प्रकृति, पर्यावरण और स्वास्थ्य का संरक्षक कदंब


कदंब भारतीय उपमहाद्वीप में उगने वाला शोभाकर वृक्ष है। सुगंधित फूलों से युक्त बारहों महीने हरे, तेज़ी से बढ़नेवाले इस विशाल वृक्ष की छाया शीतल होती है। इसका वानस्पतिक नाम एन्थोसिफेलस कदम्ब या एन्थोसिफेलस इंडिकस है, जो रूबिएसी परिवार का सदस्य है। उत्तरप्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, बंगाल, उड़ीसा में यह बहुतायत में होता है। इसके पेड़ की अधिकतम ऊँचाई ४५ मीटर तक हो सकती है। पत्तियों की लंबाई १३ से २३ से.मी. होती हैं। अपने स्वाभाविक रूप में ये चिकनी, चमकदार, मोटी और उभरी नसों वाली होती हैं, जिनसे गोंद निकलता है।

चार पाँच वर्ष का होने पर कदंब में फूल आने शुरू हो जाते हैं। कदंब के फूल लाल गुलाबी पीले और नारंगी रंग की विभिन्न छायाओं वाले हो सकते हैं। अन्य फूलों से भिन्न इनके आकार गेंद की तरह गोल लगभग ५५ से.मी. व्यास के होते हैं जिसमें अनेक उभयलिंगी पुंकेसर कोमल शर की भाँति बाहर की ओर निकले होते हैं। ये गुच्छों में खिलते हैं इसीलिए इसके फल भी छोटे गूदेदार गुच्छों में होते हैं, जिनमें से हर एक में चार संपुट होते हैं। इसमें खड़ी और आड़ी पंक्तियों में लगभग ८००० बीज होते हैं। पकने पर ये फट जाते हैं और इनके बीज हवा या पानी से दूर दूर तक बिखर जाते हैं। कदंब के फल और फूल पशुओं के लिए भोजन के काम आते हैं। इसकी पत्तियाँ भी गाय के लिए पौष्टिक भोजन समझी जाती हैं। इसका सुंगंधित नारंगी फूल हर प्रकार के पराग एकत्रित करने वाले कीटों को आकर्षित करता है जिसमें अनेक भौंरे मधुमक्खियाँ तथा अन्य कीट शामिल हैं।

कदंब की कई जातियाँ पाई जाती हैं, जिसमें श्वेत-पीत लाल और द्रोण जाति के कदंब उल्लेखनीय हैं। साधारणतया यहाँ श्वेत-पीप रंग के फूलदार कदंब ही पाए जाते हैं। किन्तु कुमुदबन की कदंबखंडी में लाल रंग के फूल वाले कदंब भी पाए जाते हैं। श्याम ढ़ाक आदि कुख स्थानों में ऐसी जाति के कदंब हैं, जिनमें प्राकृतिक रुप से दोनों की तरह मुड़े हुए पत्ते निकलते हैं। इन्हें 'द्रोण कदंब' कहा जाता है। गोबर्धन क्षेत्र में जो नवी वृक्षों का रोपण किया गया है, उनमें एक नए प्रकार का कदंब भी बहुत बड़ी संख्या में है। ब्रज के साधारण कदंब से इसके पत्ते भिन्न प्रकार के हैं तथा इसके फूल बड़े होते हैं, किन्तु इनमें सुगंध नही होती है। महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र में जो कदंब होता है, उसका फल काँटेदार होता है। मध्य काल में ब्रज के लीला स्थलों के अनेक उपबनों में अनेक उपबनों इस वहुत बड़ी संख्या में लगाया गया था। वे उपबन 'कदंबखंडी' कहलाते हैं।

कदंब का तना १०० से १६० सेंटीमीटर व्यास का, चिकना, सफेदी लिए हुए हल्के भूरे रंग का होता है। बड़े होने पर यह खुरदुरा और धारीदार हो जाता है। और अधिक पुराना होने पर धारियाँ टूट कर चकत्तों जैसी बन जाती हैं। कदंब की लकड़ी सफ़ेद से हल्की पीली होती है। इसका घनत्व २९० से ५६० क्यूबिक प्रति मीटर और नमी लगभग १५ प्रतिशत होती है। लकड़ी के रेशे सीधे होते हैं यह छूने में चिकनी होती है और इसमें कोई गंध नहीं होती। लकड़ी का स्वभाव नर्म होता है इसलिए औज़ार और मशीनों से यह आसानी से कट जाती है। यह आसानी से सूख जाती है और इसको खुले टैंकों या प्रेशर वैक्युअम द्वारा आसानी से संरक्षित किया जा सकता है। इसका भंडारण भी लंबे समय तक किया जा सकता है। इस लकड़ी का प्रयोग प्लाइवुड के मकान, लुगदी और काग़ज़, बक्से, क्रेट, नाव और फर्नीचर बनाने के काम आती है। कदम के पेड़ से बहुत ही उम्दा किस्म का चमकदार काग़ज़ बनता है। इसकी लकड़ी को राल या रेज़िन से मज़बूत बनाया जाता है। कदंब की जड़ों से एक पीला रंग भी प्राप्त किया जाता है।

जंगलों को फिर से हरा भरा करने, मिट्टी को उपजाऊ बनाने और सड़कों की शोभा बढ़ाने में कदंब महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह तेज़ी से बढ़ता है और छे से आठ वर्षों में अपने पूरे आकार में आ जाता है। इसलिए जल्दी ही बहुत-सी जगह को हरा भरा कर देता है। विशालकाय होने के कारण यह ढ़ेर-सी पत्तियाँ झाड़ता है जो ज़मीन के साथ मिलकर उसे उपजाऊ बनाती हैं। सजावटी फूलों के लिए इसका व्यवसायिक उपयोग होता है साथ ही इसके फूलों का प्रयोग एक विशेष प्रकार के इत्र को बनाने में भी किया जाता है। भारत में बननेवाला यह इत्र कदंब की सुगंध को चंदन में मिलाकर वाष्पीकरण पद्धति द्वारा बनाया जाता है। ग्रामीण अंचलों में इसका उपयोग खटाई के लिए होता है। इसके बीजों से निकला तेल खाने और दीपक जलाने के काम आता है। आदिवासियों की कदंब वृक्ष के प्रति गहरी श्रद्घा होती है। बच्चों में हाजमा ठीक करने के लिए कदंब के फलों का रस बहुत ही फ़ायदेमंद होता है। इसकी पत्तियों के रस को अल्सर तथा घाव ठीक करने के काम में भी लिया जाता है। आयुर्वेद में इसकी सूखी लकड़ी से ज्वर दूर करने की दवा तथा मुँह के रोगों में पत्तियों के रस से कुल्ला करने का उल्लेख मिलता है।

जयपुर के सुरेश शर्मा ने कदंब के पेड़ से एक ऐसी दवा विकसित की है जो टाइप-२ डायबिटीज का उपचार कर सकती है। भारत सरकार के कंट्रोलर जनरल ऑफ पेटेंट्स द्वारा इस दवा का पेटेंट भी दे दिया गया है और विश्व व्यापार संगठन ने इसे अंतर्राष्ट्रीय वर्गीकरण नंबर प्रदान किया है। डॉ. शर्मा के अनुसार कदंब के पेड़ों में हाइड्रोसिनकोनाइन और कैडेमबाइन नामक दो प्रकार के क्विनोलाइन अलकेलॉइड्स होते हैं। इनमें से हाइड्रोसिनकोनाइन शरीर में बनने वाली इंसुलिन के उत्पादन को नियंत्रित करता है और कैडेमबाइन इंसुलिन ग्राहियों को फिर से इंसुलिन ग्रहण करने के प्रति संवेदनशील बना देता है। गौरतलब है कि टाइप-२ डायबिटीज में या तो शरीर पर्याप्त इंसुलिन पैदा नहीं करता है या फिर कोशिकाएँ इंसुलिन ग्रहण करने के प्रति संवेदनशीलता खो देती हैं यानी इंसुलिन ग्रहण करना छोड़ देती हैं। फिलहाल इस दवा का व्यवसायिक निर्माण प्रारंभ नहीं हुआ है।

इस प्रकार कदंब का वृक्ष प्रकृति और पर्यावरण को तो संरक्षण देता ही है, ओषधि और सौन्दर्य का भी महत्त्वपूर्ण स्रोत है। इसकी उपयोगिता के कारण ही इसके संरक्षण और विकास के अनेक प्रयत्न किए जा रहे है।
 
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