“सरकार, बापू के तीन बंदर।”
“यदि हमें सरकार का समर्थन प्राप्त होता, तो हम पानी छोड़-छोड़ कर सरकार को कोसते नहीं।”
“जिस संत या साधू के आश्रम का अवजल गंगा में जाये, वह साधू नहीं, शैतान।”
“ प्राणोत्सर्ग के द्वार पर पहुंची साध्वी पूर्णाम्बा की तपस्या।”
“ यदि एक भी गंगा तपस्वी के प्राण गये, तो जिम्मेदारी उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री और भारत के प्रधानमंत्री की होगी।”
“हमें कुछ नहीं चाहिए। बस! आचमन लायक गंगा दे दो।”
“यदि 20 मई तक नहीं हुई कोई सकरात्मक पहल, तो 21 को फूकेंगे गंगामुक्ति महासंग्राम का शंखनाद।”
हालांकि 23 मार्च को सरकार के आश्वासन के बाद जल ग्रहण के साथ ही यह घोषित कर दिया गया था कि गंगा तपस्या जारी रहेगी। गंगा मुक्ति महासंग्राम का खाका भी तभी बनने लगा था। लेकिन उम्मीद थी कि शायद सरकार थोड़ी निर्मल हो जाये। थोड़ी अविरल होकर बह निकले। अपने को दीवारों से बाहर निकाल ले। जैसा कि जयराम रमेश के पर्यावरण मंत्री रहते लोहारी नागपाला परियोजना के मामले में हुआ था। लेकिन यह नहीं हो सका। “क्योंकि गंगा एक कारपोरेट एजेंडा है।” प्रधानमंत्री एक अर्थशास्त्री हैं। दिखने लगा है कि उनकी प्रतिबद्धता गंगा के प्रति नहीं, अर्थ के प्रति है।
संभवतः इसी आभास ने आचार्य प्रमोद कृष्णम् को चेताया हो। आचार्य प्रमोद कृष्णम् उत्तरप्रदेश के मुरादाबाद की एक तहसील संभल स्थित कल्किपीठ के पीठाधीश्वर और साधु संगठनों में अग्रणी भूमिका में हैं। प्रमोद त्यागी के पूर्व नामकरण वाले यह आचार्य श्री पूर्व में कांग्रेस के प्रवक्ता रह चुके हैं। एक पत्रकार ने सवाल उछाला-“कहीं आप कांग्रेस के चेहरे तो नहीं? कहीं यह महासंग्राम कांग्रेस या सरकार प्रायोजित तो नहीं।” उन्होंने साफ कहा-मेरा अतीत क्या था। मैं यह नहीं जानता। बस! मैं इतना जानता हूं कि गंगा मेरी भी मां है और मां किसी भी अन्य आकर्षण, लोभ या लालच से बड़ी होती है। यदि सरकार गंगा को समर्थन दे रही होती, तो हम गंगा तपस्या के समर्थन में यह महासंग्राम ही क्यों करते? जिस गर्मी में दो-चार घंटे पानी न मिले, तो बेचैनी होने लगती है, उस गर्मी में पानी छोड़-छोड़कर सरकार को कोसते क्यों? अपने प्राणों को संकट में डालते ही क्यों? उन्होंने स्पष्ट कहा कि बस! सरकार से अब और प्रार्थना नहीं की जायेगी। सिर्फ 20 मई तक प्रतीक्षा होगी। 21 को बनारस के बेनियाबाग मैदान से गंगामुक्ति महासंग्राम का शंखनाद कर दिया जायेगा। यह शंखनाद गंगा व गंगा तपस्वी के समर्थन में समाज को एकजुट करने व गंगा विध्वंसकों को चेताने का आह्वान होगा।
इस प्रेसवार्ता के मौके पर जल पुरुष राजेन्द्र सिंह ने अपने इस्तीफे के बावजूद प्राधिकरण बैठक में शामिल होने की बात पर तर्क तो पेश किया ही, उन्होंने स्वयं इस बात को भी स्पष्ट किया कि घोषित गंगा तपस्वी होने के बावजूद वह अन्न या जल त्याग के क्रम में क्यों नहीं हैं। उन्होंने कहा कि हम बार-बार सरकार को सहयोग कर रहे हैं। इस उम्मीद के साथ कि शायद सरकार इसी से कुछ चेते। लेकिन दुर्भाग्य है कि सरकार गंगा के लिए धन तो जुटा रही है, पर जरूरी संवेदना जुटाने में अभी भी असमर्थ ही दिखाई दे रही है। मैंने अपनी जवानी में समाज को आगे रखकर गंगा बेसिन की सात नदियों के पुनर्जीवन का पुण्य पाया है। मेरी चाहत है कि यदि गंगा को प्रदूषण और बांध बाधाओं के प्रकोप से न बचा सकूं, तो मरने से पूर्व कम से कम गंगा को पुष्ट करने वाली कुछ और नदियों का पुर्नजीवन तो सुनिश्चित कर ही जाऊं। मेरी गंगा तपस्या यही है। मैं इसी के लिए कृत संकल्प हूं। मेरा संकल्प यह भी है कि जब तक गंगा का अविरल-निर्मल प्रवाह सुनिश्चित नहीं हो जाता, मैं सिर्फ और सिर्फ गंगा के लिए ही काम करुंगा। कुछ और नहीं।
राजेंद्र सिंह ने गंगामुक्ति महासंग्राम को पूर्ण समर्थन का संकल्प भी जताया। उन्होंने उम्मीद भी जताई कि यह महासंग्राम गंगा की संतानों को एकजुट कर गंगा की अर्थी सजने से बचा लेगा।
यूं मां बीमार हो, तो इलाज के लिए मुहुर्त नहीं देखा जाता; पर यह याद रखने लायक संयोग ही है कि गंगामुक्ति महासंग्राम के शंखनाद की घोषित तिथि-21 मई, दशहरा स्नान की प्रारंभ तिथि भी है। इस दिन 12.48 से 29.31 तक सर्वार्थ सिद्धि योग भी है। 21 मई वह दिन भी है, जिस दिन ‘निर्मल गंगा’ के सपने को अधूरा छोड़कर भारत का एक प्रधानमंत्री काल के गाल में समा गया था- राजीव गांधी। संभव है कि गंगा की चीत्कार सुन राजीव जी को श्रद्धांजलि देने गये हाथ थोड़े कापें। आत्मा थोड़ी झकृत हो। थोड़ा लताड़े। मन थोड़ा प्रायश्चित करना चाहे। राजीव जी झूठी श्रद्धांजलि देने से बच जायें।
यदि यह राष्ट्र और राजीव जी के उनके परिजन सचमुच राजीव जी को श्रद्धांजलि देना चाहते हैं, तो इसी 21 मई को ‘निर्मल गंगा’ के उनके अधूरे सपने को पूरा करने में लगें। वरना गंगा तो जा रही है और गंगा रक्षा के लिए तप पर बैठे तपस्वियों के प्राण भी।
क्या राष्ट्र यह कलंक लेने को तैयार है?
“यदि हमें सरकार का समर्थन प्राप्त होता, तो हम पानी छोड़-छोड़ कर सरकार को कोसते नहीं।”
“जिस संत या साधू के आश्रम का अवजल गंगा में जाये, वह साधू नहीं, शैतान।”
“ प्राणोत्सर्ग के द्वार पर पहुंची साध्वी पूर्णाम्बा की तपस्या।”
“ यदि एक भी गंगा तपस्वी के प्राण गये, तो जिम्मेदारी उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री और भारत के प्रधानमंत्री की होगी।”
“हमें कुछ नहीं चाहिए। बस! आचमन लायक गंगा दे दो।”
“यदि 20 मई तक नहीं हुई कोई सकरात्मक पहल, तो 21 को फूकेंगे गंगामुक्ति महासंग्राम का शंखनाद।”
यदि सरकार गंगा को समर्थन दे रही होती, तो हम गंगा तपस्या के समर्थन में यह महासंग्राम ही क्यों करते? जिस गर्मी में दो-चार घंटे पानी न मिले, तो बेचैनी होने लगती है, उस गर्मी में पानी छोड़-छोड़कर सरकार को कोसते क्यों? अपने प्राणों को संकट में डालते ही क्यों? सरकार से अब और प्रार्थना नहीं की जायेगी। सिर्फ 20 मई तक प्रतीक्षा होगी। 21 को बनारस के बेनियाबाग मैदान से गंगामुक्ति महासंग्राम का शंखनाद कर दिया जायेगा। यह शंखनाद गंगा व गंगा तपस्वी के समर्थन में समाज को एकजुट करने व गंगा विध्वंसकों को चेताने का आह्वान होगा।
यह है गंगामुक्ति महासंग्राम के संयोजक आचार्य प्रमोद कृष्णम् द्वारा संबोधित प्रेसवार्ता का लब्बोलुआब। तारीख: 14 मई, 2012, स्थान: प्रेसक्लब, नईदिल्ली। आखें गड़ाये कैमरे। पत्रकार इतने कि कुर्सियां कम पड़ गईं। दिल्ली, जहां के मीडिया में अपराध, राजनीति, बाजार और तीसरे पेज को छोड़ दें, तो हर किसी सरोकार के लिए जगह कम पड़ जाती है; वहां, गंगा के लिए हॉल भर जाये इसी ने आयोजकों को आश्वस्त किया कि संयोग प्रबल है। 17 अप्रैल की बैठक के निर्णायक न हो पाने के बाद ही प्रतीक्षा थी, तो बस! इतनी कि प्रधानमंत्री जी कब स्वामी सानंद को बुलाते हैं और उनके आग्रह को कितनी तवज्जो देते हैं। इस बात को लगभग एक माह हो ही गया है। सूत्रों का कहना है कि प्रधानमंत्री जी न सिर्फ गंगा की प्रति जताई प्रतिबद्धता से मुकर गये हैं, बल्कि उन्होंने स्वामी सानंद से बातचीत के बाद ही किसी निर्णय के बयान से भी इंकार किया है। गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करने के वक्त दिखाई उनकी प्रतिबद्धता का रंग उतरने लगा है।हालांकि 23 मार्च को सरकार के आश्वासन के बाद जल ग्रहण के साथ ही यह घोषित कर दिया गया था कि गंगा तपस्या जारी रहेगी। गंगा मुक्ति महासंग्राम का खाका भी तभी बनने लगा था। लेकिन उम्मीद थी कि शायद सरकार थोड़ी निर्मल हो जाये। थोड़ी अविरल होकर बह निकले। अपने को दीवारों से बाहर निकाल ले। जैसा कि जयराम रमेश के पर्यावरण मंत्री रहते लोहारी नागपाला परियोजना के मामले में हुआ था। लेकिन यह नहीं हो सका। “क्योंकि गंगा एक कारपोरेट एजेंडा है।” प्रधानमंत्री एक अर्थशास्त्री हैं। दिखने लगा है कि उनकी प्रतिबद्धता गंगा के प्रति नहीं, अर्थ के प्रति है।
संभवतः इसी आभास ने आचार्य प्रमोद कृष्णम् को चेताया हो। आचार्य प्रमोद कृष्णम् उत्तरप्रदेश के मुरादाबाद की एक तहसील संभल स्थित कल्किपीठ के पीठाधीश्वर और साधु संगठनों में अग्रणी भूमिका में हैं। प्रमोद त्यागी के पूर्व नामकरण वाले यह आचार्य श्री पूर्व में कांग्रेस के प्रवक्ता रह चुके हैं। एक पत्रकार ने सवाल उछाला-“कहीं आप कांग्रेस के चेहरे तो नहीं? कहीं यह महासंग्राम कांग्रेस या सरकार प्रायोजित तो नहीं।” उन्होंने साफ कहा-मेरा अतीत क्या था। मैं यह नहीं जानता। बस! मैं इतना जानता हूं कि गंगा मेरी भी मां है और मां किसी भी अन्य आकर्षण, लोभ या लालच से बड़ी होती है। यदि सरकार गंगा को समर्थन दे रही होती, तो हम गंगा तपस्या के समर्थन में यह महासंग्राम ही क्यों करते? जिस गर्मी में दो-चार घंटे पानी न मिले, तो बेचैनी होने लगती है, उस गर्मी में पानी छोड़-छोड़कर सरकार को कोसते क्यों? अपने प्राणों को संकट में डालते ही क्यों? उन्होंने स्पष्ट कहा कि बस! सरकार से अब और प्रार्थना नहीं की जायेगी। सिर्फ 20 मई तक प्रतीक्षा होगी। 21 को बनारस के बेनियाबाग मैदान से गंगामुक्ति महासंग्राम का शंखनाद कर दिया जायेगा। यह शंखनाद गंगा व गंगा तपस्वी के समर्थन में समाज को एकजुट करने व गंगा विध्वंसकों को चेताने का आह्वान होगा।
इस प्रेसवार्ता के मौके पर जल पुरुष राजेन्द्र सिंह ने अपने इस्तीफे के बावजूद प्राधिकरण बैठक में शामिल होने की बात पर तर्क तो पेश किया ही, उन्होंने स्वयं इस बात को भी स्पष्ट किया कि घोषित गंगा तपस्वी होने के बावजूद वह अन्न या जल त्याग के क्रम में क्यों नहीं हैं। उन्होंने कहा कि हम बार-बार सरकार को सहयोग कर रहे हैं। इस उम्मीद के साथ कि शायद सरकार इसी से कुछ चेते। लेकिन दुर्भाग्य है कि सरकार गंगा के लिए धन तो जुटा रही है, पर जरूरी संवेदना जुटाने में अभी भी असमर्थ ही दिखाई दे रही है। मैंने अपनी जवानी में समाज को आगे रखकर गंगा बेसिन की सात नदियों के पुनर्जीवन का पुण्य पाया है। मेरी चाहत है कि यदि गंगा को प्रदूषण और बांध बाधाओं के प्रकोप से न बचा सकूं, तो मरने से पूर्व कम से कम गंगा को पुष्ट करने वाली कुछ और नदियों का पुर्नजीवन तो सुनिश्चित कर ही जाऊं। मेरी गंगा तपस्या यही है। मैं इसी के लिए कृत संकल्प हूं। मेरा संकल्प यह भी है कि जब तक गंगा का अविरल-निर्मल प्रवाह सुनिश्चित नहीं हो जाता, मैं सिर्फ और सिर्फ गंगा के लिए ही काम करुंगा। कुछ और नहीं।
राजेंद्र सिंह ने गंगामुक्ति महासंग्राम को पूर्ण समर्थन का संकल्प भी जताया। उन्होंने उम्मीद भी जताई कि यह महासंग्राम गंगा की संतानों को एकजुट कर गंगा की अर्थी सजने से बचा लेगा।
यूं मां बीमार हो, तो इलाज के लिए मुहुर्त नहीं देखा जाता; पर यह याद रखने लायक संयोग ही है कि गंगामुक्ति महासंग्राम के शंखनाद की घोषित तिथि-21 मई, दशहरा स्नान की प्रारंभ तिथि भी है। इस दिन 12.48 से 29.31 तक सर्वार्थ सिद्धि योग भी है। 21 मई वह दिन भी है, जिस दिन ‘निर्मल गंगा’ के सपने को अधूरा छोड़कर भारत का एक प्रधानमंत्री काल के गाल में समा गया था- राजीव गांधी। संभव है कि गंगा की चीत्कार सुन राजीव जी को श्रद्धांजलि देने गये हाथ थोड़े कापें। आत्मा थोड़ी झकृत हो। थोड़ा लताड़े। मन थोड़ा प्रायश्चित करना चाहे। राजीव जी झूठी श्रद्धांजलि देने से बच जायें।
यदि यह राष्ट्र और राजीव जी के उनके परिजन सचमुच राजीव जी को श्रद्धांजलि देना चाहते हैं, तो इसी 21 मई को ‘निर्मल गंगा’ के उनके अधूरे सपने को पूरा करने में लगें। वरना गंगा तो जा रही है और गंगा रक्षा के लिए तप पर बैठे तपस्वियों के प्राण भी।
क्या राष्ट्र यह कलंक लेने को तैयार है?
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