परमाणु ऊर्जा से पीछा छुड़ा रहा है अमेरिका

भारत को देने पर तुला 40 परमाणु संयंत्र


अमेरिका के साथ भारत का परमाणु समझौता पूर्ण हो गया है। हम खुश हैं कि हमें ऊर्जा क्षेत्र में बहुत बड़ी मदद मिल रही है, हम दो दशक बाद ऊर्जा क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो जाएँगे। लेकिन तस्वीर के पीछे कई दूसरे पहलू भी हैं जिन्हें हम समझने की कोशिश नहीं कर रहे। परमाणु ऊर्जा को अपनाना दोधारी तलवार पर चलने जैसा है। उसका रखरखाव भारत जैसे विकासशील देश के लिए बहुत मुश्किल सिद्ध होगा। वहीं दूसरी ओर इस ऊर्जा को अपनाने के लिए हमें प्रेरित करने वाला अमेरिका खुद इस रास्ते को छोड़ने की योजना बना रहा है। उसका लक्ष्य परमाणु ऊर्जा की जगह पवन ऊर्जा पर निर्भरता बढ़ाने का है।

अब से दो दशक बाद अमेरिका पवन चक्कियों से उतनी ही ऊर्जा प्राप्त करने लगेगा जितनी अभी उसके परमाणु ऊर्जा संयंत्रों से प्राप्त हो रही है। वहाँ की सरकार की ताजा रिपोर्ट भी यही बता रही है और उस पर वहाँ का ऊर्जा विभाग कार्य कर रहा है। अमेरिका के ऊर्जा विभाग और उससे संबंधित वैज्ञानिकों के अनुसार 2030 तक अमेरिका में कुल ऊर्जा का 20 प्रतिशत पवन ऊर्जा के द्वारा ही पूरा किया जाएगा। यह हिस्सा उतना ही है जितना फिलहाल अमेरिका के परमाणु संयंत्रों द्वारा अमेरिका की कुल ऊर्जा में दिया जा रहा है। इस बारे में अमेरिका के ऊर्जा विभाग के उपसचिव (नवीनीकृत ऊर्जा कार्यक्षमता) एंड्रियू कार्रसनर का कहना है कि अगर हम इस योजना को राष्ट्रीय स्तर पर लागू करते हैं तो यह हमें इतनी सस्ती पड़ेगी कि हम आधे सेंट से भी कम में एक किलोवॉट ऊर्जा उत्पन्ना कर लेंगे। अभी अमेरिका की कुल ऊर्जा आपूर्ति में पवन ऊर्जा का हिस्सा मात्र 1 प्रतिशत है।

अमेरिका में प्रतिवर्ष 15 लाख मेगावॉट ऊर्जा की जरूरत पड़ती है और पवन ऊर्जा को कुल खपत का 20 प्रतिशत पहुँचाने के लिए इसे 3 लाख मेगावॉट तक पहुँचाना होगा। लेकिन अमेरिका समझ गया है कि हर हाल में इस लक्ष्य को हासिल करना है, क्योंकि परमाणु ऊर्जा स्थायी विकल्प नहीं है। कई विकसित देशों ने परमाणु ऊर्जा का दामन छोड़ दिया है। फ्रांस ने तो अपने सभी परमाणु संयंत्र बंद करने की योजना बना ली है। इसके पीछे एक कारण तो उसका महँगा रखरखाव है और दूसरा दिन-पर-दिन बढ़ते जा रहे खतरे हैं जिनमें आतंकवादियों द्वारा परमाणु संयंत्रों पर हमले की आशंका भी शामिल है। अमेरिका इस बात को समझ गया है और उसने प्राकृतिक ऊर्जा की ओर लौटना शुरू कर दिया है। अमेरिका में फिलहाल पवन चक्कियों (विंड टर्बाइन) से 16000 मेगावॉट ऊर्जा का उत्पादन हो रहा है जिसे अगले 21 सालों में 3 लाख मेगावॉट तक पहुँचाना लक्ष्य रखा गया है। इसके लिए वहाँ 75,000 नई पवन चक्कियों की स्थापना करनी होगी जिनमें से कई समुद्र किनारे लगानी होंगी, क्योंकि वहाँ हवाओं की रफ्तार बहुत अधिक होती है।

इस बारे में अमेरिका के कोलेरेडो स्थित नेशनल रिनेवेबल टेक्नोलॉजी लैबोरेटरी की रिपोर्ट बताती है कि यह काम महत्वाकांक्षी है, लेकिन असंभव नहीं। रिपोर्ट के अनुसार अगले 20 सालों में इस लक्ष्य को प्राप्त कर लेने के बाद अमेरिका कई खतरों से मुक्त हो जाएगा तथा एक साफ-सुथरी ऊर्जा को अपनाने में सफल होगा। रिपोर्ट के अनुसार अगर सबकुछ ठीक-ठाक चलता रहा तो 2018 तक वर्तमान से 5 गुना अधिक पवन ऊर्जा प्राप्त की जा सकेगी। यह ऊर्जा शत-प्रतिशत पारंपरिक टर्बाइन पद्धति पर ही आधारित होगी। अमेरिका अपने इस कदम को लेकर बहुत आशान्वित है। उत्तरी अमेरिका के बीपी वैकल्पिक ऊर्जा के बॉब ल्यूकफेर के मुताबिक हमें अपने को बदलने की बहुत आवश्यकता है। अगर ऐसा हो पाता है तो अमेरिका प्रतिवर्ष 825 मिलियन मीट्रिक टन कार्बन उत्सर्जन कम कर पाएगा। 2030 तक गैस की खपत वर्तमान से 11 प्रतिशत कम और कोयले की खपत वर्तमान से 18 प्रतिशत कम हो जाएगी। इसका सीधा-सा मतलब सड़क से १४ करोड़ कारों को हटाने जितनी ऊर्जा की बचत करना होगा।

एक नजर :


*जिस क्षेत्र में परमाणु संयंत्र होता है वहाँ से 8 किमी दूर तक लोगों में भयंकर रोगों का जन्म हो सकता है। यह सब वहाँ से निकलने वाले विकिरण के कारण होता है।

*संयंत्र के आस-पास के क्षेत्र में खाद्य पदार्थों का उत्पादन भी प्रभावित होता है। वहाँ पैदा होने वाले खाद्य पदार्थों के सेवन से मोटापा, डायबिटीज, तनाव, कैंसर आदि रोग हो सकते हैं।

*1000 मेगावॉट का संयंत्र 30 टन विकिरण वाला कचरा उत्पन्न करता है। अमेरिका में 1 लाख बेकार पड़ी ईधन की छड़ें जमा हैं, जो वहाँ पानी की टंकियों में भरकर रखी हैं। इसके पूर्ण निपटान का कोई तरीका नहीं है। तो फिर विकासशील देश भारत की क्या स्थिति होगी, यह सोचा जा सकता है। भारत में भी 1000 मेगावॉट के संयंत्र लाए जा रहे हैं।

*परमाणु भट्टी कई कारणों से असंतुलित हो जाती है, जैसे टर्बाइन का फेल होना, कूलेंट पंप फेल होना, कूलेंट के ताप में बढ़ोतरी व घटौत्री, कूलेंट का लीक होना आदि।

*जादूगौड़ा (झारखंड) में यूरेनियम की खदानों के पास जो लोग रह रहे हैं उनमें कैंसर और अन्य आनुवांशिक बीमारियाँ हो रही हैं। अपंग बच्चे पैदा हो रहे हैं जैसे हिरोशिमा, नागासाकी में हुए थे। उनके सिर बड़े हैं और कई के तो पैदाइश से ही हाथ-पैर ठीक नहीं हैं।

*कलपक्कम में सुनामी के समय 5 कर्मचारी बह गए थे और इसे इमरजेंसी में बंद करना पड़ा था। प्राकृतिक आपदाओं से भी ये संयंत्र सुरक्षित नहीं रहते हैं और यहाँ से कोई भी लीकेज भारी जनहानि पहुँचा सकता है।

*कोटा के रावतभाटा का प्लांट मेंटेनेंस से ग्रसित रहता है। यहाँ पास के इलाकों की 30-40 प्रतिशत महिलाओं को थाइरॉइड की समस्याएँ आ चुकी हैं।अमेरिका के साथ भारत का परमाणु समझौता पूर्ण हो गया है। हम खुश हैं कि हमें ऊर्जा क्षेत्र में बहुत बड़ी मदद मिल रही है, हम दो दशक बाद ऊर्जा क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो जाएँगे। लेकिन तस्वीर के पीछे कई दूसरे पहलू भी हैं जिन्हें हम समझने की कोशिश नहीं कर रहे। परमाणु ऊर्जा को अपनाना दोधारी तलवार पर चलने जैसा है। उसका रखरखाव भारत जैसे विकासशील देश के लिए बहुत मुश्किल सिद्ध होगा। वहीं दूसरी ओर इस ऊर्जा को अपनाने के लिए हमें प्रेरित करने वाला अमेरिका खुद इस रास्ते को छोड़ने की योजना बना रहा है। उसका लक्ष्य परमाणु ऊर्जा की जगह पवन ऊर्जा पर निर्भरता बढ़ाने का है।

भारत की तस्वीर


भारत के पास अपार प्राकृतिक स्रोत हैं। यह देश तीन तरफ से समुद्र से घिरा हुआ है। वहाँ हवाओं की रफ्तार बहुत अधिक रहती है। यहाँ हिमालय समेत कई पर्वत श्रृंखलाएँ हैं। कई मैदानी क्षेत्र हैं। इसके अलावा हमारे देश में कई बड़ी नदियाँ हैं, लेकिन हमने इन जगहों के आस-पास पवन चक्कियाँ लगाकर पवन ऊर्जा के उत्पादन की बात कभी नहीं सोची। सिर्फ ताप बिजलीघरों और पन ऊर्जा में ही थोड़ी मेहनत कर पाए। अब हमारी सरकार परमाणु ऊर्जा की बात कर रही है जिसके भयंकर परिणाम आम लोगों को पता तक नहीं हैं। हमारी सरकार यह बात मानने के लिए भी तैयार नहीं है कि अमेरिका जिस ऊर्जा से खुद छुटकारा पाना चाहता है, उसे हमें क्यों दे रहा है? कहीं यह मंदी के दौर में कई लाख अमेरिकियों को रोजगार मुहैया कराने की साजिश तो नहीं, क्योंकि भारत में लगने वाले प्रस्तावित 40 परमाणु संयंत्रों की देखरेख का काम तो आखिर अमेरिकी ही करेंगे।

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