परम्पराओं का विसर्जन

sewage drowning in ganga
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कुछ दिनों पहले मुम्बई हाईकोर्ट ने गोदावरी कुम्भ में शाही स्नान के लिये पानी देने से मना कर दिया था, क्योंकि शाही स्नान किसी प्राथमिकता सूची में नहीं आता। अब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने नदियों में मूर्ति विसर्जन पर रोक लगा दी। इस निर्णय का साधु-सन्तों सहित सभी पक्षों ने स्वागत किया। लेकिन इससे गंगा साफ नहीं होगी। गंगा सफाई के लिये साफ नीयत चाहिए जिसकी कमी सरकार, सन्त और समाज हर स्तर पर नजर आती है।

विदेशी पैसे पर गंगा मंथन करती संस्थाएँ, सरकारें और कोर्ट, इस मुद्दे पर एकमत हैं कि गंगा सहित सभी नदियों का सत्यानाश साधु-सन्तों ने ही किया है। गंगा में प्रदूषण फैलाने वाली टेनेरीज, अलग-अलग उद्योग, सरकारी नालें, शहरों का सीवेज, खेतों के जरिये आने वाला पेस्टिसाइड, गंगा की धारा को रोकने के लिये बारह जगह बनाये डैम, यह सब कुछ एक तरफ और साधु-सन्तों का नदी से जुड़ी परम्पराओं का पालन एक तरफ। एक महीने में दूसरी बार हाई कोर्ट ने बेहद मामूली कदम गाजे-बाजे के साथ उठाया, गोया उसे भी अब छपास रोग लगा है।

कुछ दिनों पहले मुम्बई हाईकोर्ट ने गोदावरी कुम्भ में शाही स्नान के लिये पानी देने से मना कर दिया था, क्योंकि शाही स्नान किसी प्राथमिकता सूची में नहीं आता। अब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने नदियों में मूर्ति विसर्जन पर रोक लगा दी। इस निर्णय का साधु-सन्तों सहित सभी पक्षों ने स्वागत किया। वर्षों से इस मुद्दे पर बहस चल रही है कि बड़ी की बजाय छोटी मूर्तियाँ बनाई जाए, पीओपी नहीं मिट्टी का उपयोग किया जाए, प्राकृतिक रंगों से उन्हें सजाया जाए। लेकिन इस बार समस्या सिर्फ वैसी नहीं है जैसी राज्य सरकार दिखाने की कोशिश कर रही है।

दादरी कांड का डैमेज कन्ट्रोल करने के लिये वाराणसी में सन्तों पर लाठीचार्ज किया गया। वाराणसी प्रधानमन्त्री का संसदीय क्षेत्र है इसलिये वहाँ इस तरह की कार्रवाई विदेशी मीडिया में जगह पाती है। इस तस्वीर में एक पहलू और है, जिन सन्तों पर लाठीचार्ज किया गया उनमें से ज्यादातर कांग्रेस समर्थक थे, सभी जानते हैं कि अविमुक्तेश्वरानंद कांग्रेस समर्थित शंकराचार्य स्वारूपानंद के उत्तराधिकारी हैं। अविमुक्तेश्वरानंद ही इस पूरे आन्दोलन के पीछे हैं।

सन्तों का सलाहकार से साजिशकर्ता की भूमिका में आना भयावह संकेत देता है। इसके अलावा पूरे मामले पर प्रधानमन्त्री की चुप्पी अब कोफ्त पैदा कर रही है। इस राजनीति से वाराणसी की गंगा एक बार फिर बहस के केन्द्र में आ गई, जो केन्द्र सरकार की नाकामी की तस्वीर में बदलती जा रही है। यह सब उसी समय हो रहा है जब प्रधानमन्त्री जर्मन चांसलर से नमामि गंगे के लिये सहयोग माँग रहे हैं।

बहरहाल कोर्ट के आदेश का एक पहलू यह भी है कि मूर्तियों के विसर्जन का वैकल्पिक इन्तजाम किया जाए, जिस लक्ष्मीकुंड में प्रशासन विसर्जन कराना चाहता था, वह ठहरा हुआ और गन्दा पानी था। सोशल मीडिया पर फैले ढेर सारी तस्वीरों को देखिए लगता है जैसे दस दिन पूजित मूर्तियों को गन्दे नाले या कीचड़ में फेंक देने की नई परम्परा ने जन्म ले लिया है।

अविमुक्तेश्वरानंद चाहते थे कि मूर्तियों को गंगा में विसर्जित किया जाए क्योंकि माटी की मूरत से नदी प्रदूषित नहीं होती। यह तथ्य सही है यदि नदी की परिभाषा को समझा जाए। ‘नदी वह है जो अविरल है।’ अब वाराणसी में गंगा ना तो अविरल हैै ना ही निर्मल, सरकार अस्सी घाट के पत्थरों को ही निर्मल करने में सारा जोर लगा रही है। अब सरकारें ये बताने में असमर्थ है कि लाखों की संख्या में मूर्तियों को विसर्जित कहाँ किया जाए।

यदि गंगा में बहाव होता तो वहाँ विसर्जन में कोई समस्या थी ही नहीं। वैसे भी हाईकोर्ट के कितने आदेश होते हैं जिन्हें सरकारें इतनी तत्परता से लागू करती है? सन्तों पर लाठी चलाने से गंगा साफ नहीं होगी, उसके लिये साध्वी मन्त्री को अपने हाथ में मौजूद लाठी का ढंग से उपयोग करना होगा। क्या उमा भारती को ये समझाने की जरूरत है कि मूर्ति विसर्जन और कचरा निपटान दो अलग-अलग चीजे हैं?

सन्तों पर लाठी चार्ज में भविष्य के लिये संकेत अच्छे नहीं हैं। सरकारों द्वारा लगातार नाफरमानी से न्यायालय हताश है, गंगा सफाई के लिये साफ नीयत चाहिए जिसकी कमी सरकार, सन्त और समाज हर स्तर पर नजर आती है। सरकारें जानती हैं कि गंगा को सिर्फ अपना पानी चाहिए बाकि काम वो खुद कर लेगी लेकिन सरकार गंगा को पैसा तो दे सकती हैं पानी नहीं।

जो सन्त आन्दोलन कर रहे हैं उन्होंने कभी भी आश्रमों से निकलने वाले सीवेज पर आपत्ति नहीं दर्ज कराई, क्या उन्हें नहीं मालूम कि वाराणसी की विश्व प्रसिद्ध आरती स्थल के नीचे से नाला बहकर गंगा में मिलता है। समाज सरकार पर यह दबाव डालने में पूरी तरह नाकाम रहा है कि उसे अपनी पूरी साफ-सुथरी गंगा चाहिए जिसके किनारे वो अपनी धार्मिक गतिविधियाँ करता था और गंगा उससे कभी भी गन्दी नहीं होती थी। वो अस्थियाँ और फूल डालने से गन्दी नहीं होती, वो धरती पर आई ही इसलिये थी।

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