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विश्व विख्यात विज्ञान शोध पत्रिका लांसेट (2012) में प्रकाशित एक शोध रपट के अनुसार विकासशील देशों में 5 वर्ष से कम उम्र के करीब आठ लाख बच्चों की मृत्यु की एक मात्र वजह शुद्ध पेयजल के अभाव में डायरिया जैसी बीमारियों का होना है। यानी, शुद्ध पेयजल आपूर्ति के अभाव में प्रतिदिन 2000 से ज्यादा बच्चों की मृत्यु हो जाना चिन्ताजनक विषय है।
यूनिसेफ की 2013 की एक स्टडी के अनुसार डायरिया जैसी जल जनित बीमारियों से भारत समेत कुल 5 देशों में 5 वर्ष की उम्र तक होने वाली कुल मौतों में से आधी मौतें सिर्फ भारत और नाइजीरिया जैसे 2 देशों में हो जाती है। इसमें से करीब 24% बच्चों की मृत्यु भारत देश में आँकी गई।
यूनाइटेड नेशन्स द्वारा किये एक आकलन के अनुसार प्रदूषित जल के सेवन की वजह से दुनिया भर में प्रतिदिन 4000 बच्चों की मौत होती है और इसी रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि अफ्रीका और एशिया के हर 10 बच्चों में से 4 बच्चों की मौत की वजह भी यही होती है क्योंकि यहाँ शुद्ध पेयजल का अभाव अनेक हिस्सों में देखा जा सकता है।
लांसेट जर्नल में प्रकाशित एक अन्य रपट के अनुसार अपर्याप्त शुद्ध पेयजल, जल संक्रामकता, जल जनित रोगों की वजह से जितनी मौतें होती है उतनी मौतें आतंकवाद, भारी तबाही के हथियारों के उपयोग और युद्ध आदि के बाद हुई मौतों के सारे आँकड़ों को मिलाने के पश्चात भी नहीं होती।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार प्रदूषित और संक्रमित जल के सेवन से प्रतिवर्ष 3.4 मिलियन (34 लाख) लोगों की मृत्यु हो जाती है जो यह साबित करता है कि सारी दुनिया में लोगों की असमय मौत की मुख्य वजह शुद्ध पेयजल ना मिल पाना ही है। इन लोगों में मुख्यत: बच्चे होते हैं जो संक्रमित जल में पनप रहे सूक्ष्मजीवों के आक्रमण की वजह से मारे जाते हैं।
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हमारे देश में प्राकृतिक संसाधनों की कमी नहीं है, शुद्ध पेयजल कई समस्याओं में से एक है लेकिन किसी भी दशा में स्थिती इतनी भी गम्भीर नहीं कि पेयजल का बाजारीकरण देश के कोने-कोने तक हो जाये। लेकिन हालात पर नजर डाली जाये तो हम देख सकते हैं कि देश के दूरगामी इलाकों तक पेयजल या मिनरल वाटर के नाम पर व्यापार अच्छा खासा फल-फूल रहा है।
ना सिर्फ बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ बल्कि पेयजल के नाम पर सैकड़ों स्थानीय कम्पनियाँ भी अपनी जेब भरने से बाज नहीं आ रही। हमारे देश में लाखों गरीबों और ग्रामीणों के लिये यह सम्भव ही नहीं है कि बाजारू शुद्ध पानी को खरीद पाएँ। अपनी दिन भर की कमाई राशि का एक बड़ा हिस्सा महज पेयजल के लिये खर्च करना उनके बस का नही हैं।
भारत देश में पातालकोट जैसे इलाके भी हैं जिन्हें सरकारी मदद की परवाह नहीं और इन लोगों तक सरकार या एजेंसियों की मदद वैसे भी नहीं पहुँच पाती है लेकिन प्राचीनकाल से ही इन्होंने शुद्ध पेयजल प्राप्ति के लिये पारम्परिक नुस्खों का उपयोग किया है। ये बात अलग है कि शहरी लोगों ने अपनी प्राचीन परम्परागत तकनीकियों और पद्धतियों को दरकिनार कर दिया और फटाफट भागती जिन्दगी और जलजनित रोगों के भय से बाजारू पानी को अपना लिया एवं घरों में भी पेयजल शुद्धिकरण मशीन यंत्र (वाटर फिल्टर) भी लगा लिये, क्या हर शहरी इस व्यवस्था को अपनाने के लिये साधन सम्पन्न हैं? हम शहरी लोग जाने-अनजाने में विकसित होने की इस अन्धाधुन्ध दौड़ में क्या खो बैठे और क्या पा लिये, ये बात जग जाहिर है।
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मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले के मुख्यालय से करीब 80 किमी दूर पातालकोट घाटी सदियों से वनवासियों का घर है। गोंड और भारिया जनजाति के वनवासी यहाँ सैकड़ों सालों से मूल निवासी हैं। जहाँ एक ओर यहाँ पूरे इलाके में प्राथमिक चिकित्सा और शिक्षा का अभाव तो है वहीं दूसरी तरफ पातालकोट घाटी के अनेक गाँव तथाकथित विकसित समाज की मुख्यधारा से सैकड़ों साल पीछे हैं। बावजूद इसके, जिस तरह से ये वनवासी स्वास्थ्य सम्बन्धी विकारों के उपचारों, दैनिक दिनचर्या और स्वयं के रहन-सहन में प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करते रहे हैं, ये देखकर मैं शहरी विकसित-समाज को पिछड़ा हुआ देखता हूँ।
इस घाटी की भौगोलिक संरचना भी एक मुख्य वजह रही है जिस कारण यह सारी दुनिया से कटा हुआ रहा है। घोड़े के नाल के आकार में और करीब 79 स्केवेयर किमी के क्षेत्रफल में फैली इस घाटी के वनवासियों को अपनी हर छोटी-बड़ी जरूरतों के लिये आत्मनिर्भर होना पड़ता है और मजे की बात ये भी है कि इन लोगों के पास अपनी हर समस्याओं के लिये जुगाड़ और चिरस्थायी उपाय भी हैं।
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पातालकोट के वनवासियों को कृषि से लेकर पेयजल तक के लिये पूर्णत: बारिश पर निर्भर रहना पड़ता है। बारिश का पानी यहाँ से उद्गम होने वाली नदी दुधी के जरिए घाटी से बाहर चला भी जाता है। गर्मी आते-आते लगभग सभी जलस्रोत अपना दम तोड़ते दिखाई देते हैं। इस दौरान पहाड़ों के करीब प्राकृतिक रूप से बने झरनों, झिरिया और पोखरों में भरे पानी से ही इन वनवासियों का गुजारा होता है।
तेज चलने वाली हवाओं के साथ मिट्टी और धूल के कण, पेड़-पौधों के टूटे पत्ते, शाखाएँ आदि इस पानी में गिरकर इसे मटमैला और दूषित कर देती हैं, इनमें मौजूद सूक्ष्मजीव जैसे बैक्टीरिया, वायरस, प्रोटोजोआ आदि इस पानी को संक्रमित बनाते हैं। पातालकोट वनवासी पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपनाए पारम्परिक तरीकों से अशुद्ध पानी को पीने लायक बनाते हैं। निर्गुंडी, निर्मली, सहजन, कमल, खसखस, इलायची जैसी वनस्पतियों का इस्तेमाल कर आज भी जल शुद्धिकरण की इन देशी तकनीकों को आम शहरी लोग भी घरेलू स्तर पर भी अपना सकते हैं।
पातालकोट में मंडा रास्ता, घुरनी और मालनी जैसे कस्बे दूरस्थ इलाकों में बसे हैं। सुबह-सुबह गाँवों की महिलाएँ कांसे और पीतल की घुंडियाँ (घड़े के आकार के बर्तन) और मटकों को सिर पर लेकर पहाड़ों की तलहटी में बनी झिरियों तक जाते हैं। झिर या झिरिया पहाड़ों और पहाड़ों की दरारों से पानी के धीमे-धीमे रिसकर नीचे आने का स्थान होता है। यहाँ वनवासी एक कुंड या मध्यम आकार का गोल गड्ढा बनाकर पानी को रोक लेते हैं। सुबह महिलाएँ इस पानी को अपने बर्तनों में भरकर घर तक ले आती हैं।
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निर्गुंडी (विटेक्स नेगुंडो) का पेड़ इस घाटी में खूब देखा जा सकता है। स्थानीय भाषा में इसे पानीपत्ती भी कहा जाता है। इसके बीजों का इस्तेमाल भी पानी को साफ करने के लिये किया जाता है। पातालकोट घाटी के राथेड़ गाँव की महिलाएँ राजा की खोह नामक घाटी के पोखरों से पानी भरती हैं, सामान्यत: गहराई में बसे होने के कारण खोह का पानी मटमैला हो जाता है।
पानी में से मिट्टी के कण, कीचड़ तथा अन्य गन्दगियों को साफ करने के लिये महिलाएँ निर्गुंडी (वाईटेक्स निगुंडो/ चेस्ट ट्री) नामक पौधे की पत्तियों का प्रयोग करती हैं। इस मैले पानी को घड़े या मटके में भर लिया जाता है और आधे घड़े तक निर्गुंडी की पत्तियों को भर दिया जाता है और इसे आधे से एक घंटे के लिये ढँक कर रखा जाता है। ऐसा करने से पानी में मौजूद गन्दगी नीचे बैठ जाती है और पानी साफ हो जाता है।
कुछ लोग इस पानी में इलायची को कुचलकर डाल देते हैं ताकि पानी में मिट्टी की गन्ध हो तो वह दूर हो जाये। वनवासियों के अनुसार निर्गुंडी की पत्तियाँ मिट्टी के कणों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं जिससे गर्त या कण इनकी सतहों पर लिपट जाते हैं और मिट्टी के भारी कणों के साथ सूक्ष्मजीव भी इन सतहों तक चले आते हैं। आयुर्वेद में भी निर्गुंडी के बीजों में जल शुद्धिकरण की उपयोगिता का जिक्र किया गया है।
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कई लोग इसके पके फलों को मटके या घुंडी की आन्तरिक सतह पर रगड़ देते हैं और बाद में इस पात्र में झिरिया का पानी डाल दिया जाता है। निर्मली के बीजों पर की गई शोधों से ज्ञात हुआ है कि इनमें एनऑयनिक पॉलीइलेक्ट्रोफाइट्स पाये जाते हैं जो कोऑग्युलेशन की प्रक्रिया के कारक हो सकते हैं।
इसी इलाके के वनवासी एक अन्य प्रक्रिया के तहत झिरिया किनारे बने गड्ढे में एक कप दही डाल देते हैं, एक दो घंटे में पानी में घुले मिट्टी के कण तली में बैठ जाते हैं और आहिस्ता-आहिस्ता पानी को ऊपरी सतह से एकत्र कर लिया जाता है। माना जाता है कि दही सूक्ष्मजीवों को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है क्योंकि सूक्ष्मजीव दही में अपना भोज्य पदार्थ पाते हैं।
पानी पेय योग्य हो जाता है, शहरों में लोग आसानी से इस पद्धति का इस्तेमाल कर सकते हैं और पानी को फिल्टर करने का यह एक उत्तम उपाय हो सकता है। कई गाँवों में लोग दही के साथ खस-खस के बीज भी मिलाते हैं, स्थानीय बुजुर्ग जानकार मानते हैं कि खस-खस भी पानी को साफ करने में मदद करता है।
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वनवासी हर्बल जानकारों के अनुसार सहजन की फलियों और तुलसी की पत्तियों में पानी में उपस्थित अनेक सूक्ष्मजीवों को मारने की क्षमता होती है साथ ही सहजन की फलियों और इसके बीजों का लसलसा पदार्थ पानी में घुलित कणों को अपनी ओर आकर्षित करता है जिससे कुछ समय में पात्र के ऊपरी हिस्से का पानी पेय योग्य हो जाता है। सूखाभांड गाँव की वनवासी महिलाएँ सहजन की परिपक्व फलियाँ एकत्र कर लेती हैं, फलियों को तोड़कर इसके बीजों को एकत्र कर लिया जाता है और इन बीजों को एक साफ सूती कपड़े में डालकर पोटली तैयार कर ली जाती है।
प्रत्येक दिन सुबह शाम एक-एक बार इस पोटली को पानी से भरे पात्र के भीतर 30 सेकेण्ड के लिये घुमाया जाता है, इन महिलाओं का मानना है कि ऐसा करने से पानी के भारी कण और सूक्ष्मजीव इस पोटली की सतह पर चिपक जाते हैं। बाद में पोटली से बीजों को बाहर निकाल लिया जाता है और अन्य साफ सूती कपड़े में लपेट दिया जाता है ताकि अगली बार इस पोटली का पुन: उपयोग हो सके। आधुनिक विज्ञान भी सहजन और तुलसी के द्वारा सूक्ष्मजीवों की वृद्धि को रोके जाने की पुष्टि कर चुका है।
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चिमटीपुर, रातेड़ और मालनी जैसे गाँवों के भारिया जनजाति के वनवासी जल शुद्धिकरण के लिये दूषित पानी में तुलसी की पत्तियाँ, जामुन की छाल और अर्जुन छाल का प्रयोग करते हैं। इन सबकी समान मात्रा लेकर पानी में डाल दिया जाता है, एक रात इसी तरह रखने के बाद अगले दिन एक सूती कपड़े की सहायता से इस पानी को छान लिया जाता है। यह पानी शुद्ध होता है और हर्बल जानकारों की मानी जाये तो यह पेट से जुड़ी समस्याओं के इलाज के लिये उत्तम माना जाता है साथ ही हृदय के रोगियों के लिये अतिउत्तम होता है। इसके अलावा पातालकोट में वनवासी पेयजल के रखरखाव के लिये पीतल या तांबे के बर्तनों का उपयोग करते हैं। प्लास्टिक के विपरीत पीतल या तांबा बैक्टीरिया को पनपने नहीं देता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की एक और रिपोर्ट के अनुसार स्वांस तंत्र संक्रमण और दस्त जनित रोग दुनिया भर में 10% लोगों की मृत्यु का कारण है जो कि एड्स (4.9%), फेफड़ों का कैंसर (2.2%), पेट का कैंसर (1.5%), सड़क दुर्घटनाओं (2.1%), आत्महत्या (1.5%) और मलेरिया (2.2%) की तुलना में कहीं ज्यादा है। अब यदि यह देखा जाये कि स्वांस तंत्र संक्रमण और दस्त जनित रोगों के बचाव के लिये दुनिया भर में कुल कितना खर्च किया जाता है तो बाकि कारणों की तुलना में काफी कम दिखाई देगा। एड्स, कैंसर जैसे रोगों के निवारण, उपचार आदि के लिये कई बिलियन और ट्रिलियन डॉलर्स का खर्च किया जा चुका है, लेकिन दुनिया भर के बहुत बड़े हिस्से आज भी शुद्ध पेयजल प्राप्ति से परे हैं।
अब वक्त आ चुका है जब हमें मिलकर आधारभूत स्वास्थ्य, स्वच्छ पेयजल जैसी व्यवस्थाओं की उपलब्धताओं पर कार्य करना होगा। जैसे-जैसे दुनिया भर में जनसंख्या दबाव बढ़ता जा रहा है, मूलभूत आवश्कताओं की माँग भी तेजी से बढ़ रही है और ऐसे में पीने योग्य पानी के लिये त्राहि-त्राहि होना तय है। क्या हम पातालकोट के वनवासियों के पारम्परिक ज्ञान पर आधारित पेयजल सफाई युक्तियों पर कोई आधुनिक शोध कर इसे प्रमाणित कर इन वनस्पतियों को बतौर उत्पाद या आसानी से उपलब्ध संसाधन के तौर पर नहीं ला सकते?
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शुद्ध पेयजल की प्राप्ति से ना सिर्फ आमजनों की सेहत में फायदा होगा अपितु विश्व मंच पर भारत वर्ष को तकलीफ देने वाले जलजनित रोगों से मृत्युदर के आँकड़ों में एक हद तक सुधार आ जाएगा। जब तक हमारे देश में स्वच्छ पेयजल का अभाव होगा, तब तक देश के सुनहरे भविष्य की सोच भी करना मुश्किल है, आखिर जल ही जीवन है, जीवन का आधार है।
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परिचय:
डॉ दीपक आचार्य पिछले डेढ़ दशक से ज्यादा समय से वनवासियों के पारम्परिक हर्बल ज्ञान को संकलित करने का कार्य कर रहे हैं, वर्तमान में अभुमका हर्बल प्रा.लि. अहमदाबाद में डायरेक्टर हैं। यह कम्पनी वनवासी हर्बल ज्ञान को बाजार में उत्पाद के रूप में लाती है। ज्यादा जानकारीwww.abhumka.com या www.patalkot.com पर उपलब्ध है।
ईमेल : patalkot@gmail.com
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Post By: RuralWater