प्रकृति रक्षा को संवैधानिक मान्यता

विश्व के विभिन्न देशों के संविधानों में मनुष्य के अधिकारों की चर्चा तो बार-बार और विभिन्न कोणों से हुई है, पर ऐसा बहुत कम सुना गया है कि किसी देश के संविधान में प्रकृति के अधिकारों की रक्षा करने के महत्व को स्वीकार किया गया है, या प्रकृति के किसी अधिकार के अस्तित्व को मान्यता दी गई है। मौजूदा दौर में इस कमी को दक्षिण अमेरिका स्थित दो देशों बोलीविया व इक्येडॉर के संविधान या कानूनों में दूर किया गया है। वहां प्रकृति के अधिकारों को संविधान में शामिल किया गया है। इक्येडॉर के संविधान में कहा गया है कि प्रकृति को अपनी मूल स्थिति बनाए रखने व अपनी विभिन्न प्रक्रियाओं व कार्यों को निभाते रहने का अधिकार है। इसका अर्थ यह हुआ कि धरती की जीवनदायिनी क्षमता के अनुकूल प्रकृति के विभिन्न रूप जैसे वायुमंडल, नदी, सागर, जल स्रोत, पर्वत, वन, मिट्टी, वनस्पति और विभिन्न जीवों आदि की जो भूमिका है, उन सबकी रक्षा होनी चाहिए और इसे एक कानूनी व संवैधानिक जिम्मेदारी के रूप में मान्यता मिलनी चाहिए। नदियों को अपना ऐसा प्राकृतिक प्रवाह बनाए रहने का अधिकार है ताकि वे अपने प्राकृतिक संतुलन की भूमिका निभा सकें व नदियों में रहने वाले जीवों की रक्षा हो सके। समुद्र में जीवन जी रहे लाखों तरह के जीवों को अपने अस्तित्व की रक्षा का अधिकार है। यही बात अन्य जल-स्रोतों, वनों, पहाड़ी आदि पर भी लागू होती है।

एक अन्य देश बोलीविया में प्रकृति के अधिकारों को मान्यता देने संबंधी कानून बनने की प्रक्रिया चल रही है। इसमें प्रकृति के विभिन्न रूपों को यह अधिकार दिए जाने की उम्मीद है कि मनुष्य की गतिविधियों के असर से अपना मूल चरित्र बदले बिना वह अपनी विभिन्न प्रक्रियाओं को जारी रख सकें, विभिन्न जीवन रूपों की रक्षा हो सके, शुद्ध हवा व पानी का अधिकार व प्रदूषण से बचाव का अधिकार सभी जीवों को मिले तथा पौधों व जीवों को जेनेटिक स्तर पर कृत्रिम ढंग से किए गए बदलाव से सुरक्षा मिले। इस तरह के अधिकारों को कानूनी रूप मिलने से पर्यावरण के मुद्दों को आगे रखने में जो बाधाएं आती हैं, उन्हें दूर करने की नई संभावनाओं को बल मिलता है। सच यह है कि यह धरती पर सब तरह के जीवन को समग्र दृष्टिकोण से देखने की नई सोच लग सकती है, पर इसकी जड़ें कहीं न नहीं प्राचीन सभ्यताओं और संस्कृतियों में ही निहित हैं।

इक्येडॉर और बोलीविया जैसे कुछ लैटिन अमेरिकी देशों में हाल के आंदोलनों और सत्ता-परिवर्तन के कारण यहां के मूल निवासियों या आदिवासियों को सत्ता में प्रवेश करने का अवसर मिला है। इनकी प्राचीन सभ्यता और संस्कृति में प्रकृति के प्रति श्रद्धा व सम्मान और सब जीवों, पेड़-पौधों के प्रति सह-अस्तित्व का भाव है। इस जीवन-दर्शन के अनुसार धरती हमारी मां के समान है और इसकी गोद में हर तरह के जीवन को पनपने का समान हक है। धरती पर सब तरह के जीव समान रूप से पलें-बढ़ें, इसके लिए जरूरी है कि धरती की जीवनदायिनी क्षमता को बनाए रखा जाए, प्रकृति के विभिन्न रूपों की रक्षा की जाए। पृथ्वी का दो-तिहाई हिस्सा समुद्र रूप में है। इसमें रहने वाले जीवों की संख्या मनुष्यों की संख्या से कई गुणा अधिक है। पर अपने अनुचित विवेकहीन कार्यों से मनुष्य ऐसे करोड़ों जीवों को प्रतिवर्ष मारता है या उनके जीवन पनपने की परिस्थितियों को ही नष्ट कर देता है। यही स्थिति धरती पर मौजूद वनों, नदियों, आदि के बारे में भी कही जा सकती है। पर्यावरण की रक्षा व विभिन्न जीवों की रक्षा की बात आधुनिक समाज में भी कई लोगों ने की है, पर इसे उचित प्राथमिकता कभी नहीं दी जा सकी है। जीवों की बात की भी गई तो यह बाघ जैसी कुछ विशेष प्रजातियों के संरक्षण तक ही सिमट कर रह गई।

अब आदिवासी सभ्यता और संस्कृति के नवजागरण से यह संभावना उत्पन्न हुई है कि धरती मां की जीवनदायिनी क्षमता को बचाने व सभी जीवों का जीवन बचाने को न सिर्फ उच्च प्राथमिकता मिले बल्कि संवैधानिक मान्यता भी मिले। वैसे तो ऐसे उदात्त विचारों का हर देश काल में स्वागत होना चाहिए, पर आज के जलवायु बदलाव व परमाणु हथियारों के दौर में यह और भी जरूरी है। इस दौर में तो धरती पर विविध तरह के जीवन के अस्तित्व मात्र के लिए खतरा उत्पन्न हो रहा है और इस संकट का सामना करने के लिए ऐसी ही सोच की जरूरत है। यह सोच बेशक प्राचीन ऐतिहासिक सभ्यताओं के जीवन-दर्शन से निकले तो भी उसका स्वागत होना चाहिए।

Path Alias

/articles/parakartai-rakasaa-kao-sanvaaidhaanaika-maanayataa

Post By: Hindi
×