प्रदूषण फैलता है, बे-मौसमी, आकर्षक रूप-रंग वाले फलों से!

बड़े आकार के फलों को छोटों से अलग छांटने के लिए प्रत्येक फल को घूमते पट्टे पर कई मीटर दूरी तक लुढ़काया जाता है। इससे कई फल टूट-फूट जाते हैं। छंटाई-केंद्र जितना बड़ा होता है, उतना ही ज्यादा फलों को लुढ़काया - उछाला जाता है। पानी से धोने के बाद मेंडेरिन संतरों पर रंग तथा संरक्षक रसायन छिड़के जाते हैं। अंत में, आखिरी स्पर्श देने के रूप में उन्हें पैराफिन (मोम) के घोल से चमका दिया जाता है। आजकल फलों को भी कारखानों में घिस कर निकालना पड़ता है।

उपभोक्ता, आमतौर से यह मानकर ही चलते हैं कि, कृषि-प्रदूषण फैलाने में उनका कोई हाथ नहीं होता। उनमें से कई लोग ऐसे खाद्यों की मांग करते हैं जिसे रासायनिक रूप से प्रोसेस न किया गया हो। लेकिन रासायनिक रूप से प्रोसेस्ड खाद्य बाजार में मिलते ही उपभोक्ताओं की खास पसंदगियों के कारण। उपभोक्ता मांगता है ऐसी चीजें जो बड़ी, चमकीली, सुंदर तथा एक-सी आकार की हों। उनकी इसी इच्छा को पूरा करने के लिए वे कृषि-रसायन तेजी से उपयोग में लाए जाने लगे, जिनका अभी कुछ बरसों पहले तक कोई उपयोग नहीं होता था। आखिर हम इस दुर्गति के भागी कैसे बन गए? लोग तो कहते हैं कि उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं कि खीरे सीधे हैं या आड़े-टेढ़े, तथा कोई जरूरी नहीं कि फल बाहर से खूबसूरत नजर आए, लेकिन उपभोक्ताओं की पसंदों का असर कीमतों पर क्या पड़ता है, यह देखना हो तो जरा एक बार टोक्यो के थोक-बाजारों में झांक कर देख आईए।

वहां जब भी फल देखने में जरा सा भी बेहतर नजर आता है, उसके भाव प्रति किलो 5 से दस प्रतिशत ज्यादा लगाए जाते हैं। जब भी फलों को ‘छोटे-बड़े’ या ‘मंझोले’ के रूप में वर्गीकृत किया जाता है, प्रति किलो भाव आकार-वर्ग के साथ दुगना या तिगुना तक बढ़ जाता है। बे-मौसम पैदा किए गए खाद्य-पदार्थों के लिए ज्यादा पैसे देने के लिए उपभोक्ताओं की तत्परता का भी कृत्रिम कृषि विधियों तथा रसायनों की प्रवृत्ति बढ़ाने में खासा योगदान रहा है। पिछले बरस गर्मियों में, उष्ण-गृहों में पकाए गए ‘उन शू’ प्रजाति के मेंडेरिन संतरों के भाव बाजार में मौसमी संतरों की अपेक्षा दस से बीस गुना ज्यादा रहे। इन बे-मौसम उगाए फलों की सामान्यतः एक-डेढ़ रुपए किलो की कीमत के बदले, लोगों ने 25 से 60 रु. किलो तक चुकाए। अतः यदि आप उपकरण एवं आवश्यक ईंधन जुटाने पर हजारों रुपए लगाने तथा अतिरिक्त समय तक काम करने को तैयार हो जाए तो आपको ढेर सा मुनाफा निश्चय ही होगा।

बे-मौसम की फसलें लेना हर जगह लोकप्रिय होता जा रहा है। मौसम से एक महीने पहले ही संतरे चखने के लिए शहरों में लोग खुशी-खुशी किसानों को अतिरिक्त श्रम और उपकरणों की लागत चुका देते हैं। मगर यदि आप पूछें कि संतरे मौसम से एक महीने पहले मिलना इंसान के लिए कितना महत्वपूर्ण है, तो मैं कहूंगा कि वह बिल्कुल ही जरूरी नहीं है, और इस फिजूलखर्ची की कीमत वह सिर्फ पैसे के रूप में ही नहीं चुकाता है। संतरों का रंग अच्छा हो इसके लिए भी कृत्रिम रसायनों का उपयोग होने लगा है। इस रसायन के कारण फल पर एक सप्ताह पूर्व ही बढ़िया रंग आ जाता है। दस अक्टूबर के एक सप्ताह पूर्व या बाद संतरे पर पूरी तरह रंग आने से उसके अभाव में, चूंकि दो-गुने का अंतर आ जाता है, किसान की कोशिश रहती है कि वह रंग लाने वाले रसायन का उपयोग करे, पेड़ों से तोड़ने के बाद उसे गैस-कक्ष में रख, जल्दी पका ले।

लेकिन, वक्त से पहले बाजार में लाए जाने वाले इस फल में चूंकि मिठास कम होता है, वह उसमें कृत्रिम रसायनों द्वारा मिठास लाता है। लोगों की धारणा है कि कृत्रिम मिठास लाने वाले रसायनों का प्रयोग वर्जित है, लेकिन नारंगी के पेड़ों पर इन रसायनों का छिड़काव स्पष्ट रूप से गैर-कानूनी नहीं घोषित किया गया है। सवाल यह है कि फलों में मिठास लाने वाले ये रसायन ‘कृषि-रसायनों’ की श्रेणी में आते हैं या नहीं। वह जो भी हो, लगभग हर कोई आज उनका उपयोग कर रहा है। इसके बाद इन फलों को सहकारी फल-भंडारण केंद्रों पर लाया जाता है। बड़े आकार के फलों को छोटों से अलग छांटने के लिए प्रत्येक फल को घूमते पट्टे पर कई मीटर दूरी तक लुढ़काया जाता है। इससे कई फल टूट-फूट जाते हैं। छंटाई-केंद्र जितना बड़ा होता है, उतना ही ज्यादा फलों को लुढ़काया - उछाला जाता है। पानी से धोने के बाद मेंडेरिन संतरों पर रंग तथा संरक्षक रसायन छिड़के जाते हैं। अंत में, आखिरी स्पर्श देने के रूप में उन्हें पैराफिन (मोम) के घोल से चमका दिया जाता है। आजकल फलों को भी कारखानों में घिस कर निकालना पड़ता है।

ये सारे झंझट इसलिए नहीं किए जाते कि किसान इस ढंग से काम करना पसंद करता है या कृषि मंत्रालय के अधिकारियों को किसानों से यह अतिरिक्त मेहनत करवाने में मजा आता है। लेकिन यह सिलसिला तक नहीं टूटेगा, जब तक कि हमारे मूल्यबोध में ही बुनियादी अंतर न आ जाए। आज से चालीस बरस पूर्व जब मैं योकोहामा कस्टम कार्यालय में था, तब नींबू तथा संतरों का इसी ढंग से रखरखाव होता था। मैं यही प्रणाली जापान में लागू किए जाने का विरोधी था, लेकिन मेरे शब्दों का कोई असर नहीं हुआ और आज उसे हमारे यहां भी अपना लिया गया है। यदि कोई फार्म-गृह या सहकारी समिति मेंडेरिन संतरों को पॉलिश करने जैसी नई प्रक्रियाओं को अपनाती है तो अतिरिक्त देखभाल और साज-संभाल के कारण मुनाफा बढ़ जाता है। इसे देख, इसकी नकल अन्य समितियां भी करती हैं।

जिन फलों को इस नई प्रक्रिया से संवारा नहीं जाता, उनके भाव, बाजार में अच्छे नहीं मिलते। दो-तीन बरसों में संतरों को पॉलिश करने की रीति सारे देश में फैल जाती है। प्रतियोगिता बढ़ने से मूल्य गिरते हैं, और किसान के पास अतिरिक्त कठोर परिश्रम करने के अलावा और कोई चारा नहीं बचता। निवेशों और उपकरणों ने उसकी लागतें तो बढ़ा दी थीं, अब वह मोम के संतरों को पॉलिश करने को भी बाध्य है, भले ही इससे उसका मुनाफा बढ़ता हो या नहीं। बेशक, इसके फलस्वरूप उपभोक्ता को भी नुकसान होता है। जो फल ताजे नहीं होते वे भी बिक जाते हैं, क्योंकि वे ताजे दिखलाई देते हैं। यदि जैव-वैज्ञानिक भाषा में बतलाए तो तनिक झुर्रियां पड़ा फल अपनी ऊर्जा-उपभोग तथा श्वसन-क्षमता यथासंभव निम्नतर स्तर पर बनाए रखता है। इसकी तुलना किसी ध्यान में लगे व्यक्ति से की जा सकती है। उसकी हालत में उसका मेटाबेलिज्म, श्वास प्रक्रिया तथा कैलोरी-उपभोग निम्न स्तर पर पहुंच जाता है।

यदि वह ऐसी दशा में उपवास करे, तो भी उसके शरीर में निहित ऊर्जा बची रहती है। इसी तरह जब मेंडेरिन संतरें झुर्रियां पड़े हुए उगते हैं, जब फल और सब्जियां मुरझाई नजर आती हैं, तब भी वे एक ऐसी स्थिति में होती है जो उनकी खाद्य गुणवत्ता को अधिक समय तक बचाए रखती है। जिस तरह सब्जी बेचने वाले बार-बार पानी छिड़क कर फलों-सब्जियों की ताजगी बनाए रखने की कोशिश करते हैं, उससे कोई फायदा नहीं होता। क्योंकि उसके द्वारा सिर्फ उनका बाहरी रूप ही ताजा नजर आने लगता है। इस क्रिया से उनके ताजा दिखने के बावजूद उनके स्वाद, खुशबू और पोषक तत्वों का खात्मा होने लगता है। कुल मिलाकर, सारी सहकारी समितियों और सामुदायिक छंटनी केंद्रों का एकीकरण और विस्तार इसी तरह की गैर-जरूरी क्रियाएं चलाए रखने के लिए ही किया गया है। इसी को लोग ‘आधुनिकीकरण’ कहते हैं कि फसल को बढ़िया पैक कर विराट ‘डिलेवरी प्रणाली’ पर सवार कर उपभोक्ता तक पहुंचा दिया जाए। थोड़े में कहें तो, जब तक हम अपने उस मूल्य-बोध को नहीं बदलेंगे, जिसके चलते हम गुणवत्ता के बदले वस्तुओं के रूपरंग तथा आकार-प्रकार को ज्यादा महत्व देते हैं, तब तक खाद्य प्रदूषण की समस्या हल नहीं हो सकती।

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