सतही पानी की अपेक्षा भूमिगत पानी के लिए प्रदूषण का खतरा कम है। लेकिन उसके प्रदूषण को पहचानना और सुधारना ज्यादा कठिन है। ताजा अध्ययनों से लगता है कि भूमिगत पानी के प्रदूषण की समस्या बढ़ रही है। कुछ इलाकों में तो यह काफी गंभीर है। इसके कुछेक दोषी ये हैं : राजस्थान में कपड़ा रंगाई-छपाई की इकाइयां, तमिलनाडु के चमड़ा शोधन केंद्र और रेशा उद्योग केंद्र।
सितंबर 1983 में राजस्थान विधान सभा में उस वक्त काफी हंगामा हुआ था जब यह पता चला कि जोधपुर के पास एक औद्योगिक क्षेत्र में नए-नए लगाए गए नलपूपों से रंगीन पानी आने लगा है।
गांधी शांति प्रतिष्ठान के जोधपुर केंद्र की एक रिपोर्ट बताती है कि जोधपुर, पाली और वालोनरा एक लघु-उद्योग क्षेत्र के लगभग 1500 कपड़े छपाई केंद्र रोज 1.5 करोड़ लिटर गंदा पानी खुली नालियों के पाटों और तालाबों में उड़ेलते हैं। चूंकि मिट्टी रेतीली है, पानी के साथ जहरीले रासायनिक कण छनकर उन कुओं, तालाबों और अन्य जलाशयों में जा मिलते हैं, जिनसे कम-से-कम दस लाख लोगों की पानी की जरूरत पूरी होती है। इसका असर गाय, बैल, जंगली पशु और फसलों पर भी पड़ा है।
जोधपुर विश्वविद्यालय के रसायनशास्त्र विभाग के एक अनुसंधान ने उन अपशेषों में कई तत्व पाए हैं जो कैंसर फैलाते हैं। गांधी शांति प्रतिष्ठान के सर्वेक्षण से उस क्षेत्र में कई बीमारियों के अलावा कैंसर के अनेक प्रकारों का भी पता चला है। पानी में 9 से भी ज्यादा मात्रा में पीएच (फास्फेट) पाया गया है। इसका बुरा असर फसलों पर पड़ा है। रिपोर्ट के अनुसार 7,000 से 10,000 हेक्टेयर तक की जमीन बरबाद हो गई है। लेकिन सालाना 400 करोड़ रुपये का कारोबार करने वाला यह उद्योग इस प्रदूषण को रोकने का कोई उपाय नहीं कर रहा है।
केरल में रेशा उद्योग भी इसी तरह बड़ी मात्रा में पानी को बिगाड़ रहा है। राज्य के कोने-कोने में नारियल के रेशे को साफ करने के लिए पानी में डुबोकर रखा जाता है। इस प्रक्रिया में हाइड्रोजन, सल्फाइड और आर्गेनिक तेजाबों से भूमिगत पानी जहरीला होता है। ‘सेंटर फॉर अर्थ साइंसेस स्टडीज,’ त्रिवेंद्रम के निदेशक डॉ सी. करुणासन का विचार है कि उथले भूजल भंडार बारिश के पानी से धुलकर तो साफ हो सकते हैं, पर गहरे भूजल भंडार की समस्या गंभीर है। आगे चलकर पूरे राज्य को पानी का यही स्रोत काम आएगा, अभी तक हम फिर भरे जा सकने वाले कुछ भूमिगत जल के एक तिहाई का ही उपयोग कर सके हैं। लेकिन बाकी पानी को उपयोग करने के पहले ही प्रदूषित करने की भारी गलती करने लगे हैं।
सितंबर 1983 में राजस्थान विधान सभा में उस वक्त काफी हंगामा हुआ था जब यह पता चला कि जोधपुर के पास एक औद्योगिक क्षेत्र में नए-नए लगाए गए नलपूपों से रंगीन पानी आने लगा है।
गांधी शांति प्रतिष्ठान के जोधपुर केंद्र की एक रिपोर्ट बताती है कि जोधपुर, पाली और वालोनरा एक लघु-उद्योग क्षेत्र के लगभग 1500 कपड़े छपाई केंद्र रोज 1.5 करोड़ लिटर गंदा पानी खुली नालियों के पाटों और तालाबों में उड़ेलते हैं। चूंकि मिट्टी रेतीली है, पानी के साथ जहरीले रासायनिक कण छनकर उन कुओं, तालाबों और अन्य जलाशयों में जा मिलते हैं, जिनसे कम-से-कम दस लाख लोगों की पानी की जरूरत पूरी होती है। इसका असर गाय, बैल, जंगली पशु और फसलों पर भी पड़ा है।
जोधपुर विश्वविद्यालय के रसायनशास्त्र विभाग के एक अनुसंधान ने उन अपशेषों में कई तत्व पाए हैं जो कैंसर फैलाते हैं। गांधी शांति प्रतिष्ठान के सर्वेक्षण से उस क्षेत्र में कई बीमारियों के अलावा कैंसर के अनेक प्रकारों का भी पता चला है। पानी में 9 से भी ज्यादा मात्रा में पीएच (फास्फेट) पाया गया है। इसका बुरा असर फसलों पर पड़ा है। रिपोर्ट के अनुसार 7,000 से 10,000 हेक्टेयर तक की जमीन बरबाद हो गई है। लेकिन सालाना 400 करोड़ रुपये का कारोबार करने वाला यह उद्योग इस प्रदूषण को रोकने का कोई उपाय नहीं कर रहा है।
केरल में रेशा उद्योग भी इसी तरह बड़ी मात्रा में पानी को बिगाड़ रहा है। राज्य के कोने-कोने में नारियल के रेशे को साफ करने के लिए पानी में डुबोकर रखा जाता है। इस प्रक्रिया में हाइड्रोजन, सल्फाइड और आर्गेनिक तेजाबों से भूमिगत पानी जहरीला होता है। ‘सेंटर फॉर अर्थ साइंसेस स्टडीज,’ त्रिवेंद्रम के निदेशक डॉ सी. करुणासन का विचार है कि उथले भूजल भंडार बारिश के पानी से धुलकर तो साफ हो सकते हैं, पर गहरे भूजल भंडार की समस्या गंभीर है। आगे चलकर पूरे राज्य को पानी का यही स्रोत काम आएगा, अभी तक हम फिर भरे जा सकने वाले कुछ भूमिगत जल के एक तिहाई का ही उपयोग कर सके हैं। लेकिन बाकी पानी को उपयोग करने के पहले ही प्रदूषित करने की भारी गलती करने लगे हैं।
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