परियोजनाओं के नाम पर नदियों का अंधाधुंध दोहन धड़ल्ले से हो रहा है। इसी की आड़ मे सबसे पहले हरे-भरे हजारों पेड़ों की बलि ली जाती है, उसके बाद पहाड़ों का सीना छलनी किया जाता है।
देश के अधिकांश राज्यों में प्रकृति ने सुंदर छटा बिखेरी है, जिसमें पर्वतों से निकलते झरनों का बहता जल, पहाड़ों पर हरे-भरे पेड़ तथा मैदानों में घास युक्त चरागाहें मुख्यतः हैं। इन्हीं प्रकृति की सुंदर वादियों व हरियाली के सहारे पर्यावरण बचा है, परंतु प्रकृति के साथ छेड़-छाड़ तथा बेधड़क खनन से यह विलुप्त होता जा रहा है। कहीं खड्डों, नालों व नदियों में अंधाधुंध खनन, कहीं हरे-भरे पेड़ों का चीरहरण, कहीं पावर प्रोजेक्ट के नाम पर नदियों तक का जल अपने प्राकृतिक रास्ते से हटा कर टनल में डालना तथा कहीं प्राकृतिक जंगल का सीना छलनी करके कंकरीट के जंगल में तब्दील हो रहा है। इसके लिए मुख्य तौर पर उन नेताओं के सरकारी फैसले हैं, जो उद्योगपतियों को प्रोत्साहित करके देश के विभिन्न राज्यों में प्रकृति के साथ खिलवाड़ करने के लिए उन्हें खुला छोड़ देते हैं। उद्योगपति भी उस जगह को अपनी मिल्कियत समझ कर प्रकृति को पूरी तरह अपनी मनमानी से लीलता चला जाता है। सरकार द्वारा लिए गए फैसलों की आड़ में उनका गोरखधंधा फलता-फूलता चला जाता है। धीरे-धीरे यही सरकारी फैसले जो आम जनता के लिए वरदान बताए जाते हैं, काम पूरा होते ही उसी आम जनमानस के लिए अभिशाप बन जाते हैं। देश के उत्तरी राज्यों खासकर उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश तथा जम्मू-कश्मीर इन कड़वे फैसलों का दंश झेल रहे हैं।
परियोजनाओं के नाम पर नदियों का अंधाधुंध दोहन धड़ल्ले से हो रहा है। इसी की आड़ मे सबसे पहले हरे-भरे हजारों पेड़ों की बलि ली जाती है, उसके बाद पहाड़ों का सीना छलनी किया जाता है। ब्लास्टिंग के जरिए पहाड़ कच्चे हो जाते हैं तथा वर्षा या बर्फबारी के तुरंत बाद इन्हीं कच्चे पहाड़ों का मलबा नदियों में आ जाता है। इसी कारण नदियां प्रदूषित हो जाती हैं। प्रकृति के साथ भारी खिलवाड़ तथा ग्लोबल वार्मिंग के चलते पहाड़ों में बादल फटने, भूकंप के झटके, मैदानों में बाढ़ की त्रासदी तथा सुनामी जैसी विभिन्न आपदाएं निरंतर कहर बरपा रही हैं। प्रकृति के साथ मनमानी छेड़-छाड़ का ही नतीजा है, जो जम्मू-कश्मीर के लेह में कहर बनकर बरपा, उत्तराखंड के टिहरीगढ़वाल में आपदा बनकर बरसा तथा हिमाचल प्रदेश के कुल्लू के गांव थर्माण तथा काइस को लगभग लील गया। एक तरफ अनगिनत धड़ाधड़ लग रहे उद्योग, जिसमें सीमेंट व स्टील प्लांट प्रमुख हैं, भारी मात्रा में प्रदूषण फैला रहे हैं। उद्योगों का प्रदूषित जल खड्डों व नालों को खराब करके धीरे-धीरे नदियों में जा रहा है। इसी प्रदूषण की वजह से ही साथ सटे गांवों, कस्बों तथा शहरों के लोग निरंतर चौबीस घंटे धूल मिट्टी तथा विषैला धुआं फांकने को मजबूर होते हैं। इसी प्रदूषण की चपेट में आने के बाद उन्हें तरह-तरह की बीमारियों से ग्रस्त होना पड़ता है, जिसमें फेफड़ों से संबंधित कई रोग, एलर्जी तथा आंखों में जलन मुख्य हैं। इन्हीं भारी तथा मध्य वर्गीय उद्योगों की मार से हरियाली तो लगभग खत्म होती जा रही है तथा पर्यावरण पूरी तरह खराब हो रहा है।
दूसरी तरफ पॉलिथीन ने पर्यावरण को असंतुलित बना दिया है। जगह-जगह पड़े पॉलिथीन के लिफाफे पर्यावरण को प्रदूषित कर रहे हैं। अधिकतर लोग आम तौर पर इसका उपयोग करके यहां-वहां फेंक देते हैं। धीरे-धीरे यह जमीन की तह में चला जाता है। यह जमीन के जिस हिस्से से चिपक जाता है, वह भाग बांझ बन कर रह जाता है। वहां न तो कोई फसल हो सकती है और न ही कोई वनस्पति पैदा हो सकती है। यही लिफाफे यदि नाली आदि में फंस जाएं, तो कूड़ा-करकट तथा गंदे पानी की निकासी में अवरोधक बन जाते हैं और भारी मुसीबतें पैदा करते हैं। जल अवरोधक होने के कारण ये लिफाफे भूमि के नीचे एक बूंद पानी भी नहीं पहुंचने देते। ऐसे में भूमि शुष्क हो जाती है, जिसके कारण वह उपजाऊ नहीं रहती। पॉलिथीन एक ऐसा रासायनिक पदार्थ है, जो वर्षों तक भी जहां पड़ा रहे वहां यह न तो गलता है और न ही सड़ता है। गलती से इसे जलाया जाए, तो भयंकर विषैले धुएं से पूरा वातावरण प्रदूषित हो जाता है। इधर-उधर पड़े पॉलिथीन के लिफाफों को आवारा व दूसरे पशु खा जाते हैं। यही लिफाफे अंदर इकट्ठे होकर दिक्कतें पैदा करते हैं तथा उनकी मृत्यु का कारण बनते हैं। प्रदूषण युक्त तथा अवहेलना करने वाले उद्योगों पर पूरा प्रतिबंध लगाना चाहिए। नदी, नालों तथा जंगलों में किए जा रहे अवैध अंधा-धुंध खनन पर पूर्णतया लगाम होना चाहिए। आम लोगों को पर्यावरण संरक्षण तथा वृक्ष लगाने के लिए जागरूक किया जाए। पॉलिथीन के लिफाफों की बिक्री पर पूर्ण प्रतिबंध होना चाहिए। उनकी जगह कपड़े तथा जूट से बने थैलों का इस्तेमाल होना चाहिए। खाने में प्लास्टिक की प्लेट आदि का बहिष्कार कर उनकी जगह पेड़-पौधों के पत्तों से बनी प्लेट/पत्तल का प्रयोग होना चाहिए। इससे गरीब तथा मेहनती लोगों को रोजगार भी मिलेगा।
(परमिंदर कंवर, लेखक, गांव जोल, डा. जंडौर, तहसील जसवां, जिला कांगड़ा से स्वतंत्र पत्रकार हैं)
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