प्रकृति का खाद्य मंडल

लोकाट पौधे का सिर्फ फल ही नहीं खाया जाता बल्कि उसकी गुठली को पीसकर एक प्रकार की ‘कॉफी’ बनाई जाती है, तो उसकी हरी पत्तियों से ‘चाय’ बनती है। वह बढ़िया औषधी का भी काम करती है। आड़ू तथा चेंडू के परिपक्व पत्तों से आयु बढ़ाने वाला टॉनिक बनता है। गर्मियों की ऋतु में जब धूप तेज होती है, किसी छायादार पेड़ के नीचे बैठे तरबूज खाने या शहद चाटने का मजा कुछ और ही होता है।

प्राकृतिक खाद्य के बारे में भी मेरा सोच वही है जो प्राकृतिक कृषि के बारे में है। जिस तरह प्राकृतिक कृषि की नकल उसके मूल रूप में यानी अ-विभेदकारी (नॉन-डिस्क्रिमनेटिंग) मन द्वारा देखी गई प्रकृति ही करती है, उसी तरह प्राकृतिक खुराक भी खान-पान का ऐसा तरीका है जिसमें जंगलों से एकत्रित खाद्य या प्राकृतिक कृषि से उगाए गए अनाज तथा प्राकृतिक ढंग से पकड़ी गई मछलियां आदि बगैर अ-विभेदकारी मन से हासिल की गई हों। हालांकि मैं गैर इरादतन कर्म तथा विधिरहित विधि की बात कर रहा हूं, हमारी दैनंदिन गतिविधियों के जरिए, कालांतर में जो ज्ञान हमने हासिल किया है, उसकी उपयोगिता को मैं स्वीकार करता हूं। भोजन पकाने में अग्नि और नमक के उपयोग को प्रकृति से अलग होने की दिशा में पहला कदम कह कर उसकी आलोचना की जा सकती है, लेकिन वह वास्तव में, चूंकि ऐसा सहज प्राप्त ज्ञान है जो आदि काल के मानव ने ही प्राप्त कर लिया था, उसे दैवी-बोध मानते हुए स्वीकारा जा सकता है।

वे फसलें जो हजारों - दस हजारों वर्षों तक इंसानों के साथ रहते हुए विकसित हुई हैं, उन्हें पूरी तरह किसानों की वि-भेदकारी (नॉन-डिस्क्रिमनेटिंग) बुद्धि की उपज न मानते हुए उनका उपयोग प्राकृतिक रूप से प्राप्त होने वाले खाद्य के रूप में किया जा सकता है लेकिन ऐसी किस्में जो प्राकृतिक परिस्थितियों द्वारा विकसित न होकर तात्कालिक रूप से कृषि विज्ञानियों द्वारा बदल दी गई हैं, या थोक के भाव में पैदा की गई मछलियां तथा पालतू प्राणी इस श्रेणी में आने के योग्य नहीं हैं। खेती, मछली पकड़ना, पशुपालन, रोजमर्रा की खाद्य आवश्यकताएं, कपड़ा, आवास, आध्यात्म, यानी यह जो कुछ सारा है, उसे प्रकृति के साथ एकात्मता स्थापित करना चाहिए। मैंने प्रस्तुत रेखा-चित्रों द्वारा ऐसी प्राकृतिक खुराक को समझने की कोशिश की, जो विज्ञान और दर्शन से परे जाती है। पहले चित्र में ऐसे खाद्य पदार्थों को एकत्र किया गया है, जिन्हें सबसे ज्यादा आसानी से प्राप्त किया जा सकता है।

इन खाद्यों को कमोबेश समूहों में जमाया गया है। दूसरे चित्र में वे खाद्य हैं जो साल के विभिन्न महीनों में प्राप्त होते हैं। इन चित्रों में प्रकृति के खाद्य मंडल रचित हैं। इस मंडल से यह पता चलता है कि धरती पर प्राचीन खाद्यों के असीम स्रोत हैं। यदि लोग खाद्य पूरे अद्वैवत भाव (नो-माइंड) से प्राप्त करने की कोशिश करें तथा उन्हें यिन और यांग के बारे में कुछ भी न पता हो तो भी वे पूर्णतः प्राकृतिक आहार प्राप्त कर सकते हैं। जापान के गांव में रहने वाले किसानों और मछुआरों को इन मंडलों के तर्क में कोई खास दिलचस्पी नहीं होती। वे लोग तो अपने आस-पास के इलाके से ही मौसमी खाद्य चुनकर प्रकृति के परामर्श का पालन करते हैं। वसंत ऋतु के प्रारंभ से ही, जबकि सात जड़ी-बूटियां धरती से अंकुरित होती हैं, किसान सात प्रकार के स्वाद चख सकता है। इनके साथ-साथ ही वह तालाब के घोंघों, समुद्री-सीपों तथा शैल मछली का लजीज जायका भी ले लेता है।

हरी चीजों का मौसम मार्च महीने में आता है। ब्रेकन मगवर्ट, ऑस्मंड तथा अन्य पहाड़ी पौधे और बेशक तेंदू और आड़ू की नई कोपलें तथा पहाड़ी रतालू तो खाए ही जा सकते हैं। अपने हल्के और नाजुक स्वाद के साथ उनसे स्वादिष्ट टेम्पूरा बनाया जा सकता है। तथा उनका प्रयोग सिझाने के लिए भी किया जा सकता है। समुद्र तटों पर वसंत में ही ‘केल्प’, ‘नोरी’ जैसी समुद्री वनस्पतियां तथा पथरीली पतवार स्वादिष्ट तथा विपुल मात्रा में होती है। जिन दिनों बांस से कोपलें फूट कर लंबी होने लगती हैं, समुद्र में ग्रे-रॉक काड, सी-ब्रीम तथा पट्टीदार पिग फिश मछलियों का जायका कुछ और ही होता है। आशीष फूलों के साथ इस मौसम का समारोह क्षीणकाय, फीतेदार मछलियों बांगड़ा, ‘साशिमी’ के साथ मनाया जाता है। हरे मटर तथा लीमा और फावा की फलियों तो सीधे छीलकर ही बनाई जा सकती हैं। या उन्हें चावल, गेहूं या जौ जैसे साबुत अनाजों के साथ उबालकर भी खाया जा सकता है।

बारिश के समाप्त होते-होते, जापान के अधिकांश इलाकों में वर्षा जून से मध्य जुलाई तक होती है। जापानी आलूबुखारों को नमक लगाकर रख दिया जाता है, तथा रसभरियां और स्ट्राबेरियां बहुतायत से आ जाती हैं। इस समय तक हमारा शरीर स्वाभाविक रूप से प्याज की तीखी खुशबू तथा लोकाट, आड़ू तथा खुबानी जैसे पानी वाले फलों की चाह करने लगता है। लोकाट पौधे का सिर्फ फल ही नहीं खाया जाता बल्कि उसकी गुठली को पीसकर एक प्रकार की ‘कॉफी’ बनाई जाती है, तो उसकी हरी पत्तियों से ‘चाय’ बनती है। वह बढ़िया औषधी का भी काम करती है। आड़ू तथा चेंडू के परिपक्व पत्तों से आयु बढ़ाने वाला टॉनिक बनता है। गर्मियों की ऋतु में जब धूप तेज होती है, किसी छायादार पेड़ के नीचे बैठे तरबूज खाने या शहद चाटने का मजा कुछ और ही होता है। गाजर, पालक, खीरा, ककड़ी तथा मूली जैसी गर्मी की कई सब्जियां इस समय तक पक कर तैयार हो जाती हैं। गर्मियों की सुस्ती दूर करने के लिए शरीर को सभी सब्जियों और अलसी के तेल की जरूरत महसूस होने लगती है।

आपको यदि यह रहस्यमय लगता है तो आप उसे वैसा ही समझ सकते हैं, लेकिन यह सच है कि, गर्मियों में जब हमारी भूख घटती है तब हमें जाड़ों में बोया और वसंत में कटा अनाज भाता है और इसलिए जौ के कई प्रकार के नूडल्स बना-बना कर खाए जाते हैं। सावा या कूटू भी इन्हीं दिनों काटा जाता है। यह जापान का पुरातन पौधा है और इस मौसम में शरीर को बहुत रास आता है। पतझड़ की शुरुआत का मौसम भी खाने-पीने के हिसाब से बढ़िया होता है, कई तरह के फल और सब्जियों के अलावा सोयाबीन, ‘अजूकी’ बीन तथा कई तरह के पीले अनाज एक साथ पकते हैं। शरद ऋतु के चंद्र-दर्शन पर्वों को मनाते हुए बाजरी के ‘केक’ का आनंद उठाया जाता है। ‘तारो’ आलुओं के साथ अधपकी सोयाबीन परोसी जा सकती है। शरद ऋतु के आगे बढ़ते-बढ़ते मात्सुता के मशरूम (कुकुरमुत्ते) तथा लाल सेम के साथ पका चावल और चेस्टनट फल खाए जा सकते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि, गर्मियों की तेज धूप में चावल भी अब पक चुका होता है, यानी वह मुख्य आहार जो ढेर-सी मात्रा में प्राप्त किया जा सकता है तथा जिसमें पोषकता खूब होती है, सर्दियों के लिए यह बचाकर रखा जा सकता है।

पहली बार पाला पड़ते ही आप मछली कबाब बेचने वालों के यहां नजर डालना चाहेंगे। इन दिनों आप गहरे पानी में मिलने वाली ‘ट्यूना’ तथा पीली पट्टियों वाली मछलियां पकड़ सकते हैं। मजे की बात तो यह है कि, जापानी मूलियां तथा हरे पत्तों वाली सब्जियां, जो इन दिनों खूब मिलती हैं, इन मछलियों के साथ बढ़िया रहती हैं। नए साल की छुट्टियों के पकवान उन खाद्यान्नों से पकाए जाते हैं, जिन्हें इसी मौके के लिए पहले से नमक लगाकर सुरक्षित रखा जाता है। सर्दियों में जापान में इस मौसम में नमक लगाकर रखी हुई सामन मछलियां, हेरिंग के अंडे, लाल समुद्री झींगे तथा काले मटर हर साल इस दावत के लिए उपयोग की जाती है। सर्दियों में उन मूली और शलजमों को खोद निकालना, जो कि मिट्टी और बर्फ से ढंके रहने दिए गए हैं, एक मजेदार अनुभव होता है। इनके साथ ही जो बहुत प्रकार के अनाज तथा फलियां पूरे वर्ष उगाए गए हैं तथा ‘मीसो’ और ‘सॉस’ की चटनी हमेशा ही उपलब्ध रहते हैं कड़ी ठंड के इस मौसम में बंदगोभी, मूली, कुम्हड़ा तथा सरकंदों के अलावा कई किस्म के खाद्य भी बहुतायत से मिलते हैं। इन्हीं दिनों जंगली प्याज तथा गंदना भी समुद्री खीरों तथा औइस्टरों (कस्तूरों) के साथ बहुत रुचिकर लगते हैं।

वसंत का इंतजार करते हुए स्ट्राबेरी, जिरेनियम की बेल की खास पत्तियां तथा मूलियों के अंकुर बर्फ की चादर तोड़ कर बाहर आते दिखलाई पड़ते जाते हैं। जलकुंभी की वापसी तो होती ही है, मोठ तथा अन्य जंगली जड़ियों को तो घर के पिछवाड़े में ही उगाया जा सकता है। इस तरह इस सादे भोजन को अपनाते हुए, अपने आस-पास ही विभिन्न मौसमों में मिलने वाले खाद्यों को एकत्र कर तथा उनके कुदरती जायके तथा पौष्टिक तत्वों को ग्रहण करते हुए स्थानीय ग्रामवासी प्रकृति के वरदानों को स्वीकार करते हैं। गांव के लोग इन खाद्यों का स्वादिष्ट जायका तो पहचानते हैं लेकिन वे प्रकृति के रहस्यमय स्वाद को नहीं चख सकते ऐसा भी नहीं है। वे उसे चख तो सकते हैं लेकिन शब्दों में अभिव्यक्त नहीं कर सकते। प्राकृतिक भोजन एकदम हमारे कदमों में पड़ा हुआ है।

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