स्थानीकरण तथा कम्पार्टमेंटेशन - प्रोटीन स्थानीकरण एक महत्त्वपूर्ण प्रोटीन नियामक कार्यविधि है। अनियामक प्रोटीन स्थानीकरण को कोशिका कार्य पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है जैसा सिस्टिक फाइब्रोसिस में देखा गया है। अत: प्रोटिओमिक्स के द्वारा कोशिका के अंदर प्रोटीन का स्थान निर्धारण भी किया जा सकता है। इस प्रकार यह अध्ययन कोशिका प्रोटीन का 3-डी आकृति का मानचित्र बनाने में भी उपयोगी है।
प्रोटीन्स-प्रोटीन्स पारस्परिकता - कोशिका वृद्धि, प्रोग्राम मृत्यु तथा कोशिका चक्र का निर्धारण सिग्नल ट्रांसडक्शन प्रक्रिया में उपस्थित प्रोटीन्स के द्वारा होता है। प्रोटीन-प्रोटीन पारस्परिकता के अध्ययन द्वारा कोशिका प्रोटीन्स का थ्री डी मानचित्र तैयार कर पूरी कोशिका के कार्य को समझना भी प्रोटिओमिक्स का लक्ष्य है।
इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम हेलीकोबैक्टर पाइलोरी जैसे सूक्ष्मजीव के लिये पूर्ण किया गया है। ईस्ट टू हाइब्रिड तकनीक से प्राप्त प्रोटीन्स-प्रोटीन्स पारस्परिका के द्वारा लगभग 12,000 प्रोटीन को पहचाना गया है जो 46.6 प्रतिशत जीनोम की कार्य प्रणाली को प्रस्तुत करती है।
प्रोटीन का संश्लेषण
प्रोटीन संश्लेषण की पूरी प्रक्रिया किसी भी कोशिका के ‘डीएनए’ तथा ‘आरएनए’ पर निर्भर करती है। ‘डीएनए’ द्वारा सर्वप्रथम संवाहक आरएनए बनता है जो कोशिका द्रव्य में राइबोसोम के साथ मिलकर प्रोटीन संश्लेषण करते हैं। इस प्रकार मूल-रूप से डीएनए तथा प्रोटीन में बहुत ही गहरा संबंध है जो प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से एक दूसरे के सम्पूरक हैं। डीएनए में उपस्थित न्यूक्लिओटाइड की व्यवस्था अमिनो एसिड को संश्लेषित करती है जिसमें दो प्रमुख क्रियाएँ ट्रांसक्रिप्शन यानी संवाहक आरएनए संश्लेषण एवं ट्रांसलेशन शामिल है जैसा कि रेखीय चित्र द्वारा आगे दर्शाया गया है।
सैगर फैड्रिक ने सन 1949 ई. में सर्वप्रथम इंसुलिन प्रोटीन के बीटा चेन का अमिनो एसिड अनुक्रमांक निर्धारित किया था जो कि विज्ञान तथा प्रोटिओमिक्स के क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण शुभारंभ था। यद्यपि प्रोटिओमिक्स अपने प्रारंभिक विकास के मार्ग पर है फिर भी इसकी विभिन्न शाखाओं द्वारा प्रोटीन संरचना तथा कार्यों के बारे में ज्ञान अर्जित करने की दिशा में अध्ययन हो रहे हैं। अध्ययन के अनुसार प्रोटिओमिक्स को तीन शाखाओं में विभाजित किया जा सकता है :
1. संरचनात्मक प्राटिओमिक्स - इसके अंतर्गत प्रोटीन की संरचना का विस्तृत अध्ययन किया जाता है तथा प्रोटीन का तुलनात्मक अध्ययन कर उसकी सहायता से ज्ञात जीन के कार्यों को भी निर्धारित किया जाता है। एक्स-रे-क्रिस्टैलोग्राफी तथा एनएमआर स्पेक्ट्रोस्कोपी आदि तकनीक के माध्यम से किसी प्रोटीन का 3-डी मॉडल तैयार कर उसकी क्रियात्मकता का भी पता लगाया जा सकता है। संरचनात्मक प्रोटिओमिक्स का वर्तमान उदाहरण केंद्रक पोर कॉम्पलेक्स का अध्ययन है।
2. अभिव्यक्ति प्रोटिओमिक्स - अभिव्यक्ति प्रोटिओमिक्स प्रोटीन का परिमाणात्मक अध्ययन है जो संपूर्ण प्रोटिओम तथा उपप्रोटिओम अभिव्यक्ति को प्रस्तुत करता है। प्रोटिओमिक्स की इस शाखा द्वारा सिग्नल ट्रांसडक्सन तथा रोग विशेष में उपस्थित नवीन प्रोटीन को ज्ञात करते हैं। जिसे नई औषधि को तैयार करने, नई औषधि के कार्य करने की प्रक्रिया को पहचानने तथा बनाने में प्रयुक्त कर सकते हैं। इसके अंतर्गत विभिन्न प्रकार की तकनीक जैसे एसडीएस पेज, 2-डी इलेक्ट्रोफोरेसिस तथा मास स्पेक्ट्रोस्कोपी तकनीक समान्यत: प्रयुक्त की जाती हैं।
3. सहभागिता प्रोटिओमिक्स - इसके अंतर्गत विभिन्न प्रकार के प्रोटीन के कार्य एवं पारस्परिक संबंध का अध्ययन किया जाता है जिसमें ईस्ट-टू हाइब्रीड तथा मास स्पेक्ट्रोस्कोपी तकनीक का प्रयोग करते हैं। प्रोटीन्स किसी भी कोशिका, तंत्रिका तंत्र तथा जीव का मूलभूत जैव अणु है जो उसके कार्यिकी के लिये जिम्मेदार होता है। प्रोटिओमिक्स की संरचनात्मक तथा क्रियात्मक शाखाओं के उपयोग से उसका मानचित्र भी बनाया जा सकता है। इस प्रकार प्राप्त आंकड़ों को विभिन्न प्रकार के डेटाबेस में एकत्रित किया जाता है जो संपूर्ण विश्व में हो रहे शोध कार्यों को आगे बढ़ाने में सहायक है। कुछ महत्त्वपूर्ण आंकड़े बैंक निम्नलिखित हैं :
- कार्डिएक आर्गेनेल्लर प्रोटीन एटलस नॉलेजबेस
- मानव प्रोटीन संदर्भ डाटाबेस
- मॉडल जीव अभिव्यक्ति डाटाबेस
- जैव प्रौद्योगिकी सूचना राष्ट्रिय केंद्र (एनसीबीआई)
- प्रोटीन डाटा बैंक (पीडीबी)
- प्रोटीन सूचना संसाधन (पीर)
- प्रोटिओमिक्स पहचान डाटाबेस (पीआरआईडीइ)
- स्विस प्रोट
अब विभिन्न अध्ययनों से यह साबित हो गया है कि जिनोमिक्स तथा ट्रान्सक्रिप्टोमिक्स के बाद प्रोटिओमिक्स जैव प्रणालियों के अध्ययन में एक नवीन कदम के रूप में हमारे सामने है। यूरोपियन जैव सूचना विज्ञान संस्थान, नीदलैंड प्रोटिओमिक्स केंद्र (एनपीसी) तथा एकीकृत जीव विज्ञान के लिये प्रोटिओमिक्स अनुसंधान संसाधन (एनआईएच) कुछ ऐसे केंद्र हैं जहाँ प्रोटिओमिक्स के क्षेत्र में विस्तृत अध्ययन किया जा रहा है। प्रोटिओमिक्स का विशेष योगदान चिकित्सा (कैंसर शोध, न्यूरोलॉजी, कॉर्डियोवैस्कुलर बीमारियों, पादप कार्यिका, मधुमेह, पोषण शोध, टॉक्सिकोलॉजी, ऑटोइमून रोग के शोध) तथा कृषि के क्षेत्र में देखा जा सकता है।
विभिन्न प्रकार के रोगों जैसे कैंसर, एड्स आदि की पहचान तथा उनके उचित इलाज की संभावनायें हैं, साथ ही बेहतर औषधियों की पहचान और उनके उपयोगी लक्ष्य को पाया जा सकता है। इसी कारण से वर्तमान समय में वैज्ञानिकों की विशेष रुचि जिनोमिक्स की अपेक्षा प्रोटिओमिक्स में देखी गई है क्योंकि प्रोटिओमिक्स द्वारा किसी कोशिका विशेष में उत्पन्न प्रोटीन की स्पष्ट जानकारी प्राप्त होती है। प्रोटिओमिक्स के माध्यम से न केवल किसी प्रोटीन विशेष का ज्ञान होता है अपितु उसमें हुए किसी प्रकार के परिवर्तन जेस-पोस्ट ट्रांसलेशनल (फास्फोराइलेशन, ग्लाइकोसाइलेशन) आदि को भी ज्ञात कर सकते हैं। प्रोटिओमिक्स का विशेष योगदान नई औषधियों की पहचान तथा उनके उपयोग में होने के कारण इसका महत्त्व बढ़ा है। यदि कोई नवीन प्रोटीन किसी विशेष रोग में उत्पन्न होती है तो उसके 3-डी संरचना द्वारा उनके सक्रिय केंद्र को ज्ञात कर नई औषधियों की पहचान की जा सकती है। उदाहरण स्वरूप एचआईवी-1 वायरस इस एंजाइम की उपस्थिति में निष्क्रिय हो जाता है। यह एंजाइम जो एक प्रकार की प्रोटीन है एचआईवी रोग के उपचार में नई औषधि को बनाने में एक लक्ष्य की तरह प्रयुक्त हो सकता है।
निरंतर बढ़ती हुई जनसंख्या तथा खाद्य आपूर्ति वर्तमान समय में एक बड़ी समस्या बन गई है। चूँकि जीन तथा प्रोटीन किसी भी जैव की आंतरिक तथा बाह्य कार्य को निर्धारित करते हैं अत: विभिन्न प्रकार के औषधीय पौधे जिनका उपयोग प्रतिदिन किया जा रहा है, की उपयोगिता बढ़ायी जा सकती है। चावल एक महत्त्वपूर्ण कृषि उत्पाद है तथा जैव विज्ञान के लिये एक मॉडल पौधा भी है। इसका संपूर्ण जीनोम ज्ञात हो चुका है। अत: प्रोटिओमिक्स तकनीक द्वारा महत्त्वपूर्ण जीन तथा प्रोटीन के कार्य की पहचान कर उनका उपयोग उत्पादकता तथा पोषक तत्व बढ़ाने में किया जा सकता है। मानव जीनोम जो पूरी तरह ज्ञात किया जा चुका है उसकी अभिव्यक्ति प्रोटिओमिक्स द्वारा निर्धारित कर जीन थेरेपी तथा औषधि विकास में भी इसका उपयोग किया जा सकता है। इस प्रकार प्रोटिओमिक्स विज्ञान के क्षेत्र में उभरती हुई एक ऐसी तकनीक है जो कृषि, स्वास्थ्य तथा पर्यावरण के परिपेक्ष्य में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।
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