ब्रिटेन में दो घटक और मुखर थे जो कि भारत में रेल सेवाओं के विस्तार के प्रति उतने ज्यादा उत्साहित नहीं थे। इनमें से एक घटक का नेतृत्व अनौपचारिक रूप से सर आर्थर कॉटन कर रहे थे जिन्होंने दक्षिण भारत में कावेरी, गोदावरी और कृष्णा नदियों से नहरें निकाल कर सिंचाई के क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान किया था और वह नहरों से नौका परिवहन के बहुत बड़े पैरवीकार थे।
1857 की आजादी की लड़ाई के बाद साम्राज्यवादी ताकतों के लिए यह जरूरी हो गया कि वह सड़कों और रेल लाइनों का तुरन्त विकास करें। उनको सड़कों और रेल-लाइनों के जाल बिछाने की मजबूरी थी ताकि अगर कहीं विद्रोह के स्वर पफूटते हों तो वह उन्हें तुरन्त कुचल दें। पूर्णियाँ गजेटियर कहता है।, ‘‘1857 के विद्रोह का नतीजा था कि प्रशासन की पकड़ को मजबूत बनाया गया। इस बात का अनुभव किया जा रहा था कि थानों की संख्या बढ़ाई जाये और प्रशासन का इस तरह से विस्तार किया जाय कि विक्षोभ को दबाया जा सके। सड़कों का भी विस्तार किया गया और गंगा-दार्जिलिंग मार्ग सेना की आवाजाही के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हो गया।’’ सड़कों का फैलाव और उनका उपयोग केवल सुरक्षा की दृष्टि से ही अहम नहीं था। इन सड़कों का अपना व्यापारिक महत्त्व भी था। तत्कालीन अर्थ-व्यवस्था में निलहे गोरों का योगदान बड़ा मायने रखता था। इनकी कोठियाँ पूरे इलाके में फैली हुई थीं और उनमें किसी न किसी प्रकार का सड़क सम्पर्क भी था। इन रास्तों पर एक घोड़े द्वारा खींचे जाने वाले तांगे, दो घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाली बग्गियाँ या फिर पालकी आने जाने भर को जगह हुआ करती थी।इन निलहे गोरों की मौज-मस्ती की महफिलों को आबाद करने के अलावा इन रास्तों से उनका तैयार माल स्थानीय बाजारों और नदी के घाटों तक पहुँचता था। इन उद्देश्यों की पूर्ति करने के लिए भी सड़कों का विस्तार जरूरी था। शुरुआती दौर में रेल सेवाओं में लगाई गई पूंजी अंग्रेजों के लिए बहुत फायदे की चीज नहीं थी। लेकिन यातायात का यह साधन इंग्लैंड में ज्यादा प्रचलित था और वहाँ के व्यापारी यह चाहते कि उनका माल भारतवर्ष के भीतरी इलाकों तक पहुँचे और बिके। सरकार भी रेलवे कम्पनियों को प्रोत्साहित करने के लिए उनके निवेश पर सूद की गारन्टी देने जैसे उपाय करने के लिए प्रतिबद्ध थी और ‘‘ईस्ट इंडिया कम्पनी और ब्रिटिश हुकूमत दोनों के प्रशासन पर वहाँ के सदन का लगातार दबाव पड़ रहा था कि भारत में रेल लाइनों का विस्तार कई गुना किया जाय भले ही इससे उन्हें नुकसान ही क्यों न होता हो।’’ इसके अलावा ब्रिटेन में दो घटक और मुखर थे जो कि भारत में रेल सेवाओं के विस्तार के प्रति उतने ज्यादा उत्साहित नहीं थे।
इनमें से एक घटक का नेतृत्व अनौपचारिक रूप से सर आर्थर कॉटन कर रहे थे जिन्होंने दक्षिण भारत में कावेरी, गोदावरी और कृष्णा नदियों से नहरें निकाल कर सिंचाई के क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान किया था और वह नहरों से नौका परिवहन के बहुत बड़े पैरवीकार थे। उनका कहना था कि, ‘‘हिन्दुस्तान को जरूरत है जल-पोतों की। रेल सेवा पूरी तरह से असफल रही है, वह वाजिब दामों पर लोगों और माल को नहीं ढो सकती, उनकी माल ढोने की क्षमता भी नहीं है तथा इन्हें चलाते रहने के लिए देश को तीस लाख (पाउण्ड) की हर साल जरूरत पड़ती है और यह रकम हर साल बढ़ती जाती है। तेज गति से चलने वाली नावों के लिए यदि नहरें बनाई जायें तो उन पर रेलवे के मुकाबले आठ गुना कम खर्च होगा। यह (नावें) किसी भी मात्रा में, किसी भी गति से और मामूली खर्चे पर माल ढो सकती हैं।’’ सर जॉर्ज कैम्पबेल ने, जो कि पहले बंगाल में अफसर थे और सेवा निवृत्त होने के बाद सदन के सदस्य बने थे, आर्थर कॉटन का मजाक बनाते हुये यह फिकरा कसा था, कि, ‘‘इस बात में कुछ दम जरूर है कि उनके दिमाग में पानी भरा हुआ है।’’
दूसरा घटक जो कि भारत में रेल सेवाओं के विस्तार के खिलाफ था उसका यह मानना था कि रेल सेवा सरकार के लिए एक स्थाई दायित्व बन जायेगी और इसे चलाते रहने के लिए सरकार को बहुत सब्सिडी देनी पड़ेगी। इस बात की भी शंका जाहिर की गई कि लोग बैलगाड़ी छोड़ कर रेल की सवारी करेंगे भी या नहीं। साधु, फकीर, मजदूर और इसी तरह के फटेहाल लोग जिनके पास इकन्नी तक नहीं होती उनसे यह आशा करना कि वह पैसा देकर रेल में सफर करेंगे, इसकी उम्मीद कम है। ऐसे लोगों को समय की कीमत नहीं मालूम है और वह फजूल घूमना ही ज्यादा पसन्द करेंगे। इन सारे तर्क-वितर्कों के बावजूद रेल सेवाओं और सड़कों का विस्तार निर्बाध रूप से चलता रहा। उस समय वक्त की मांग भी शायद यही थी।
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