भारत में कृषि पद्धति के दो अध्याय हैं- पहले अध्याय के अन्तर्गत आती है प्रकृति के कायदे-कानूनों को ध्यान में रखती परम्परागत खेती और दूसरे अध्याय में सम्मिलित है कुदरत के कायदे-कानूनों की अनदेखी करती परावलम्बी रासायनिक खर्चीली खेती। पहली खेती के बारे में बूँदों की संस्कृति (पेज 274) में उल्लेख है कि जब अंग्रेज भारत आये तो उन्होंने पाया कि यह जगह बहुत समृद्ध है, लोग सभ्य और शिक्षित हैं, कला, शिल्प और साहित्य का स्तर बहुत ऊँचा है।
इस देश की समृद्धि किसी उपनिवेश की लूट से नहीं बनी थी, बल्कि अपने संसाधनों के बल पर बनी थी। गाँवों में अपनी जरूरत से ज्यादा उत्पादन उनके आगे बढ़ने में मददगार था ही, नगर और भी टिकाए हुआ था। सदियों से भारतीयों ने अपनी जल-जमीन और जलवायु के अन्य संसाधनों का कुशल तथा टिकाऊ प्रबन्ध करना सीख लिया था।
हर गाँव ने अपने आसपास की जमीन को सदियों के अनुभव और जरूरत के अनुसार खेत, खलिहान, चारागाह (गोचर), जंगल और बाग-बगीचों के रूप में ऐसी संशिलिष्ट (सहजीवन) प्रणाली विकसित कर ली थी जो एक दूसरे पर निर्भर थी, एक-दूसरे की मदद करती थी। स्थानीय जरूरतों और जलवायु के अनुकूल थी एवं बारिश कम-ज्यादा होने के सामाजिक और आर्थिक असर को कम-से-कम करने में सक्षम थी।
भारत में बारिश के कुछ खास दिनों में पड़ने के चलते भारतीयों ने जल संचय और उपयोग की ऐसी असंख्य तरकीबें विकसित की थीं जिससे साल भर पानी की जरूरतें पूरी होती रहें और ऐसा करते हुए जल प्रबन्धन में वे शायद दुनिया के किसी भी समाज से ज्यादा विकसित थे। उन्होंने नदियों पर विशालकाय बाँध नहीं बनाए थे। उन्होंने अपने गाँव के ऊपर पड़ने वाले बरसाती पानी को ही नदियों में जाने के पूर्व ही अगोर लेने की तरकीबें विकसित की थीं। इसी विशेषता के कारण किसानों ने खेती को कुदरत के अनुकूल ढाल कर एक ही फसल की अलग-अलग समयावधि में पकने वाली अनेक किस्मों का विकास किया था।
वर्षा की अनिश्चितता, खेत की स्थिति तथा मिट्टी और बीजों के घनिष्ट सम्बन्ध को समग्रता में समझा था। मौसम की प्रतिकूलता से निपटने के लिये अलग-अलग अवधि में पकने वाली फसलें बोकर कंगाली से बचने का व्यावहारिक तरीका खोजा था। इसे अपनाने के कारण दो जून की रोटी के लाले नहीं पड़ते थे।
परम्परागत खेती में सिंचाई की सुविधा वाले या नमी सहेजने में सक्षम खेतों में दो फसलें ली जाती थीं। मिट्टी की गुणवत्ता सुधारने के लिये फसलों की अदला-बदली, गोबर के खाद का उपयोग तथा खेत को विश्राम देने का चलन था। माली हालत ठीक-ठाक बनाए रखने के लिये पशुपालन को सहायक इकाई बनाया था। उस व्यवस्था के कारण बिना कुछ अतिरिक्त खर्च किये खेत बखरने एवं परिवहन के लिये बैल, धरती को खाद और परिवार को दूध दही मिल जाता था।
परम्परागत खेती के अन्तर्गत खाद, बीज और कीटनाशकों का पूरा ताना-बाना स्वावलम्बी और प्राकृतिक घटकों पर आधारित था। उसके कारण हानिकारक बीज, अनुत्पादक खेत, घटिया मिट्टी, प्रदूषित पानी और किसान असहाय नहीं हो पाता था। यदाकदा आने वाले अकालों के बावजूद खेतिहर समाज ‘उत्तम खेती, मध्यम बान, अधम चाकरी, भीख निदान’ कहते नहीं थकता था। खेती निरापद थी, जानलेवा नहीं पर अब उसका पटाक्षेप हो गया है।
भारत में खेती के दूसरे अध्याय की नींव 19वीं सदी के आखिर और 20वीं सदी के प्रारम्भ में पड़ी। प्रारम्भ में उसे राजस्व कमाने का जरिया बनाया गया। अंग्रेजों ने किसान पर उपज का 50 प्रतिशत लगान थोप दिया। सन 1855 के आसपास देश के अधिकांश हिस्सों में लगान की वास्तविक वसूली 50 प्रतिशत से भी अधिक हुई। सिंचित इलाके से जो लगान वसूला जाता था वह अक्सर पूरी पैदावार के बराबर बैठने लगा और कई बार तो उसकी मात्रा उपज से भी ज्यादा हो जाती थी। खेती की जमीन पर बढ़े लगान ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को कमजोर किया - खेती से होने वाली बचत घट गई।
अंग्रेजों ने सत्ता पर काबिज होते ही जलसंचय की कुदरत से तालमेल रखती भारतीय पद्धतियों को नकार कर नदियों पर बाँध, वियर तथा बैराज बनाये। उनके कारण नदियों का प्राकृतिक प्रवाह बाधित हुआ और जलाशयों में गाद जमा होना शुरू हुआ। सिंचाई के कारण एक ओर यदि ग्रामों में खेती का माली हालत सुधरी तथा रकबा बढ़ा तो दूसरी ओर चारागाह तथा जंगल की जमीनों में कमी आई। स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों के ह्रास का सिलसिला शुरू हुआ पर सत्ता तथा समाज ने उसके असर को अनुभव नहीं किया।
पानी की उपलब्धता के कारण पैदावार में वृद्धि हुई। उत्पादन वृद्धि ने एक ओर यदि किसान की आय को बढ़ाया तो दूसरी ओर खेती में पानी के महत्त्व को रेखांकित किया। उल्लेखनीय है कि दूसरे अध्याय की खेती में खेती के परम्परागत तौर-तरीकों के यथावत रहे। उनके यथावत रहने के कारण खेती की लागत यथावत रही। आय तथा लागत का अन्तर बढ़ा। उसके बढ़ने के कारण बचत बढ़ी। घर में अधिक धन आया। सम्पन्नता को सिंचाई व्यवस्था का परिणाम माना गया। खेती के दूसरे अध्याय का यह ऊषा काल था जो साधन जुटाने के चक्कर में अपने तथा नदियों के भविष्य का आकलन नहीं कर पाया।
नदी विज्ञान की अनदेखी की नींव आजादी के बाद पड़ी। उसका मुख्य कारण था नदियों पर बनने वाले बाँध। सभी जानते हैं कि आजादी के बाद आई बाढ़ों तथा दो बार पड़े अकाल के कारण भारत को अमेरिका से खाद्यान्न आपूर्ति के लिये समझौता (पीएल 480) करना पड़ा था।
इस समझौते की शर्तों ने देश के सोच को प्रभावित किया और सरकार ने देश को आत्मनिर्भर बनाने का फैसला लिया उत्पादन बढ़ाने के लिये सिंचाई योजनाओं को प्राथमिकता मिली और बाँध बनाने की होड़ मची। बाँधों ने खेतों को पानी उपलब्ध कराया। असिंचित रकबा सिंचित बना। सिंचाई के कारण उत्पादन बढ़ा। इस दौर में भी खेती के तौर-तरीके यथावत रहे। उत्पादन वृद्धि ने किसान की आय को बढ़ाया। एक बार फिर से किसानों की सम्पन्नता को सिंचाई व्यवस्था का परिणाम माना गया।
नदियों पर बाँधों के बनने के कारण प्राकृतिक जलचक्र बाधित हुआ। नदी द्वारा समुद्र को सौंपी जाने वाली गाद का कुछ हिस्सा जलाशयों में जमा हुआ। बाँध निर्माण व्यवस्था ने नदी की जिम्मेदारियों तथा प्रकृति के कायदे-कानूनों को ताक में रखने वाली प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया। परिणामों के संकेत मिलने लगे। सिंचित इलाकों में वाटर लागिंग तथा मिट्टी के खारेपन के इलाके पनपने लगे। खेती प्रभावित होने लगी। सामाजिक मुद्दे मुखर होने लगे पर पर्यावरण की हानि से समाज अनजान रहा।
नदी विज्ञान की अप्रत्यक्ष अनदेखी का तीसरा फैसला 11 अगस्त 1952 को अमेरिका और भारत के बीच भूजल भण्डारों की खोज के लिये हुआ। इसके बाद अधिक कुओं तथा नलकूपों को खोदने का सिलसिला प्रारम्भ हुआ। सस्ती बिजली तथा अधिक पानी खींचने वाले पम्पों के उपयोग के कारण भूजल दोहन को पंख लगे। भूजल आधारित खेती का रकबा बढ़ा। खेती के तौर-तरीके यथावत रहे। भूजल के दोहन से मिले बेहतर उत्पादन ने समृद्धि का अनुभव कराया।
सभी जानते हैं कि बरसात बाद भूजल ही, भारत की अधिकांश नदियों को जिन्दा रखता है। उसी को जब निकाल लिया तो आपूर्ति घट गई और नदियाँ प्यासी रह गईं। उसकी कमी ने कुओं, छोटी नदियों और नलकूपों को सुखाया, बड़ी नदियों के प्रवाह को घटाया और प्रदूषण को बढ़ाया। यह प्रकृति द्वारा नदी तंत्र को सौंपे कायदे-कानूनों की अनदेखी का सबसे अधिक खतरनाक परिणाम है।
कृषि क्षेत्र सबसे अधिक हानिकारक फैसला हरित क्रान्ति के कारण हुआ। इस फैसले की शर्तों को अमेरिका ने तय किया था। उन शर्तों ने भारतीय खेती की दिशा और दशा को पूरी तरह पलट दिया। अमेरिका ने हरित क्रान्ति की शिक्षा, प्रशिक्षण तथा प्रचार-प्रसार का जिम्मा लिया और डॉ. एम. एस. स्वामीनाथन ने भारत में हरित क्रान्ति की बागडोर सम्भाली। गौरतलब है कि हरित क्रान्ति के सभी घटक परम्परागत खेती में प्रयुक्त अवदानों की तरह उदार नहीं हैं।
हर अवदान किसान से अपनी कीमत वसूलता है और जब उसकी कीमत बढ़ती है तो बढ़ा हुआ बोझ भी किसान से वसूला जाता है। किसान ने इसे खेती से हुई आय तथा कर्ज से चुकाया। परिणामस्वरूप बाजार समृद्ध तथा किसान बदहाल हुआ। खेती में मिलने वाले अनुदानों और कर्ज ने किसान को नहीं अपितु बाजार को ताकत दी। पर्यावरण की अनदेखी करती खेती ने किसान की आय की नई इबारत लिख दी। इस इबारत के अनुसार किसान की हालत उस मधुमक्खी जैसी हो गई है जिसकी तकदीर को कभी कबीर ने निम्न शब्दों में व्यक्त किया था-
मधु माखी, मधु संचय।
मधुआ मधु ले जाय।।
अन्त में, दूसरे अध्याय में वर्णित मौजूदा खेती के सारे दावों के बावजूद परिणाम सामने हैं। प्राकृतिक संसाधनों और नदियों की दुर्दशा के प्रमाण सामने हैं इसलिये मौजूदा खेती के फायदों को प्राकृतिक संसाधनों, करोड़ों खर्च कर बनाए जलस्रोतों, नदियों और जीव-जन्तुओं सहित मनुष्यों की सेहत से जोड़कर परखना चाहिए। यह सेहतमन्द उत्पादन का भी मामला है। उन्नत खेती की निरन्तरता के लिये उसके समर्थकों को कुछ सीधे और कुछ टेढ़े सवालों के उत्तर खोजने होंगे।
सीधे सवालों में यदि उन्नत खेती की बढ़ती लागत और छोटे किसान की क्षमता का सम्बन्ध सहज नहीं रहा तो देश को करोड़ों अकुशल ग्रामीण मजदूरों तथा लघु और सीमान्त किसानों के लिये आवास, नौकरी या आजीविका के अवसर उपलब्ध कराना होगा। उस आकलन में बढ़ती आत्महत्याएँ सम्मिलित होंगी। आत्महत्याओं के लिये राहत बाँटना उत्तर नहीं होगा। उसमें खेती से बढ़ता मोहभंग भी सम्मिलित होगा। रासायनिक खेती के कारण पनपी सामाजिक तथा आर्थिक समस्याएँ सम्मिलित होंगी।
टेढ़े सवालों में प्राकृतिक संसाधनों की हानि और उसके आसन्न खतरे सम्मिलित हैं। उनकी बहाली और हानि सुधार पर होने वाला सम्भावित व्यय सम्मिलित है। बढ़ता जल संकट सम्मिलित है। सूखती और प्रदूषित होती नदियों का मुद्दा जुड़ा है। जैवविविधता सहित जीवन की निरन्तरता पर आसन्न संकट भी सम्मिलित है। टेढ़े सवालों में खाद्यान्नों में हानिकारक रसायनों की मानक से अधिक उपस्थिति के कारण उनसे विदेशी मुद्रा कमाने की कठिनाई और निर्यात की घटती सम्भावना भी सम्मिलित हैं। ऐसे और भी अनेक मुद्दे हैं लेकिन असली यक्ष प्रश्न यह है कि क्या प्रकृति के कायदों की अनदेखी करती खेती को भविष्य में कायम भी रखा जा सकता है?
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