प्रदूषण : धर्म, संस्कृति एवं नैतिकता का परिप्रेक्ष्य

आज विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास से सारा जगत् अभिभूत है। भौतिकता की दौड़ में बेतहाशा भागने वालों की होड़-सी लगी है। यह दौड़ हमें कहां गिराएगी, इसका विचार करने का भी समय किसी के पास नहीं है। प्रकृति के साथ छेड़छाड़, नियमों का उल्लंघन, मर्यादाओं का खंडन, अनुशानहीनता इन सब अप्राकृतिक कार्यों का ही परिणाम हैं-सुनामी, भूकंप, ज्वालामुखी, बाढ़ इत्यादि। मानव प्रकृति के शाश्वत नियमों को अपनी क्षमता के बाहर जाकर चुनौती देता है और पर्यावरण के विभिन्न घटकों को प्रदूषित करता है। आज हम चारों ओर एक शब्द सनते हैं ‘पर्यावरण’। इस शब्द का प्रयोग किसी एक विषय के लिए नहीं वरन् बहुआयामी हो गया है। हमारा पर्यावरण विकृत हो रहा है, प्रदूषण एक विश्वव्यापी समस्या बन गई है। कोई ध्वनि प्रदूषण की बात करता है तो कोई नैतिक प्रदूषण की, कोई प्राकृतिक प्रदूषण की तो कोई सामाजिक प्रदूषण की। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रदूषण एवं पर्यावरण आज सर्वव्यापी समस्या बन गई है। प्रदूषण चाहे किसी भी प्रकार का हो, वह व्यक्ति और विश्व के लिए अहितकारी है। प्रदूषण, प्रदूषण ही है। आज सारा विश्व इस समस्या के समाधान के लिए चिंतित है। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन हो रहे हैं कि हम इस समस्या से कैसे उबर पाएंगे। इस विषय पर व्यक्तिगत रूप से भी सोचना होगा। जो जहां है, वहीं से उसे इस समस्या का निवारण करने का संकल्प लेना होगा, तभी हम इस दानव से जीत पाएंगे। आज हम प्रदूषण के उस भयावह स्थान पर खड़े हैं कि अब भी अगर सावधान नहीं हुए तो फिर कुछ नहीं कर पाएंगे। ‘पर्यावरण’, एक वृहद् विषय है और प्रदूषण उसकी इकाई है, तरह-तरह के प्रदूषण मिलकर पर्यावरण को विषाक्त कर देते हैं।

पर्यावरण (Environment)


पृथ्वी की समस्त वस्तुओं को दो भागों में विभाजित किया गया है- 1. जैविक और 2. अजैविक। इन सभी वस्तुओं का प्राणीमात्र पर एकजुट प्रभाव ही पर्यावरण कहलाता है। निःसंदेह इसमें पेड़-पौधे, वनस्पति, भूमि, वायु, जल, प्रकाश, ताप आदि सभी सम्मिलित हैं।

अच्छे पर्यावरण की संकल्पना उन स्थितियों से है, जिसमें प्राणधारी की समस्त मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके और वह सुखमय जीवन बिता सके। विकृत पर्यावरण अनेक समस्याओं से ग्रसित होता है और जीवन को कष्टमय बना देता है।

मानव मात्र एक सामाजिक प्राणी है एवं समाज में रहने के लिए प्रमुख आधार होता है धर्म का। धर्म शब्द का अर्थ है जिसे धारण किया जाए, वह धर्म है। धर्म चाहे हिंदू का हो, मुस्लिम का हो, सिख या ईसाई का हो, सभी धर्म की सीमा में बंधे होते हैं। जन्म से मृत्यु तक प्राणीमात्र के समस्त कार्य व्यवहार धार्मिक मर्यादा के अनुसार ही होते हैं। हिंदू धर्म में जन्म से मृत्यु तक सोलह संस्कार होते हैं। आज हम धर्म और पर्यावरण (Religion and Environment) पर भी एक दृष्टि डालें कि धर्म और पर्यावरण का क्या संबंध है?

1. हिंदू धर्म-हिंदू धर्म में तो समस्त प्राकृतिक स्रोतों को धर्म की सीमा में माना गया है। गंगा, यमुना, नर्मदा आदि नदियों को मां का स्वरूप माना गया है। सूर्य उपासना हिंदू धर्म की प्रातः कालीन धार्मिक पूजा है। सूर्य और चंद्र विराट रूप पुरुषोत्तम के नेत्र माने गए हैं। पृथ्वी हमारी मां है। वायु पवन देव है। हमारा शरीर ही पंच-तत्वों से मिलकर बना है। कहा गया है-

‘छिति, जल, पावक, गगन, समीरा,
पंचतत्व से रचित शरीरा।’


हिंदू धर्म के सबसे प्राचीन ग्रंथ वेद और उपनिषद् हैं और इनमें जगह-जगह प्रकृति और प्रकृति से विरासत में मिली सभी वस्तुओं का जीवन से गहरा जुड़ाव मिलता है, इन सभी को पवित्र मानकर लोग उनकी पूजा-अर्चना करते हैं। जल की महत्ता को हिंदू धर्म में इस सीमा तक स्वीकार किया गया है कि व्यक्ति किसी नदी में स्नान करने से पूर्व उसके जल को नमन करता है, स्नान करते समय मंत्रोच्चारण से उसकी पूजा-अर्चना करता है और अत्यंत श्रद्धा से आचमन कर अपना जीवन धन्य समझता है। उसकी यह भी मान्यता है कि जल के स्पर्श मात्र से दैविक शक्ति उसकी रक्षा करेंगी। ऋग्वेद में इसका उल्लेख कुछ इस प्रकार दिया है,

‘आकाश का पानी, नदी और कुओं का पानी, जिनका स्रोत सागर है, यह सब पवित्र जल मेरी रक्षा करें।’

वनस्पति और पेड़-पौधों के महत्व को हिंदू धर्म में बहुत मान्यता दी गई है और किसी-न-किसी प्रकार हर पेड़ को किसी देवी-देवता अथवा मान्यता से जोड़कर उसकी रक्षा करने का उपाय कालांतर से बनाए रखा है। वैज्ञानिक दृष्टि से जो महत्व आज वृक्षों का बताया जाता है और जिस वस्तुनिष्ठ आधार पर उनकी रक्षा करने पर बल दिया जाता है, वह पूर्वकाल अप्रत्यक्ष रूप से ही प्रचलन में था। इस संबंध में निम्न सारणी का अवलोकन करें –

देवी देवताओं से संबंद्धित विभिन्न वृक्ष


क्र.

वृक्ष

संबंधित देवी-देवता

1.

वट

ब्रह्मा, विष्णु और कुबेर

2.

तुलसी

लक्ष्मी, विष्णु

3.

सोम

चंद्रमा (चंद्र)

4.

बेल

शिव

5.

अशोक

इंद्र

6.

आम

लक्ष्मि

7.

कदंब

कृष्णा

8.

नीम

शीतला, मंसा

9.

पलाश

ब्रह्मा, गंधर्व

10.

पीपल

विष्णु, कृष्ण

11.

महुआ

पूजा, पाठ हेतु

12.

सेमल

पूजा, पाठ हेतु

13.

गूलर

विष्णू रूद्र

14.

तमाल

कृष्ण

 



हिंदुओं के मान्य ग्रंथ ‘वराह पुराण’ में वृक्षों का महत्व निम्न प्रकार बताया है, ‘एक व्यक्ति जो एक पीपल, एक नीम, एक बड़, दस फूल वाले पौधे अथवा लताएं, दो अनार दो नारंगी और पांच आम के वृक्ष लगाता है, वह नरक में नहीं जाएगा.।’ (वराह पुराण, पृ. 172-39)

पशुओं और पक्षियों की रक्षा हेतु उन्हें पालना, भोजन खिलाना और उन पर किसी अत्याचार की आशंका को जड़ से हटाने के उद्देश्य से प्राचीन काल से हिंदू धर्म में आकर्षक व्यवस्था कि गई है। अनेक देवी-देवताओं से इनको जोड़ना भी इसी क्रम में आंका जा सकता है कि पुराने लोगों को सभी पशु और पक्षियों के प्रति अत्यंत लगाव रहा है जिससे निःसंदेह प्रकृति का संतुलन व्यवस्थित हुआ है। निम्न सारणी देखें-

देवी-देवताओं से संबद्ध पशु एवं वन्य जीव


क्र.

पशु एवं पक्षी

संबंधित देवी-देवता

1.

शेर

दुर्गा

2.

कलहंस

ब्रह्मा

3.

हाथी

इंद्र, गणेश

4.

नांदिया

शिव

5.

चूहा

गणेश

6.

हंस

सरस्वती

7.

गरुड़

विष्णु

8.

बंदर

राम

9.

घोड़ा

सूर्य

10.

मोर

कार्तिकेय

11.

उलूक

लक्ष्मी

12.

गिद्ध

शनि

13.

चीता

कात्यायनी

14.

कुत्ता

भैरव

15.

हिरण

वायु

16.

गधा

शीतला

 



यही नहीं बल्कि पुराने ग्रंथों में प्राकृतिक प्रदूषण फैलने से रोकने तथा दोषी को दंड देने की व्यवस्था का विवरण भी कई स्थानों पर मिलता है। अवलोकन करें, ‘किसी भी वस्तु को, जो इन अपवित्र वस्तुओं, रक्त और विष से मिश्रित हो, जल में फेंकना नहीं चाहिए।’ (मनुस्मृति, 4/56)

2. बौद्ध धर्म- बौद्ध धर्म भी पर्यावरण का समर्थक है कि प्रकृति और उसके संसाधन तथा पशु-पक्षी जगत्, सबका संरक्षण करना चाहिए। बुरे कामों को नहीं करना चाहिए और अच्छे कार्यों को करना चाहिए।

3. जैन धर्म- हिंदू धर्म से ही जैन धर्म का जन्म हुआ है और यह धर्म भी यही कहता है कि मनुष्य और प्रकृति के मध्य समन्वय हो। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किसी का विनाश न करें। यह धर्म अहिंसा का समर्थक है। तपश्चर्या का इस धर्म में अधिक महत्व है, अपने को कष्ट दें, परंतु दूसरों की रक्षा करें।

4. सिख धर्म- सिख धर्म भी यही कहता है कि प्रकृति, पशु-पक्षी और मौसम, वन्य प्राणी, वन-वनस्पति सभी को संरक्षित करने से ही मनुष्य स्वयं सुखी रह सकता है। प्राकृतिक नियमों से ऊपर कोई नहीं होता, अतः उन्हें मानना चाहिए। सभी धर्मों का एक ही उद्देश्य है कि पर्यावरण ही ईश्वर है, अतः पर्यावरण को संभालना सभी का उत्तरदायित्व है।

5. इस्लाम धर्म- इस्लाम धर्म की भी यही मानना है कि अल्लाह ने जिन वस्तुओं को बनाया है, उनका दुरुपयोग न करें, बल्कि संरक्षण करें।

6. ईसाई धर्म- पर्यावरण का संरक्षण ही हमारा जीवन है। चाहे हम विश्वास करें या न करें, पर्यावरणीय संकट हमारे जीवन के सभी क्षेत्र, हमारे सामाजिक स्वास्थ्य, हमारे संबंध, हमारे आचरण, अर्थव्यवस्था, राजनीति, हमारी संस्कृति और हमारे भविष्य को प्रभावित करता है। प्रकृति का संरक्षण ही हमारी प्राणमयी ऊर्जा है।

7. पारसी धर्म- प्रकृति संवेदनशील भी है और विनाशकारी भी। हमें प्रकृति के संवेदनशील स्वभाव को संभालना होगा, वही हमारा जीवन भी है। प्रकृति को सभी प्रकार के प्रदूषण से बचाना होगा।

पर्यावरण प्रदूषण


आज विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास से सारा जगत् अभिभूत है। भौतिकता की दौड़ में बेतहाशा भागने वालों की होड़-सी लगी है। यह दौड़ हमें कहां गिराएगी, इसका विचार करने का भी समय किसी के पास नहीं है। प्रकृति के साथ छेड़छाड़, नियमों का उल्लंघन, मर्यादाओं का खंडन, अनुशानहीनता इन सब अप्राकृतिक कार्यों का ही परिणाम हैं-सुनामी, भूकंप, ज्वालामुखी, बाढ़ इत्यादि। मानव प्रकृति के शाश्वत नियमों को अपनी क्षमता के बाहर जाकर चुनौती देता है और पर्यावरण के विभिन्न घटकों को प्रदूषित करता है। अपनी निजी आवश्यकताओं और आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए किए जा रहे मानव के विवेकहीन प्रयत्न ही प्रदूषण का कारण हैं, अतः आवश्यक है कि हर विश्व नागरिक पर्यावरण के प्रति सजग होकर अपनी प्रकृति का उपभोग और संरक्षण करे। मानवीय क्रियाकलापों से निरपेक्ष, पर्यावरण में होने वाली प्राकृतिक प्रक्रियाएं ही इसका मूल कारण हैं, लेकिन आपदा की गंभीरता को बढ़ाना या कम करना मानव द्वारा प्रकृति के साथ किए जा रहे व्यवहार पर निर्भर है।पर्यावरण अध्ययन की रूप-रेखा में मेधातिथि के विचार इस प्रकार है, महात्मा गांधी न तो पर्यावरण विज्ञानी थे और न ही उनके काल में प्रदूषण की समस्या चिंता का विषय थी, किंतु प्रकृति के साथ तादात्म्य का आग्रह पर्यावरण से प्रेम से ओत-प्रोत था। आज जब हम उस महात्मा को भूल गए हैं, विश्व के कई राष्ट्र गांधी के के विचारों में अपनी समस्या का समधाना ढूंढ रहे हैं महात्मा गांधी के जीवन के हर पक्ष में सादे जीवन और सीमित उपभोग की आवश्यकता को बार-बार रेखांकित किया गया है। चाहे वह अहिंसा हो अथवा खादी, बुनियादी शिक्षा हो या कुटीर उद्योग, पूंजीपतियों को उनके सामाजिक दायित्व को याद दिलाता ट्रस्टीशिप सिद्धांत हो अथवा ग्राम स्वराज और स्वावलंबन की संकल्पना, गांधी के विचार सदैव दूरदर्शी और पर्यावरण सजग दिखलाई देते हैं। गांधी को आधुनिक युग में पोषणीय विकास की संकल्पना का प्रणेता कहा जा सकता है। आज के युग में गांधी-दर्शन और चिंतन सर्वाधिक उपयोगी सिद्ध हो रहा है, विशेषकर प्रदूषण की समस्या के लिए समिति आवश्यकताएं और सीमित साधन तीन-चौथाई भागमभाग की दौड़ को नियंत्रित करते हैं। शांति और स्थिर चित्त से लोकहित में स्वहित स्वमेव हो जाता है, यदि इस चिंतन को प्रत्येक व्यक्ति अपना ले तो समाज में सामाजिक, आर्थिक, नैतिक प्रदूषण की समस्या का समाधान भी होगा। राम और कृष्ण आज भी वंदनीय क्यों हैं? क्योंकि वे लोकहित के कार्य करते थे।पर्यावरण के लोक अनुभव के अनुसार, ‘1990 से 2020 के बीच हर रोज 50 जीव और पादप प्रजातियां समाप्त होती जाएंगी। अगर वनों के कटाव और औदयोगिक गैसों से उत्पन्न तापक्रम वृद्धि पर नियंत्रण न हो पाया तो भयंकर परिणाम होंगे।’

अपने आस-पास घटित होने वाली किसी भी घटना को हम अब यूं ही अनदेखा नहीं कर सकते। शुतुरमुर्ग की तरह मुंह छिपा लने से बात नहीं बनेगी। आज सारा विश्व सिमटकर एक इकाई बन गया है, एक छोर में पृथ्वी की एक घटना घटित होती है और उसका प्रभाव दूसरे छोर तक पहुंचता है। अगर ऐसा नहीं होता तो आज विश्व ‘ओजोन परत’ के लिए चिंतित नहीं होता। इसका चिंतन आज की ज्वलंत समस्या है और वह एक देश की नहीं, संपूर्ण विश्व की है। पर्यावरण और प्रदूषण को संभालना हम सबकी आवश्यकता है। इसके लिए हमें पूर्ण मनोयोग से अपनी संस्कृति की रक्षा करते हुए नैतिक मूल्यों को सर्वोपरि मानते हुए सम्मिलित प्रयास करने पड़ेंगे। नैतिक मूल्यों के संरक्षण के लिए हमें नैतिक प्रदूषण रोकना होगा। स्वयं के स्तर पर सामाजिक स्तर पर एवं राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर।

नैतिक प्रदूषण


‘नैतिकता किसी व्यक्ति अथवा व्यक्तियों से संबंधित वह सिद्धांत और मूल्य है, जिन्हें सामान्यतः किसी समाज द्वारा अथवा लोगों के समुदाय द्वारा स्वीकार किया जाता है।’

देश में नैतिकता की स्थिति अत्यंत शोचनीय है। हम अपने चारों ओर इसके अनेक उदाहरण देखते हैं। जैसे किसी भी कार्य के लिए, चाहे वह नियमानुसार ही हो, संबंधित कर्मचारियों को टिप (घूस) देनी पड़ेगी, तभी आपका कार्य होगा। कार्यालय के कार्य पद पर कर्मचारी का न मिलना, देर से कार्यालय आना, समय पर अपना कार्य न करना, खाने-पीने की वस्तुओं में मिलावट, दवाइयों में मिलावट, दूध और घी में मिलावट, सिंथेटिक दूध, सिंथेटिक पनीर इसी के उदाहरण हैं। सामान कम तौलना, निर्धारित मूल्य से अधिक मूल्य लेना, नौकरी पाने के लिए गलत प्रमाण-पत्र पेश करना, चोरी करना, टैक्स समय पर न देना, रिश्वत लेना, बिजली चोरी करना, चुनाव में अनुचित साधनों का प्रयोग करना, बात-बात में दंगे-फसाद खड़े कर देना, शासकीय संपत्ति को क्षति पहुंचाना, भाषा और प्रांत के गैर-कानूनी विवाद उत्पन्न करना, आतंकवाद एवं नक्सलवाद जैसी गलत धारणाओं में सहयोग करना, दूसरों को चोट पहुंचाना, दूसरों की विवशता का लाभ उठाना, नारी सम्मान की जगह बस और सार्वजनिक स्थानों में महिलाओं, लड़कियों के साथ अभद्र व्यवहार करना, यह नैतिक प्रदूषण है, जिसे रोका जाना चाहिए।

नैतिकता के ह्रास के संभावित कारण भी हैं, व्यक्ति का स्वार्थपरक होना, लोभ-लालच, आलस्य, कठोर परिश्रम से बचना, शनैः-शनैः प्रगित के स्थान पर अचानक ही एक दिन में बड़ा बन जाने की ललक व्यक्ति से वह सब कुछ करवा लेती है, जो वह नहीं करना चाहता और यह भी जानता है कि यह नहीं करना चाहिए। राष्ट्रीय भावना में भी कमी, दूसरों से तुलना करने की प्रतिस्पर्धा, अशिक्षा, बुरी संगत, आत्मविश्वास की कमी यह सब कारण हैं जिनसे नैतिक प्रदूषण बढ़ता है। पर्यावरण का संरक्षण ही प्रदूषण को रोकने में सहायक होगा। पर्यावरण को सुधारने के लिए नैतिकता का विकास आवश्यक है। जीवन-मूल्यों में आस्था जैसे-सच्चाई, साहस, आत्मविश्वास, देशभक्ति, ईमानदारी, सहयोग, दृढ़-निश्चय, परोपकार, कर्तव्यपरायणता, समाज सेवा, श्रम में निष्ठा, त्याग, विनम्रता, अहिंसा, प्रेम, धैर्य, क्षमा, सहानुभूति, दया, मित्रता, निर्भीकता, सादगी, मितव्ययता, अनुशासन, प्रशंसा करना, अच्छा सोचना और अच्छा करना इत्यादि। पर्यावरण के क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सकारात्मक सोच एवं ऊर्जा का उपयोग करने प्रदूषण समाप्त करना होगा। प्रदूषण के लिए पानी, वायु, भोजन, आवास आदि की शुद्धता और स्वच्छता जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आवश्यक है। नैतिकता, पर्यावरण संरक्षण, पर्यावरण सुरक्षा और पर्यावरण प्रदूषण में सुधार आवश्यक है।

नैतिकता की तरह सांस्कृतिक श्रेष्ठता भी पर्यावरण को सुधारने, प्रदूषण को दूर करने के लिए आवश्यक है। भारत एक सांस्कृतिक एवं धर्म-प्रधान देश है। हमारी संस्कृति ही हमारी धरोहर है। आज पुनः भारत को विश्वगुरू के स्थान पर प्रतिस्थापित करने का समय आ गया है। सारा विश्व अशांत है, आतंकवाद का दानव समस्त विश्व को निगलने की ताक में है। आए दिन निर्दोष, निरीह प्राणियों को बम विस्फोट तथा प्रक्रियाओं द्वारा मौत के घाट उतारा जा रहा है। सभ्यता की भौतिक दौड़ में मानवीय-मूल्य, आध्यात्मिक सोच, आत्मिक उन्नति सब खोते जा रहे हैं। ‘अति सर्वत्र वर्जयते’ की उक्ति आज की भौतिक चकाचौंध पर लागू होती है। आज पैसा ही धर्म हो गया है। अब प्रकृति अपना प्रकोप दिखाने लगी है, जिसके दोषी भी हम ही हैं। वन काटकर गगनचुंबी इमारतें खड़ी करना, पशु-पक्षियों को मारना, जल और वायु के साथ छेड़छाड़, इन सबका दुष्परिणाम हैं प्राकृतिक आपदाएं। ऐसी विकराल आपदाएं प्रकृति दिखाती है कि हमारी सारी व्यवस्था बौनी हो जाती है। आज आवश्यकता है कि हमारी संस्कृति विकसित हो। हम विश्व की आध्यात्मिक शक्ति के स्रोत ईश्वर की शक्ति में अपनी आस्था और विश्वास जागृत करें। बड़ों का सम्मान करें। छोटों से प्रेमपूर्ण व्यवहार करें, अतिथि का सत्कार करें, पढ़-लिखकर अहंकारी न बनें, विनम्र बनें। हमारे व्यवहार में, हमारी सोच में, सद्व्यहार, सद्भावना, प्रेम, त्याग, सभ्यता की झलक हो। हम अपने आप पर गर्व कर सकें और हमारे माता-पिता, पूर्वज, हम पर गर्व कर सकें। देश का सम्मान, हमारी पूजा हो। भारत माता के सच्चे सपूत बनकर मातृभूमि की सेवा करें, तभी हमारा कल्याण होगा। हम सुधरेंगे तो हमारी पीढ़ियां सुधरेंगी।

विश्व-शांति के उपाय


किसी कवि ने आज की गंभीर और अशांत स्थिति पर विचार करते हुए लिखा है-

‘जान पड़ता है सब संकट बिसार कर,
मानव है नाश के कगार पर,
जागी है उसमें पाशविकता, बधिकता,
देखता नहीं है, कुछ वृद्ध-बाल,
सबके लिए है काल,
दस्यु सम घात में हैं खड़ा,
लज्जा नहीं आती है, आत्मा के हनन की।’

आज विश्व में शांति कैसे और किस प्रकार हो सकती है? यह एक विचारणीय प्रश्न है। इस प्रश्न के समाधान के लिए हम यह कह सकते हैं कि विश्व शांति के लिए भाई-चारे और मेल-मिलाप की भावना ही ठोस कदम होगा। विश्व-शांति के लिए सबको अपने ही समान समझना और अपने ही समान आचरण करना, एक ठोस और प्रभावशाली विचार होगा। अगर इस तरह की सद्भावना और श्रेष्ठ विचार प्राणी-प्राणी के मन में उत्पन्न हो जाएगा तो किसी प्रकार से विश्व में अशांति और अव्यवस्था की भावना उत्पन्न नहीं हो सकेगी। पर्यावरण सुधरेगा, शांत होगा, बढ़ी हुई दुर्भावनाएं समाप्त हो सकती हैं। ‘मनुष्य और प्रकृति का संबंध आदिम अवस्था से ही रहा है। प्रकृति उसकी रचयिता माता के समान है। प्रकृति की सत्ता से ही मनुष्य का विकास होता है। जीवन के हर क्षेत्र में वह प्रकृति से ही आश्रय व प्रेरणा लेता रहा है, फिर समकालीन कविता कैसे अछूती रह सकती है? कवि और कविता दोनों उसके प्रभाव से प्रभावित हैं। प्रकृति की विनष्टि, शारीरिक और मानसिक कष्ट देती है। उसे चिंता है पर्यावरणीय असंतुलन की, बढ़ती आबादी की, घटते वन की, प्रदूषण की, विनाश की। प्रकृति है तो संपूर्ण मानवता है, सुख-साज है अन्यथा हम कुछ भी नहीं। यथार्थ से आंखें मूंदने में हमारी भलाई नहीं है। समकालीन कविता ने भी आंखें खुली रखी हैं, आम आदमी को परखा है और चेतना के धरातल पर प्रतिष्ठित किया है।’

अंत में यही निष्कर्ष निकलता है कि पर्यावरण शुद्ध हो, पवित्र हो, स्वस्थ हो, जिसके लिए सभी प्रदूषण समाप्त करने होंगे। इस चुनौती का सामना सर्वांगीण क्षेत्रों को व्यवस्थित करते हुए करना होगा। विज्ञान और अध्यात्म में तादात्म्य स्थापित करते हुए मनुष्य मात्र के हित में सोचना होगा। आज बम के द्वारा शांति नहीं प्राप्त की जा सकती है, बल्कि वेद की ऋचाओं से, उनके उद्देश्यों से और मनसा-वाचा कर्मणा पर खरे उतरने से शांति स्वमेव प्राप्त होगी। पर्यावरण शुद्ध होगा, पवित्र होगा। नैतिकता बढ़ेगी, आचरण पवित्र होंगे। सुउद्देश्य से सर्वत्र सुख-शांति होगी। वसुधैव कुटुंबकम की विचारधारा से प्रेम एवं शांति का साम्राज्य बढ़ेगा। धर्म, संस्कृति, नैतिकता सभी एक ही सिक्के के दो पहलुओं की तरह आपस में संबद्ध है। मानव मात्र के हित में अपना हित ढूंढना जीवन का मुख्य उद्देश्य हो तो पर्यावरण के प्रदूषित होने का प्रश्न ही नहीं उठता। राम और कृष्ण के लोकोपकारी पथ पर चलकर ही हम विश्व विजेता, विश्व शांति के उद्देश्य को दिग्दर्शित करते हैं।

उच्चरित होती चले वेद की वाणी,
गूंजे गिरि कानन सिंधु पार कल्याणी,
अंबर में पावन होम धूम फहरावे,
वसुधा का हल दुकूल भरा लहरावे।

संदर्भ


1. पर्यावरण शिक्षा, डॉ. एस.के. गोयल, पृ. 17
2. स्रोत- World Religions and Environment : Ed. O.P. Dwivedi.
3. पर्यावरण शिक्षा, डॉ. एस. के. गोयल, पृ. 265
4. पर्यावरण अध्ययन की रूपरेखा, मेधातिथिज जोशी, राकेश पारीक, पृ. 154
5. पर्यावरण और लोकअनुभव, डॉ. हरिमोहन, पृ. 13
6. पर्यावरण शिक्षा, डॉ. एस.के. गोयल, पृ. 228
7. समकालीन हिंदी कविता, सं. डॉ. परमानंद तिवारी, पृ. 7
8. वही, पृ. 64

प्राध्यापक, हिंदी विभाग,
शासकीय बिलासा कन्या स्ना. स्वाशासी महाविद्यालय, बिलासपुर (छ.ग.)

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