प्राचीन मिथिला में पोखर परम्परा

प्रायः पुण्य के लोभ के कारण, सिंचाई एवं जल की अन्य आवश्यकताओं तथा कीर्ति की आकांक्षाओं के कारण पोखर खुदवाने की परम्परा बहुत प्रचलित थी। पर पोखर के रूप में पोखर की मान्यता तभी होती थी जब उसका यज्ञ हो जाए। इसलिये यज्ञ और उत्सर्ग का विधान पोखर खुदवाने का अत्यंत आवश्यक अंग बन गया। यज्ञ के पश्चात् पूरे समाज को उस पोखर के जल और मछली, मखाना, घोंघा, सितुआ जैसी जल की वस्तुओं के स्वच्छन्द उपयोग का अधिकार हो जाता है।

जल संचय के लिए मानवीय प्रयास से खुदवाये जाने वाले पोखर-सरोवर भारतीय जीवन के सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक पक्ष से इतिहास के आरम्भ से जुड़े हैं। इसकी चर्चा ऋग्वेद में भी है। जब से गृह्यसूत्र और धर्मसूत्र की रचना/ संकलन प्रारम्भ हुआ (800 से 300 ई.पू की अवधि में) तब से इसे धार्मिक मान्यता और संरक्षण भी प्राप्त हुआ। इन सूत्रों के अनुसार किसी भी वर्ण या जाति के कोई भी व्यक्ति, पुरुष या स्त्री पोखर खुदवा सकते हैं और उसका यज्ञ करवा कर समाज के सभी प्राणियों के कल्याण हेतु उसका उत्सर्ग कर सकते हैं। विष्णु धर्मसूत्र ऐसे व्यक्तियों को बहुत पुण्य का भागी मानता है। संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध कवि वाण अपनी कृति कादम्बरी (सातवीं शताब्दी) में ऐसे कार्य को सर्वाधिक महत्व का मानते हैं। मत्स्यपुराण और अग्निपुराण (300-600 ई.पू) में इस प्रसंग पर काफी चर्चा की गयी है। लोक कल्याण हेतु इस प्रकार के खुदवाये गये जल कोष को चार वर्गों में विभाजित किया गया है:

कूप
गोलाकर, जिसका व्यास 7 फीट से 75 फीट हो सकता है और जिससे जल निकालने के लिए किसी यंत्र जैसे डोल डोरी का प्रयोजन हो,

वापी (बहुत छोटा पोखर)
चौकोर, लम्बाई 75 से 150 फीट हो और जिसमें जलस्तर तब पांव के सहारे पहुंचा जा सके,

पुष्करणी (छोटा पोखर)
गोलाकार, जिसका व्यास 150 से 300 फीट तक हो और

तड़ाग (पोखर)
चौकोर, जिसकी लम्बाई 300 से 450 फीट तक हो।

मत्स्यपुराण मे इस प्रसंग में पांचवें वर्ग की चर्चा की गयी है, इसे हदक नाम दिया गया है, जिसमें साधारणतः पानी कभी नहीं सूखता हो। धर्मशास्त्र के बाद की सभी रचनाओं में विभिन्न क्रमों में विभिन्न प्रकार के पोखरों की लम्बाई-चौड़ाई दी गई है, पर पोखर का उत्सर्ग करने के प्रसंग में सभी एकमत हैं। पुराणों के पश्चात् इसके उत्सर्ग यज्ञ के लिए अलग ग्रन्थ की रचना आरम्भ की गयी।

मिथिला कर्मकाण्ड के लिए प्रसिद्व रहा है। यहाँ बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी से पोखर-यज्ञ के लिए पद्धतियों का निर्माण शुरू हुआ। कर्णाट राज काल में तड़ागामृतलता और जलाशयादिवास्तु पद्धति नामक दो महत्वपूर्ण पुस्तक वर्धमान उपाध्याय ने लिखी। पंद्रहवीं शताब्दी के आरम्भ में जलाशयोत्सर्ग पद्धति लिखी गयी जिस पर बुधकर ने अपनी टीका लिखी। प्रायः पुण्य के लोभ के कारण, सिंचाई एवं जल की अन्य आवश्यकताओं तथा कीर्ति की आकांक्षाओं के कारण पोखर खुदवाने की परम्परा बहुत प्रचलित थी। पर पोखर के रूप में पोखर की मान्यता तभी होती थी जब उसका यज्ञ हो जाए।



पोखर मुख्यतः राजा और जमींदार वर्ग द्वारा खुदवाया जाता रहा है। इसके अतिरिक्त जो लागे अपने को सक्षम मानते थे वे लोग अपनी कीर्ति के लिए पोखर खुदवाते थे। स्मारक के रूप में समाज में इसका काफी महत्व था।

इसलिये यज्ञ और उत्सर्ग का विधान पोखर खुदवाने का अत्यंत आवश्यक अंग बन गया। पोखर-यज्ञ में लोक कल्याण व पशु-पक्षी कल्याण हेतु पोखर का उत्सर्ग किया जाता है। यह यज्ञ पोखर खुदवाने के बाद पोखर के एक महार पर पूरे समाज की उपस्थिति में आयोजित की जाती है। इसके बाद ही इस पोखर का जल देवताओं पर चढ़ाया जा सकता है या पूजा-पाठ में उसका व्यवहार किया जा सकता है। यज्ञ के पश्चात् पूरे समाज को उस पोखर के जल और मछली, मखाना, घोंघा, सितुआ जैसी जल की वस्तुओं के स्वच्छन्द उपयोग का अधिकार हो जाता है।

यहां एक बात की चर्चा आवश्यक है। मिथिला में पोखर-यज्ञ के लिये सिर्फ पद्धति की रचना ही नहीं हुई अपितु अक्सर पोखर खुदवाया भी जाता रहा। बारहवीं शताब्दी में गांग देव द्वारा काफी पोखर खुदवाया गया, जिसमें कुछ आज भी अन्हरा-ठाढ़ी, भौरा, मठिआही और आसी गाँव में मौजूद हैं। हाबीडीह, दरभंगा (शहर), बीरसाइर, वासुदेवपुर, सिमराओन और नेहरा गाँव के काफी पोखर चौदहवीं शताब्दी के पूर्व ही खुदवाये गये थे। ज्योतिरीश्वर के वर्णरत्नाकर (चौदहवीं शताब्दी) में सरोवर और पोखर वर्णन है।

चौदहवीं शताब्दी में पोखर का एक और वर्ग ‘सरोवर’ गया, क्योंकि पूर्व परिचित पांच वर्ग (कूप, वापी, पुष्करणी, तड़ाग और ह्रद) में सरोवर नही था। पोखरा सातवां वर्ग हुआ। ज्योतिरीश्वर पोखर को महाह्रद या पोखरा सातवें वर्ग के रूप में दिखता है। वर्णरत्नाकर का पोखर वह पोखर नहीं है, जिसका प्रसंग बाद की लोकोक्तियां निर्देशित करती हैं।

यह लोकोक्ति है, पोखर, रजपोखरि और सब पोखरा; राजा शिवसिंह और सब छोकड़ा। शिव सिंह और ज्योतिरीश्वर के बीच करीब एक सौ वर्ष का अन्तर है। हो सकता है कि वर्णरत्नाकर के सौ वर्ष बाद रजपोखरि खोदे जाने के बाद पोखर के आकार की मान्यता बदल गयी हो और तब उपरोक्त लोकोक्ति का प्रचार हुआ हो। हम इतना अवश्य कह सकते हैं कि मिथिला के इतिहास में विभिन्न प्रकार के पोखर खुदवाने और उनकी मौजूदगी के काफी प्रसंग उपलब्ध हैं। उदाहरण स्वरूप उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में लिखा गया आईना-ए-तिरहुत मिथिला के निम्नलिखित प्रसिद्ध पोखरों का विवरण प्रस्तुत करता है।

 

 

आईना-ए-तिरहुत  के अनुसार मिथिला के प्रसिद्ध पोखरों का विवरण

क्र.सं

गाँव/शहर का नाम

परगना

पोखरों की संख्या

पोखरों का क्षेत्रफल (बीघा में)

1

दरभंगा (शहर)

-

8    

बहुत बड़ा

2

बिरौल

हाटी

1

-

3

बर

पिंडारूच

1

200

4

सागरपुर

हाटी

1

-

5

रैयाम

भौर

1

60-70

6

कमतौल

भरवारा

1

80-85

7

रांटी

हाटी

1

50-60

8

संग्राम

पचही

1

70-80

9

जरहटिया

हाटी

1

-

10

लहरा

परिहारपुर-राघो

1

60-70

11

केओटी

पिंडारूच

1

20

12

नेहरा

परिहारपुर-राघो

1

2 मील लम्बा

13

भरवारा

भरवारा

1

2 मील लम्बा

14

बेला

आलापुर

1

2 मील लम्बा

15

हरिपुर

हाटी

1

60-70

16

नेहरा (नील कारखाना के समीप)

परिहारपुर-राघो

1

60-70

17

भिट्ठा

परिहारपुर-राघो

1

100

18

लबानगान

लबानगान

1

40-50

19

अन्तिहर

बारी

2

50-60 (प्रत्येक)

20

ब्रह्मपुर

भरवारा

1

83-84

21

बासोपट्टी

भाला

1

50-60

22

रहिका   

जरैल

1

10-15

23

कछुआ

आलापुर

1

60-70

24

शंकरपुर कंसी

भरवारा

1

60-70

25

सिमरी

भरवारा  

1

50-60

26

बनौली

रामचावन्द

1

-

27

सिमरी

जरैल

1

25-30

28

तारालाही    

फरकपुर

1

70-80

29

दिकहार

नारे-दिगर

1

50-60

30

वैदेहीपुर

लबानगान

1

50-60

31

सिमराम

हाटी

1

70

32

शिवसिंहपुर

सौट

1

70-80

33

चनौर  

लबानगान

1    

70-80

34

दामोदरपुर

जरैल

1

25-30

35

बिनौल  

तिरसठ

1

60-65

36

कठरा  

लोआम

1

126

37

बीरसाइर

हाटी

1

25

38

अकौर   

-

1

30-40

 

उपरोक्त सभी पोखरों के अलग-अलग नाम हैं, नाम के साथ दन्तकथा जुड़ी है। इन सभी दन्तकथाओं में विभिन्न कालों के ऐतिहासिक महत्व की सामग्री बिखरी पड़ी है। तथा हरेक पोखर का इतिहास उस गाँव व इलाके के जीवन के इतिहास से जुड़ा है। इस संदर्भ में शोधकार्य प्रारम्भ करना आवश्यक है।

बिहारी लाल फितरत, जिन्होंने गाँव-गाँव घूम-घूम सर्वेक्षण कर आईना-ए-तिरहुत की रचना की, लिखते हैं कि उपर्युक्त सारणी में जितने पोखरों का विवरण दिया गया है, उसके अलावा दरभंगा जिला (उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के दरभंगा जिला) में हजारों की संख्या में पोखर वर्तमान है, इनमें से प्रत्येक का विवरण एक पूर्ण व्यवस्थित दफ्तर द्वारा तैयार किया सकता है। मिथिला क्षेत्र की इस विपुल जल सम्पदा के प्रति हमलोग बिहारी लाल फितरत के बाद प्रायः उदासीन रहे हैं।

पोखर मुख्यतः राजा और जमींदार वर्ग द्वारा खुदवाया जाता रहा है। इसके अतिरिक्त जो लागे अपने को सक्षम मानते थे वे लोग अपनी कीर्ति के लिए पोखर खुदवाते थे। स्मारक के रूप में समाज में इसका काफी महत्व था। म.म. शंकर मिश्र के जन्म के समय जिस चमाईन ने अपनी सेवा दी थी उन्हें म. म. अयाची मिश्र ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार शंकर मिश्र की पहली कमाई दे दी। इस आमदनी से उस चमाईन ने अपनी कीर्ति के लिये अपने गाँव सरिसब-पाही में एक पोखर खुदवाया, यह जनश्रुति प्रचलित है।

चमनिया-डाबर कहा जाने वाला एक पोखर इस गाँव में आज भी मौजूद है। इससे यह जनश्रुत परम्परा सत्य प्रतीत होती है, लेकिन इससे इतना तो अवश्य प्रमाणित होता है कि लोगों में अपना कीर्ति स्मारक स्थापित करने की भावना प्रचुर रूप में विद्यमान थी और स्मारक के तौर पर पोखर खुदवाना बहुत उपयुक्त समझा जाता था। इससे पुण्य (धार्मिक दृष्टि से) भी होता था तथा खेत की सिंचाई करते समय, मछली मारते समय और घोंघा-सितुआ चुनते समय पुश्त-दर-पुश्त गाँव/इलाके में पोखर खुदवाने वाले का नाम लिया जाता था। पोखर का सबसे महत्वपूर्ण उपयोग खेतों की सिंचाई के लिये किया जाता था।

ग्रिअर्सन अपनी पुस्तक ‘बिहार पीजैन्ट लाइफ’ में बिहार में प्रचलित तीन प्रकार की सिंचाई की चर्चा करते हैं:

1. पईन और नहर से,
2. कुआं से और
3. पोखर से।

इस तीन तरह की सिंचाई में किस प्रकार का उपयोग बिहार के किस क्षेत्र में होता था उसके बारे में ग्रिअर्सन कोई खास सूचना अपनी पुस्तक में नहीं देते हैं। इस प्रसंग की सूचना विलेज नोट्स में उपलब्ध है। यह विलेज नोट्स बिहार के प्रथम भूसर्वेक्षण, जो उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में प्रारम्भ हुआ और इस शताब्दी के दूसरे दशक तक चला, के दौरान गाँव-गाँव में जाकर सर्वेक्षण पदाधिकारी द्वारा तैयार किया गया है। लेखक द्वारा सिंचाई के संदर्भ में बिहार के उस समय पटना, शाहाबाद, गया, भागलपुर, पूर्णिया, दरभंगा, मुजफ्फरपुर, चम्पारण और सारण जिलों के करीब पांच हजार गाँवों के विलेज नोट्स का अध्ययन किया गया है।

दरभंगा जिला के अतिरिक्त सभी जिलों के विलेज नोट्स में खेती की जमीन की सिंचाई के लिये कहीं-कहीं ही पोखर की चर्चा मिलती है। लेकिन दरभंगा जिला का जितना विलेज नोट्स उपलब्ध हुआ उसके प्रायः 70 प्रतिशत में पोखर का उपयोग अंशतः सिंचाई के लिए किये जाने की चर्चा है। इसके अलावा जिन-जिन गाँवों में पोखरों की संख्या अधिक है, उसका वर्णन है जैसे, ननौर (सं. 246), परगना-पचही, थाना-मधुबनी में करीब 70 पोखर थे, रैयाम (सं. 169), परगना-भौर, थाना मधुबनी में 50-60 पोखर, हरडी (सं. 282), परगना-भौर, थाना-मधुबनी में 5-6 पोखर, नबनगर (सं. 287), परगना - जबदी, थाना-मधुबनी में 9 पोखर, मधेपुर (सं. 259), परगना-पचही,थाना-फुलपरास में 25 पोखर, लखनौर (सं. 247), परगना-पचही, थाना-फुलपरास में 20 पोखर, टटुआर (सं. 192), परगना-लोआम, थाना - बहेरा में 23 पोखर, हावी-मौआर (सं. 20), परगना-हावी, थाना - बहेरा में 20 पोखर इत्यादि। लेकिन विलेज नोट्स में गाँव की खेती की कितनी जमीन की सिंचाई होती थी, उसके बारे में कोई आंकड़ा नहीं दिया गया है। वैसे इतना निष्कर्ष तो लगाया जा सकता है कि जिस गाँव में पोखरों की संख्या और उसका रकबा जितना अधिक है, उसका वहां पोखरों से उतनी ही अधिक सिंचाई होती होगी।

जेएच केर ने इस शताब्दी के प्रारम्भ में दरभंगा जिला की वैसी जमीन का आंकड़ा प्रस्तुत किया है जिसकी सिंचाई पोखर से होती थी। इस जिला में दरभंगा, मधुबनी और समस्तीपुर तीन सबडिविजन थे। मधुबनी में चार थाना था: बेनीपट्टी, खजौली, फुलपरास और मधुबनी, दरभंगा सबडिविजन में तीन थाना था: दरभंगा, बहेड़ा और रोसड़ा। समस्तीपुर में भी तीन थाना था: वारिसनगर, समस्तीपुर और दलसिंहसराय। हर सबडिविजन में पोखरों से जितने खेतों की सिंचाई होती थी उसका विवरण निम्नलिखित सारणी में दिया जा रहा है।

क्र.
सं.

सबडिविजन

कुल खेती की जमीन का सिंचित हिस्सा (प्रतिशत में)

कुल सिंचित जमीन में पोखर सिंचित हिस्सा (प्रतिशत में)

1

बेनीपट्टी

31.83

55.14

2

खजौली

11.46  

42.05

3

फुलपरास

11.73

30.04

4.

मधुबनी

5.43    

58.71

कुल

14.35  

48.85

5.

दरभंगा

0.50

13.65

6.

बहेरा

0.74  

53.62

7.

रोसड़ा

0.12

10.48

कुल

0.48   

36.04

8.

वारिस नगर

1.37  

11.17

9.

समस्तीपुर

2.49

8.80

10.

दलसिंहसराय

2.32

12.08

कुल

2.14

10.39



जेएच केर द्वारा दिये गये आंकड़े से यह स्पष्ट है कि बेनीपट्टी, मधुबनी और बहेड़ा थाना में पोखर सिंचाई का मुख्य स्रोत था। केर के अनुसार, मधुबनी सबडिविजन में 45,000 एकड़ जमीन की सिंचाई सम्भव थी। मधुबनी सबडिविजन का क्षेत्र अब मधुबनी जिला बना गया है, जहां करीब-करीब 20,000 पोखर मौजूद हैं। लेकिन यह कहना अब कठिन है कि कितना पोखर कितना उपयोगी रह गया है।

स्वतंत्रता के पूर्व मछली, मखाना जैसी पोखर की वस्तुएं किसी बाजार में खरीद-बिक्री के लिए प्रायः नहीं भेजी जाती थीं। अतएव पोखर से जो कुछ उपलब्ध होता था, उसका उपभोग गाँव अथवा इलाका में बिना खरीद-बिक्री के किया जाता था। प्रथम भूमि-सर्वेक्षण में गाँव के खतियान में पोखर की हैसियत गैरमजरूआ आम या गैरमजरूआ खास के रूप में दर्ज थी। इस प्रकार पोखर ‘आम’ अथवा ‘खास’ हो गया।

ग्रामीणों को पहले जिस प्रकार मछली उपलब्ध होती थी, अब सम्भव नहीं है। उन लोगों को परम्परागत तौर पर पोखर के उपयोग का जो अधिकार था, वह सब समाप्त हो गया। खास पोखरों की भी यही दुर्गति हुई। इसके फलस्वरूप, गाँव का पोखर से जो अनुबंध था वह समाप्त हो गया। अब कौन पोखर का महार तोड़ता है, कौन पोखर में आने वाला पानी बंद करता है, किस पोखर का पानी दुर्गंध करता है, किस में केचुली भर गई है, इन सब से किसी को कोई मतलब नहीं है।

पोखर का ऐसा परिचय पहले नहीं था। आम पोखरों की देख-रेख जमींदार लोगों के हाथ में थी तथा खास पोखरों की देख-रेख जिन लोगों की मिल्कियत होती थी, वे लोग किया करते थे। लेकिन समाज दोनों तरह के पोखरों का उपयोग करता था, उसके पानी से खेत की सिंचाई की जाती थी। समाज उसकी मछली, मखाना, घोंघा-सितुआ इत्यादि का भी उपयोग करता था। बाजार उपलब्ध नहीं होने के कारण और धार्मिक तौर पर उत्सर्ग हो जाने के कारण, पोखर सम्पूर्ण समाज के उपयोग के लिए रहता था। कारण प्रायः सम्पूर्ण समाज अपने गाँव के सभी पोखरों को अपना समझता था, उसके प्रति एक खास ममत्व की भावना रहती थी, उसकी सुरक्षा के लिए सभी साकांक्ष रहते थे- समाज और पोखर के बीच एक सशक्त सम्बन्ध स्थापित था।

इस सम्बन्ध को सामाजिक और धार्मिक रीति-रिवाज और ज्यादा मजबूत करता था। जैसे मिथिला क्षेत्र में प्रचलित जूड़शीतल पर्व। यह पर्व बैसाख (अप्रैल) माह में मनाया जाता है। यह पर्व बिहार के दूसरे इलाकों में सतुआइन और वैशाखी के नाम से मनाया जाता है। मिथिला में इसके अनुष्ठान की विधि भिन्न रही है। यहां गाँव-गाँव में लोग कीचड़-कादो से खेलते हैं, लोग पोखर में जमा हो कर एक-दूसरे पर पानी, कीचड़ और कादो फेंकते हैं। इस प्रकार कीचड़-कादो खेलने से पोखर का गाद हट जाता है तथा पोखर में भर गये घास, केचुली, सेवार इत्यादि साफ हो जाते हैं। लगता है, पोखर के संरक्षण को ध्यान में रखते हुए इस विधि से यह पर्व मनाने की प्रथा मिथिला में चली होगी।

अन्य विधि-व्यवहार में भी पोखर का स्थान महत्वपूर्ण है। जैसे, कुमरम दिन (लड़की के विवाह का पूर्व दिन) में लड़की को पोखर में स्नान करवाने के लिए ले जाने की प्रथा है। स्नान करने के बाद पोखर के जल में जलेन्द्रि की पूजा की जाती है। इसके बाद जल से बाहर निकल कर पोखर के महार पर पूजा करायी जाती है। इसी प्रकार विवाह के बाद मसनही में वधू को पोखर में स्नान-पूजा करायी जाती है। श्राद्ध कार्य का बहुत सारा कर्म तो पोखर के महार पर ही सम्पन्न किया जाता है। इसके अतिरिक्त पोखर की चर्चा लोकगीत, सामागीत और लोक कथाओं में भी प्रचुर मात्रा में मिलती है।

उपर्युक्त सभी बातें समाज और पोखरों के सम्बन्ध की दृढ़ता का परिचायक हैं। गाँव की जो शक्ति सामाजिक सत्यता के रूप में थी उसका एक पक्ष (मिथिला में) पोखर से प्रतिबिम्बित होता था। गाँव के समाज और गाँव के पोखर का ऐसा अद्भुत सम्बन्ध अब बिखर रहा है।

जमींदारी प्रथा के उन्मूलन के पश्चात् बिहार सरकार द्वारा भू-सर्वेक्षण प्रारम्भ कराया गया। इस सर्वेक्षण में पूर्व का गैरमजरूआ आम पोखर बिहार सरकार के पोखर के रूप में दर्ज किया गया। साथ ही मछली और मखाना का बाजार भी उपलब्ध हो गया। सरकार द्वारा सरकारी पोखरों को मछली और मखाना के लिए खास अवधि हेतु लीज पर दिया जाने लगा। सरकार को इससे आमदनी शुरू हो गयी। लीज लेने वाले जहां तक हो सके अपना लाभ सोचने लगे, जिससे गाँव के लिये पोखर के पानी का उपयोग बंद जैसा हो गया। सिंचाई के लिए पानी लेने पर रोक-थाम होने लगी, क्योंकि पोखर का पानी कम होने पर मछलियां मर जाती थीं। मछली मर जाने से लीज लेने वाले को घाटा होता है।

इसलिए वे घाटा क्यों सहें! ग्रामीणों को पहले जिस प्रकार मछली उपलब्ध होती थी, अब सम्भव नहीं है। उन लोगों को परम्परागत तौर पर पोखर के उपयोग का जो अधिकार था, वह सब समाप्त हो गया। खास पोखरों की भी यही दुर्गति हुई। इसके फलस्वरूप, गाँव का पोखर से जो अनुबंध था वह समाप्त हो गया। अब कौन पोखर का महार तोड़ता है, कौन पोखर में आने वाला पानी बंद करता है, किस पोखर का पानी दुर्गंध करता है, किस में केचुली भर गई है, इन सब से किसी को कोई मतलब नहीं है।

लीज लेने वालों को तो पोखर से यथासाध्य लाभ हासिल करना है। उन लोगों को कोई मतलब नहीं है कि गाँव का पोखर किस प्रकार व्यवस्थित रहेगा। इस तरह पोखर, जो समाज की सामूहिक सम्पत्ति था, सामूहिक उपभोग-सामूहिक जीवन का एक सशक्त स्रोत था, अधोगति के अंधकार में समाप्त हो रहा है। साथ ही जो समाज इसके (पोखर) साथ इतने दिनों से घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध रहा है, उससे अब दूरी बढ़ रही है। ऐसी स्थिति में यह आवश्यक है कि सरकार और समाज दोनों इस समस्या का निदान खोजें - समाज की यह सम्पदा समाज को पुनः मिले, साथ ही यह सम्पदा स्थायी रूप से समाज द्वारा संरक्षित हो, समाज के लिए उपयोगी हो।

मैथिली से अनुवाद: रणजीव

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