प्रकृति रक्षति रक्षिता

हम प्राकृतिक परिवेश में रहते हैं, मगर सारी गतिविधियाँ प्रकृति के खि़लाफ चलाते रहते हैं, जबकि प्राकृतिक तन्त्र सन्तुलन के सिद्धान्त पर आधारित है। इसीलिए अगर हमें प्राकृतिक जैव विविधता को अक्षुण्ण रखना है, तो हमें प्रकृति मित्र बनना पड़ेगा।कभी सुनामी तो कभी महातूफान, कभी बादल का फटना तो कभी काँपती धरती, कभी बाढ़ की विभीषिका तो कभी अकाल का रौद्र रूप — इन सभी प्राकृतिक आपदा की घड़ी में हजारों-लाखों सपने संजोती जीवन्त आँखें पल भर में पथरा जाती हैं। मौत के आगोश में बेबस जिन्दगी प्रकृति के प्रकोप की भेंट चढ़ जाती है। थमी जिन्दगी की आखिरी सांसें गिनते वक़्त उन चेहरों का रंग क्या हो जाता है, किसी को नहीं मालूम। मगर महाविनाश के इस महाताण्डव में बर्बाद जिन्दगियाँ, उनके टूटे सपने और उजड़ी हुई वीरान बस्तियाँ एक ही सवाल बार-बार दोहराती हैं—काश! इसके लिए हम तैयार रहे होते!

जरा सोचिए, क्या यह सिर्फ सृष्टि का आक्रोश है? या फिर हमारी, आपकी और उन तमाम लोगों की अनभिज्ञता व लापरवाही का नतीजा है?

इस धरती पर असंख्य प्रजातियाँ हैं, जिनके बल पर पूरे विश्व की मानवता को भोजन, आवास, दवा व अन्य आवश्यक संसाधन उपलब्ध हैं। मगर मौजूदा हालात में सुविधापरस्त इंसानों ने प्राकृतिक संसाधनों का जबर्दस्त दोहन किया है और मजे की बात यह है कि आए दिन होने वाली प्राकृतिक आपदाओं के बावजूद यह सिलसिला बदस्तूर जारी है।

जैव विविधता पर आयोजित हाल के सम्मेलनों की बात मानें, तो तस्वीर सचमुच डरावनी लगती है। इसके मुताबिक, हर घण्टे तीन प्रजातियाँ गायब हो रही हैं और हर रोज लगभग 150 प्रजातियाँ लुप्त हो रही हैं।

मौजूदा उपलब्ध शोध के आँकड़ों पर नजर दौड़ाएँ तो विश्व की कुल प्रजातियाँ 20 लाख से लेकर 10 करोड़ के बीच अनुमानित है। इतने बड़े फासले से पता चलता है कि इस क्षेत्र में कितना शोध कार्य करने की आवश्यकता है। इससे यह भी पता चलता है कि लुप्त होने वाले जीवों के बारे में ठीक-ठीक जानकारी उपलब्ध नहीं है। इण्टरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर के आँकड़ों की बात मानें, तो 2000 से लेकर अब तक केवल एक जानवर निश्चित रूप से लुप्त हुआ है और वह है—घोंघा।

बहरहाल, वर्ष 2012 में हैदराबाद में आयोजित अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन, सीओपी 11 में जैव विविधता को अक्षुण्ण रखने के लिए आर्थिक विकास, जनसांख्यिकी और प्राकृतिक संरक्षण में एक सन्तुलन कायम रखने का सुझाव दिया गया। इस सम्मेलन में एक नारा दिया गया जो कि संस्कृत साहित्य से उद्धृत है—‘‘प्रकृति रक्षति रक्षिता’’ अर्थात् अगर हम प्रकृति की रक्षा करेंगे, तो प्रकृति हमारी रक्षा करेगी।

वर्ष 2010 में नागोया में आयोजित जैव विविधता सम्मेलन में 2020 तक जिन 20 लक्ष्यों को पूरा करने की बात तय की गई, उस तर्क-वितर्क में भारत ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। सम्मेलन में से कुछ प्रमुख बातें निकल के आईं जो निम्न हैं :

1. प्राकृतिक आवास, जिसमें जंगल भी शामिल हैं, के क्षरण का दर कम से कम आधा, या जहाँ तक सम्भव हो सके, वहाँ शून्य हो जाना चाहिए।
2. 17 फीसदी भू-भाग व 10 फीसदी समुद्री व तटवर्ती क्षेत्रों की सुरक्षा अत्यावश्यक है।
3. कम से कम 15 फीसदी विकृत क्षेत्रों का पुनर्निर्माण जरूरी है।

विकसित देशों की प्रधानता वाले इन सम्मेलनों के इन निर्देशों का पालन करने के लिए सबसे ज्यादा विकासशील देशों पर ही दबाव डाला जाता है। मगर यहाँ यह उल्लेखनीय है कि भारत एक ऐसा देश है, जो जैव विविधता के संरक्षण के मामले में किसी भी दूसरे देश से हमेशा से आगे रहा है।

विश्व का पहला नेचर रिजर्व ईसा पूर्व 272-231 में सम्राट अशोक ने स्थापित किया था। अगर आधुनिक समय की बात करें, तो भारत जैव विविधता संरक्षण अधिनियम बनाने वाला सबसे पहला देश बना। जैव विविधता सम्मेलन के तीन प्रमुख लक्ष्यों— जैव विविधता संरक्षण, इसके दीर्घकालीन उपयोग को प्रोत्साहन और यह सुनिश्चित करना कि इसके इस्तेमाल का लाभ सभी वर्गों को समान रूप से प्राप्त हो सके, इन सबको लागू करने की दिशा में भारत सतत प्रयासरत है।

जिन जीवों के जीवन पर अभी खतरा मण्डरा रहा है, उनकी सूची में भारत की 10 फीसदी वनस्पति और इससे भी ज्यादा यहाँ के जीव-जन्तु शामिल हैं। वन्य जीवों में 80 स्तनधारी प्रजातियाँ, जिनमें से 47 पक्षी की प्रजातियाँ, तीन उभयचर और बड़ी संख्या में कीट-पतंग, तितलियाँ व भौंरे शामिल हैं।हालाँकि प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण व विकास कार्य, दोनों को साथ-साथ चलाना चुनौतीपूर्ण कार्य है। 1927 में बने भारतीय वन कानून (जिसमें अब तक कई बार संशोधन किए गए हैं) के तहत यह प्रावधान है कि अगर व्यापारिक उद्देश्यों के लिए जैव विविधता का किसी प्रकार उपयोग किया जाता है, तो इसके बदले में उचित मुआवजा भी देना होगा। 2006 में प्रस्तुत वन अधिकार अधिनियम जंगल के अलावा जमीन के अधिकार व स्थानीय समुदाय के हितों की भी वकालत करता है। नेशनल बायोडायवर्सिटी एक्शन प्लान के तहत ऐसे कई कदम उठाए गए हैं, जो कि जैव विविधता संरक्षण की दिशा में सार्थक हैं।

जैव विविधता का संरक्षण भारतीय संस्कृति की तह तक समाई हुई है। इस देश का एक चैथाई वन प्रदेश सुरक्षित क्षेत्र के रूप में व्यवस्थित है। फसलों की विविधता के मामले में भी भारत अग्रणी है। फिर चाहे चावल, दाल, ज्वार-बाजरा हो या फल व शाक-सब्जियाँ — इन सबकी जितनी किस्में भारत में उपलब्ध हैं, उतनी विरले ही मिलती हैं। पशुओं के मामले में भी कमोबेश यही स्थिति है। लगभग 140 प्रकार के घरेलू जानवर यहाँ पाए जाते हैं।

भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है और इस हैसियत से सबसे बड़े आर्थिक जगत के रूप में भी इसे प्रतिष्ठा हासिल है और दिन-प्रतिदिन यह प्रगति पथ पर भी आगे बढ़ रहा है। विविध संस्कृति-सभ्यता और पारम्परिक ज्ञान के मामले में बेमिसाल इस देश की जैव विविधता पूरे ब्रह्माण्ड में सबसे ज्यादा विविध है। अगर पूरे विश्व के भू-भाग की बात करें, तो भारत का हिस्सा महज 2.4 फीसदी है, विश्व जनसंख्या का 18 फीसदी और विश्व की प्रजातियों का 8 फीसदी हिस्सा भारत का है।

भारत में 45,000 पौधों की और 89,000 जीवों की प्रजातियाँ हैं, जो कि पूरे विश्व के जीव जगत का 6.5 हिस्सा है। भारत विश्व के दो सबसे बड़े ‘हॉट स्पॉट’ का भी स्थल है — पूर्वी हिमालय व पश्चिमी घाट। जिन जीवों के जीवन पर अभी खतरा मण्डरा रहा है, उनकी सूची में भारत की 10 फीसदी वनस्पति और इससे भी ज्यादा यहाँ के जीव-जन्तु शामिल हैं। वन्य जीवों में 80 स्तनधारी प्रजातियाँ, जिनमें से 47 पक्षी की प्रजातियाँ, तीन उभयचर और बड़ी संख्या में कीट-पतंग, तितलियाँ व भौंरे शामिल हैं। नर वानर की 19 में से 12 प्रजातियों का अस्तित्व खतरे में है।

भारत की जैव विविधता को अक्षुण्ण रखने में सबसे बड़ी चुनौती यहाँ की विशाल जनसंख्या है। ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि 2030 तक देश में डेढ़ से दो अरब की जनसंख्या हो जाएगी। चूँकि मानव द्वारा कुल फोटोसिंथेसिस उत्पादन का 40 फीसदी इस्तेमाल किया जाता है, इसलिए यह सहजता से अनुमान लगाया जा सकता है कि इतनी विशाल जनसंख्या हो जाने के बाद जैव विविधता पर किस प्रकार का बुरा असर पड़ सकता है।

पिछले 50 सालों में शहरों पर केन्द्रित औद्योगीकरण का विकास एवं नये-नये उद्योगों को स्थापित करने में बड़े पैमाने पर प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया गया। और इसके साथ ही जल, थल व वायु प्रदूषण में भी इजाफा हुआ।

इसके साथ ही, पारम्परिक तरीके से होने वाली खेती की जगह औद्योगिक तरीके की खेती का प्रचलन बढ़ गया। इसी के चलते हानिकारक कीटनाशक व खाद आदि के प्रयोग धड़ल्ले से होने लगे और जैव विविधता संकट में आ गई।

जैव विविधता को संरक्षित रखने के लिए भारत में जैव-आर्थिकी रणनीति अपनाने की आवश्यकता है। राष्ट्रीय जैव विविधता मिशन को आगे बढ़ाते हुए इस बात का खयाल रखना होगा कि गरीबों की जिन्दगी खुशहाल बन सके न कि चँद अमीरों की झोली भरती जाए। आर्थिक समानता के बाद जैव विविधता को कायम रखना आसान हो जाएगा। महात्मा गाँधी ने अन्त्योदय के माध्यम से सर्वोदय की बात कही थी। यानी कि समाज के हाशिए पर मौजूद जन सामान्य के विकास के माधयम से ही असली सर्वोदय सम्भव है। हालाँकि गाँधी जी के आर्थिक उदय के इस फॉर्मूले को आधुनिकतावादी दृष्टिकोण ने नहीं स्वीकारा और देश में औद्योगिक क्रान्ति नयी राह बनाने लगी।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस प्राकृतिक परिवेश में एक भी जीव अगर अस्तित्व से गायब होता है, तो इसका विपरीत असर पूरे पारितन्त्र पर पड़ता है। अब सवाल उठता है कि आधुनिक जीवनशैली में क्या यह संकल्प लेना और उसे निभाना सम्भव है कि किसी भी जीव को हानि नहीं पहुँचे? इसका उत्तर ढूँढने से पहले हमें यह तय कर लेना पड़ेगा कि एक आदर्श जीवनशैली है क्या? अगर हम एक आदर्श जीवनशैली की बात करें, तो वह है — सह-रचनात्मकता व सह-जीविता, जो कि भारतीय सामाजिक संस्कृति की तह तक समाई हुई है।

पारिस्थितिकी का अध्ययन करने वाले यह मानते हैं कि हर एक प्रजाति की सृष्टि में खास भूमिका होती हैं। यही वजह है कि एक भी प्रजाति के लुप्त हो जाने पर संसार में एक बड़ी कमी आ जाती है और इसका असर पूरी मानवता पर पड़ता है। जिस तरह से प्राकृतिक आपदाएँ विनाशलीला मचाती है, अब यह महसूस किया जाने लगा है कि प्रकृति में असन्तुलन का नतीजा क्या हो सकता है।

लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह कि आखिर इतना जानते-समझते भी प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन क्यों किया जाता है? क्यों पारिस्थितिकी से जुड़ी अहम बातों को भी हाशिये पर रखा जाता है? इसका एक सीधा उत्तर यह है कि हम अपनी जीवनशैली में बदलाव नहीं लाना चाहते। हम एक ऐसी जीवनशैली के अधीन हो चुके हैं, जो हमें विनाशकारी विकास के रास्ते ले जा रही है। भोगवादी दृष्टिकोण पर आधारित आधुनिक जीवनशैली एक नशे की तरह काम कर रही है।

बाजारवाद व मॉल-संस्कृति ने नयी सभ्यता में एक खास जगह बना ली है। उपभोग करने का स्तर अब किसी व्यक्ति की प्रभुता को स्थापित करने लगा है। जो जितना ज्यादा भोग-उपभोग करने के लायक है, उसे उतनी ही ज्यादा प्रतिष्ठा मिलने लगी है। लेकिन ऐसी स्थिति तक मानवता पहुँची कैसे? इस पर विश्लेषण करने वाला एक तबका यह बताता है कि वैज्ञानिक क्रान्ति की आँधी इन सबके लिए जिम्मेदार है।

प्रगति और विकास के नाम पर पूरी दुनिया में जिस प्रकार की होड़ मची, वह कहीं से भी मानव जाति के लिए कल्याणकारी नहीं है। भोगवादी संस्कृति का बोलबाला धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है, जिसकी छत्रछाया में इस बात को नजरअन्दाज किया गया कि कौन-सी वस्तुएँ मानवता के लिए हितकारी होंगी। आरामदायक वस्तुएँ व तकनीक धड़ल्ले से पूरी दुनिया में छाने लगी। सुविधापरक नयी वस्तुओं की खोज में इस बात का जरा-सा भी खयाल नहीं रखा गया कि इसका पर्यावरण व पारिस्थितिकी पर क्या असर पड़ेगा।

मजेदार बात तो यह है कि हम मानवाधिकार की बात तो करते हैं, मगर भूल जाते हैं कि प्रकृति को भी मौलिक अधिकार प्राप्त है। और अगर हम उसके अधिकारों का हनन करते जाएँगे, तो स्वाभाविक है कि एक-न-एक दिन हमें इसका दुष्परिणाम भुगतना ही पड़ेगा।

कहा जाता है कि आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है। मगर आज ऐसे-ऐसे आविष्कार किए जा रहे हैं, जो कई तरह की आवश्यकताओं को जन्म देने लगे हैं। ऐसे में तो यही कहा जा सकता है कि आविष्कार ही आवश्यकताओं की जननी बन गई है।

पारिस्थितिकी का अध्ययन करने वाले यह मानते हैं कि हर एक प्रजाति की सृष्टि में खास भूमिका होती हैं। यही वजह है कि एक भी प्रजाति के लुप्त हो जाने पर संसार में एक बड़ी कमी आ जाती है और इसका असर पूरी मानवता पर पड़ता है।उपभोक्तावादी संस्कृति के विषय में मार्शल का कथन है, ‘‘ हालाँकि आरम्भिक समय में मनुष्य की यह चाहत ही थी जिसने विकास को जन्म दिया और कई तरह की गतिविधियों का ईजाद किया। लेकिन बाद के समय में हर गतिविधियाँ जो विकास के नाम पर होने लगीं, उनसे नयी-नयी चाहतें जगने लगीं।’’ विज्ञापन के माध्यम से तरह-तरह की कृत्रिम माँगें सामने आने लगीं और लालच के वशीभूत लोग लुभावनी चीजों के प्रति आकर्षित होते चले गएँ। लेकिन इस होड़ में हम यह भूल गए कि आरामतलबी के लिए ईजाद की गई वस्तुओं के निर्माण में प्राकृतिक सन्तुलन बिगड़ता चला गया।

जरा कल्पना कीजिए कि आप एक पशु या पक्षी होते! ऐसे में आप उन्हीं चीजों के लिए श्रम करते, जिनसे आपकी बुनियादी जरूरतें पूरी हो जातीं। मसलन, अगर आपको पशु या पक्षी होते हुए भोजन की आवश्यकता होती, तो आप दैनिक जीवन में इसका प्रयास करते कि किस तरह से आपको आपका आहार मिल जाए और आपका जीवन चलता रहे। लेकिन आप इंसान हैं और आपने अपनी सुख-सुविधा की तमाम चीजें ईजाद कर लीं।

लेकिन सच तो यह है कि विकास का पहिया और प्राकृतिक संरक्षण का चक्र एक साथ घूम सकता है। जहाँ आर्थिक प्रगति और सतत विकास के लिए जैव विविधता का संरक्षण जरूरी है, वहीं इसमें व्यापार के विकास की भी सम्भावना है। जैसे, जैविक खाद व फल-सब्जियाँ, प्राकृतिक सौन्दर्य प्रसाधन सामग्रियाँ व इको-टूरिज्म आदि क्षेत्र।

पर्यावरण संरक्षण पर बड़ी-बड़ी बातें करने की जगह हमें कुछ छोटी-छोटी चीजों का खयाल रखना पड़ेगा। मसलन, अधिक से अधिक पौध-रोपण करें जिससे गर्मी व भू-क्षरण आदि से तो बचाव होगा ही, साथ ही पक्षियों को भी बसेरा मिल सकेगा। पर्यावरण में असन्तुलन बढ़ाने वाले कारकों, जैसे जनसंख्या वृद्धि, अन्धाधुन्ध औद्योगीकरण और रसायनों के अधिकाधिक प्रयोगों से हमें बचना होगा।

संयोगवश, जल, जंगल और जमीन— इन्हीं तीनों की प्रचुरता से समृद्धि बढ़ती है और भारत को ये तीनों चीजें प्रचुरता में हासिल है। लेकिन इनका संरक्षण रखना बहुत जरूरी है।

जैव विविधता कायम रखने के लिए जहाँ एक ओर हमें जल-विभाजक विकास के लिए सुनियोजित कार्यक्रम चलाने पड़ेंगे, वहीं पर्यावरणीय पुनर्नवीकरण का कार्य भी करना होगा। जहाँ एक ओर पारम्परिक तरीके से खेती को बढ़ावा देना होगा, वहीं जैव विविधता के क्षेत्र में शोध कार्य भी करने होंगे।

हम प्राकृतिक परिवेश में रहते हैं, मगर सारी गतिविधियाँ प्रकृति के खि़लाफ चलाते रहते हैं, जबकि प्राकृतिक तन्त्र सन्तुलन के सिद्धान्त पर आधारित है। इसीलिए अगर हमें प्राकृतिक जैव विविधता को अक्षुण्ण रखना है, तो हमें प्रकृति मित्र बनना पड़ेगा। और यह तभी सम्भव है, जब हम खुद से यह सवाल करें कि अपनी लालच को पूरा करने के लिए तो हम खूब प्रतिस्पर्धा करते हैं, पर क्या कभी हमने प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित रखने की प्रतिस्पर्धा की?

तेजी से बदल रही इस दुनिया में तकनीकी प्रगति का आलम यह है कि एक नयी तकनीक ठीक तरीके से व्यवहार में आई भी नहीं कि़ दूसरी तकनीक उसकी जगह लेने को आ जाती है। ऐसा हो सकता है कि कुछ सालों बाद हमारे सामने ऐसे फोन आ जाएँगे, जिन्हें मन में उठने वाले विचारों से ऑपरेट किया जा सकेगा, ऐसी कारें आ जाएँगी, जिनके लिए चालक की आवश्यकता नहीं रह जाएगी, शरीर के किसी भी अंग का प्रत्यारोपण सम्भव हो जाएगा। मगर सवाल उठता है कि क्या तकनीकी प्रगति और प्रकृति के साथ सहजीवन दोनों साथ-साथ चल सकते हैं? बेशक। प्रकृति की गोद में रह कर हम सह-अस्तित्व की रक्षा व सम्मान करते हुए आधुनिकता की मशाल जलाए रख सकते हैं। बशर्ते, हम संवेदनशीलता से सृजनशीलता का सिद्धान्त अपना सकें। इस मामले में राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह की अनमोल पंक्तियाँ मानवता को कुछ खास सन्देश दे रही हैं :

‘‘आखिर इस प्रगति के चलते हमने क्या-क्या नहीं खोया और क्या-क्या नहीं पाया? ज्ञान खोया, विज्ञान पाया। श्रद्धा खोई, अभिज्ञता पाई। विश्वास खोया, तर्क पाया। स्वास्थ्य खोया, इलाज पाया और दिल खोया, दिमाग पाया।’’

(लेखक टाइफैक (टेक्नोलॉजी इन्फॉर्मेशन फॉर कास्टिंग एण्ड एसेसमेण्ट काउंसिल), विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग में सूचना एवं जनसम्पर्क अधिकारी हैं)
ई-मेल : maanbardhan@gmail.com

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