यह समय सिद्ध है कि परमाणु ऊर्जा न तो साफ सुथरी है और न ही सस्ती! इसके अलावा दुर्घटना की स्थिति में होने वाले विनाश का आकलन कर पाना भी कठिन है। इसके विकिरण सैकड़ों-हजारों वर्षों तक पर्यावरण में विद्यमान रहेंगे और मानवता को नुकसान पहुंचाते रहेंगे। भारत के राजनीतिज्ञों ने परमाणु ऊर्जा विकास को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया है और देश की सुरक्षा को दरकिनार कर दिया है।
भारत सरकार परमाणु ऊर्जा के तेज प्रसार का निर्णय ले चुकी है। नए परमाणु ऊर्जा संयंत्रों से अभी तक हम जितनी बिजली पूरे देश में प्राप्त कर सके हैं, उससे कहीं अधिक बिजली निकट भविष्य में मात्र एक परियोजना, महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र के रत्नागिरी जिले में स्थित जैतापुरा जहां 1650 मेगावाट के छः सयंत्र लगाने से अथवा 9900 मेगावाट बिजली उत्पादन की क्षमता से प्राप्त करने का प्रयास किया जा रहा है। इस विशालकाय परियोजना का विरोध वैसे तो स्थानीय लोग आरंभ से कर रहे हैं, पर जापान के फुकुशिमा हादसे के बाद इस विरोध ने और अधिक जोर पकड़ा है। वैश्विक जन-विरोध को फुकुशिमा के बाद बेहतर समझा जा रहा है और उसे अधिक व्यापक समर्थन मिल रहा है। परंतु महाराष्ट्र सरकार के दृष्टिकोण में बहुत कम परिवर्तन आया है। वह इस परियोजना को हर हालत में आगे ले जाने के लिए तैयार लगती है। भारत सरकार के दृष्टिकोण में बस इतना सा फर्क आया है कि सुरक्षा पक्ष को थोड़ा सा और पक्का कर दिया जाए। स्थानीय लोग इतने से ही संतुष्ट नहीं हैं एवं वे इस परियोजना को रोकना चाहते हैं। स्थानीय संगठनों का यह विरोध सुरक्षा, आजीविका, पर्यावरण की रक्षा के लिए है जबकि राजनीतिक लाभ प्राप्त करने के लिए शिवसेना ने अलग से इस आंदोलन को राजनीतिक रंग दे दिया है।सरकार और स्थानीय लोगों में परमाणु संयंत्रों संबंधी सोच में बुनियादी विरोध के कारण यहां बार-बार टकराव की स्थिति उत्पन्न हो रही है। इस तरह के परमाणु संयंत्रों के बढ़ते विरोध के समाचार हरियाणा, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश आदि राज्यों से भी मिलते रहे हैं जहां नए परमाणु संयंत्र प्रस्तावित हैं। तिस पर मुद्दा केवल स्थानीय लोगों के विरोध का नहीं है। कई ख्याति प्राप्त विशेषज्ञ व यहां तक कि सरकार में जिम्मेदार पदों पर कार्य कर चुके विशेषज्ञ भी जैतापुर परियोजना के विरुद्ध आवाज उठा चुके हैं। साथ ही इन विशेषज्ञों ने परमाणु ऊर्जा के तेज प्रसार के विरुद्ध भी चेतावनी भी दी है।
फुकुशिमा हादसे ने एक बार फिर याद दिला दिया है कि परमाणु ऊर्जा के संयंत्रों की दुर्घटनाएं कितनी गंभीर हो सकती हैं, उनसे कितनी व्यापक व दीर्घकालीन क्षति हो सकती है। चेरनोबिल दुर्घटना के असर के बारे में संयुक्त राष्ट्र संघ की परमाणु विकिरण पर गठित वैज्ञानिक समिति ने बताया है कि इसके कारण कैंसर के 34000 से 140000 अतिरिक्त मामले सामने आए, जिनसे 16000 से 73000 मौतें हुईं। चेरनोबिल दुर्घटना के बाद पश्चिमी यूरोप में कोई भी नया परमाणु बिजली संयंत्र नहीं स्थापित किया गया। जर्मनी ने यहां तक कहा कि जो परमाणु संयंत्र पहले से स्थापित किए गए हैं उन्हें निश्चित समय अवधि में हटाया जाना चाहिए। यूरोपीयन यूनियन में जहां वर्ष 1979 में 177 परमाणु ऊर्जा संयंत्र सक्रिय थे वहां इस समय मात्र 143 संयंत्र सक्रिय हैं।
परमाणु बिजली उद्योग ने यह भ्रम फैलाने का प्रयास किया है कि चेरनोबिल व फुकुशिमा अपवाद हैं तथा परमाणु संयंत्रों में गंभीर दुर्घटना की संभावना बहुत कम है। पर यह भ्रामक प्रचार है क्योंकि मेल्टडाऊन के साथ अन्य गंभीर दुर्घटनाओं को जोड़कर देखा जाए तो ऐसी काफी दुर्घटनाएं हो चुकी हैं। इन दुर्घटनाओं का आकलन किसी देश या दुनिया के स्तर पर रिएक्टर वर्ष के आधार पर किया जाता है। रिएक्टर वर्ष का अर्थ है कि जितने परमाणु वर्ष हैं उसे उनकी कार्य अवधि के वर्षों से गुणा कर दिया जाए। जाने माने वैज्ञानिक एम.वी. रमना ने हाल में अनुमान प्रस्तुत किया कि 1400 रियक्टर वर्ष में एक गंभीर दुर्घटना की संभावना है। इसका अर्थ यह हुआ कि 437 रिएक्टरों वाले हमारे विश्व में लगभग तीन वर्षों में एक गंभीर दुर्घटना की संभावना है। छोटी दुर्घटनाएं तो कहीं अधिक होती हैं और ये भी कई लोगों के लिए काफी दर्दनाक हो सकती हैं।
हाल में फुकुशिमा में हुई दुर्घटना के समय देखा गया कि एक देश में होने वाली ऐसी दुर्घटना से नजदीक के अन्य देशों में भी दहशत फैल सकती है। उच्च कोटि की तकनीक उपलब्ध होने पर भी इन दुर्घटनाओं को रोक पाने या नियंत्रित कर पाने की कोई गारंटी नहीं है। इनके दुष्परिणाम बहुत दीर्घकालीन होते हैं व कुछ परिणाम जैसे बच्चों के जन्म के समय उपस्थित होने वाली विकृतियां तो बहुत दर्दनाक होती हैं।
इसके अतिरिक्त यूरेनियम के खनन से लेकर परमाणु ऊर्जा के उत्पादन की प्रक्रिया से जनित अवशेष पदार्थों को ठिकाने लगाने की लगभग सभी प्रक्रियाएं तरह-तरह के जोखिमों से भरी हुई हैं। खतरनाक अवशेष पदार्थों के बारे में संतोषजनक समाधान तो अभी किसी के पास नहीं है।
विभिन्न खतरों के बारे में परमाणु बिजली उद्योग का कहना है कि तरह-तरह की नई तकनीकों और सुधारों से सुरक्षा व्यवस्था को बेहतर किया जा रहा है। पर परमाणु संयंत्रों से जुड़ी दुर्घटनाओं की संभावना कुछ ऐसी है कि इन सुधारों से भी संतोषजनक समाधान अभी नहीं मिल रहा है। फिर यह बताना भी जरूरी है कि जैसे-जैसे सुरक्षा उपायों का खर्च बढ़ता है वैसे-वैसे परमाणु बिजली अधिक महंगी होती जाती है। जहां एक समय परमाणु ऊर्जा को अपेक्षाकृत सस्ते विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया गया था वहीं आज यह एक महंगा स्रोत बन चुका है। जैतापुर में लगने वाले रिएक्टर की पूंजी लागत 5000 डालर प्रति किलोवाट आंकी जा रही है जबकि कोयले आधारित तापघर की लागत 1000 डालर प्रति किलोवाट होती है।
देश के जाने माने परमाणु विशेषज्ञ गोपालकृष्णन परमाणु ऊर्जा क्षेत्र के शीर्ष के पदों पर रह चुके हैं। उन्होंने कहा है कि जैतापुर में जो ईपीआर संयंत्र लगाए जा रहे हैं वे पहले कहीं कमीशन नहीं किए गए हैं अतः उनकी संभावित समस्याओं के बारे में अभी इन्हें बनाने वाली कंपनी अरेवा को भी पता नहीं है। इसके अवशेष पदार्थों को विशेष व अधिक कठिन समस्याओं से भी जूझना पड़ेगा। उन्होंने आगे कहा कि यह बहुत महंगी तकनीक है जबकि इससे सस्ती तकनीक हमें उपलब्ध है।
हाल ही में देश के 60 से भी अधिक बुद्धिजीवियों ने सरकार को जैतापुर परमाणु संयंत्र को मंजूरी देने में किसी भी तरह की हड़बड़ी से बचने की सलाह दी है। पूव नौसेना प्रमुख एडमिरल एल. रामदास, एम.वी. रमना व पी. के. भार्गव जैसे विख्यात वैज्ञानिकों की इस चेतावनी पर सरकार को समुचित ध्यान देना चाहिए।
श्री भारत डोगरा प्रबुद्ध एवं अध्ययनशील लेखक हैं।
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