प्रेमधारा

उसका ललित प्रवाह लसित सब लोको में है।
उसका रव कमनीय भरा सब ओकों में है।।
उसकी क्रिड़ा-केलि कल्प-लतिका सफला है।
उसकी लीला लोल लहर कैवल्य कला है।
मूल अमरपुर अमरता सदा प्रेमधारा रही।
वसुंधरा तल पर वही लोकोत्तरता से बही।।1।।

रवि किरणें हैं इसी धार में उमग नहाती।
इसीलिए रज तक को हैं रंजित कर जातीं।।
कला कलानिधी कलित बनी पाकर वह धारा।
जिससे हुआ पियूस सिक्त वसुधा तल सारा।।
श्याम-घटा में प्रेम की धारा ही है सरसती।
इसीलिए वह सभी पर रसधारा है बरसती।।2।।

सब अग-जग को गगन गोद में है ले लेता।
किसके मुख को तेज नहीं उज्जवल कर देता।।
मंद-मंद चल पवन मुग्ध सबको है करती।
देती है फल-फूल रुचिर कृमि तक को धरती।।
निज शीतलता से सलिल सबको करता है सुखित।
मूल प्रेमधारा प्रकृति पंचतत्व में है निहित।।3।।

रिपु के कर में भी प्रसून है बिकच दिखाता।
छेदन रत नख निचय सुरभि उससे है पाता।।
जिसके कर से कटा दसन से गया बिदारा।
फल करता है मुदित उसे स्वादित रस द्वारा।।
तरु से धाया कब नहीं पाहन हन्ता को मिली।
परस प्रेमधारा नहीं किसकी कृति कलिका खिली।।4।।

पाहन गठित अपार नेह उर को सुद्रवित कर।
वह लहराती मिली रूप सारिसोतों का धर।।
निकली सुरसरि सदृश कहीं पावन सलिला बन।
करके सफलित धरा धाम मल रहित मलिन मन।।
मरुमहि भूति मतीर का सलिल सुशीतल है वही।
विविध मूर्ति धरकर कहां नहीं प्रेमधारा बही।।5।।

ओस, तृणलता कुसुम विपट पल्लव सिंचन रत।
बहु तरु चंदन करी सुरभि मलयाद्रि अंक गत।।
विविध दिव्यमणि जनित ज्योति उज्जवल उपकारी।
बहु ओषधी प्रसूत शक्ति-जीवन संचारी।।
जगत जीव प्रतिपालिका पय धारा उरजों भरी।
क्या है? नानामूर्ति धर प्रेमधारा ही अवतरी।।6।।

जो सत्ता है नित्य सत्य चिन्मयी अनूपा।
संसृप्ति भूली भूत परम आनंद स्वरूपा।।
विश्व-व्यापिनी विपुल-सूक्ष्म जिसकी है धारा।
वस्तुमात्र में है विकास जिसका अति न्यारा।।
धारा ही में प्रेम की वह होती है प्रतिफलित।
इस सुमुकुर में ही दिखा पड़ी मूर्ति उसकी कलित।।7।।

बुझ जाता है कलह-विरोध प्रबल दावानल।
बह जाता है मोह मूल बहु मानस का मल।।
जाता है सविकार मैल धुल जी का सारा।
गिर जाता है टूट-टूटकर कुरुचि करारा।।
धारा द्वारा प्रेम की ढह जाता है विटप मद।
किए अपार प्रयत्न भी टिकता नहीं प्रमाद पद।।8।।

बन जाती है सुछबिवती पर हित रति क्यारी।
हो जाती है सरस सुरुचि प्रियता फुलवारी।।
धरा बंधुता मानवता की सिंच जाती है।
सहृदयता कृषि वांछनीय जीवन पाती है।।
धारा ही से प्रेम की कल कृति विटपावलि पली।
सहज सुजनता बाटिका पुलकित हो फूली फली।।9।।

कपट-जाल शैवाल समूह उपज नहिं पाता।
मोह पटल आवर्त्त नहीं पड़ता दिखलाता।।
बुद्बुद् कुत्सित भाव कदापि नहीं उठ पाते।
नहिं नाना कुविचार फेन बहते उतराते।।
कुमति मलिनता प्रेम की धारा में आती नहीं।
छल-छाया प्रतिबिंबिता कथमापि हो पाती नहीं।।10।।
मिलती हैं वे भावमयी लहरें लहराते।
जो कि मंजुतर मनुज मनों को हैं कर जाती।।
भावुक जन वह रत्न-राजि अनुपम है पाता।
जिससे मंडित हो वसुधा को है अपनाता।।
धारा ही में प्रेम का खिलता है वह कल कमल।
सुरभित होता है सुरभि से जिसका सब अवनि-तल।।11।।

बीर उर बसी बिजय प्रेमधारा के द्वारा।
हे मृणाल के तंतु-तुल्य लगती असि धारा।।
निज प्रियतम के प्रेम धार में डूबी बाला।
गिनती है अंगार पुंज को पंकज माला।।
शांत हुआ इस प्रेम की धारा ही से वह अनल।
जिससे जन प्रह्लाद को मिला अलौकिक भक्ति फल।।12।।

जिसे धन विभव विविध प्रलोभन हैं न लुभाते।
हाव-भाव सुविलास जिसे वश में नहिं लाते।।
रूप माधुरी बदन कांति कोमलता प्यारी।
नहिं करती अनुरक्त जिसे आकृति अति न्यारी।।
अनुगत कर पाती नहीं जिसको बहु अनुनय विनय।
वश में करता है उसे अंतर प्रेम प्रवाहमय।।13।।

वे लोचन हैं लोक लोचनों को बेलमाते।
वे उर हैं संसार उरों में सुधा बहाते।।
वह प्रदेश है भाव राज्य की भू बन जाता।
वह समाज है शांति शिखर पर शोभा पाता।।
वांछित धृति से धर्म वे धारण करते हैं मही।
जिनमें समुचित प्रगति से पूत प्रेमधारा बही।।14।।

देश जाति कुल जनित भिन्नता चरित विषमता।
रुचि विचार आचार शील व्यवहार असमता।।
परम कठिनता मयी मेदिनी है पथरीली।
होती है पा जिन्हें प्रेमधारा गति ढीली।।
किंतु इसी के अति सरस प्रबल प्रवाहों में पड़े।
वारिधि विविध बिभेद के बनते हैं जल के घड़े।।15।।

परम प्रशंसित राजकीय सत्ताएं सारी।
बड़ी-बड़ी सामरिक विजय भूतल वशकारी।।
प्रेम-प्रवाह-प्रसूत विजय सत्ताओं जैसी।
व्यापक हितकर हृदय रंजिनी उनके ऐसी।।
किसी काल में कब हुईं वैसी कोमल उज्वला।
वे हैं बिजली की विभा ए हैं राकापति कला।।16।।

प्रबल नृपति आतंक, वाहिनी जगत विजयिनी।
प्रलय-कारिणी तोप रण धरा काल प्रणयिनी।।
निधि उत्ताल तरंग मान गिरि पावक स्त्रावी।
जन-समूह का आर्तनाद पाहन उर द्रावी।।
जिन वीरों के पवि उरों को न प्रभावित कर सके।
किसी प्रेमधारा मयी रुचि के हाथों वे बिके।।17।।

पावन वेद प्रसूत प्रेम की व्यापक धारा।
हुई प्रवाहित परम सरस कर भूतल सारा।।
उससे भारत धरा यदि हुई स्वर्ग समाना।
तो पाया सुख अन्य अखिल देशों ने नाना।।
मानव भूरे सित असित पीत लाल औ’ साँवले।
सदा इसी के कूल पर लालित हो फूलें-फले।।18।।

वैदिक ऋषिगण परम सरल भावुक उर द्वारा।
बुद्धदेव के सदय हृदय का ढूँढ़ सहारा।।
ईसा और मुहम्मदादि अंतर कर प्लावित।
हुई प्रेमधारा मधुमयता सहित प्रवाहित।।
कई कोटि जन आज भी उसके प्रबल प्रभाव से।
बँधे एकता सूत्र में रहते हैं सद्भाव से।।19।।

प्रतिहिंसा प्रिय दनुज देवता है बन जाता।
विविध विभव मद अंध दिव्य लोचन है पाता।।
पर स्वतंत्रता हरण पिपासा कुटिल पिशाची।
प्रबल राज्य विस्तार कामना सुमुखि घृताची।।
बन जाती हैं देवियाँ सकल सदाशयता नयी।
पड़कर प्रेम-प्रवाह में हो पाहनता पर जयी।।20।।

कभी न लोहित अवनि रुधिर धारा से होती।
पर की ममता कभी नहीं मद धारा खोती।।
कभी किसी का प्रकृत स्वत्व औ’ गौरव सारा।
नाश न होता कुटिल नीति धारा के द्वारा।।
मनुजोचित अधिकार भी कभी नहीं जाता छिना।
जो बह पातीं प्रेम की धाराएं बाधा बिना।।21।।

कहीं सामने देश भेद के मेरु खड़े हैं।
कहीं जाति बंधन के ऊँचे बाँध पड़े हैं।।
कहीं भित्ति है धर्म भिन्नता कठिन शिला की।
कहीं कंकरों मयी धरा है रुचि प्रियता की।।
किंतु मेरु को बेधकर औरों का करके दलन।
वह निकलेंगी प्रेम की धाराएँ अविछिन्न बन।।22।।

प्रकृत बात कब तक कुहकों में पड़ी रहेगी।
कब तक कटुता कूट नीति सत्यता सहेगी।।
होंगे दूर विभेद परस्पर प्यार बढ़ेगा।
टले पयोद प्रमाद मयंक प्रमोद कढ़ेगा।।
आवेंगे वे दिवस जब छटा बढ़ाती छेम की।
बहती होगी धरा पर अविरल धारा प्रेम की।।23।।

व्यापक धर्म समूह मूल सिद्धांत एकता।
सब देशों के विवुध वृंद की वर विवेकता।।
भ्रातापन का भाव जातिगत स्वार्थ महत्ता।
मानवता का मंत्र विविध स्वाभाविक सत्ता।।
दूर करेंगी उरों से सकल अवांछित भिन्नता।
शमन करेगी प्रेम की धारा मानस खिन्नता।।24।।

उस दिन सारे देश बनेंगे शांति निकेतन।
फरहेंगे सब ओक सदाशयता के केतन।।
सभी जातियां सभ्य सुखी स्वाधीन रहेंगी।
स्नेह तरंगों बीच उमंगों सहित बहेंगी।।
होवेगी जनता सकल निज अधिकारों पर जयी।
हो आवेगी सब धरा प्रकृत प्रेमधारा मयी।।25।।

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