परमाणु सुरक्षा के गैरजिम्मेदार पहरेदार

संसद का बजट सत्र चल रहा है। बजट पर चर्चा और मंजूरी के दौरान उर्जा के ही एक विकल्प पेट्रोल और डीजल के दामों में बढ़ोत्तरी पर हो सकता है सांसद गतिरोध पैदा करें लेकिन सत्र के दौरान संसद की मंजूरी के लिए 36 अन्य विधेयक प्रस्तुत किये जाने हैं। इनमें एक विधेयक परमाणु उर्जा पर अमेरिका से हुए करार से संबंधित है। इस विधेयक के द्वारा यह तय किया जाना है कि अगर कोई विदेशी कंपनी भारत में परमाणु बिजलीघर लगाती है तो उसके लिए क्या दिशा निर्देश होने चाहिए।

परमाणु उर्जा के व्याप्त खतरों को लेकर समाज का एक वर्ग शुरू से ही इसका विरोध कर रहा है। लेकिन इस विरोध के जवाब में सरकारी और गैर सरकारी पैरोकारों का 'मजबूत' तर्क है कि परमाणु उर्जा ही भविष्य के उर्जा संकट से निपटने का एकमात्र विकल्प है। अगर सबकुछ ठीक रहा है तो 2016 में निजी क्षेत्र के परमाणु बिजली घर से पहली बल्ब जल जाएगा और 2020 तक केवल परमाणु बिजली घर से 25 हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन शुरू हो जाएगा। शायद इसी दूरदर्शिता को ध्यान में रखते हुए हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 16 नवंबर 2009 को न्यूजवीक से बात करते हुए साफ कहा था कि 'हमारी कोशिश होगी कि हम जल्द से जल्द उत्पादन की दिशा में पहल करें और अमेरिका से अपेक्षा करते हैं कि वह तकनीकि ट्रांसफर के समय और अधिक उदारता का परिचय दिखाएगा क्योंकि अब हम रणनीतिक साझेदार हैं इसलिए प्रतिबंधों का कोई औचित्य नहीं बचता है। भारत वैसे भी बड़े संहारक हथियारों के उत्पादन की होड़ में नहीं है।' प्रधानमंत्री का यह बयान अमेरिकी राष्ट्रपति के लिए आधार बनेगा और वे इसी आधार पर सहमतिपत्र पर हस्ताक्षर करने के बाद अमेरिकी संसद की मंजूरी के लिए भेजेंगे। लेकिन इसी बारे में जब हमारे प्रधानमंत्री से पूछा गया तो उनका कहना था कि कैबिनेट ने फैसला कर लिया है इसलिए संसद की ओर से किसी असुविधा की संभावना नहीं है. वादे पूरे किये जाएंगे।'

1 अक्टूबर 2008 को भारत और अमेरिका के बीच हुए परमाणु करार के समय जो प्रावधान किये गये उसमें अमेरिकी संसद का निर्णय तो महत्वपूर्ण घोषित किया गया लेकिन भारतीय संसद की भूमिका बहुत गौड़ हो गयी। भारतीय संसद को यह भी अधिकार नहीं दिया गया कि वह करार के कारणों की जांच पड़ताल कर सके। अब, भारत सरकार की कोशिश है कि संसद से एक ऐसा विधेयक पास करवा लिया जाए जो परमाणु बिजली पैदा करनेवाली विदेशी कंपनियों को आपात स्थिति में पूरी तरह से मदद करें। यह कोशिश इसलिए की जा रही है क्योकि अमेरिकी कंपनियों का ऐसा करने के लिए दबाव है। अमेरिका में भारत, रूस या फिर फ्रांस की तरह परमाणु क्षेत्र में केवल सरकारी संस्थान ही सक्रिय नहीं हैं। वहां निजी कंपनियां यह कारोबार करती हैं इसलिए वे भारत सरकार पर यह दबाव डाल रही हैं कि परमाणु दुर्घटना जैसी आपात स्थिति में उन्हें कम से कम आर्थिक नुकसान उठाना पड़े। इसलिए वर्तमान समय में जो सिविल न्यूक्लियर डैमेजेज बिल संसद में पारित होने के लिए पेश किया गया है उसे बिना किसी खास हुज्जत के पास करवा लेना सरकार की प्राथमिकता होगी क्योंकि इसी विधेयक से अमेरिकी और भारतीय न्यूक्लियर पावर कंपनियों को वह सुरक्षा हासिल हो सकेगी कि किसी परमाणु दुर्घटना, परमाणु विकिरण से उत्पन्न बीमारी का भार अमेरिकी कंपनी पर नहीं बल्कि भारतीय नागरिकों और भारत सरकार पर पड़ेगा। दुर्घटना की स्थिति में नुकसान की भरपाई का अधिकांश जिम्मा भारत सरकार का होगा।

इसका विरोध किये जाने की जरूरत है। लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार परमाणु बिजली के सवाल पर वही कर रही है जिससे अमेरिकी कंपनियों का हित सधता है। परमाणु बिजली घरों के लिए प्रस्तावित इस नागरिक विधेयक पर कैबिनेट ने 19 नवंबर 2009 को स्वीकृत कर लिया है। अब इसे संसद की मंजूरी मिलनी है लेकिन इसके बाद भी आज तक यह विधेयक जनता के सामने प्रस्तुत नहीं किया गया है। इस विधेयक के बारे में जो जानकारियां उपलब्ध हैं उसके हिसाब से कुछ प्रावधान बहुत ही आपत्तिजनक हैं। मसलन, अगर कोई परमाणु आपदा आती है तो नुकसान की भरपाई के लिए संचालन करनेवाली कंपनी जिम्मेदार होगी न कि परमाणु बिजली घरों के लिए साजो सामान और फ्यूल के आपूर्तिकर्ता। भोपाल गैस त्रासदी को रचनेवाली यूनियन कार्बाइड ने भी सरकार से इसी तरह की छूट हासिल की थी और इतनी बड़ी दुर्घटना होने के बाद भी कंपनी का बाल बांका नहीं हुआ। अब अमेरिकी कंपनियां परमाणु बिजली उत्पादन के क्षेत्र में एक ही शर्त पर निवेश करने के लिए तैयार हैं जबकि उन्हें आपात स्थिति में बचाव का मौका दिया जाए। अमेरिका की परमाणु बिजली उत्पादक कंपनियां, जीई-हिताची न्यूक्लियर इनर्जी, वेस्टिंग हाउस और बैबकाक एण्ड बिलकाक्स का दबाव है कि आपात स्थिति में उनके ऊपर कोई भी लाइबिलिटी नहीं आये तो ही वे भारत के परमाणु बिजली उत्पादन के क्षेत्र में निवेश करेंगे। अमेरिका को उम्मीद है कि भारत सरकार इस अध्यादेश को कानून के रूप में परिवर्तित कर देगी और अमेरिकी कंपनियों की लापरवाही का जिम्मा अपने सिर पर ले लेगी। अमेरिकी संसद को संबोधित करते हुए हाल में दक्षिण एशियाई मामलों के सहायक सचिव राबर्ट ब्लैक ने भरोसा दिलाया है कि 'हमें उम्मीद है कि भारत इस दिशा में निर्णायक पहल करेगा और अमेरिकी कंपनियों पर लाइबिलिटी कम करेगा. इससे भारत में निवेश सुनिश्चित हो सकेगा।'

अमेरिकी प्रशासन अमेरिकी कंपनियों का हित देख रहा है। लेकिन क्या भारत सरकार की जिम्मेदारी नहीं है कि वह भारतीय नागरिकों के हितों की सुरक्षा करे? आखिर ऐसा क्यों होगा कि किसी संभावित परमाणु दुर्घटना के वक्त कंपनियों को सस्ते में छोड़ दिया जाएगा और उनकी कोई नागरिक जिम्मेदारी नहीं होगी? इस विधेयक का ड्राफ्ट फिक्की के साथ मिलकर एक 25 सदस्यीय टीम ने तैयार किया है जिसकी अध्यक्षता परमाणु उर्जा आयोग के अध्यक्ष एस के जैन ने की है। 57 पेज की इस रिपोर्ट के आधार पर बने अध्यादेश को ही परमाणु नागरिक सुरक्षा अधिनियम बनाकर संसद में प्रस्तुत किया जाना है. इसमें कोई शक नहीं कि फिक्की भारत के नागरिकों की बजाय भारतीय कंपनियों के हितों की रक्षा के लिए काम करती है और भारत में कई कंपनियां परमाणु बिजली के क्षेत्र में प्रवेश के लिए तैयारी कर रही हैं जिसमें टाटा पॉवर, रिलायंस, जीएमआर, जिंदल, एल एण्ड टी जैसी निजी कंपनियों के अलावा सरकारी निगम भी शामिल हैं। फिक्की की साफ दलील है कि दुर्घटना की किसी भी स्थिति में परमाणु बिजलीघर बनानेवाली कंपनी की स्थिति परिस्थिति का ध्यान रखकर ही जुर्माना तय किया जाना चाहिए। यह सही नहीं है। खुद अमेरिका में अगर परमाणु विकिरण से जुड़ी कोई घटना हो तो न्यूनत 10 अरब डालर का जुर्माना लगाने का अधिकार सरकार के पास है। इसी तरह जापान में 1.47 अरब डालर, कनाडा में 650 मिलियन डॉलर का जुर्माना लगाने का प्रावधान है। ये प्रावधान पर्याप्त हैं ऐसा भी नहीं है। यूक्रेन के चेर्नोबिल हादसे में लगभग 250 अरब डालर के नुकसान का अंदेशा है। जर्मनी ने तो इन देशों के आगे जाकर नियम बना रखा है। किसी भी संभावित परमाणु हादसे के समय वहां की सरकार कंपनी पर 2000 अरब यूरो से पांच हजार अरब यूरो के बीच कोई भी जुर्माना तय कर सकती है।

कनाडा के प्रतिरक्षा मंत्रालय द्वारा गठित एक समिति ने अपने अध्ययन में पाया कि टोरंटों के एक इलाके पर डर्टी बम जैसा कोई परमाणु बम गिरे तो उसकी सफाई और विकिरण मुक्ति पर कम से कम ढाई सौ अरब डालर खर्च होंगे। इसके साथ ही अर्थव्यवस्था को बी लगभग 23.5 अरब डालर का नुकसान होगा। अब सवाल यह है कि भारत जैसे विशाल और घनी आबादीवाले देश में जान माल का नुकसान कितना होगा? जो नागरिक संपत्तियों का नुकसान होगा उसकी भरपाई आखिर कंपनी क्यों नहीं करेगी? लेकिन दुर्भाग्य से इस विधेयक में भारतीय झोपड़ियों को रोशन करने का ऐसा उतावलापन दिखाई देता है जो झोपड़ी को रोशन करते हुए कब उसे पूरी तरह से जलाकर मटियामेट कर देगा इसका कोई भरोसा नहीं। और हद तो तब होगी जब ऐसा करनेवाली कंपनी इसके लिए कहीं से जिम्मेदार नहीं मानी जाएगी।
 

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