मत्स्य-पालन में थोड़ी-सी लापरवाही से मत्स्य पालक को कभी-कभी भारी आर्थिक नुकसान हो जाता है, जिसकी भरपाई बड़ी मुश्किल से हो पाती है। जब कभी मछली पालक मत्स्य-पालन में स्वच्छ जल के बजाय प्रदूषित जल का उपयोग कर लेता है या फिर मत्स्य कुंडों व जल को उपचारित अथवा विसंक्रमित करना भूल जाता है तब इन कुंडों में पल रही बेशकीमती मछलियां खतरनाक परजीवी कृमियों के संक्रमण का शिकार हो जाती हैं। इससे मत्स्य उत्पादन पर गहरा असर पड़ता है। इन जानलेवा संक्रमणकारी परजीवियों में ट्रिमैटोड कृमि ऐसे बाह्य परजीवी होते हैं जिनके सैंकड़ो ओंकोमिरैसिडियम नाम के लारवा मत्स्य कुंडों में लम्बी अवधि तक जीवित रह जाते हैं। ये लारवा संक्रामक होते है जो तैरते हुए मत्स्य कुंडों में पल रही मछलियों के नाजुक श्वसन अंगों (गिल्स), शरीर की त्वचा व कोमल फिंस पर अपने मजबूत चूषकों द्वारा चिपक जाते हैं। जहां ये इनके खून व ऊतकों में मौजूद पोषक तत्वों का लगातार अवशोषण करके प्रजनन योग्य वयस्कों में परिवर्तित हो जाते हैं। इन वयस्क ट्रिमेटोड कृमियों को दिनों-दिन भोजन की और अधिक जरुरत पड़ती है, जिसकी आपूर्ति ये इन अंगों में गहरे घाव करके खून व शारीरिक ऊतकों का लगातार भक्षण किया करते हैं। जिससे इन अंगों व ऊतकों को भारी क्षति होने से न केवल फिंगरलिंग्स (अन्गुलिकाएं) बल्कि वयस्क मछलियाँ मरने लगती हैं, बल्कि इसकी वजह से मत्स्य उत्पादन काफी कम होने से मत्स्य पालक को अनायास ही आर्थिक नुकसान होता है। यदि मत्स्य पालक थोड़ी समझदारी एवं सावधानी बरते तो इन परजीवी कृमियों के संक्रमण से मछलियों को बचाया जा सकता है तथा इससे होने वाले आर्थिक नुकसान को भी रोका जा सकता है।
गाइरोडैक्टिलस व डैक्टाइलोगाइरस नामक ऐसे प्रमुख ट्रिमेटोड परजीवी कृमि है जिनका संक्रमण मत्स्य कुंडों में पल रही मछलियों में अक्सर देखने को मिलता है। प्राणीजगत के प्लैटीहैल्मिन्थीस संघ के ट्रिमैटोडा वर्ग व मोनोजीनिया गण से संबंधित ये चपटे कृमि इन मछलियों के बाह्य पर जीवी होते हैं। डैक्टाइलोगाइरस कृमि नन्हें-नन्हें फिंगरलिंग्स व वयस्क मछलियों के सिर्फ गिल्स को ही संक्रमित करते हैं, लेकिन गाइरोडैक्टिलस कृमि इतने खतरनाक होते हैं कि ये न केवल गिल्स को बल्कि त्वचा व फिंस पर सैंकड़ो की तादाद में चिपके-धंसे रहते हैं जहां से अक्सर लगातार खून रिसता रहता है। इन परजीवियों का संक्रमण एक मछली से दूसरी मछली में आपस में रगड़ खाने से अथवा आपसी संपर्क होने पर अक्सर हो जाता है।
संक्रमण की पहचान
- मछलियों के शरीर का रंग हल्का नीला अथवा पीला पड़ जाना।
- गिल्स, फिंस व त्वचा या शरीर पर अत्याधिक चिकना पदार्थ अथवा म्युकस का जमा होना।
- फिंसों का टेड़ा-मेड़ा होने के साथ-साथ शरीर के स्केल्स का लगातार गिरना।
- शरीर पर जगह-जगह गहरे घाव (अल्सर) पड़ना तथा इनसे लगातार खून या पस निकलना।
- मछलियाँ अक्सर मत्स्य कुंड की दीवारों व पेंदे की सतह से बार-बार रगड़ खाती रहती हैं।
निदान
मछलियों के गिल्स, त्वचा व फिंस पर पड़े अल्सर को साधारण बुल-लैंस से देखने पर हक्ले सफेद रंग के ये चपटे परजीवी कृमि आसानी से दिखाई पड़ते हैं। इनको फाइन फोरसेप या चिमटी से पकड़ कर माईक्रोस्कोप में देखने पर इन परजीवियों के होने की पुष्टि हो जाती है।
उपचार एवं बचाव
संक्रमित मछलियों को जाल (नेट) द्वारा निकालकर 5 प्रतिशत साधारण नमक के घोल में तीन से पांच मिनट तक रखने से बगैर किसी नुकसान से ये परजीवी कृमि आसानी से मर जाते हैं। फिर भी इसके बजाय 1ः5000 फोरमलिन या 1ः2000 एसेटिक एसिड रसायन के घोल ज्यादा प्रभावकारी होते हैं। यदि छोटे-छोटे पानी की कुंड या होज उपलब्ध हो तो इन संक्रमित मछलियों को दो से तीन दिनों तक 2 से 4 पीपीएम मेथाइलिन ब्ल्यू या फिर 10 पीपीएम एकिफ्लेविन युक्त जल में रखने से भी इन ट्रिमेटोड परजीवियों के संक्रमण से निजात मिल जाती है। इन परजीवियों का संक्रमण न हो, इस हेतु मछली पालन में स्वच्छ जल का ही उपयोग करना चाहिए है। पालन के पूर्व मछली कुंडों व इनके जल को अच्छी तरह से विसंक्रमित करने से अन्य परजीवियों के संक्रमण व बीमारियों के होने से भी बचा जा सकता है। दो-तीन दिन के अंतराल में पल रही मछलियों का शारीरिक सूक्ष्म परिक्षण करने से ऐसे परजीवियों के संक्रमण का पूर्व पता लग जाता है जिससे संक्रमण को रोकने में काफी मदद मिलती है। मछलियों में संक्रमण से होने वाली बीमारियों तथा इनसे बचाव सम्बंधित और नयी जानकारियाँ कृषि विश्वविद्यालयों, मात्सिकीय महाविद्यालयों, राजकीय मत्स्य विकास अधिकारियों, मात्सिकीय शोध संस्थानों व आईसीएआर, नई दिल्ली से भी ली जा सकती है।
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