परियों की दुनिया सा सुंदर मिलम

उत्तराखंड के अनेक सुंदर पर्वतीय क्षेत्रों में से एक है मिलम ग्लेशियर। मिलम गांव के नाम से प्रसिद्ध यह हिमनद नेपाल और तिब्बत की सीमाओं के समीप है। कुमाऊं डिवीजन में मुंसियारी से आगे 56 किलोमीटर पैदल चलकर मिलम ग्लेशियर पहुंचा जाता है। इस रमणीक और कुछ कठिन यात्रा को पूरा करने में आम तौर पर चार से पांच दिन लगते हैं, लेकिन खूबसूरत हरदयोल शिखर के दर्शन चौथे दिन हो ही जाते हैं। यही वह जगह है जिसके वक्षस्थल पर मिलम ग्लेशियर है।

मिलम के ट्रेक के लिए आधार स्थल मुंसियारी है। जब हमारा व्यापार चीन से होता था तो मुंसियारी शहर को व्यापारी लोग गोदाम की तरह प्रयोग करते थे। यहां चारों तरफ व्यापारिक गतिविधियां चलती रहती थीं। मिलम का रास्ता भारत-तिब्बत व्यापार मार्ग का ही एक भाग है। इस रास्ते के दोनों ओर बीहड क्षेत्रों में भूटिया लोगों के अनेक छोटे-बडे गांव थे। जो तिब्बत से व्यापार बंद होने के बाद उजड गए और भूटिया लोग आजीविका हेतु अन्य जगहों पर जा बसे। नदी तट पर चलते हुए मुंसियारी से हमने एक गाइड साथ लिया - खुशाल नाम था उसका। खुशाल को साथ लेकर हमारा दल उत्तर-पश्चिम दिशा में स्थित मिलम ग्लेशियर की ओर चल पडा। गोरी नदी के किनारे-किनारे चलते हुए हम 11 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद लीलम गांव पहुंचे। एक होटल में भोजन कर हमने वहीं रात बिताई और अगली सुबह नाश्ते के बाद आगे चल पडे।

हमारा अगला पडाव यहां से लगभग 15 किमी दूर था। गोरी नदी का जल विशाल पत्थरों से टकराता हुआ तेजी से आगे बढ रहा था। मानो हमें सीख दे रहा था कि मजबूत इच्छाशक्ति के आगे बडी-बडी मुश्किलें भी आसान हो जाती हैं। बुगडयार पहुंचने से पहले बीच रास्ते में हमने चाय पी। शाम होने से पहले हम बुगडयार पहुंच चुके थे। यहां भारत-तिब्बत सीमा पुलिस की चौकी है। जहां सामान्य पूछताछ के बाद सबसे पहले मिलम जाने वाले लोगों के नाम का पंजीकरण किया जाता है।

प्रकृति का बहुरंगी रूप

वहां रात बिताकर हम 10 किलोमीटर आगे रीलकोट के लिए चल पडे। घने जंगलों वाले इस क्षेत्र में कोई वन्यप्राणी तो दिखा नहीं, परंतु मनमोहक हरियाली खूब देखने को मिली। रास्ते में नाहर देवी का एक छोटा सा मंदिर था। सभी वहां नतमस्तक हुए। मापांग नामक एक स्थान पर हमने भोजन किया और शाम को हम रीलकोट पहुंच गए। यहां एक बहुत बडा मैदान है और गोरी गंगा घाटी में बहुत नीचे बहती है। प्रकृति के बहुविध सुंदर रूप देख-देखकर मन भरता नहीं था।

पौ फटते ही हमने रीलकोट छोड दिया और गोरी गंगा घाटी में प्रवेश कर गए। घाटी का विहंगम दृश्य, प्रकृति का अद्भुत नजारा और गोरी की अलबेली चाल, ये सभी कुछ एक साथ देखकर मन न जाने क्या-क्या कहना चाहता था। परंतु आज तक इसे व्यक्त करने के लिए मुझे शब्द नहीं मिले। अकसर प्रतिदिन सुबह से शाम तक अत्यंत वेग से चलने वाली हवाएं मीलों लंबी घाटी में अपना डरावना प्रभुत्व जमाए रहती हैं। इस रास्ते में तेज हवाओं ने कई बार हमें पीछे धकेला। हालांकि बार-बार हवा के थपेडे खाने के बावजूद हमने हिम्मत नहीं हारी और लगातार चलते रहे। हमें अभी लगभग 6 किलोमीटर और आगे जाना था, परंतु गोरी का पुल टूटा होने के कारण उस दिन के गंतव्य स्थान बुर्फु के लिए हमें दूसरे पुल से जाना पडा। इसके चलते हमारा रास्ता कुछ कठिन और लंबा हो गया।

तिब्बत की घयानी मंडी

आखिर हम बुर्फु पहुंचे तो खुशाल ने हमें थल सेना के सेवानिवृत्त हवलदार गोकर्ण सिंह से मिलवाया। गोकर्ण वहां अकेले रहते थे और ट्रेकर्स को भोजन, चाय, पानी और रहने का स्थान उपलब्ध कराते थे। हम उस दिन उनके ही घर में ठहरे। चाय पीकर हम बाहर निकल कर थोडा-बहुत टहलने लगे। रात हुई तो गोकर्ण ने भोजन बनाना शुरू कर दिया। हम उनके चूल्हे के समीप बैठ गए। उन्होंने हमारी उत्सुकता को परख लिया और बताया कि बुर्फु उनका पैतृक गांव है और मुंसियारी में उनका घर है। मई से अक्टूबर मास तक गोकर्ण बुर्फु में ही रहते हैं और ट्रेकर्स की सेवा करते हैं। इस बहाने कुछ कमा भी लेते हैं। तिब्बत की घयानी मंडी के विषय में उन्होंने हमें बताया कि भारतीय व्यापारी पहले इधर से कपडे व किराने की चीजें तिब्बत ले जाते थे और वापसी में वहां से हींग, स्वाग, ऊन, शिलाजीत व पसम लाते थे।

प्रात: मिलम जाते हुए हम बिल्जु गांव के खंडहरों में पहुंचे। दूसरी ओर पवित्र नंदा देवी शिखर था। उसका सौंदर्य निहारते-निहारते कैमरे की दो फिल्में मैं समाप्त कर चुका था। कभी वह चोटी धूप में नहा रही होती थी, तो कभी बादलों की ओट से केवल उसका मस्तक दिखाई देता था। हमने बिल्जु ग्लेशियर से आने वाली नदी को लांघा तो खुशाल ने बताया कि उसे पागल नदी कहते हैं, क्योंकि वह अचानक ही उफान पर आ जाती है। हरदयोल शिखर हमारे सामने था।

अनूठी दुनिया के निकट

मिलम गांव पहुंचने के लिए हमें एक और नदी पार करनी थी। हमारे सामने अब तिब्बत से आने वाली कोलिंगाणा नदी थी। खुशाल ने बताया कि इस नदी के किनारे-किनारे ऊपर की ओर चलकर चार दिन में तिब्बत पहुंचा जा सकता है। तेज हवाएं फिर हमारे धैर्य और साहस की परीक्षा लेने लगी थीं। एक कामचलाऊ पुल से किसी तरह डरते-डरते हमने यह नदी पार की।

दोपहर बाद हम मिलम पहुंचे। यहां भी भारत तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी) की बडी चौकी है। इस चौकी पर दोबारा अपनी पहचान बतानी पडती है। वहीं सरकारी खानापूर्ति के क्रम में विश्राम करते हुए दो स्थानीय लोगों से बातचीत होने लगी। उन्होंने बताया कि वे लोग ग्रीष्म ऋतु में मुंसियारी से वहां चले आते हैं और अक्टूबर मास तक रहते हैं। लगभग पांच सौ वीरान और उजडे घरों में कुछ ऐसे ही प्रवासी ग्रामीण रहते हैं और खेतीबाडी करते हैं। हमारे जैसे ट्रेकर्स को वे घूमने वाले बताते हैं और अपना मन बहला कर दिन काट लेते हैं।

दोपहर के भोजन के बाद हमने फिर थोडी देर विश्राम किया। शाम हो चली तो इधर-उधर कुछ दीपक जग उठे। रात्रि के वातावरण में ऐसा लगने लगा था मानो हम परियों की कहानियों के पात्र बन गए हों। उज्ज्वल आकाश में तारे तो इतने समीप दिखाई दे रहे थे मानो आकाश ही नीचे झुक गया हो। घर के मालिक ने भोजन बना दिया और हम अगले दिन ग्लेशियर पर जाने की उत्सुकता में खाकर जल्दी सो गए।

ग्लेशियर की ओर

पिछले दिन स्थानीय निवासियों ने हमें ग्लेशियर पर जाने के लिए मना किया था। क्योंकि ग्लेशियर कुछ स्थानों पर टूट गया था। कच्ची बर्फभी अभी ठीक तरह से पिघली नहीं थी। यद्यपि हमारे कुछ साथी किसी की भी बात मानने को तैयार नहीं थे और वे हर हाल में हिमनद पर जाना चाहते थे। परंतु जब यह बात सामने आई कि हमारे पास बर्फ पर चलने के लिए जरूरी सामान भी नहीं हैं, तो ग्लेशियर पर जाने का विचार आखिरकार बदलना पडा। हिमनद का मुख यानी स्नाउट हमसे कुछ किलोमीटर ही दूर था। रास्ते में हमें ब्रिटिश ट्रेकर्स की एक टीम मिली जो ग्लेशियर पर बिना चढे ही वापस लौट रही थी।

सूर्योदय हो चुका था और हम भी ग्लेशियर तक पहुंच चुके थे। स्नाउट से गोरी नदी का उद्गम और उस बडी नदी का आश्चर्यचकित कर देने वाला छोटा रूप देखकर हम सभी चकित थे। हरदयोल और त्रिशूल शिखर बादलों में से छुप-छुपकर हमें देख रहे थे। बादलों के हटने पर हमें दोनों चोटियों के भव्य दर्शन हुए। यहां की घाटी के नौ ग्लेशियरों से मिलकर बना मिलम ग्लेशियर आधा किलोमीटर चौडा और 27 किलोमीटर लंबा है। बहुत ऊपर जाकर दो कुंड भी हैं। कभी न भूल सकने वाले क्षणों की यादें लेकर हम गोरी नदी के साथ-साथ लौट चले थे।

प्रेम एन नाग
 

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