मैं आगे बताना चाहूंगा कि पहाड़ मेंं आमतौर से जो परिवर्तन हो रहे हैं जैसे वहां किस तरह की खेती हो रही है जैसे मैं आपको बताना चाहूंगा कि वहां पर सीढ़ीदार खेती होती है, नदी के किनारे लोग रह रहे हैं। तो पुरानी परंपरा के अनुसार ये सब ठीक था लेकिन आजकल जो परिवर्तन हो रहे हैं उसके बारे में दोबारा सोचना पड़ेगा कि नदियों के किनारे जो भी निर्माण कार्य हो रहे हैं चाहे वो हाइड्रोपाॅवर के हों या फिर चाहे वो कोई भी विकास कार्य है वो नदियों के आस-पास बिल्कुल नहीं होना चाहिए। उन्होंने इंदिरा जी को दो पेज की चिट्ठी लिखी और कहा कि हमें बेदी ज़रुर चाहिए और कहीं ये न हो कि इस सुंदरता के स्वप्न में अपनी आजीविका, मकान आदि भी न खो दें। इससे स्पष्ट होता है कि उस समय संवेदनशील लोग थे और इंदिरा जी ने बहुगुणा जी की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई जिसमें वैज्ञानिक लोगों को शामिल किया उन्होंने उस संबंध में पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में लिखा लेकिन उस कमेटी की रिपोर्ट के बारे में तो हमें पता नहीं लेकिन उन्होंने उस पर बहुत ही संवेदनशीलता से विचार किया। वो काम 1996 तक बंद रहा लेकिन आज स्थिति ये है कि न केवल जोशीमठ के पास की विष्णु प्रयाग परियोजना, उन्होंने उस समय भिनाल को उस परियोजना से उस समय इंदिरा जी ने हटा दिया था। क्योंकि हमने कहा था कि यदि बिजली चाहिए तो आप इसे जरूर बनाइए लेकिन उसके साथ पर्यावरण को होने वाले नुकसान को भी देखना चाहिए और प्रत्येक आदमी की जिम्मेदारी सुनिश्चित होनी चाहिए।
लेकिन अभी लोगों ने अपने अधूरे ज्ञान के कारण हिमालय से छेड़खानी करना शुरू कर दिया इस बारे में मैंने हिन्दी में लिखा था ‘पहाड़‘ ने उसे अंग्रेजी में अनुवाद कर प्रकाशित किया क्योंकि उस समय हमारे साथ कुछ भूगोल के विद्यार्थी भी जुड़े थे तो हमने उनसे कहा कि वो अपने ज्ञान को आम गांववालों तक ले जाएं। वनस्पति विभाग वालों से भी कहा कि आप अपनी जानकारी के लिए हमारे विकास को समझें। जहां पर विष्णु प्रयाग के लिए बैराग बनाने की बात है तो जो मैंने उनको चिट्ठी लिखी उसमें लिखा कि यहां पर लैंडस्लाइड होते तेज धार आती है लेकिन यदि यहां पर बैराग बनेगा तो अलखनंदा बौखला जाएगी और वो इस साल देखने को मिल भी गया।
विष्णु प्रयाग के बैराग स्थल में पूरा रामबगड़, गोविंदपाक और बिदांसी तक तबाह करके छोड़ दिया और उनका मलबा जो कि लगभग 9 किलोमीटर लंबी टनल के समान था उस मलबे को फेंकने की जहां तक बात थी उसे सुरक्षित स्थानों में रखना था लेकिन पहाड़ों में सुरक्षित कहां होता है वो मलबा वहीं गंगा के किनारे पड़ा रहा, फिर बारिश हुई और वो मलबा वहीं पर दब गया। कई इलाके जिनके बारे में पिछले दिनों जयराम रमेश ने फूलों की घाटी कहकर पुकारा था उनमे ज्वाल उत्पन्न हो रहा है। उन्होंने तत्काल पत्रकारों से बात की और दूसरे दिन मैंने पेपर में देखा उसमें लिखा था कि हम भिनाल की घाटी में कोई परियोजना नहीं बनाएंगे। वहीं बदरीनाथ के पास बनने वाली परियोजना के बारे में कहा गया कि वो बन ही नहीं सकती और ये बात समाचार पत्रों में भी आई। लेकिन उत्तराखंड में परसों हुई दुर्घटना से पता चला कि मशीन के अलग-अलग टुकड़े करके भिनगना नदी में पहुंचाए गए।
वहां एक छोटी परियोजना पर जो कुछ हुआ था, अब भले ही वो छोटी परियोजना रही हो लेकिन उसका मलबा दो गांवों के समान था और उसने भीड़ा गांव का अस्तित्व समाप्त कर दिया। हमारे यहां पहाड़ों में यदि हम आधे इंच पानी प्राप्त करने के लिए जमीन के साथ छेड़-छाड़ का काम करें तो सरकार वन संरक्षण अधिनियम की बात करने लगती है और उसके लिए हमें स्वीकृति नहीं मिल पाती है।
जब मैंने भारत सरकार में काम करने वाले एक परिचित से कहा कि सरकार ने हमें आधे इंच पानी के लिए इजाजत नहीं दी तो उन्होंने कहा कि आपकी परियोजना के लिए तो कागजात आए ही नहीं लेकिन वहीं बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के लिए प्रोजेक्ट तुरंत आ जाते हैं फिर चाहे वो गोपेश्वर में हों या कहीं भी हों। इस तरह की बातों से आप समझ सकते हैं कि वहां पर कौन सी शक्ति काम कर रही है। हम कोई कैमरा लेकर तो काम नहीं करते हैं जो हम चुपचाप जाकर ये देखें कि आखिर इनको स्वीकृति कैसे मिली।
आज हमें दिल्ली सरकार से ये पूछना चाहिए कि इतनी बड़ी परियोजनाएं हैं जिन्होंने आज उत्तराखंड को तबाह कर दिया है उनके लिए वन संरक्षण अधिनियम से इतनी जल्दी स्वीकृति कैसे मिल गई जबकि हिमालय बहुत ही संवेदनशील है। जहां स्थिरता है वहां परियोजनाओं को ज़रुर बनाएं जहां इस तरह का विश्वास हो जाए कि लोगों की जमीन, उनके घरों एवं उनके पशुओं का नुकसान नहीं होगा वहां जरूर बनाइए और जहां लगे कि नुकसान नहीं होगा वहां बनाया जाए। तो उसके अलावा हमने ये भी कहा कि जहां आप काम शुरू करते हैं तो थोड़ा सा करने के बाद छोड़ क्यों देते हैं? आपके पास यदि केवल 5 या 10 करोड़ तक का बजट है तो आप उतने पैसे से काम करते हैं और जब वो पैसा खत्म हो जाता है तो काम को बीच में ही छोड़ देते हैं।
इससे तो आपने हमारा इतना पैसा बर्बाद कर दिया। तो ये जिम्मेदारी भी हम उन इलाकों में रहने वालों की है कि हम इस बारे में पूछें कि यदि आप इसे नहीं बना रहे हैं तो क्यों नहीं बना रहे हैं। तो मैं इसी निवेदन के साथ आपसे बात कर रहा हूं कि आप इस बारे में बात जरूर करें कि जो छोटी परियोजनाएं हैं जैसे कि देहरादून में कार्य चल रहे हैं तो उसमें बड़े पत्थर को छोटा कर दिया जाए तो उससे हमारा काम भी हो जाएगा और पर्यावरण पर खास फर्क भी नहीं पड़ेगा। हम तो कह रहे थे कि हमारी आवश्यकताओं से संबधित जो भी परियोजनाएं हैं उसके लिए तो सीधे कलेक्टर यदि सहमति देता है तो प्रदेश सरकार और फिर भारत सरकार उसके लिए स्वीकृति दे दे। पिछले दिनों 5 जून को उत्तरकाशी में था, उसके बाद मैं गंगोत्री भी गया तो मैंने देखा कि जिस सड़क पर पहले से बसें आसानी से आ-जा रही थीं उन सड़कों को तो आपने चौड़ा कर दिया।
गढ़वाल में तीन-चार स्थानों पर सुंदर घाटियां हैं फिर चाहे वो हर्षिल से गंगोत्री हों या मंदाकिनी और भूनार घाटी। वहां ये तीन सुंदर घाटियां थीं तो इस बार वो तीनों ही घाटियां नष्ट हो गई हैं। जब मैं गंगोत्री गया तो वहां सड़क को चौड़ा करने के बहाने एटम बम के धमाके हो रहे थे और नदी के किनारे मिट्टी फेंकी जा रही थी ऐसे में जब बारिश हुई तो वो मिट्टी वहीं पर दब गई और आपने सुना होगा कि उत्तरकाशी में भारी तबाही हुई उसका कारण कहीं न कहीं यही सब था। जबकि सातवीं पंचवर्षीय योजना में पर्वतीय क्षेत्र और पश्चिमी घाट के लिए एक टास्क फोर्स बनी थी उसकी सिफारिश थी कि यदि पहाड़ों में सड़क बने तो उसके नीचे से आधे भाग तक पत्थर की दीवार हो, जिससे सड़क चौड़ी होगी और नुकसान भी कम होगा। उस टास्क फोर्स के सदस्यों में से मैं भी एक था और मुझे याद है कि वो सब योजना आयोग की ज़िम्मेदारी थी और हमने उसमें एक शब्द चलाया था पूरे देश का केंद्र बिंदु हिमालय का संरक्षण होना चाहिए।
हमें भी हिमालय में सड़कें चाहिए। एक व्यक्ति ने मुझे बताया कि एक तरफ तो आप हिमालय में पर्यावरण की बात करते हैं और दूसरी तरफ आप वहां सड़क बनाने की बात करते हैं तो मैंने कहा कि “हम भी इंसान हैं, हम बंदरों की तरह फुदक नहीं सकते इसलिए हमें भी सड़क चाहिए लेकिन यदि साधारण सी सड़क बनाने पर 10 लाख का खर्चा आ रहा है और उसके किनारे दीवार बनाने पर उसका खर्चा 20 लाख आ रहा है तो आपको उसपर 20 लाख रुपए खर्च करने ही चाहिए।” इसलिए कि उत्तराखंड में या हिमालय में जिस तरह की गड़बड़ियाँ हो रही हैं उसके लिए ऐसा किया जाना जरूरी है क्योंकि उससे सारा प्रदेश प्रभावित होता है जैसे कि यमुना में हुई लगातार गड़बड़ियों के कारण दिल्ली के कश्मीरी गेट तक पानी घुस आया था क्योंकि नदियों का स्तर बढ़ जाता है और पानी के साथ-साथ कशमीरी गेट तक मिट्टी भी बहकर आ गई और फिर यहां नावें चलानी पड़ती हैं। उसी तरह से हिमालय में होने वाली गड़बड़ियों का दुष्प्रभाव मैदानों पर भी पड़ रहा है।
इसलिए मुझे लगता है कि 10 लाख की बजाए 20 लाख भी लगते हैं तो लगाना चाहिए वैसे मुझे पता नहीं है कि योजना आयोग 20 लाख रुपया दे रहा है या कितना दे रहा है, क्योंकि वो ठेकेदारों के पास जा रहा है, यदि कोई निगरानी करने वाला होता तो उसके बारे में भी पता लगाया जा सकता था लेकिन यदि नहीं मिल रहे हैं तो 10 लाख की जगह 20 लाख का प्रबंध होना चाहिए, पानी की उचित व्यवस्था होनी चाहिए, वहां उचित सड़क निर्माण हो, उसका उचित चैनल होना चाहिए। इस प्रकार हमें विकास भी चाहिए और अपना पर्यावरण स्थिर भी चाहिए तो इस तरह के कार्यक्रम किए जाने चाहिए। जैसे कि मैंने आपको बताया कि उत्तराखंड में पूर्व में आई आपदा के दौरान भी इस संबंध में योजना आदि बनाते समय कुछ संवेदनशील अधिकारियों, राजनेताओं के अलावा, बहुगुणा, स्वामीनाथ और चंडीप्रसाद ने दो पेज का पत्र लिखा था जिसपर पूरी तरह से विचार किया जाना चाहिए। आपने सुना होगा 1991 में तो उत्तरकाशी में भूकंप आया, 1998 में उखीमठ के आस-पास करीब 54 गांव लैंडस्लाइड से प्रभावित हुए और बहुत नुकसान हुआ। उसी समय मालपा, पिथोरागढ़ आदि में नुकसान हुआ था।
वहां एक पहाड़ टूटा जिसके कारण उखीमठ के पास दो गांव नष्ट हो गए तो हमें पता चला कि वहां पहले से ही पहाड़ पर दरार थी तो हमने कहा कि अंतरिक्ष प्रोद्योगिकी की मदद से उपग्रह के द्वारा इस तरह की घटनाओं को चिन्हित कर सकते हैं। 1991 में आए भूकंप के बाद पहाड़ों में जहां-तहां दरारें पड़ी उसके बाद हमने ये विचार किया कि इन इलाकों को चिन्हित किया जाना चाहिए। गोपेश्वर के पास बसेही नाम का एक गांव है जहां पर उपप्रधानमंत्री के संयुक्त सचिव अशोक, और कुछ वैज्ञानिक और हमारी संस्था के लोगों ने दो दिन तक रहकर चिंतन मनन किया और उसके बाद मुझे जिम्मेदारी दी गई कि इस प्रकार के इलाकों को चिन्हित किया जाए क्योंकि मैंने अंतरिक्ष प्रोद्योगिकी के द्वारा कई जगहों को देखा था।
उससे पहले मैंने साइंस एंड स्पेश सेंटर, अहमदाबाद में उनसे निवेदन किया था कि वो यहां 1967 तथा 1982 में क्या स्थिति थी, और आज क्या स्थिति है इसके लिए हमने निवेदन किया था कि पेड़ लगाए जांए। उसी तरह से चिपको आंदोलन में जैसे कि हमने कहा कि हमने पेड़ बचाए तो क्या हम अपने आप में इतने में ही खुश हो जाएं कि हमने पेड़ बचाए हैं। हां ये ठीक है कि इससे पेड़ जीवित हो गए हैं, आबोहवा स्वच्छ हो गई है लोगों को फल मिलने लगे हैं। लेकिन दूसरी ओर हमने कहा कि इसका वैज्ञानिक पहलू भी है। 1991 में जहां-जहां दरारें पड़ी हैं वहां इस प्रोद्यौगिकी के द्वारा चिन्हित किया जाए, प्रभात कुमार ने टंडन जी से कहा कि यदि आप ये काम करेंगे तो आपका सम्मान होगा तो फिर हमने उनके साथ बैठक की और हमने कहा कि इन इलाकों के बारे में भौगोलिकविद् कहते हैं कि ये एमसीपीएल अर्थात सबसे कमजोर इलाका है।
इसलिए इन इलाकों को चिन्हित किया जाना चाहिए और व्यवस्था वालों को और लोगों को उस बारे में जानकारी दी जानी चाहिए तो उसके बाद उन्होंने उसकी मैपिंग करवाई मैंने उत्तराखंड राज्य के लिए किया और इसके लिए ऋषिकेष से बद्रीनाथ और रूद्रप्रयाग से केदारनाथ और ऋषिकेष से गंगोत्री तथा टनकपुर से मालपा तक। इसके लिए देश की 12 वैज्ञानिक संस्थाओं को चिन्हित किया। दो मैप बने हैं और उसमें वाडिया इंस्ट्टियूट, 26 सेप, सीबीआरआई आदि संस्थानों सहित कुल 50 से अधिक संस्थाओं ने काम किया।
उसके बाद यूजर उत्तराखंड सरकार को होना चाहिए उनकी भी बैठक हुई और ये हुआ कि कौन-कौन से इलाके लैंडस्लाइड के क्षेत्र में हैं, कौन से सक्रिय लैंडस्लाइड की स्थिति में हैं, और कौन से इलाके खतरनाक स्थिाति में हैं तो सारे चिन्हांकन के बाद मैनेजमेंट ने उसमें दिखाया। लेकिन आपको ये सुनकर हैरानी होगी कि ‘केदारनाथ‘ जहां ये बाढ़ आई उसके बारे में मुझे लगता है कि मैंनेजमेंट ही कमजोर था। हमने डीएमओ की मीटिंग करवाई, जिसमें उत्तराखंड के चीफ सैक्रेटरी और एनआरएसए के डायरेक्टर भी शामिल थे। लेकिन आज की स्थिति देखी जाए तो मुझे लगता है कि कुछ भी नहीं हुआ। इसी संदर्भ में मैंने कहा कि मानवीय सिस्टम का विकास किया जाना चाहिए।
एनआरएसएस से अलग-अलग विभाग वालों से हमने कहा कि जीएसआई वाले आए, मौसम विज्ञान वाले आए, अंतरिक्ष प्रोद्यौगिकी के विभाग के लोग आए। जीएसआई वालों ने कहा कि ये इलाका कमजोर है, उसी इलाके को अंतरिक्ष प्रोद्यौगिकी वाले चिन्हित कर दें। वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो हम भूसखलन, बाढ़ को रोक तो नहीं सकते हैं लेकिन उसकी मारक शक्ति को कम कर सकते हैं। एक बात साफ है कि यदि वो धरती पर पड़ती है तो वो विनाशकारक और समृद्धिकारक दोनों ही हो सकती है उसके लिए चाहे हरियाली लाने का काम हो या फिर विनाशक रूप में भी गड़बड़ी लाने वाला होगा तो उसके धरती एवं हम लोगों पर बहुत ही दुष्प्रभाव पड़ेगे तो आज पूरे उत्तराखंड को इस बात की आवश्यकता है कि पूरे उत्तराखंड में आज जब हमारे पास इतने बड़े-बड़े संस्थान हैं तो उनको चिन्हित किया जाना चाहिए।
वहां के बारे में मैं आपको एक जानकारी देना चाहता हूं जब उत्तरकाशी का भूकंप आया तो उस समय 493 आदमी मारे गए, 20 अक्टूबर को भूकंप आया, 22 अक्टूबर को हम उत्तरकाशी पहुंचे, 25 को हम केदारनाथ पहुंचे वहां मंदिर को कोई नुकसान नहीं हुआ लेकिन स्थानीय लोगों ने कहा कि सुमेरु पर्वत आदि में भयंकर तबाही हुई है, गलेशियर टूटे। मैंने फिर लिखा कि यहां की जांच होनी चाहिए। मैंने पिछले दिनों एक पुस्तक लिखी “पर्वत-पर्वत, बस्ती-बस्ती” उसमें मैंने साफ लिखा है कि देर-सबेर नदियां खुद बता देंगी कि पहाड़ों के ऊपर क्या गड़बड़ हुई। भूगौलविद् चिल्लाते रहते हैं कि हिमालय संवेदनशील है, जागो-जागो-जागो। परसों जब आपदा आई तो उसी क्षेत्र का एक आदमी मेरे पास आंखों में आंसू लेकर आया और उसने कहा कि भट्ट साहब मंदाकिनी तो बहुत ही शांतमंदाकिनी थी और आज ये हाल है तो उसने कई-कई परियोजनाओं का नाम दिया कि यदि ये परियोजनाएं नहीं होती तो उत्तराखंड का ये हाल नहीं होता।
हमने बचपन से देखा था कि मंदाकिनी एक स्तर तक ही आती थी और उसके ऊपर लोगों ने जितने मकान बनाए थे उससे तो मंदाकनी कभी बौखलाई नहीं थी लेकिन अब वो लगातार अंधाधुंध निमार्ण होने से जो त्रासदी आदि आई है वो पूरी तरह से मानव निर्मित है। अभी तीन-चार परियोजनाएं थी उन्होंने अपना मलबा फेंका इसके कारण ही सब हुआ। और अभी केदारनाथ में जो हुआ वो इसीलिए हुआ। इस प्रकार की घटनाओं से 2010 में पूरे उत्तराखंड की स्थितियां खराब हो गई, उसी तरह से 2011 में हुआ, 2012 में हुआ और इस साल भी हुआ तो हर बार हो रहा है। और हम चिल्ला रहे हैं ये बात आप मेरे लेख में भी पढ़ सकते हैं ये जो लेख आपके सामने है ये 2010 का लेख है।
मैं आपको एक और बात बता दूं कि मैंने जब इस संबंध में पूर्व के मुख्यमंत्री से निवेदन किया तो उन्हें यही लेख दिया और उन्होंने सारे मुख्य सचिवों को पत्र दिया और ये भी लिखा कि “इसपर तुरंत कार्यवाही हो, मुझे भी जवाब दो और चंडी प्रसाद जी को जवाब दो।” अब उन्होंने सरकार को क्या जवाब दिया ये तो मुझे पता नहीं लेकिन उन्होंने मुझे कोई भी जवाब नहीं दिया। इस प्रकार आज ये स्थितियां हैं, हमारी उम्र तो अब अस्सी के ऊपर हो चुके हैं और अब हमारे नौजवान ही आगे देखेंगे कि क्या होता है। मुझे लगता है कि जिस भी स्तर पर जो भी सोचा और विचारा जाए उसे धरती पर कैसे उतारा जाए।
आज भी हमारे यहां संचार और यातायात के क्षेत्र में सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। आज वहां कई लोग प्रभावित हुए हैं उसमें केवल वही लोग शामिल नहीं हैं जिनके मकान डूबे हैं बल्कि उनके अलावा ऐसे कई अन्य लोग हैं जो सीधे-सीधे प्रभावित नहीं हुए हैं लेकिन फिर भी इस आपदा से वो प्रभावित हुए हैं। हिमालय से मुख्यतः गंगा, ब्रहमपुत्र और सिंध तीन नदियां निकलती हैं। इन तीन नदियों के अंतर्गत जो बेसिन है इसके अंतर्गत देश का 43 प्रतिशत भाग आता है और 62-63 प्रतिशत इन तीन नदियोंको देश से मिलती है और उत्तराखंड में बहती गंगा नदी में कोशी, गंडक आदि कई सहायक धाराएं मिलती हैं। यदि हिमालय में गड़बड़ होगी तो हमारा 43 प्रतिशत पहाड़ सीधे-सीधे प्रभावित होगा। उसी तरह से गंगा कई राज्यों में जाती है। हमारे यहां विकास की नीति टिकाऊ होनी चाहिए और यदि कोई आपदा आए तो ग्राम स्तर पर ऐसेसंगठन बनाएं कि वो लोग स्वतः ही अपनी मदद कर पाएं।
उमाकांत लखेड़ा - मैं भट्ट जी का धन्यवाद करता हूं। अभी वाडिया इंस्ट्टियूट आॅफ हिमालयन जियोलाॅजी के प्रोफेसर प्रो. बी.सी. तिवारी से बात हुई, उन्होंने बताया कि जब अचानक इस तरह की आपदा आई तो उनके विभाग में काफी तेज हलचलें हो गईं। मैं अपेक्षा करता हूं कि जो वैज्ञानिक शोध है और मौसम के बारे में जो चेतावनी है उसमें एक बड़ी विश्वसनीयता का संकट भी है क्योंकि समुद्र में तो मछुवारों को सुरक्षित स्थानपर ले जाने की अनुमति की चेतावनी तो हो जाती है लेकिन पहाड़ों में जब आपदा आ जाए जैसे कि भूकंप, बाढ़, वर्षा हो जाए इसके बारे में तो परस्पर विरोधी वैज्ञानिकों की बातें बाद में होती हैं। जब सब विनाश हो जाता है जिस तरह से जब बारात जब चली जाती है तब बाजे बजते हैं। मेरा इस समुदाय से अनुरोध है कि इसपर चिंतन-मनन होना चाहिए। मौसम विभाग से भू-गर्भ वैज्ञानिकों तक और इस संबंध में सरकार कीविशेष मशीनरी कहती हैं कि हमें इस बारे में खास जानकारी नहीं थी कि क्या होने वाला है और जमीन के अंदर क्या हो रहा है, जमीन के अंदर किस तरह की हलचलें हैं।
हिमालय पांच नंबर के स्पेशिफिक जोन में है और हमारे योजनाकार जो कि हमारे लिए नीतियां बनाते हैं और नीतियां बनाने वाले भी सरकार के होते हैं, सरकार कहती है कि हमने भूगर्भ वैज्ञानिकों से सलाह ले ली है और उन्होंने इसे पास कर दिया है। इस प्रकार ये सरकार के दृष्टिकोण में और वैज्ञानिकों के दृष्टिकोण में जो ग़लतफ़हमियाँ होती हैं और ऐसे समय में संचार की कमी के कारण जो समस्याएं उत्पन्न होती हैं जैसे विषयोंपर वाडिया इंस्ट्टियूट आॅफ हिमालयन जियोलाॅजी के प्रोफेसर प्रो. वी.सी. तिवारी।
डाॅ. वी.सी. तिवारीः उपस्थित सज्जनों, एनजीओ एवं मीडिया के सारे कार्यकर्ता। सबसे पहले तो मैं उमाकांत जी को धन्यवाद देना चाहूंगा जिन्होंने मुझे यहां आमंत्रित किया। वैसे केदारनाथ की दुर्घटना के बाद बहुत सारे कार्यक्रम, कार्यशालाएं हो रही हैं, हम कल सुबह 10 बजे से वाडिया संस्थान में पूरे दिन का कार्यक्रम कर रहे हैं। इसमें एनडीए, सारे मंत्री और उत्तराखंड सरकार के कुछ लोग इस बारे में विचार विमर्श करेंगे। ये मेरा सौभाग्य है कि आज मैं यहां आ पाया, तो आज आपदा के बाद कुछ वैज्ञानिक विचार और कार्य करने की आवश्यकता है। उसके बारे में चर्चा करूंगा। वैसे तो भट्ट जी ने कोई भी ऐसा मुद्दा नहीं छोड़ा जो उससे संबधित नहीं हो और उन्होंने पूरे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी सब कहा है इसलिए मुझे बहुत कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है लेकिन फिर भी हम लोग जो वैज्ञानिक शोध कर रहे हैं, हमारे स्टेशन पूरे हिमालय में लगे हुए हैं और केदरनाथ में जहां ये दुर्घटना हुई उसके पास भी हैं। अब इस बारे में हम लोग आगे सोच रहे हैं कि किस तरह से इस आपदा को रोका जा सकता है तो इस बारे में मैं संक्षेप में बताना चाहूंगा कि वाडिया हिमालय संस्थान विश्व का एकमात्र संस्थान है जहां हिमालय के भूगर्भ से संबंधित शोध कार्य होता है।
हम वहां मिट्टी, पहाड़ों आदि सभी के सेंपल को लाते हैं, पूरे हिमालय और ट्रांस हिमालय काराकोरम और सिक्किम, अरूणाचल, पूरा उत्तराखंड आदि सभी स्थानों पर हमारे स्टेशन बनें हैं तो उससे हमें जो भी हलचल हो रही है भूकंप आ रहे हैं, लैंड स्लाइड आ रहे हैं, उसके हमें आनलाॅइन आंकड़े मिलते हैं तो जो कुछ हुआ है या हो रहा है और जो कुछ होने वाला है उसके बारे में भी पता चलता है। हिमालय के बारे में जितना भी बताया जाए वो कम है। ये मेरुदंड की तरह है इससे हम पूरी पृथ्वी की ऊंचाई, गहराई आदि नापने में आधार की तरह प्रयोग करते हैं।
हिमालय के बारे में स्वामी विवेकानंद उत्तराखंड से बहुत प्रभावित हुए। उनको जो ज्ञान हुआ और उन्होंने जो कुछ भी अर्जित किया, उसके बारे में उन्होंने बहुत कुछ लिखा भी है। उन्होंने लिखा कि उन्होंने अन्य पर्वत श्रंखलाएं भी देखी हैं लेकिन हिमालय में हमारी एक संस्कृति है और वहां पर जो शांति आदि की बातें की जाती हैं वो सब हिमालय की ही देन है। यदि आज आप हिमालय को भारत से हटाकर देखें तो हमारे पास कुछ भी नहीं बचता है। भारत के लिए हिमालय ही सबकुछ है, उससे ही हमारा जलवायु चक्र चल रहा है, उससे ही हमारी जल धाराएं हैं और उसी के कारण हिमालय को वाॅटर टैंक आॅफ द वर्ल्ड कहते हैं। भारत में सारी नदियां हिमालय से ही निकलती हैं।
यदि हिमालय भारत में न हो तो ऐसा लगता है कि भारत में कुछ भी नहीं है। इसे समझने के लिए हमें सरंचना देखनी होगी, हमारी जितनी भी प्लेटस, जितने भी काॅनटिनेंट, जितने भी इंडियन काॅनटिनेंट और जितने भी महाद्वीप हैं उसे हम अपनी वैज्ञानिक भाषा में प्लेटस् कहते हैं। तो होता क्या है कि सारी प्लेटस एक-दूसरे के करीब आ रही हैं कभी वो टकराती हैं और कभी दूर हो रही हैं। तो जब इंडियन प्लेटस् और यूरेश्यिन प्लेट करीब 85 मिलयन साल पीछे टकराएंगी, तो बाधा तो होगी ही। यदि हम धार्मिक पुस्तकों में हिमालय के बारे में लिखी गई बातों पर ध्यान दें तो हिमालय ‘क्षीर सागर‘ था। तो वो सागर था तो हिमालय एश्यिन के प्लेटस से टकराईं तो समुद्र अंदर चला गया और हिमालय ऊपर आ गया और आज विश्व में यही सिद्धान्त सर्वमान्य है।
हमने हिमालय की उत्पत्ति के बारे में माॅडल बनाया है और जिसे आप देख सकते हैं। जैसे भट्ट जी ने भी कहा है कि हम जब देहरादून से बद्रीनाथ की ओर जाते हैं तो सबसे पहले शिवालिक चट्टानें आती हैं, उसके बाद थ्रस्ट आता है जिसे लघु हिमालय कहते हैं उसकी चट्टानें आती हैं जिसे हम बद्रीनाथ, केदारनाथ के थोड़ा सा दक्षिण में कह सकते हैं बहुत बड़ी दरार है और वो जमीन के अंदर तक गई हुई है और जब ये हरकत में आती है तो ये एनर्जी जाती है और जमीन हिलती है जिससे भूकंप आने की क्रियाएं होती हैं तो उसी के कारण सब परिवर्तन हुआ है जो आज हो रहा है। यदि आप और कुछ देखना चाहते हैं तो लद्दाख और उससे भी ऊंचे हिमालय में थ्रस्ट हैं तो ये एक आइडिया है कि आज हिमालय इस तरह से टूट रहा है वो आज प्रतिवर्ष पांच से छह सेंटीमीटर की रफ्तार से टूट रहा है और यूरेशियन प्लेट से लगातार उसका टकराव हो रहा है। ऐसा नहीं है कि ये अचानक हो रहा है और हो गया बल्कि ये लगातार हो रहा है और बहुत धीरे-धीरे हो रहा है।
ये प्रतिवर्ष पांच से छह सेंटीमीटर की रफ्तार से हो रहा है। महाद्वीप एक-दूसरे के नजदीक आते हैं उनसे टकराते हैं और उसके बाद एक प्लेट दूसरी के अंदर चली जाती है उसे हम उपधारा (सबडेक्शनस) कहते हैं और इनके टकराने से ही आज भूकंप आ रहे हैं और आज आने वाली प्राकृतिक आपदाएं आ रही हैं। इस समय जलवायु परिवर्तन हो रहे हैं वैश्विक परिर्वतन आ रहे हैं। वैश्विक स्थितियां बदल रहा है और ये जलवायु परिवर्तन है तो हम इसका भी अध्ययन कर रहे हैं। आज जो कुछ हो रहा है उसको सिद्ध करने के लिए हम लोग लाखों-करोड़ों साल के पृथ्वी के इतिहास में चले गए कि जब पृथ्वी में चट्टानें बनी थीं तो उस समय जलवायु क्या थी, उस समय जब हमने हिमालय को, अपने शहरों और गांवों को देखा तो पता लगा कि पृथ्वी में परिवर्तन होते रहे हैं और ये परिवर्तन स्वचालित हैं तो इसमें कूलिंग और वार्मिंग की घटनाएं हुई।
जैसे कि आज ग्लोबल वार्मिंग हो रही है और कल ग्लोबल कूलिंग होगी क्योंकि ये तो एक प्राकृतिक चक्र है। आज हम जलवायु परिवर्तन को इस रूप में देखते हैं कि औद्योगीकरण या अन्य चीजों के कारण ऐसा हो रहा है लेकिन ये पूर्णतः सत्य नहीं है; हां उसका प्रभाव है और वो हम आज स्पष्ट रूप से देख भी रहे हैं लेकिन करोड़ों वर्ष पूर्व तो ऐसा कुछ भी नहीं था मानव तक का अस्तित्व नहीं था, जानवर भी छोटे-छोटे थे वो तो उत्पन्न हो रहे थेतो उस समय भी ग्लोबल वार्मिंग हुई। उस समय आज से भी ज्यादा ग्लोबल वार्मिंग हुई और हमारी पूरी पृथ्वी एक बर्फ के गोले में बदल गई थी। पूरी पृथ्वी एक स्नोबाॅल की तरह हो गई थी। और उसके बाद धीरे-धीरे ग्लोबल वार्मिंग हुई। तो उससे पता चलता है कि आज भी जो कुछ हिमालय में हो रहा है वो एक वैज्ञानिक चक्र है जिसकी वजह से ये सब हो रहा है।
अब आप ग्लेश्यिरों के विषय में सोचिए हमारा संस्थान गंगोत्री में काम कर रहा है और शोध से पता चलता है कि वहां पर ग्लेश्यिर घट रहे हैं, ये 12-14 मीटर तक जा रहे हैं और ऐसा ग्लोबल वार्मिंग के कारण हो रहा है। आप देख सकते हैं कि पिछले 30-40 साल के दौरान यमुनोत्री के बहुत से क्षेत्रों मेंं ऐसा हो रहा है और यमुनोत्री का क्षेत्र केदारनाथ से मिला हुआ है इसलिए हो सकता है केदारनाथ पर उसका असर पड़ा हो। आज जो हमारी नेटवर्क है साइंसविक नेटवर्क है तो ये हम लोगों में ग्लोबल पोजशनिंग सिस्टम स्टेशन लगे हुए हैं। तो इस समय हिमालय में क्या हो रहा है वो आॅनलाइन हमारी स्क्रीन पर आ जाता है। हमें देहरादून में आंकड़े मिलते हैं और वो सारे स्टेशन पर भेजे जाते हैं। तो ये एक ऐसा है जिससे हमें ये पता चलता है कि कहीं पर भूकंप आने वाला है तो उससे पहले छोटे-छोटे पूर्व झटके (प्री-सॉक्स) आते हैं। उसके बाद जो मुख्य भूकंप आता है वो सबसटाइब हो जाता है तो भूकंप के बाद वाले झटके आते हैं। तो वो एक पूरी प्रक्रिया है, भूकंप कभी भी एकदम से नहीं आता है तो हम जानते हैं कि किस इलाके में कब भूंकप की संभावना है जैसे मीडिया वाले बोलते हैं किकब पानी बरसेगा, आसमान में बादल छाऐंगे आदि लेकिन जो अभी कोई ऐसी तकनीक विकसित नहीं हुई है जबकि इस विषय में अमेरिका और जापान बहुत आगे हैं।
लेकिन वो भी इस चीज का पता नहीं लगा पाए कि वास्तव में भूकंप कब आएगा। तो समय और घटना के बारे में सही-सही नहीं बताया जा सकता। इस संबंध में हमने फीडर में टेस्ट करने के लिए एक लेबोरेट्री रखी थी और इसे आगे भी बढ़ाने का विचार है। अब भी देखा गया है पिछले वर्षों में रेन फाॅल का इलेक्ट्रोनिक्स से जियोलाॅजी से और या भूकंप से क्या संबंध है; तो इसमें भी हम लोगों को एक रिश्ता मिलता है। धर्मशाला में भी स्टडी हुई और भी कई जगहों पर हो रही है कि जहां पर बहुत ज्यादा वर्षा के स्थान हैं वहां भूकंप आने की संभावना ज्यादा है। वहां जहां हेवी पिरसपटेशन होगा वहां लैंड स्लाइड भी होंगे वहां पर साइसेविटी ज्यादा है। क्योंकि लैंड स्लाइड वास्तव वो वहां होता है जहां कहीं पर पानी बरसने के कारण कच्चा एवं अस्थिर क्षेत्र और अधिक कमजोर हो जाता है और टूटकर गिर पड़ता है। अब लैंड स्लाइड को भी देखा कि वो दो तरीके के हैं।
यदि कहीं पर साइसविक एक्टीविटी है, कहीं पर भूकंप आया है जैसे कि चमोली, उत्तरकाशी में हुआ था उसके बाद वहां पर पूर्णावत हुआ था वो ट्रिगर कर गया। तो जो भूकंप है वो लैंड स्लाइड को ट्रिगर करता है। उसी तरह से जो भूकंप के बाद के झटके हैं तो लैंड स्लाइड का भूकंप से सीधे जनैटिक संबंध है और उसके बाद भारी वर्षा होती है। तो ये खाली जियोलाॅजिकल कारण ही नहीं है इसमें हमारे गर्मियों के मानसून का बहुत बड़ा रोल है। उत्तराखंड के बारे में मैं कुछ बताऊंगा ये वो स्थल है जहां हम कैलाश मानसरोवर के रास्ते जाते हैं यहां जैसे कि भट्ट जी ने बताया कि बहुत आपदा ट्रेडजी हुई थी और उस समय इसमें करीब 400 लोग मारे गए थे। ये मालपा के रास्ते में पड़ता है तो मालपा में ये हुआ था कि सब लोग जानते हैं कि कैलाश मानसरोवर यात्रा होती है।
सबको पता है कि ये जोन 4-5 में है, लैंड स्लाइड में है लेकिन फिर भी इस तरह की यात्रा होती है तो ये सब अप्रत्याशित सा हुआ। उस समय कुछ लोग रात को कैंप कर रहे थे और सुबह जाना था, वहां रात में इतना भयंकर बादल फटा (क्लाउड बलास्ट) हुआ कि वो पूरा का पूरा पहाड़ नीचे आ गया और उसमें सब दब गए। इस प्रकार ये मालपा ट्रेडजी एक आंख खोलने वाली घटना थी उस समय पिछले 12 साल में लेकिन उसके बाद भी इस तरह की घटनाएं होती रहीं इसे केवल एक भूवैज्ञानिक मान लिया गया कि भूकंप हो गया, लैंड स्लाइड हो गई।
अब हम आगे कुछ और इलाकों की बात करेंगे हमारे साउथ नाॅर्थ की तरफ जो रास्ते जाते हैं तो वहां क्रियोसिटी क्रोकस हैं और जब हम उत्तर की तरफ जाते हैं जहां पर हमारे चार धाम हैं, वहां जाते समय हमारे चार ग्रेनाइड हैं कियोस है तो आमतौर से आपने देखा होगा कि जो हमारी बिल्डिंग बनती है उसमें ग्रेनाइट का प्रयोग होता है जो बहुत ही मजबूत पत्थर होता है इसीलिए केदारनाथ मंदिर को कुछ नहीं हुआ क्योंकि वो ग्रेनाइट पत्थर से बना था। मैं आगे बताना चाहूंगा कि पहाड़ मेंं आमतौर से जो परिवर्तन हो रहे हैं जैसे वहां किस तरह की खेती हो रही है जैसे मैं आपको बताना चाहूंगा कि वहां पर सीढ़ीदार खेती होती है, नदी के किनारेलोग रह रहे हैं। तो पुरानी परंपरा के अनुसार ये सब ठीक था लेकिन आजकल जो परिवर्तन हो रहे हैं उसके बारे में दोबारा सोचना पड़ेगा कि नदियों के किनारे जो भी निर्माण कार्य हो रहे हैं चाहे वो हाइड्रोपाॅवर के हों या फिर चाहे वो कोई भी विकास कार्य है वो नदियों के आस-पास बिल्कुल नहीं होना चाहिए।
टिहरी डैम के बारे में आप सभी जानते हैं और भट्ट जी ने भी बताया कि इसे बनाने के संबंध में बहुत विवाद था लेकिन बांध बना, विश्व में सबसे बड़ा बांध बना, उससे बिजली भी पैदा हो रही है। लेकिन उसके साथ बहुत से सवाल हैं, विवाद हैं और जैसे कि हाई सेंसेटिव भूंकप हो रहे हैं तो यदि यहां 8 और 9 रिक्टर स्केल के भूकंप आएंगे तो क्या ये सरवाइव करेगा? और यदि ये सरवाईव नहीं करेगा तो पूरी दिल्ली तक पूरा पानी आ जाएगा लेकिन इसके बारे में जब कुछ मतभेद थे तो वैज्ञानिकों के लिए भी और भू वैज्ञानिकों के लिए भी इसमें उन्होंने बाहर के लोग भी बुलाए कुछ रसियन और कुछ अन्य स्थानों से उन्होंने उसे इस तरह से डिजायन कियाकि यदि इसमें रिक्टर पैमाने पर 8 तक का भी भूकंप आता है तो फिर भी ये बच सकते हैं जिससे स्पष्ट है कि ये तकनीकी रूप से ये मजबूत है।
उन्होंने साइसनिंग के रूप में किया तो अभी भी हम साइसनिंग पर नजर रखे हुए हैं और इसमें महत्वपूर्ण बात ये है कि ये उस तरह से जो रुक जाएगा लेकिन इसमें जो इसमें पानी का रिजारिव बन गया बहुत बड़ा उसमें सीजनिंग हो रही है उसमें मलवा आ रहा है, तो धीरे-धीरे होता क्या है कि जब एक स्टेबल वाॅटर बोडी होती है तो न्यू सेंसेटी अपने आप विकसित हो जाती है और उससे अपने आप भूकंप आने लगता है तो ये कोयना में देखा गया। कोयना में एक डैम है वहां हिमालय नहीं है और भी कुछ नहीं है। वहां समतल भूमि है लेकिन वहां इतने बड़े भूकंप आते हैं वो इसलिए कि वहां पर वाटर रिजर्व हैं, वाॅटर काॅलोनी का जो उसमें रिसपेसमेंट हो जाता है उससे भूकंप आते हैं।
तो टिहरी डैम की इस क्रिया को भी ध्यान में रखा जा रहा है। जो माइक्रो सांइसेटी बढ़ सकती है और ये भूकंप आ सकता है तो ये दूसरी समस्या है जो बांध के कारण हो सकती है। तो जो दूसरा भगीरथी बांध बंद हो गया इसमें सिल्टिंग हो गया आप देख सकते हैं कि इसमें पूरे के पूरे बांध में सिल्टिंग हो गया पूरी मिट्टी भर गई तो उन्हें बंदकरना पड़ा इस तरह से अधिकतर जितने भी हाइड्रो पावर प्रोजेक्टस हैं, पूरे उत्तराखंड में वो सभी बंद हो गए। 200 करोड़ का नुकसान हुआ है। इसी तरह से देव प्रयाग में भगीरथी और अलखनंदा है तो आमतौर से क्या हो रहा है कि यहां से लेकर विष्णु प्रयाग तक जो परियोजना है तो उसमें सारे जगह पर डैम बनाए गए हैं तो उन डैम का ये होरहा है कि अभी वाले समय में वो सरवाइव नहीं कर पाए लेकिन आगे क्या किया जा सकता है क्या इसमें दोबारा छोटे-छोटे डैम बनाए जाएंगे या नहीं बनाए जाएंगे यदि बनाए जाएंगे तो क्या उनका डिज़ाइन होगा? तो ये बहुत बड़ी सोचने की बात है जिसमें इंजीनियर, जियोलाॅजिस्ट, आदि को एक साथ मिलकर काम करना है जो भी प्रोजेक्ट सेंक्शन होंगे उसमें किस तरह से काम किया जाए।
मैं इस इनवायरोमेंट में ज्यादा नहीं जाऊंगा लेकिन जो हमारे पूरे वातावरण को फेस कर रहा है वो आप देखिए कि गर्मियों के दिनों में पहाड़ में कहीं चले जाइए खासकर उत्तराखंड में तो मई, जून और बरसात से पहले पूरे उत्तराखंड में आग लग जाती है सारे जंगल जलते हैं और हर साल जलते हैं और इसे कोई नहीं रोकता। सब कहते हैं ये तो प्राकृतिक है, कहा जाता है कि वहां पीरूल नाम के पेड़ जब आपस में टकराते हैं तो अपने-आप ही जंगलों में आग लग जाती है। लेकिन इसका कुछ नहीं किया जाता लेकिन किया जाना चाहिए क्योंकि जो वार्मिंग हो रही है उसका असर हमारे पूरे ग्लेश्यिर पर पड़ रहा है। जो जंगलों के जलने से प्रदूषण हो रहा है वो तो हो ही रहा है लेकिन उसका असर हमारे ग्लेश्यिर पर पड़ रहा है ऊपर ग्लेश्यिर पिघलने शुरू हो जाते हैं। तो इसके बारे मे भी सोचा जाना चाहिए।
अब आप ग्लेश्यिरों के विषय में सोचिए हमारा संस्थान गंगोत्री में काम कर रहा है और शोध से पता चलता है कि वहां पर ग्लेश्यिर घट रहे हैं, ये 12-14 मीटर तक जा रहे हैं और ऐसा ग्लोबल वार्मिंग के कारण हो रहा है। आप देख सकते हैं कि पिछले 30-40 साल के दौरान यमुनोत्री के बहुत से क्षेत्रों मेंं ऐसा हो रहा है और यमुनोत्री का क्षेत्र केदारनाथ से मिला हुआ है इसलिए हो सकता है केदारनाथ पर उसका असर पड़ा हो। इस प्रकार हमारे आस-पास इस तरह की चीजें हो रही हैं जिन्हें हम रोक तो नहीं सकते क्योंकि ये वैश्विक ताप के कारण भी हो रही हैं लेकिन यदि हम वैश्विक ताप बढ़ाने के क्षेत्र में भारत की भूमिका को देखें तो ये अन्य देशों की अपेक्षा बहुत ही कम है लेकिन फिर भी हमें इसके बारे में सोचना है कि इसे किस तरह से रोका जा सकता है।
अब हम तो वैज्ञानिक हैं और इस विषय पर शोध करेंगे और इसका कारण भी बताएंगे, इसके कारण आने वाली आपदा के बारे में भी लोगों को जानकारी देंगे लेकिन इसको रोकने के लिए तो जो भी काम करने हैं उन्हें या तो सरकार करेगी या इसी काम के लिए बनाया गया केाई अन्य संस्थान करेगा। जैसे मैंने ये बताया कि उत्तरकाशी और उसके आस-पास की तरह यहां भी आप देख सकते हैं ऊपर बहुत ऊंचाई पर समतल मैदान की तरह बन रहा है, वहां लैंड स्लाइड हुआ था और उत्तरकाशी में बहुत नुकसान हुआ था तो ये भी 2003 में एक बहुत बड़ी आपदा आई थी लेकिन इससे भी लगता है कि इस आपदा के बाद भी हमने कोई सीख नहीं ली और ये घटनाएं होती रहीं।
जब बाढ़ आई थी उस समय अलखनंदा आद में बाढ़ आई थी और उस समय भी हाइड्रो पाॅवर टूट गए थे, पावर हाउस टूट गया था। लेकिन इसके बारे में सबको पता है, हर साल ऐसा होता है लोग शोध कर रहे हैं, पेपर छाप रहे हैं लेकिन इस पर कोई भी कार्य नहीं हुआ इसके बारे में पहले से ही सुझाव दिए गए लेकिन कुछ हुआ नहीं। भट्ट जी ने तो काफी ऊपर तक ये बात पहुंचाई है लेकिन सरकार इस विषय में कुछ भी नहीं कर रही है। हम रिपोर्ट छाप देते हैं सरकार को देते हैं लेकिन कुछ भी नहीं होता है। अब ये बादल फटने की घटना हुई लेकिन इसके बारे में आठ-दस साल पहले किसी ने सुना नहीं था यहां तक कि मीडिया में भी ये नाम नहीं आता था पर ऐसा नहीं है कि उस समय बादल फटना (क्लाउड ब्लास्ट) नहीं होता था लेकिन आजकल उसे समझने की कोशिश हो रही है।
अभी ये 2012 में हुआ था उसके पहले मुनसियारी में हुआ था जब पूरा गांव डूब गया था। बादल फटना वास्तव में है, वास्तव में जब एक छोटे से इलाके में साल भर में जितनी वर्षा होती है उतनी ही वर्षा यदि एक दिन में हो जाए तो आप समझ सकते हैं कि उसका कितना प्रभाव पड़ेगा उसे क्लाउड ब्लास्ट कहते हैं कि बादल फट गया और एक सीमित क्षेत्र में सारा पानी गिर जाए तो वो इलाका पूरी तरह से तहस-नहस हो जाता है। यही मुनस्यिारी में हुआ था जब पूरा का पूरा गांव दब गया, उसके बाद ऐसा अन्य स्थानों पर भी हुआ और जो केदारनाथ में हुआ वो बादल फटना था।
लेकिन अभी लोगों ने अपने अधूरे ज्ञान के कारण हिमालय से छेड़खानी करना शुरू कर दिया इस बारे में मैंने हिन्दी में लिखा था ‘पहाड़‘ ने उसे अंग्रेजी में अनुवाद कर प्रकाशित किया क्योंकि उस समय हमारे साथ कुछ भूगोल के विद्यार्थी भी जुड़े थे तो हमने उनसे कहा कि वो अपने ज्ञान को आम गांववालों तक ले जाएं। वनस्पति विभाग वालों से भी कहा कि आप अपनी जानकारी के लिए हमारे विकास को समझें। जहां पर विष्णु प्रयाग के लिए बैराग बनाने की बात है तो जो मैंने उनको चिट्ठी लिखी उसमें लिखा कि यहां पर लैंडस्लाइड होते तेज धार आती है लेकिन यदि यहां पर बैराग बनेगा तो अलखनंदा बौखला जाएगी और वो इस साल देखने को मिल भी गया।
विष्णु प्रयाग के बैराग स्थल में पूरा रामबगड़, गोविंदपाक और बिदांसी तक तबाह करके छोड़ दिया और उनका मलबा जो कि लगभग 9 किलोमीटर लंबी टनल के समान था उस मलबे को फेंकने की जहां तक बात थी उसे सुरक्षित स्थानों में रखना था लेकिन पहाड़ों में सुरक्षित कहां होता है वो मलबा वहीं गंगा के किनारे पड़ा रहा, फिर बारिश हुई और वो मलबा वहीं पर दब गया। कई इलाके जिनके बारे में पिछले दिनों जयराम रमेश ने फूलों की घाटी कहकर पुकारा था उनमे ज्वाल उत्पन्न हो रहा है। उन्होंने तत्काल पत्रकारों से बात की और दूसरे दिन मैंने पेपर में देखा उसमें लिखा था कि हम भिनाल की घाटी में कोई परियोजना नहीं बनाएंगे। वहीं बदरीनाथ के पास बनने वाली परियोजना के बारे में कहा गया कि वो बन ही नहीं सकती और ये बात समाचार पत्रों में भी आई। लेकिन उत्तराखंड में परसों हुई दुर्घटना से पता चला कि मशीन के अलग-अलग टुकड़े करके भिनगना नदी में पहुंचाए गए।
वहां एक छोटी परियोजना पर जो कुछ हुआ था, अब भले ही वो छोटी परियोजना रही हो लेकिन उसका मलबा दो गांवों के समान था और उसने भीड़ा गांव का अस्तित्व समाप्त कर दिया। हमारे यहां पहाड़ों में यदि हम आधे इंच पानी प्राप्त करने के लिए जमीन के साथ छेड़-छाड़ का काम करें तो सरकार वन संरक्षण अधिनियम की बात करने लगती है और उसके लिए हमें स्वीकृति नहीं मिल पाती है।
जब मैंने भारत सरकार में काम करने वाले एक परिचित से कहा कि सरकार ने हमें आधे इंच पानी के लिए इजाजत नहीं दी तो उन्होंने कहा कि आपकी परियोजना के लिए तो कागजात आए ही नहीं लेकिन वहीं बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के लिए प्रोजेक्ट तुरंत आ जाते हैं फिर चाहे वो गोपेश्वर में हों या कहीं भी हों। इस तरह की बातों से आप समझ सकते हैं कि वहां पर कौन सी शक्ति काम कर रही है। हम कोई कैमरा लेकर तो काम नहीं करते हैं जो हम चुपचाप जाकर ये देखें कि आखिर इनको स्वीकृति कैसे मिली।
आज हमें दिल्ली सरकार से ये पूछना चाहिए कि इतनी बड़ी परियोजनाएं हैं जिन्होंने आज उत्तराखंड को तबाह कर दिया है उनके लिए वन संरक्षण अधिनियम से इतनी जल्दी स्वीकृति कैसे मिल गई जबकि हिमालय बहुत ही संवेदनशील है। जहां स्थिरता है वहां परियोजनाओं को ज़रुर बनाएं जहां इस तरह का विश्वास हो जाए कि लोगों की जमीन, उनके घरों एवं उनके पशुओं का नुकसान नहीं होगा वहां जरूर बनाइए और जहां लगे कि नुकसान नहीं होगा वहां बनाया जाए। तो उसके अलावा हमने ये भी कहा कि जहां आप काम शुरू करते हैं तो थोड़ा सा करने के बाद छोड़ क्यों देते हैं? आपके पास यदि केवल 5 या 10 करोड़ तक का बजट है तो आप उतने पैसे से काम करते हैं और जब वो पैसा खत्म हो जाता है तो काम को बीच में ही छोड़ देते हैं।
इससे तो आपने हमारा इतना पैसा बर्बाद कर दिया। तो ये जिम्मेदारी भी हम उन इलाकों में रहने वालों की है कि हम इस बारे में पूछें कि यदि आप इसे नहीं बना रहे हैं तो क्यों नहीं बना रहे हैं। तो मैं इसी निवेदन के साथ आपसे बात कर रहा हूं कि आप इस बारे में बात जरूर करें कि जो छोटी परियोजनाएं हैं जैसे कि देहरादून में कार्य चल रहे हैं तो उसमें बड़े पत्थर को छोटा कर दिया जाए तो उससे हमारा काम भी हो जाएगा और पर्यावरण पर खास फर्क भी नहीं पड़ेगा। हम तो कह रहे थे कि हमारी आवश्यकताओं से संबधित जो भी परियोजनाएं हैं उसके लिए तो सीधे कलेक्टर यदि सहमति देता है तो प्रदेश सरकार और फिर भारत सरकार उसके लिए स्वीकृति दे दे। पिछले दिनों 5 जून को उत्तरकाशी में था, उसके बाद मैं गंगोत्री भी गया तो मैंने देखा कि जिस सड़क पर पहले से बसें आसानी से आ-जा रही थीं उन सड़कों को तो आपने चौड़ा कर दिया।
गढ़वाल में तीन-चार स्थानों पर सुंदर घाटियां हैं फिर चाहे वो हर्षिल से गंगोत्री हों या मंदाकिनी और भूनार घाटी। वहां ये तीन सुंदर घाटियां थीं तो इस बार वो तीनों ही घाटियां नष्ट हो गई हैं। जब मैं गंगोत्री गया तो वहां सड़क को चौड़ा करने के बहाने एटम बम के धमाके हो रहे थे और नदी के किनारे मिट्टी फेंकी जा रही थी ऐसे में जब बारिश हुई तो वो मिट्टी वहीं पर दब गई और आपने सुना होगा कि उत्तरकाशी में भारी तबाही हुई उसका कारण कहीं न कहीं यही सब था। जबकि सातवीं पंचवर्षीय योजना में पर्वतीय क्षेत्र और पश्चिमी घाट के लिए एक टास्क फोर्स बनी थी उसकी सिफारिश थी कि यदि पहाड़ों में सड़क बने तो उसके नीचे से आधे भाग तक पत्थर की दीवार हो, जिससे सड़क चौड़ी होगी और नुकसान भी कम होगा। उस टास्क फोर्स के सदस्यों में से मैं भी एक था और मुझे याद है कि वो सब योजना आयोग की ज़िम्मेदारी थी और हमने उसमें एक शब्द चलाया था पूरे देश का केंद्र बिंदु हिमालय का संरक्षण होना चाहिए।
हमें भी हिमालय में सड़कें चाहिए। एक व्यक्ति ने मुझे बताया कि एक तरफ तो आप हिमालय में पर्यावरण की बात करते हैं और दूसरी तरफ आप वहां सड़क बनाने की बात करते हैं तो मैंने कहा कि “हम भी इंसान हैं, हम बंदरों की तरह फुदक नहीं सकते इसलिए हमें भी सड़क चाहिए लेकिन यदि साधारण सी सड़क बनाने पर 10 लाख का खर्चा आ रहा है और उसके किनारे दीवार बनाने पर उसका खर्चा 20 लाख आ रहा है तो आपको उसपर 20 लाख रुपए खर्च करने ही चाहिए।” इसलिए कि उत्तराखंड में या हिमालय में जिस तरह की गड़बड़ियाँ हो रही हैं उसके लिए ऐसा किया जाना जरूरी है क्योंकि उससे सारा प्रदेश प्रभावित होता है जैसे कि यमुना में हुई लगातार गड़बड़ियों के कारण दिल्ली के कश्मीरी गेट तक पानी घुस आया था क्योंकि नदियों का स्तर बढ़ जाता है और पानी के साथ-साथ कशमीरी गेट तक मिट्टी भी बहकर आ गई और फिर यहां नावें चलानी पड़ती हैं। उसी तरह से हिमालय में होने वाली गड़बड़ियों का दुष्प्रभाव मैदानों पर भी पड़ रहा है।
इसलिए मुझे लगता है कि 10 लाख की बजाए 20 लाख भी लगते हैं तो लगाना चाहिए वैसे मुझे पता नहीं है कि योजना आयोग 20 लाख रुपया दे रहा है या कितना दे रहा है, क्योंकि वो ठेकेदारों के पास जा रहा है, यदि कोई निगरानी करने वाला होता तो उसके बारे में भी पता लगाया जा सकता था लेकिन यदि नहीं मिल रहे हैं तो 10 लाख की जगह 20 लाख का प्रबंध होना चाहिए, पानी की उचित व्यवस्था होनी चाहिए, वहां उचित सड़क निर्माण हो, उसका उचित चैनल होना चाहिए। इस प्रकार हमें विकास भी चाहिए और अपना पर्यावरण स्थिर भी चाहिए तो इस तरह के कार्यक्रम किए जाने चाहिए। जैसे कि मैंने आपको बताया कि उत्तराखंड में पूर्व में आई आपदा के दौरान भी इस संबंध में योजना आदि बनाते समय कुछ संवेदनशील अधिकारियों, राजनेताओं के अलावा, बहुगुणा, स्वामीनाथ और चंडीप्रसाद ने दो पेज का पत्र लिखा था जिसपर पूरी तरह से विचार किया जाना चाहिए। आपने सुना होगा 1991 में तो उत्तरकाशी में भूकंप आया, 1998 में उखीमठ के आस-पास करीब 54 गांव लैंडस्लाइड से प्रभावित हुए और बहुत नुकसान हुआ। उसी समय मालपा, पिथोरागढ़ आदि में नुकसान हुआ था।
वहां एक पहाड़ टूटा जिसके कारण उखीमठ के पास दो गांव नष्ट हो गए तो हमें पता चला कि वहां पहले से ही पहाड़ पर दरार थी तो हमने कहा कि अंतरिक्ष प्रोद्योगिकी की मदद से उपग्रह के द्वारा इस तरह की घटनाओं को चिन्हित कर सकते हैं। 1991 में आए भूकंप के बाद पहाड़ों में जहां-तहां दरारें पड़ी उसके बाद हमने ये विचार किया कि इन इलाकों को चिन्हित किया जाना चाहिए। गोपेश्वर के पास बसेही नाम का एक गांव है जहां पर उपप्रधानमंत्री के संयुक्त सचिव अशोक, और कुछ वैज्ञानिक और हमारी संस्था के लोगों ने दो दिन तक रहकर चिंतन मनन किया और उसके बाद मुझे जिम्मेदारी दी गई कि इस प्रकार के इलाकों को चिन्हित किया जाए क्योंकि मैंने अंतरिक्ष प्रोद्योगिकी के द्वारा कई जगहों को देखा था।
उससे पहले मैंने साइंस एंड स्पेश सेंटर, अहमदाबाद में उनसे निवेदन किया था कि वो यहां 1967 तथा 1982 में क्या स्थिति थी, और आज क्या स्थिति है इसके लिए हमने निवेदन किया था कि पेड़ लगाए जांए। उसी तरह से चिपको आंदोलन में जैसे कि हमने कहा कि हमने पेड़ बचाए तो क्या हम अपने आप में इतने में ही खुश हो जाएं कि हमने पेड़ बचाए हैं। हां ये ठीक है कि इससे पेड़ जीवित हो गए हैं, आबोहवा स्वच्छ हो गई है लोगों को फल मिलने लगे हैं। लेकिन दूसरी ओर हमने कहा कि इसका वैज्ञानिक पहलू भी है। 1991 में जहां-जहां दरारें पड़ी हैं वहां इस प्रोद्यौगिकी के द्वारा चिन्हित किया जाए, प्रभात कुमार ने टंडन जी से कहा कि यदि आप ये काम करेंगे तो आपका सम्मान होगा तो फिर हमने उनके साथ बैठक की और हमने कहा कि इन इलाकों के बारे में भौगोलिकविद् कहते हैं कि ये एमसीपीएल अर्थात सबसे कमजोर इलाका है।
इसलिए इन इलाकों को चिन्हित किया जाना चाहिए और व्यवस्था वालों को और लोगों को उस बारे में जानकारी दी जानी चाहिए तो उसके बाद उन्होंने उसकी मैपिंग करवाई मैंने उत्तराखंड राज्य के लिए किया और इसके लिए ऋषिकेष से बद्रीनाथ और रूद्रप्रयाग से केदारनाथ और ऋषिकेष से गंगोत्री तथा टनकपुर से मालपा तक। इसके लिए देश की 12 वैज्ञानिक संस्थाओं को चिन्हित किया। दो मैप बने हैं और उसमें वाडिया इंस्ट्टियूट, 26 सेप, सीबीआरआई आदि संस्थानों सहित कुल 50 से अधिक संस्थाओं ने काम किया।
उसके बाद यूजर उत्तराखंड सरकार को होना चाहिए उनकी भी बैठक हुई और ये हुआ कि कौन-कौन से इलाके लैंडस्लाइड के क्षेत्र में हैं, कौन से सक्रिय लैंडस्लाइड की स्थिति में हैं, और कौन से इलाके खतरनाक स्थिाति में हैं तो सारे चिन्हांकन के बाद मैनेजमेंट ने उसमें दिखाया। लेकिन आपको ये सुनकर हैरानी होगी कि ‘केदारनाथ‘ जहां ये बाढ़ आई उसके बारे में मुझे लगता है कि मैंनेजमेंट ही कमजोर था। हमने डीएमओ की मीटिंग करवाई, जिसमें उत्तराखंड के चीफ सैक्रेटरी और एनआरएसए के डायरेक्टर भी शामिल थे। लेकिन आज की स्थिति देखी जाए तो मुझे लगता है कि कुछ भी नहीं हुआ। इसी संदर्भ में मैंने कहा कि मानवीय सिस्टम का विकास किया जाना चाहिए।
एनआरएसएस से अलग-अलग विभाग वालों से हमने कहा कि जीएसआई वाले आए, मौसम विज्ञान वाले आए, अंतरिक्ष प्रोद्यौगिकी के विभाग के लोग आए। जीएसआई वालों ने कहा कि ये इलाका कमजोर है, उसी इलाके को अंतरिक्ष प्रोद्यौगिकी वाले चिन्हित कर दें। वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो हम भूसखलन, बाढ़ को रोक तो नहीं सकते हैं लेकिन उसकी मारक शक्ति को कम कर सकते हैं। एक बात साफ है कि यदि वो धरती पर पड़ती है तो वो विनाशकारक और समृद्धिकारक दोनों ही हो सकती है उसके लिए चाहे हरियाली लाने का काम हो या फिर विनाशक रूप में भी गड़बड़ी लाने वाला होगा तो उसके धरती एवं हम लोगों पर बहुत ही दुष्प्रभाव पड़ेगे तो आज पूरे उत्तराखंड को इस बात की आवश्यकता है कि पूरे उत्तराखंड में आज जब हमारे पास इतने बड़े-बड़े संस्थान हैं तो उनको चिन्हित किया जाना चाहिए।
वहां के बारे में मैं आपको एक जानकारी देना चाहता हूं जब उत्तरकाशी का भूकंप आया तो उस समय 493 आदमी मारे गए, 20 अक्टूबर को भूकंप आया, 22 अक्टूबर को हम उत्तरकाशी पहुंचे, 25 को हम केदारनाथ पहुंचे वहां मंदिर को कोई नुकसान नहीं हुआ लेकिन स्थानीय लोगों ने कहा कि सुमेरु पर्वत आदि में भयंकर तबाही हुई है, गलेशियर टूटे। मैंने फिर लिखा कि यहां की जांच होनी चाहिए। मैंने पिछले दिनों एक पुस्तक लिखी “पर्वत-पर्वत, बस्ती-बस्ती” उसमें मैंने साफ लिखा है कि देर-सबेर नदियां खुद बता देंगी कि पहाड़ों के ऊपर क्या गड़बड़ हुई। भूगौलविद् चिल्लाते रहते हैं कि हिमालय संवेदनशील है, जागो-जागो-जागो। परसों जब आपदा आई तो उसी क्षेत्र का एक आदमी मेरे पास आंखों में आंसू लेकर आया और उसने कहा कि भट्ट साहब मंदाकिनी तो बहुत ही शांतमंदाकिनी थी और आज ये हाल है तो उसने कई-कई परियोजनाओं का नाम दिया कि यदि ये परियोजनाएं नहीं होती तो उत्तराखंड का ये हाल नहीं होता।
हमने बचपन से देखा था कि मंदाकिनी एक स्तर तक ही आती थी और उसके ऊपर लोगों ने जितने मकान बनाए थे उससे तो मंदाकनी कभी बौखलाई नहीं थी लेकिन अब वो लगातार अंधाधुंध निमार्ण होने से जो त्रासदी आदि आई है वो पूरी तरह से मानव निर्मित है। अभी तीन-चार परियोजनाएं थी उन्होंने अपना मलबा फेंका इसके कारण ही सब हुआ। और अभी केदारनाथ में जो हुआ वो इसीलिए हुआ। इस प्रकार की घटनाओं से 2010 में पूरे उत्तराखंड की स्थितियां खराब हो गई, उसी तरह से 2011 में हुआ, 2012 में हुआ और इस साल भी हुआ तो हर बार हो रहा है। और हम चिल्ला रहे हैं ये बात आप मेरे लेख में भी पढ़ सकते हैं ये जो लेख आपके सामने है ये 2010 का लेख है।
मैं आपको एक और बात बता दूं कि मैंने जब इस संबंध में पूर्व के मुख्यमंत्री से निवेदन किया तो उन्हें यही लेख दिया और उन्होंने सारे मुख्य सचिवों को पत्र दिया और ये भी लिखा कि “इसपर तुरंत कार्यवाही हो, मुझे भी जवाब दो और चंडी प्रसाद जी को जवाब दो।” अब उन्होंने सरकार को क्या जवाब दिया ये तो मुझे पता नहीं लेकिन उन्होंने मुझे कोई भी जवाब नहीं दिया। इस प्रकार आज ये स्थितियां हैं, हमारी उम्र तो अब अस्सी के ऊपर हो चुके हैं और अब हमारे नौजवान ही आगे देखेंगे कि क्या होता है। मुझे लगता है कि जिस भी स्तर पर जो भी सोचा और विचारा जाए उसे धरती पर कैसे उतारा जाए।
आज भी हमारे यहां संचार और यातायात के क्षेत्र में सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। आज वहां कई लोग प्रभावित हुए हैं उसमें केवल वही लोग शामिल नहीं हैं जिनके मकान डूबे हैं बल्कि उनके अलावा ऐसे कई अन्य लोग हैं जो सीधे-सीधे प्रभावित नहीं हुए हैं लेकिन फिर भी इस आपदा से वो प्रभावित हुए हैं। हिमालय से मुख्यतः गंगा, ब्रहमपुत्र और सिंध तीन नदियां निकलती हैं। इन तीन नदियों के अंतर्गत जो बेसिन है इसके अंतर्गत देश का 43 प्रतिशत भाग आता है और 62-63 प्रतिशत इन तीन नदियोंको देश से मिलती है और उत्तराखंड में बहती गंगा नदी में कोशी, गंडक आदि कई सहायक धाराएं मिलती हैं। यदि हिमालय में गड़बड़ होगी तो हमारा 43 प्रतिशत पहाड़ सीधे-सीधे प्रभावित होगा। उसी तरह से गंगा कई राज्यों में जाती है। हमारे यहां विकास की नीति टिकाऊ होनी चाहिए और यदि कोई आपदा आए तो ग्राम स्तर पर ऐसेसंगठन बनाएं कि वो लोग स्वतः ही अपनी मदद कर पाएं।
उमाकांत लखेड़ा - मैं भट्ट जी का धन्यवाद करता हूं। अभी वाडिया इंस्ट्टियूट आॅफ हिमालयन जियोलाॅजी के प्रोफेसर प्रो. बी.सी. तिवारी से बात हुई, उन्होंने बताया कि जब अचानक इस तरह की आपदा आई तो उनके विभाग में काफी तेज हलचलें हो गईं। मैं अपेक्षा करता हूं कि जो वैज्ञानिक शोध है और मौसम के बारे में जो चेतावनी है उसमें एक बड़ी विश्वसनीयता का संकट भी है क्योंकि समुद्र में तो मछुवारों को सुरक्षित स्थानपर ले जाने की अनुमति की चेतावनी तो हो जाती है लेकिन पहाड़ों में जब आपदा आ जाए जैसे कि भूकंप, बाढ़, वर्षा हो जाए इसके बारे में तो परस्पर विरोधी वैज्ञानिकों की बातें बाद में होती हैं। जब सब विनाश हो जाता है जिस तरह से जब बारात जब चली जाती है तब बाजे बजते हैं। मेरा इस समुदाय से अनुरोध है कि इसपर चिंतन-मनन होना चाहिए। मौसम विभाग से भू-गर्भ वैज्ञानिकों तक और इस संबंध में सरकार कीविशेष मशीनरी कहती हैं कि हमें इस बारे में खास जानकारी नहीं थी कि क्या होने वाला है और जमीन के अंदर क्या हो रहा है, जमीन के अंदर किस तरह की हलचलें हैं।
हिमालय पांच नंबर के स्पेशिफिक जोन में है और हमारे योजनाकार जो कि हमारे लिए नीतियां बनाते हैं और नीतियां बनाने वाले भी सरकार के होते हैं, सरकार कहती है कि हमने भूगर्भ वैज्ञानिकों से सलाह ले ली है और उन्होंने इसे पास कर दिया है। इस प्रकार ये सरकार के दृष्टिकोण में और वैज्ञानिकों के दृष्टिकोण में जो ग़लतफ़हमियाँ होती हैं और ऐसे समय में संचार की कमी के कारण जो समस्याएं उत्पन्न होती हैं जैसे विषयोंपर वाडिया इंस्ट्टियूट आॅफ हिमालयन जियोलाॅजी के प्रोफेसर प्रो. वी.सी. तिवारी।
डाॅ. वी.सी. तिवारीः उपस्थित सज्जनों, एनजीओ एवं मीडिया के सारे कार्यकर्ता। सबसे पहले तो मैं उमाकांत जी को धन्यवाद देना चाहूंगा जिन्होंने मुझे यहां आमंत्रित किया। वैसे केदारनाथ की दुर्घटना के बाद बहुत सारे कार्यक्रम, कार्यशालाएं हो रही हैं, हम कल सुबह 10 बजे से वाडिया संस्थान में पूरे दिन का कार्यक्रम कर रहे हैं। इसमें एनडीए, सारे मंत्री और उत्तराखंड सरकार के कुछ लोग इस बारे में विचार विमर्श करेंगे। ये मेरा सौभाग्य है कि आज मैं यहां आ पाया, तो आज आपदा के बाद कुछ वैज्ञानिक विचार और कार्य करने की आवश्यकता है। उसके बारे में चर्चा करूंगा। वैसे तो भट्ट जी ने कोई भी ऐसा मुद्दा नहीं छोड़ा जो उससे संबधित नहीं हो और उन्होंने पूरे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी सब कहा है इसलिए मुझे बहुत कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है लेकिन फिर भी हम लोग जो वैज्ञानिक शोध कर रहे हैं, हमारे स्टेशन पूरे हिमालय में लगे हुए हैं और केदरनाथ में जहां ये दुर्घटना हुई उसके पास भी हैं। अब इस बारे में हम लोग आगे सोच रहे हैं कि किस तरह से इस आपदा को रोका जा सकता है तो इस बारे में मैं संक्षेप में बताना चाहूंगा कि वाडिया हिमालय संस्थान विश्व का एकमात्र संस्थान है जहां हिमालय के भूगर्भ से संबंधित शोध कार्य होता है।
हम वहां मिट्टी, पहाड़ों आदि सभी के सेंपल को लाते हैं, पूरे हिमालय और ट्रांस हिमालय काराकोरम और सिक्किम, अरूणाचल, पूरा उत्तराखंड आदि सभी स्थानों पर हमारे स्टेशन बनें हैं तो उससे हमें जो भी हलचल हो रही है भूकंप आ रहे हैं, लैंड स्लाइड आ रहे हैं, उसके हमें आनलाॅइन आंकड़े मिलते हैं तो जो कुछ हुआ है या हो रहा है और जो कुछ होने वाला है उसके बारे में भी पता चलता है। हिमालय के बारे में जितना भी बताया जाए वो कम है। ये मेरुदंड की तरह है इससे हम पूरी पृथ्वी की ऊंचाई, गहराई आदि नापने में आधार की तरह प्रयोग करते हैं।
हिमालय के बारे में स्वामी विवेकानंद उत्तराखंड से बहुत प्रभावित हुए। उनको जो ज्ञान हुआ और उन्होंने जो कुछ भी अर्जित किया, उसके बारे में उन्होंने बहुत कुछ लिखा भी है। उन्होंने लिखा कि उन्होंने अन्य पर्वत श्रंखलाएं भी देखी हैं लेकिन हिमालय में हमारी एक संस्कृति है और वहां पर जो शांति आदि की बातें की जाती हैं वो सब हिमालय की ही देन है। यदि आज आप हिमालय को भारत से हटाकर देखें तो हमारे पास कुछ भी नहीं बचता है। भारत के लिए हिमालय ही सबकुछ है, उससे ही हमारा जलवायु चक्र चल रहा है, उससे ही हमारी जल धाराएं हैं और उसी के कारण हिमालय को वाॅटर टैंक आॅफ द वर्ल्ड कहते हैं। भारत में सारी नदियां हिमालय से ही निकलती हैं।
यदि हिमालय भारत में न हो तो ऐसा लगता है कि भारत में कुछ भी नहीं है। इसे समझने के लिए हमें सरंचना देखनी होगी, हमारी जितनी भी प्लेटस, जितने भी काॅनटिनेंट, जितने भी इंडियन काॅनटिनेंट और जितने भी महाद्वीप हैं उसे हम अपनी वैज्ञानिक भाषा में प्लेटस् कहते हैं। तो होता क्या है कि सारी प्लेटस एक-दूसरे के करीब आ रही हैं कभी वो टकराती हैं और कभी दूर हो रही हैं। तो जब इंडियन प्लेटस् और यूरेश्यिन प्लेट करीब 85 मिलयन साल पीछे टकराएंगी, तो बाधा तो होगी ही। यदि हम धार्मिक पुस्तकों में हिमालय के बारे में लिखी गई बातों पर ध्यान दें तो हिमालय ‘क्षीर सागर‘ था। तो वो सागर था तो हिमालय एश्यिन के प्लेटस से टकराईं तो समुद्र अंदर चला गया और हिमालय ऊपर आ गया और आज विश्व में यही सिद्धान्त सर्वमान्य है।
हमने हिमालय की उत्पत्ति के बारे में माॅडल बनाया है और जिसे आप देख सकते हैं। जैसे भट्ट जी ने भी कहा है कि हम जब देहरादून से बद्रीनाथ की ओर जाते हैं तो सबसे पहले शिवालिक चट्टानें आती हैं, उसके बाद थ्रस्ट आता है जिसे लघु हिमालय कहते हैं उसकी चट्टानें आती हैं जिसे हम बद्रीनाथ, केदारनाथ के थोड़ा सा दक्षिण में कह सकते हैं बहुत बड़ी दरार है और वो जमीन के अंदर तक गई हुई है और जब ये हरकत में आती है तो ये एनर्जी जाती है और जमीन हिलती है जिससे भूकंप आने की क्रियाएं होती हैं तो उसी के कारण सब परिवर्तन हुआ है जो आज हो रहा है। यदि आप और कुछ देखना चाहते हैं तो लद्दाख और उससे भी ऊंचे हिमालय में थ्रस्ट हैं तो ये एक आइडिया है कि आज हिमालय इस तरह से टूट रहा है वो आज प्रतिवर्ष पांच से छह सेंटीमीटर की रफ्तार से टूट रहा है और यूरेशियन प्लेट से लगातार उसका टकराव हो रहा है। ऐसा नहीं है कि ये अचानक हो रहा है और हो गया बल्कि ये लगातार हो रहा है और बहुत धीरे-धीरे हो रहा है।
ये प्रतिवर्ष पांच से छह सेंटीमीटर की रफ्तार से हो रहा है। महाद्वीप एक-दूसरे के नजदीक आते हैं उनसे टकराते हैं और उसके बाद एक प्लेट दूसरी के अंदर चली जाती है उसे हम उपधारा (सबडेक्शनस) कहते हैं और इनके टकराने से ही आज भूकंप आ रहे हैं और आज आने वाली प्राकृतिक आपदाएं आ रही हैं। इस समय जलवायु परिवर्तन हो रहे हैं वैश्विक परिर्वतन आ रहे हैं। वैश्विक स्थितियां बदल रहा है और ये जलवायु परिवर्तन है तो हम इसका भी अध्ययन कर रहे हैं। आज जो कुछ हो रहा है उसको सिद्ध करने के लिए हम लोग लाखों-करोड़ों साल के पृथ्वी के इतिहास में चले गए कि जब पृथ्वी में चट्टानें बनी थीं तो उस समय जलवायु क्या थी, उस समय जब हमने हिमालय को, अपने शहरों और गांवों को देखा तो पता लगा कि पृथ्वी में परिवर्तन होते रहे हैं और ये परिवर्तन स्वचालित हैं तो इसमें कूलिंग और वार्मिंग की घटनाएं हुई।
जैसे कि आज ग्लोबल वार्मिंग हो रही है और कल ग्लोबल कूलिंग होगी क्योंकि ये तो एक प्राकृतिक चक्र है। आज हम जलवायु परिवर्तन को इस रूप में देखते हैं कि औद्योगीकरण या अन्य चीजों के कारण ऐसा हो रहा है लेकिन ये पूर्णतः सत्य नहीं है; हां उसका प्रभाव है और वो हम आज स्पष्ट रूप से देख भी रहे हैं लेकिन करोड़ों वर्ष पूर्व तो ऐसा कुछ भी नहीं था मानव तक का अस्तित्व नहीं था, जानवर भी छोटे-छोटे थे वो तो उत्पन्न हो रहे थेतो उस समय भी ग्लोबल वार्मिंग हुई। उस समय आज से भी ज्यादा ग्लोबल वार्मिंग हुई और हमारी पूरी पृथ्वी एक बर्फ के गोले में बदल गई थी। पूरी पृथ्वी एक स्नोबाॅल की तरह हो गई थी। और उसके बाद धीरे-धीरे ग्लोबल वार्मिंग हुई। तो उससे पता चलता है कि आज भी जो कुछ हिमालय में हो रहा है वो एक वैज्ञानिक चक्र है जिसकी वजह से ये सब हो रहा है।
अब आप ग्लेश्यिरों के विषय में सोचिए हमारा संस्थान गंगोत्री में काम कर रहा है और शोध से पता चलता है कि वहां पर ग्लेश्यिर घट रहे हैं, ये 12-14 मीटर तक जा रहे हैं और ऐसा ग्लोबल वार्मिंग के कारण हो रहा है। आप देख सकते हैं कि पिछले 30-40 साल के दौरान यमुनोत्री के बहुत से क्षेत्रों मेंं ऐसा हो रहा है और यमुनोत्री का क्षेत्र केदारनाथ से मिला हुआ है इसलिए हो सकता है केदारनाथ पर उसका असर पड़ा हो। आज जो हमारी नेटवर्क है साइंसविक नेटवर्क है तो ये हम लोगों में ग्लोबल पोजशनिंग सिस्टम स्टेशन लगे हुए हैं। तो इस समय हिमालय में क्या हो रहा है वो आॅनलाइन हमारी स्क्रीन पर आ जाता है। हमें देहरादून में आंकड़े मिलते हैं और वो सारे स्टेशन पर भेजे जाते हैं। तो ये एक ऐसा है जिससे हमें ये पता चलता है कि कहीं पर भूकंप आने वाला है तो उससे पहले छोटे-छोटे पूर्व झटके (प्री-सॉक्स) आते हैं। उसके बाद जो मुख्य भूकंप आता है वो सबसटाइब हो जाता है तो भूकंप के बाद वाले झटके आते हैं। तो वो एक पूरी प्रक्रिया है, भूकंप कभी भी एकदम से नहीं आता है तो हम जानते हैं कि किस इलाके में कब भूंकप की संभावना है जैसे मीडिया वाले बोलते हैं किकब पानी बरसेगा, आसमान में बादल छाऐंगे आदि लेकिन जो अभी कोई ऐसी तकनीक विकसित नहीं हुई है जबकि इस विषय में अमेरिका और जापान बहुत आगे हैं।
लेकिन वो भी इस चीज का पता नहीं लगा पाए कि वास्तव में भूकंप कब आएगा। तो समय और घटना के बारे में सही-सही नहीं बताया जा सकता। इस संबंध में हमने फीडर में टेस्ट करने के लिए एक लेबोरेट्री रखी थी और इसे आगे भी बढ़ाने का विचार है। अब भी देखा गया है पिछले वर्षों में रेन फाॅल का इलेक्ट्रोनिक्स से जियोलाॅजी से और या भूकंप से क्या संबंध है; तो इसमें भी हम लोगों को एक रिश्ता मिलता है। धर्मशाला में भी स्टडी हुई और भी कई जगहों पर हो रही है कि जहां पर बहुत ज्यादा वर्षा के स्थान हैं वहां भूकंप आने की संभावना ज्यादा है। वहां जहां हेवी पिरसपटेशन होगा वहां लैंड स्लाइड भी होंगे वहां पर साइसेविटी ज्यादा है। क्योंकि लैंड स्लाइड वास्तव वो वहां होता है जहां कहीं पर पानी बरसने के कारण कच्चा एवं अस्थिर क्षेत्र और अधिक कमजोर हो जाता है और टूटकर गिर पड़ता है। अब लैंड स्लाइड को भी देखा कि वो दो तरीके के हैं।
यदि कहीं पर साइसविक एक्टीविटी है, कहीं पर भूकंप आया है जैसे कि चमोली, उत्तरकाशी में हुआ था उसके बाद वहां पर पूर्णावत हुआ था वो ट्रिगर कर गया। तो जो भूकंप है वो लैंड स्लाइड को ट्रिगर करता है। उसी तरह से जो भूकंप के बाद के झटके हैं तो लैंड स्लाइड का भूकंप से सीधे जनैटिक संबंध है और उसके बाद भारी वर्षा होती है। तो ये खाली जियोलाॅजिकल कारण ही नहीं है इसमें हमारे गर्मियों के मानसून का बहुत बड़ा रोल है। उत्तराखंड के बारे में मैं कुछ बताऊंगा ये वो स्थल है जहां हम कैलाश मानसरोवर के रास्ते जाते हैं यहां जैसे कि भट्ट जी ने बताया कि बहुत आपदा ट्रेडजी हुई थी और उस समय इसमें करीब 400 लोग मारे गए थे। ये मालपा के रास्ते में पड़ता है तो मालपा में ये हुआ था कि सब लोग जानते हैं कि कैलाश मानसरोवर यात्रा होती है।
सबको पता है कि ये जोन 4-5 में है, लैंड स्लाइड में है लेकिन फिर भी इस तरह की यात्रा होती है तो ये सब अप्रत्याशित सा हुआ। उस समय कुछ लोग रात को कैंप कर रहे थे और सुबह जाना था, वहां रात में इतना भयंकर बादल फटा (क्लाउड बलास्ट) हुआ कि वो पूरा का पूरा पहाड़ नीचे आ गया और उसमें सब दब गए। इस प्रकार ये मालपा ट्रेडजी एक आंख खोलने वाली घटना थी उस समय पिछले 12 साल में लेकिन उसके बाद भी इस तरह की घटनाएं होती रहीं इसे केवल एक भूवैज्ञानिक मान लिया गया कि भूकंप हो गया, लैंड स्लाइड हो गई।
अब हम आगे कुछ और इलाकों की बात करेंगे हमारे साउथ नाॅर्थ की तरफ जो रास्ते जाते हैं तो वहां क्रियोसिटी क्रोकस हैं और जब हम उत्तर की तरफ जाते हैं जहां पर हमारे चार धाम हैं, वहां जाते समय हमारे चार ग्रेनाइड हैं कियोस है तो आमतौर से आपने देखा होगा कि जो हमारी बिल्डिंग बनती है उसमें ग्रेनाइट का प्रयोग होता है जो बहुत ही मजबूत पत्थर होता है इसीलिए केदारनाथ मंदिर को कुछ नहीं हुआ क्योंकि वो ग्रेनाइट पत्थर से बना था। मैं आगे बताना चाहूंगा कि पहाड़ मेंं आमतौर से जो परिवर्तन हो रहे हैं जैसे वहां किस तरह की खेती हो रही है जैसे मैं आपको बताना चाहूंगा कि वहां पर सीढ़ीदार खेती होती है, नदी के किनारेलोग रह रहे हैं। तो पुरानी परंपरा के अनुसार ये सब ठीक था लेकिन आजकल जो परिवर्तन हो रहे हैं उसके बारे में दोबारा सोचना पड़ेगा कि नदियों के किनारे जो भी निर्माण कार्य हो रहे हैं चाहे वो हाइड्रोपाॅवर के हों या फिर चाहे वो कोई भी विकास कार्य है वो नदियों के आस-पास बिल्कुल नहीं होना चाहिए।
टिहरी डैम के बारे में आप सभी जानते हैं और भट्ट जी ने भी बताया कि इसे बनाने के संबंध में बहुत विवाद था लेकिन बांध बना, विश्व में सबसे बड़ा बांध बना, उससे बिजली भी पैदा हो रही है। लेकिन उसके साथ बहुत से सवाल हैं, विवाद हैं और जैसे कि हाई सेंसेटिव भूंकप हो रहे हैं तो यदि यहां 8 और 9 रिक्टर स्केल के भूकंप आएंगे तो क्या ये सरवाइव करेगा? और यदि ये सरवाईव नहीं करेगा तो पूरी दिल्ली तक पूरा पानी आ जाएगा लेकिन इसके बारे में जब कुछ मतभेद थे तो वैज्ञानिकों के लिए भी और भू वैज्ञानिकों के लिए भी इसमें उन्होंने बाहर के लोग भी बुलाए कुछ रसियन और कुछ अन्य स्थानों से उन्होंने उसे इस तरह से डिजायन कियाकि यदि इसमें रिक्टर पैमाने पर 8 तक का भी भूकंप आता है तो फिर भी ये बच सकते हैं जिससे स्पष्ट है कि ये तकनीकी रूप से ये मजबूत है।
उन्होंने साइसनिंग के रूप में किया तो अभी भी हम साइसनिंग पर नजर रखे हुए हैं और इसमें महत्वपूर्ण बात ये है कि ये उस तरह से जो रुक जाएगा लेकिन इसमें जो इसमें पानी का रिजारिव बन गया बहुत बड़ा उसमें सीजनिंग हो रही है उसमें मलवा आ रहा है, तो धीरे-धीरे होता क्या है कि जब एक स्टेबल वाॅटर बोडी होती है तो न्यू सेंसेटी अपने आप विकसित हो जाती है और उससे अपने आप भूकंप आने लगता है तो ये कोयना में देखा गया। कोयना में एक डैम है वहां हिमालय नहीं है और भी कुछ नहीं है। वहां समतल भूमि है लेकिन वहां इतने बड़े भूकंप आते हैं वो इसलिए कि वहां पर वाटर रिजर्व हैं, वाॅटर काॅलोनी का जो उसमें रिसपेसमेंट हो जाता है उससे भूकंप आते हैं।
तो टिहरी डैम की इस क्रिया को भी ध्यान में रखा जा रहा है। जो माइक्रो सांइसेटी बढ़ सकती है और ये भूकंप आ सकता है तो ये दूसरी समस्या है जो बांध के कारण हो सकती है। तो जो दूसरा भगीरथी बांध बंद हो गया इसमें सिल्टिंग हो गया आप देख सकते हैं कि इसमें पूरे के पूरे बांध में सिल्टिंग हो गया पूरी मिट्टी भर गई तो उन्हें बंदकरना पड़ा इस तरह से अधिकतर जितने भी हाइड्रो पावर प्रोजेक्टस हैं, पूरे उत्तराखंड में वो सभी बंद हो गए। 200 करोड़ का नुकसान हुआ है। इसी तरह से देव प्रयाग में भगीरथी और अलखनंदा है तो आमतौर से क्या हो रहा है कि यहां से लेकर विष्णु प्रयाग तक जो परियोजना है तो उसमें सारे जगह पर डैम बनाए गए हैं तो उन डैम का ये होरहा है कि अभी वाले समय में वो सरवाइव नहीं कर पाए लेकिन आगे क्या किया जा सकता है क्या इसमें दोबारा छोटे-छोटे डैम बनाए जाएंगे या नहीं बनाए जाएंगे यदि बनाए जाएंगे तो क्या उनका डिज़ाइन होगा? तो ये बहुत बड़ी सोचने की बात है जिसमें इंजीनियर, जियोलाॅजिस्ट, आदि को एक साथ मिलकर काम करना है जो भी प्रोजेक्ट सेंक्शन होंगे उसमें किस तरह से काम किया जाए।
मैं इस इनवायरोमेंट में ज्यादा नहीं जाऊंगा लेकिन जो हमारे पूरे वातावरण को फेस कर रहा है वो आप देखिए कि गर्मियों के दिनों में पहाड़ में कहीं चले जाइए खासकर उत्तराखंड में तो मई, जून और बरसात से पहले पूरे उत्तराखंड में आग लग जाती है सारे जंगल जलते हैं और हर साल जलते हैं और इसे कोई नहीं रोकता। सब कहते हैं ये तो प्राकृतिक है, कहा जाता है कि वहां पीरूल नाम के पेड़ जब आपस में टकराते हैं तो अपने-आप ही जंगलों में आग लग जाती है। लेकिन इसका कुछ नहीं किया जाता लेकिन किया जाना चाहिए क्योंकि जो वार्मिंग हो रही है उसका असर हमारे पूरे ग्लेश्यिर पर पड़ रहा है। जो जंगलों के जलने से प्रदूषण हो रहा है वो तो हो ही रहा है लेकिन उसका असर हमारे ग्लेश्यिर पर पड़ रहा है ऊपर ग्लेश्यिर पिघलने शुरू हो जाते हैं। तो इसके बारे मे भी सोचा जाना चाहिए।
अब आप ग्लेश्यिरों के विषय में सोचिए हमारा संस्थान गंगोत्री में काम कर रहा है और शोध से पता चलता है कि वहां पर ग्लेश्यिर घट रहे हैं, ये 12-14 मीटर तक जा रहे हैं और ऐसा ग्लोबल वार्मिंग के कारण हो रहा है। आप देख सकते हैं कि पिछले 30-40 साल के दौरान यमुनोत्री के बहुत से क्षेत्रों मेंं ऐसा हो रहा है और यमुनोत्री का क्षेत्र केदारनाथ से मिला हुआ है इसलिए हो सकता है केदारनाथ पर उसका असर पड़ा हो। इस प्रकार हमारे आस-पास इस तरह की चीजें हो रही हैं जिन्हें हम रोक तो नहीं सकते क्योंकि ये वैश्विक ताप के कारण भी हो रही हैं लेकिन यदि हम वैश्विक ताप बढ़ाने के क्षेत्र में भारत की भूमिका को देखें तो ये अन्य देशों की अपेक्षा बहुत ही कम है लेकिन फिर भी हमें इसके बारे में सोचना है कि इसे किस तरह से रोका जा सकता है।
अब हम तो वैज्ञानिक हैं और इस विषय पर शोध करेंगे और इसका कारण भी बताएंगे, इसके कारण आने वाली आपदा के बारे में भी लोगों को जानकारी देंगे लेकिन इसको रोकने के लिए तो जो भी काम करने हैं उन्हें या तो सरकार करेगी या इसी काम के लिए बनाया गया केाई अन्य संस्थान करेगा। जैसे मैंने ये बताया कि उत्तरकाशी और उसके आस-पास की तरह यहां भी आप देख सकते हैं ऊपर बहुत ऊंचाई पर समतल मैदान की तरह बन रहा है, वहां लैंड स्लाइड हुआ था और उत्तरकाशी में बहुत नुकसान हुआ था तो ये भी 2003 में एक बहुत बड़ी आपदा आई थी लेकिन इससे भी लगता है कि इस आपदा के बाद भी हमने कोई सीख नहीं ली और ये घटनाएं होती रहीं।
जब बाढ़ आई थी उस समय अलखनंदा आद में बाढ़ आई थी और उस समय भी हाइड्रो पाॅवर टूट गए थे, पावर हाउस टूट गया था। लेकिन इसके बारे में सबको पता है, हर साल ऐसा होता है लोग शोध कर रहे हैं, पेपर छाप रहे हैं लेकिन इस पर कोई भी कार्य नहीं हुआ इसके बारे में पहले से ही सुझाव दिए गए लेकिन कुछ हुआ नहीं। भट्ट जी ने तो काफी ऊपर तक ये बात पहुंचाई है लेकिन सरकार इस विषय में कुछ भी नहीं कर रही है। हम रिपोर्ट छाप देते हैं सरकार को देते हैं लेकिन कुछ भी नहीं होता है। अब ये बादल फटने की घटना हुई लेकिन इसके बारे में आठ-दस साल पहले किसी ने सुना नहीं था यहां तक कि मीडिया में भी ये नाम नहीं आता था पर ऐसा नहीं है कि उस समय बादल फटना (क्लाउड ब्लास्ट) नहीं होता था लेकिन आजकल उसे समझने की कोशिश हो रही है।
अभी ये 2012 में हुआ था उसके पहले मुनसियारी में हुआ था जब पूरा गांव डूब गया था। बादल फटना वास्तव में है, वास्तव में जब एक छोटे से इलाके में साल भर में जितनी वर्षा होती है उतनी ही वर्षा यदि एक दिन में हो जाए तो आप समझ सकते हैं कि उसका कितना प्रभाव पड़ेगा उसे क्लाउड ब्लास्ट कहते हैं कि बादल फट गया और एक सीमित क्षेत्र में सारा पानी गिर जाए तो वो इलाका पूरी तरह से तहस-नहस हो जाता है। यही मुनस्यिारी में हुआ था जब पूरा का पूरा गांव दब गया, उसके बाद ऐसा अन्य स्थानों पर भी हुआ और जो केदारनाथ में हुआ वो बादल फटना था।
Path Alias
/articles/paraicaracaa-utataraakhanda-apadaa-evan-bhavaisaya-kai-caunaautaiyaan-bhaaga-2
Post By: Hindi