वर्षा उन तीन मुख्य प्रक्रियाओं (वाष्पीकरण, संघनन, और वर्षा) में से एक है जिनके द्वारा जलविज्ञानीय चक्र, वायुमंडल और पृथ्वी की सतह के बीच पानी का निरंतर आदान-प्रदान संचालित होता है। इस अध्याय में प्राचीन भारतीय साहित्य में वर्णित विभिन्न प्रक्रियाओं जैसे कि बादलों की उत्पत्ति, सूर्य और महासागर और पृथ्वी की सतह के बीच अंतःक्रिया, संघनन और वर्षा पर चर्चा की गई है। यह अध्याय प्राचीन भारत में वर्षा मापन के लिए उपयोग की जाने वाली तकनीकों पर भी प्रकाश डालता है।
मौसम और बादलों की उत्पत्ति
ऋग वैदिक आर्यों ने उत्सुकता और सावधानी से मौसम में बदलाव की सीमाओं को निर्धारित किया है और पूरे वर्ष को इस तरह से छह भागों में विभाजित किया है जैसा श्लोकों में स्पष्ट किया गया है:
उतो स मह्यमिन्दुभि: षड्युर्क्तो अनुसेषिधत्।
गोभिर्यवं न चर्कृषत्॥ आर.वी.1,23.15।।
ऋग वैदिक आर्यों को स्पष्ट रूप से पता था कि सूर्य मौसम का निर्धारक है और पृथ्वी के जीवों के हित के लिए मौसम बनाए गए हैं।
त्रीणि जाना परि भूषन्त्यस्य समुद्र एकं दित्येकमप्सु।
पूर्वांमनु प्र दिशं पार्थिवानामृतूत्प्राशासद्वि दधावनुष्ठु।। आर.वी., ।,95.3।।
चित्र 3.1. में आधुनिक ज्ञान के अनुसार सामान्य बादलों की उत्पत्ति और संबंधित प्रक्रियाओं को दर्शाया गया है। बादलों की उत्पत्ति के बारे में ज्ञान ऋग्वेद काल में भी मौजूद था।
विकिरण, संवहन धाराएं और उनके परिणाम स्वरूप वर्षा को निम्नलिखित श्लोकों के माध्यम से ऋग्वेद (1,164.47, VII, 70.2 और ।, 161. 11-12) में वर्णित किया गया है।
उद्वत्स्वस्मा अकृणोतना तृणं निवत्स्वप: स्वपस्यया नर:।
अगोस्यस्य यदसस्तना गृहे तद्घोदमृभवो नानु गच्छथ।। आर.वी.,I, 161.11।।
संमील्यं यद्भुवना र्प्यसर्पत क्व स्वत्तात्या पितरा व आसतु:।
अशपत य: करस्नं व आददे य: प्राबवीत्प्रो तस्मा अबवीतन।। आर.वी.I.161.12।।
कृष्णं नियांन हरय: सुपर्णां अपो वसाना दिवमुत्पतन्ति।
त आववृत्रन्त्सदनादृतस्यादिद्धृतेन पृथिवी व्युघते।| आर.वी., ।, 164.47।।
ऋग्वेद के उपरोक्त श्लोकों में यह भी कहा गया है कि सूर्य की किरणें वर्षा का कारण हैं, और बादल विभिन्न तत्वों से गठित होते हैं। ऋग्वेद के कुछ श्लोक (127.6; 132.8; 132.14; 137.11; ॥, 24.4; V, 55.3) सूर्य और हवा द्वारा पानी के वाष्पीकरण द्वारा बादल के गठन और फिर उससे वर्षा का वर्णन करते हैं, और सूर्य के अलावा कोई अन्य वर्षा का कारण नहीं है।
विभक्तासि चित्रभानो सिन्धोरूर्मा अपाक आ।
सधो दाशुषे क्षरसि|| आर.वी., I, 27.6।।
नदं न भिन्न्ममुया शयानं मनो रूहाणा अतिं यन्त्याप:।
यश्चिद्वत्रो महिना र्प्यतिष्ठत्तासामहि: पत्सुत: शीर्बभूव।| आर.वी., I,32.8।|
उपरोक्त श्लोक बताते हैं कि सूर्य की किरणों की गर्मी से सारा पानी हवा के साथ आकाश में चला जाता है और बादलों में परिवर्तित हो जाता है और फिर सूर्य की किरणों के प्रवेश के बाद वर्षा होती है और नदियों, तालाबों, समुद्रों आदि में जमा हो जाती है। कहा जाता है कि पानी की भरपाई के लिए बादल उत्तरदायी हैं। ऋग्वेद के श्लोक V. 55.3 में शक्तिशाली बादलों के एक साथ आर्द्रता के गठन की व्याख्या की गई है।
साकं जाता: सुभव: साकमुक्षिता: श्रिये चिदा प्रतरं बावृधुर्नर:।
विरोकिण: सूर्यस्येव रश्मय: शुभं यातामनु रथा अवृत्सत।। आर.वी.,V,55.3|॥
ऋग वैदिक काल के दौरान वर्षा की मौसमी भिन्नता ज्ञात थी, जिसे निम्नलिखित श्लोकों (RV.VI, 20.2 और VI, 30.3) के माध्यम से दर्शाया गया है, जिसमें कहा गया है कि सूर्य आठ महीनों के दौरान पृथ्वी से पानी निकालता है और फिर इसी पानी से चार महीनों के वर्षाकाल के दौरान वर्षा होती है।
दिवो न तुभयमविन्द्र सत्रासुर्य देवेभिर्धायि विश्वम्।
अहिं यत्दृत्रमयो वव्रिवांसं हन्नृजीषिन्विष्णुना सचान:।| आर.वी.,V॥,20.2।।
ऋग्वेद के श्लोक I,79.2 के में कहा गया है कि सूर्य की किरणें गतिमान बादलों से टकराती हैं। इस प्रकार, वर्षा वाले काले बादल गर्जन करते हैं। इसके बाद, आकाशीय विद्युत की रमणीय चमक के साथ फुहारें आती हैं। और अंत में बादलो की गर्जन के साथ वर्षा आती है।
अ ते सुपर्णां अभिनन्तं एवै: कृष्णो नोनाव वृषभो यदीदम्।
शिवाभिर्न स्मयमानाभिरागात्पतन्ति मिह: स्तवयन्त्यभ्रा। आर.वी.I,79.2।।
ऋग्वेद के आगामी दो श्लोकों (V.54.2 और V55.5) बादलों वाली हवाओं को वर्षा का कारण बताते हैं, यथा
प्रवो मरुतस्तविषा उद्न्यवो वयोवृधो अश्वयुज: परिज्रय:।
सं विघुता दधति वाशाति त्रितः स्वरन्त्यापोइवनापरिज्रय:।।आर.वी.V,54.2 ।।
भावार्थ: “हे मेघ-वायु, तुम्हारी सेनाएँ जल में धनी हैं, वे जीवन की रक्षक हैं, और आपसे उनका मजबूत बंधन हैं, वे पानी और भोजन में वृद्धि करते हैं, और वे उन तरंगों से सुशोभित हैं जो दूर-दूर तक हर जगह फैलती हैं। प्रकाश के साथ मिलकर, तिहरा -समूह (हवा, बादल और बिजली का) जोर से गर्जना करता है, और पृथ्वी पर आस-पास पानी गिरता है ”।
उदीरयथा मरुत: समुद्रतो यूयं वृष्टिं वर्षयथा पुरीषिणं:।
न वो दस्त्रा उप दस्यन्ति धनेव: शुभ यातामनु रथा अवृत्सत।। आर.वी. V,55.5।|
इस श्ल्रोक में समझाया गया है कि बादल से चलने वाली हवाएँ समुद्र से पानी उठाती हैं और पानी से परिपूर्ण होकर वर्षा करती हैं। इसी प्रकार, हवाओं को वर्षा का कारण मानने वाले श्लोक (।, 19.3 - 4;।,165.1) में आसानी से पढ़ा जा सकता है; और उनके बादलों के साथ संबंध को
ऋग्वेद के श्लोक (।,19.8 में इस प्रकार बताया गया है:
ये महो रजसो विदुर्विश्वे देवासो अद्रुह:। मरुद्मिरग्न आ गहि।।
या उग्रा अर्कमानृचुरनाधृष्टास ओजसा भरुद्भिरग्न आ गहि।। आर.वी. ।,19.3-4।।
अ ते तन्वन्त रश्मिभिस्तिर: समुद्रमोजसा।
मरुद्भिरग्न आ गहि।। आर.वी.I,19.8।
उपरोक्त दोनों श्लोक वर्षा के कारण को बताते हैं, जो वर्षा के नीचे आने और शाश्वत कानून के क्रियान्वयन का नियंत्रण करते हैं।
ऋग्वेद के निम्नलिखित स्तुति गीत (I,38.7) से पता चलता है कि किस तरह से नमी वाली हवाएँ रेगिस्तान के क्षेत्र में भी कुछ वर्षा लाती हैं।
सत्यं त्वेषा अमवन्तो धन्वज्विदा रुद्रियास:।
मिहं कृण्वन्त्यवाताम्।| आर.वी.I,38.7।
ऋग्वेद के श्लोक (V, 53.6- 7 से हमें ऋग वैदिक आर्यों के वर्षा करने में यज्ञ, वनों और बड़े जलाशयों के सकारात्मक प्रभाव के ज्ञान के बारे में भी पता चलता है।
आ यं नर: सुदानवो ददाशुर्षे दिवः कोशमचुच्यवु:।
वि पर्जन्यं सृजन्ति रोदसी अनु धन्वना यन्ति वृष्टय:।।
ततृदाना: सिन्धव: क्षोदसा रज: प्र सस्त्रुर्धेनवो यथा।
स्यन्ना अश्वा इवाध्वनो विमोचने वि यद्वर्त्तन्त एन्य:॥। आर.वी.V.,53.6-7।।
ऋग्वेद का निम्नलिखित स्तुति गीत (V,53.17) इंगित करता है कि हवायें त्रेसठ प्रकार की होती हैं। हालांकि, उनके जलवायु और मौसम संबंधी निहितार्थ अभी भी अप्रकाशित हैं और उन्हें केवल पौराणिक कथाओं के रूप में माना जाता है।
सप्त मे सप्त शाकिन एकमेका शता दुद:।
यमुनायमधघि श्रुतमुद्राधो गत्यं मृजे नि राधो अश्वयं मृजे।।आर.वी.V,53.17।|
ऋग्वेद में मानसून का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है, लेकिन मारुत के भजन इसका संतोषजनक विवरण देते हैं। हालांकि, बाद के काल में यजुर्वेद संहिता में मानसून स्पष्ट रूप से सलिलवात् (तैथरिया ।V.4.12.3) के रूप में संदर्भित किया गया है।
वर्च इदं क्षत्र सलिलवातमुग्रम्।।
धर्त्री दिशां क्षत्रमिदं दाधारोपस्थाशानां मित्रवदस्त्वोज:।। टी.एस.,4.4.2.3।।
हालांकि, वर्षा वाली हवाओं का एक बेहतर संदर्भ ऋग्वेद (आर.वी.X.137.2 और I,19.7) में दिया गया है।
द्वाविमौ वाता वात आ सिन्धोरा परावत:।
दक्ष ते अन्य आ वातु परान्यो वातु यद्रप:।॥ आर.वी.X,137.2 ।।
ऋग्वेद के छंद, VIII. 7.4 में, मिह शब्द का अर्थ है धुंध, जिसे कोई आसानी से वर्षा से भिन्न नहीं कर सकता, यदि मात्रा को ध्यान में रखा जाता है, अन्य स्थानों पर इसका अभिप्राय वर्षा भी होता है।
वपन्त मरुतो मिहंप्रवेपयन्ति पर्वतान। यद्याम॑ यन्त वायुभि:।॥| आर.वी.VII।,7.4 ।।
पर्यावरण को शुद्ध करने और वर्षा करने में यज्ञ का महत्व ऋग्वेद (RV.X,98.4; X,98.6 / 12; X.98.7 और X, 98.11) में निम्नानुसार बताया गया है:
आनो द्वाप्सा मधुमन्तो विशान्त्विन्द्र देहयाधिरथं सहत्त्रम्।
निषीद होत्रमृतुथा यजस्व देवान्द्रे वाये हविषा सर्प्य।॥ आर.वी.X.98.4।।
अस्मिन्त्समुद्रे अध्युत्तरस्मन्न्पो देवोभिर्निवृता अतिष्ठन्।
ता अद्रवन्नाष्टिंणेन सृष्टा देवापिना प्रेषिता मृक्षिणीषु।।आर.वी.X.98.6/12।|
ये भजन स्पष्ट रूप से वर्णन करते हैं कि सूर्य की किरणों द्वारा एकत्रित पानी को आकाश में सुरक्षित रूप से रखा जाता है, और वर्षा पैदा करने के लिए, किसी को जानकार पुजारी की मदद लेनी चाहिए, जो वर्षा के लिए उचित यज्ञ करेंगे। इसका तात्पर्य है कि वर्षा मौसम और
बादल गठन का परिणाम है। अन्य तीन वेद, अर्थात् साम, यजुर और अथर्ववेद जलवायु विज्ञान और मौसम विज्ञान के बारे में कुछ अतिरिक्त जानकारी प्रस्तुत करते हैं जो ऋग्वेद में नहीं है। चूँकि ये तीनों वेद कालक्रमानुसार बाद के काल के हैं, इसलिए यह आसानी से देखा जा सकता है बाद के वैदिक काल में जल विज्ञान ने काफी आगे तक प्रगति की।
यह कि समुद्र, हवा और नमी की एक घटना है वर्षा, यह बाद के वैदिक काल से स्पष्ट रूप से ज्ञात था। तैथरिया के श्लोक में कहा गया है ,”हे मारुत तुम समुद्र से वर्षा गिराते हो, जो नमी से भरपूर हैं (TS.॥, 4.8.2)"।
वृष्टय: उदीरयथा मरुत: समुद्रतो दूय॑ वृष्टिं वर्षयधा पुरीषिण:।
सृजा वृष्टिं दिव अद्विभः समुद्रं पृण।। टी.एस.II,4.8.2।|
तैथरिया में, यह भी स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि वायु परिसंचरण वर्षा के होने में एक निश्चित भूमिका निभाता है। यह इस प्रकार कहा गया है: "वस्तुतः विविध रंगों जैसे होकर वे (पवन) परजन्या से वर्षा करते हैं (TS,॥ 4.9.I)।
मारुतनसि मरुतामोज इति कृष्णं वास: कृष्णंतूषं परि धत्त् एतद्वै
वृष्टये रुषं सरुप एव भूत्वा पर्जन्यं वर्षयति रमयत मरुत: श्येनमायिनमिति पश्चाद्वातं प्रति मीवति पुरोवातमेव जनयति वर्षस्यावरुद्वयै वातमामानि जुहोति वायुर्वे वृष्टया ईशे
वायुमेव स्वेन भागधेयेनोप धावति स एवास्मै पर्जन्यं वर्षयस्य ष्टौ।| टी.एस.II,4.9.।|
पश्चिम की हवा और वर्षा धारण करने वाले मानसून या पूर्व की हवा के विषय में इन पंक्तियों में बताया गया है - “हे मारुत रुको, तेज बाज़ (इन शब्दों के साथ), वह पश्चिम हवा को पीछे धकेलता है: वास्तव में वह वर्षा करने के लिए पूर्वी हवा पैदा करता है। वह हवा के
नाम की पेशकश करता है, हवाएं वर्षा को नियंत्रित करती हैं (TS.॥, 4.9.1)।
ऋग्वेदिक समय के दौरान, शायद आर्यों को यह भी पता था कि पौंधों (या जंगलों) का वर्षा के होने पर कुछ प्रभाव था।
सौभययैवाह्त्या दिवो वृष्टमव रुन्धे मघुषा सं यौत्यपां वा एष ओषधीनां रसो यन्मध्वभदय एवौषधीभयो वर्षत्यथो अद्भय एवौषघीभयो वृष्टिं नि नयति।। टी.एस.II,4.9.3।।
ऋग्वेद की तरह, यजुर्वेद भी हवा, पानी और सम्पूर्ण पर्यावरण को शुद्ध करने में यज्ञ (बलिदान) के प्रभाव के बारे में बताता है, जो वर्षा के होने में मदद करता है। यजुर्वेद के स्तोत्र ।,12 इस प्रकार हैं:
पावत्रे स्थो वैष्णव्यौ सवितुर्व: प्रसव उत्पुनाभयाच्छिदेण पवित्रेण सूर्यस्थरश्मिभि:।
देवीरापोअग्रेगुवोअग्रेपवोग्रइममघ यज्ञनयताग्रे यइपतिंसुधातु यज्ञपतिंदेवयुवम्।| वाई.वी.II,12 ।।
इस मंत्र (भजन) में कहा गया है कि जल, वायु आदि पदार्थ प्रदूषित हो जाते हैं और यदि वे आग (यज्ञ की मदद से) से छोटे छोटे कणों में टूट जांयेंगे तो वे शुद्ध हो जायेंगे और शुद्ध वर्षा होगी । यजुर्वेद के भजन (VI.10) में कहा गया है कि यज्ञ में प्रयुक्त सामग्री सूर्य के आकर्षण के कारण छोटे छोटे परमाणुओं में विभाजित हो जाती हैं और आकाश में चढ़ जाती है। इससे भरपूर वर्षा होती है। इसी तरह तथ्यों को यजुर्वेद के VI - 16 और X॥-12 भजन में भी इस प्रकार प्रकट किया गया है:
अपां पेरुरस्यापो देवी: स्वदन्तु सवात्तं चित्सद्देवहवि:।
सं तेप्राणो वातेन गच्छतों समड्गानि यजत्रै: सं यज्ञपतिराशिषा।| वाई.वी.V॥,0।।
वेदों में कई स्थानों पर धुंध को नीहार की संज्ञा इस प्रकार दी गयी है (वाजसनेयी संहिता 17.31):
नतंविदाथ य इमा जजानान्यघुष्माकमन्तरं बभूव।
नीहारेणप्रावृता जल्पा चासृनूप उक्थशासश्चरन्ति।| वी.एस. XVII,31।।
यजुर्वेद में जल निकायों और महासागरों पर धुंध या कोहरे की अपार सघनता के बारे में ज्ञान था "आप धुंध से भरे महासागर हैं"। यह भी ज्ञान था कि शुद्ध पानी वर्षा के माध्यम से सभी चीजों को शुद्ध करता है “संभवतः जल, माँ के सामान हमारे शरीरों को शुद्ध करता है
(YV.iV.2-3)।
आपो अस्मान्मातर: शुध्रयन्तु घृतेन घृतप्व: पुनन्तु।
विश्व हि रिप्रं प्रवहन्त देवी:।
उदिदाभय: शुचिरा पूत एमिदीक्षातपसोस्तनूरसि
तां त्वा शिवा शग्मा परि दधे भद्रं वर्ण पुष्यन्।। वाई.वी.IV.2।|
सूर्य को बादलों के फैलाव और वर्षा के कारण के रूप में जाना जाता था "हे सूर्य, तुम पृथ्वी के विभिन्न भागों में वर्षा लाते हो "
महीनां प्योसि वचोदा असि वर्चो मे देहि।
वृत्रस्यासि कनीनकरचक्षुर्दा असि चक्षुर्मे देहिं।। वाई.वी.IV,3 ।।
सामवेद वर्षा के भगवान को लुभाने पर अधिक जोर देता है। यह स्पष्ट रूप से कहता है कि सूर्य की शाश्वत शक्ति बादलों में प्रवेश करती है और इस तरह वर्षा का कारण बनती है (एस.वी.पूर्व ॥. 179)। यह भी बताया गया है कि सूर्य हवा की मदद से घूमती पृथ्वी पर वर्षा का
पानी बरसाता है (एस.वी.पूर्व ॥. 148) यथा ;
यदिन्द्रो अनयाद्रितो महीरयो वृषन्तपः।।
तत्र पूषा भुवत्सचा।| एस.वी.पूर्व II.179 ।।
इन्द्रो दधीचो अस्थभिर्वृ त्राण्यप्रतिष्कुत:।
जधान नवतीर्नव।। एस.वी.पूर्व II. 148।।
सामवेद के अन्य श्लोक (V.562; अंतिम V.906; और अंतिम X.1317) वर्षा की प्रक्रिया के साथ भगवान की दया और महानता और शक्ति पर चर्चा करते हैं। श्लोक SV अंतिम, XX.1802 में
स्पष्ट रूप से भगवान द्वारा भारी वर्षा के कारण महासागरों, नदियों आदि के निर्माण का उल्लेख है।
असावि सोर्मो अरुषो वृषा हरी राजेव दस्मो अभि गा अचिक्रदत्।
पुनामो वारमत्येष्यव्ययं श्येनो न योनि घृतवन्तमासदत्।| एस.वी.पूर्व,V.562 ।॥
आ पवमान सुष्दुति वृष्टि देवोम्यो दुवः।
इषे पवस्व संयतम्।। एस.वी.अंतिम,V.906 ।।
त्व सिन्धू खासृजोधराचो अहन्नहिम्।
अशत्रुरिन्द्र जज्ञिसे विश्वंपुष्यसि वार्यम्।
तन्त्वा परि ष्वजामहे नभन्तामन्थकेषां ज्यांकाअधिधन्वसु। ।एस.वी.अंतिम,XX.1802 ।।
अथर्ववेद में हमें इसी तरह की अवधारणाओं और जल विज्ञान संबंधी ज्ञान मिळता है जैसा अन्य वेदों में निहित हैं। उदाहरण के लिए, श्लोक (I,4.3), इस प्रकार है:
अपोदेवी रुपं हवये यत्र गाव: पिवन्त नः।
सिंन्धुभय: कर्त्व हवि:।। ए.वी.I,4.3।|
इस श्लोक में सूर्य की किरणों के ताप से वाष्पीकरण और बाद में जीवन देने वाली वर्षा की अवधारणा का पता चलता है। अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त (XII, 1.51) में एक हिंसक धूल भरे तूफान के बारे में वर्णन है, जो पेड़ों को उखाड़ फेंकता है और इसे मातरिश्वा: कहा गया है ।
यां द्विपाद: पक्षिण: संपतन्त हंसा: सुपर्णा: शकुना वयांसि।
यस्यां वातो मातरिश्येयते रजांसि कृष्वंच्यावयंश्च वृक्षान्।
वातस्य प्रवामुपवामनुवात्यर्चि:।। ए.वी. XII.1.5।|
ऋग्वेद के विभिन्न भजनों से संकेत मिलता है कि वैदिक साहित्य पौराणिक रूप से भारतीय वायुमंडलीय घटनाओं, विशेष रूप से मानसून और वर्षा ऋतु के मौसम और आमतौर पर उनके साथ आने वाली प्रचंड आंधी तूफान का वर्णन करता है । ऋग्वेद के बाद, सतपथ ब्राह्मण में भी तिरसठ प्रकार की हवाओं को माना गया है, (SB भाग। 2.5.1.13)। उसी पाठ में सफेद पाले को पश्वा नाम से पुकारा गया है।
त्रि: प्रष्टत्वा मरुतो वावृधाना उस्त्रा इव राशयो यज्ञियास:।
उप त्वेम: कृधि नो भागधेयं शुष्म॑ त एना हविषा विधेम।। आर.वी. VIII,96.8।।
तैथिरिया अरण्यका (1.9.8) में कहा गया है कि वायुमंडल में सात प्रकार की वायु धाराएं या हवाएं हैं जो उसी तरह के सात प्रकार के बादल पैदा करती हैं। ये हैं (1) वराहव (2) स्वतपस (3)
विधन्महस (4) धूपम (5) श्वापय (6) गृहमेघ और (7) आशिमिविद्विष।
वराहव उन परिस्थितियों का निर्माण करता है जो संघनन और अच्छी वर्षा के लिए जिम्मेदार हैं। स्वतपस वह है, जिसके तापमान की स्थिति पर ऊचष्मा या सूर्य का बहुत कम प्रभाव पड़ता है और शायद यह अधिक ऊंचाई पर होता है और वर्षा के लिए जिम्मेदार होता है। मंत्र का मूलपाठ इस प्रकार है:
तातनुक्रमिष्याय: वरावस्स्वतपस: । विघुन्मय सो धूपय:।।
श्वापयोगृहमेघाश्वेत्येते । पे चेमेशिमिविद्विप:। पर्जन्यास्सप्त पृथिवीममि वरषन्ति। वृष्टभिरति।| ताई.अरा..I.,9.8।|
विघुन्महस आंधी को जन्म देता है; धूपम में कुछ गुप्त गुण या सुगंध होती है जो यह जल्दी से विस्तार कर उन वस्तुओं को प्रदान करता है जिनके साथ यह संपर्क में आती है, और गृहमेघ वातावरण की नमी या आर्द्रता को प्रभावित करता है। ये छह एक ही वंश के हैं और एक ही या समान गतिविधि क्षेत्र रखते हैं। आशिमिदिद्विष का संबंध अन्य वंश से है और उसका भौगोलिक प्रदेश या क्षेत्र पूर्ववर्ती छह से अलग है; हालांकि, यह कृषि उद्देश्यों के लिए अत्यधिक अनुकूल है। बादलों के ये सात वर्ग सात प्रकार की हवाओं के साथ वर्षा लाते हैं।
तैथिरिया अरण्यक के पद ।.10.9 में, दो और प्रकार के बादलों का उल्लेख किया गया है (ताई, आरा,।, 10.9) ये हैं: (१) शम्बर या शाम्बर और (2) बहुसोमगी - पहले वाला प्रचुर वर्षा के लिए जिम्मेदार है, और बाद वाले को "पानी के गतिमान वर्षा मेघ झरने " के रूप में पहचाना जाता है। इस प्रकार, उनके गुणों के साथ कुल नौ प्रकार के बादलों को तैथिरिया अरण्यका में पहचाना गया है।
सवितारं वितन्वन्तम्। अनुवध्नाति शाम्वर:। आपपूरषम्ब्र श्वैव।
सवितांरेपसोभक्त।| I,10.8।
त्यं सुतप्तृं विदित्वैव। बहुसोमगीरं वशी।।
अन्वेति तुयोवाक्रियां तम्। आ यसूयान्श्सोमतृप्सूषु।| ताई-अरा.I,10.9।|
इसी प्रकार से, महाकाव्यों के दौरान हमें बादलों, वर्षी, वाष्पीकरण, हिम, तूफानों आदि के बारे में जानकारी मिलती है। रामायण के छंद VII.4.3 में तीन प्रकार के बादलों के बारे में बताया है - ब्राहम (ब्रह्मा से उत्पन्न), अग्नेय (अग्नि से उत्पन्न) और पक्षज (एक पर्वत गुच्छे पर निर्मित)। सफ़ेद, लाल, नीले और स्लेटी बादलों का भी उल्लेख महाकाव्य (V.1.81) में इस प्रकार किया गया हैः
पाण्डुरास्णवर्णानि नीलमाज्मिष्ठकानि च।
कपिना कष्यमाणनि महाभ्राणि चकाशिरे।| राम. V,1.81।
हरितास्णवर्णानि महाभाणि चकाशिरे।। राम. V,57.7 ।।
जलवायु संबन्धी अनपेक्षितता या वर्षा की अनुपस्थिति का उल्लेख रामायण (1.9.9) में इस प्रकार किया गया है:
अनावृष्टि: सुघोरा वै सर्वलोकभयावहा।| राम. I,9.8।|
अनावृष्ठयां तु वृत्तायां समानीय प्रवक्ष्यति।| राम. I,9.9 ।।
यहाँ, यह अप्रत्यक्ष रूप से धूल, कोहरे, पाले और धुंध से मुक्त वातावरण की बात करता है। इसी तरह, निशाचर आकाश (नीहार या तुषार से चंद्रमा) की स्थिति का रामायण (1.29.25) में उल्लेख इस प्रकार किया गया है:
शशीव गतनीहार: पुनर्वसुसमन्वित:।| राम. ।,29.25।
धुंध और तापमान में वृद्धि के माध्यम से इसके गायब होने का उल्लेख रामायण के।,55.25 श्लोक में, धुंध और भीषण ठंड का उल्लेख ॥I 16.12 में, पश्चिमी ठंडी हवाओं के उसके ( पाले) कारण और ठंडी होने का उल्लेख ॥I, 6.15 में, पृथ्वी की सतह के आसपास के क्षेत्र में बहुत घनी धुंध का उल्लेख ॥I.16.23 में , नदी संरचना की सतह पर लटकी पानी वाष्प का उल्लेख ॥I ,16.24 में , किनारों की रेतीली सीमाओं पर ओस के गठन का उल्लेख ॥I, 16.24 में और बर्फबारी का उल्लेख ॥I, 16.25 में किया गया है । ये श्लोक यहाँ दिए गए हैं:
वदतौ वै वसिष्ठस्य या भैरिति मुहुर्मुहु:।
नाशायाम्यघ: गाधेयंनीहारमिव भास्कर:।| राम. I,55.25।।
निवृत्ताकाशशयना: पुष्यनीता हिमारुणा:।
शीतवृद्वतरायामास्त्रियाना यान्ति साम्प्रतम्।| राम. III,16.12 ।।
प्रकृत्या शीतलस्पर्शो हिमविद्वश्च साम्प्रतम्।
प्रवाति पश्चिमो वायु: काले द्विगुणशीतल:।। राम. III,16.15।|
अवश्यायतमोनद्वा नीहारतमसावृता:।
प्रसुप्ता इव लक्ष्यन्ते विपुष्या वनराजय:।। राम. III,16.23।।
वाष्पसंक्षननसलिला रुतविज्ञेयसारसा:।
हिमद्रिवालुकैस्तीरै: सरितो भान्ति साम्प्रतम्।। राम. III,16.24 ।।
तुषारपतनाच्चैव मृदुत्वाद् भास्करस्य च।
शैत्यादगाग्रस्थमपि प्रायेण रसवज्जलम्।| राम. III,16.25।|
रामायण के श्लोक ।V, 1.15 में पहाड़ी हवाओं के बारे में बताया गया है। एक अन्य श्लोक (VI, 78.19) में हम धूल भरी, सूखी और झोके वाली हवा के बारे में पढ़ते हैं। बाद में रामायण (VI, 106.21) में प्रचण्ड तूफान या बवंडर का भी उल्लेख किया गया है (Vi,106.21,
वाता मण्डित्रनस्तीवा:।
शैलकंदर निष्क्रान्त: प्रगीत इव चानिल:।। राम. iV,1.15।|
रामायण की तरह, महाकाव्य महाभारत में भी जलविज्ञान से संबंधित बहुमूल्य जानकारी है। महाकाव्य के बारहवें स्कंद (स्कंद, क्षेत्र, X॥ 328.31) में वायु-मंडल को सात क्षेत्रों में विभाजित किया गया है और "वह वायु जो ऊपर दिए नम्बरों में पहले स्थान पर है और जिसे पवह नाम से जाना जाता है, पहले क्रम के साथ, धुएं और गर्मी से पैदा हुए बादलों को संचालित करती है । इस प्रकार, इस समय के दौरान, बादलों के घटकों का भी पूर्वानुमान था। यह हवा आकाश से
गुजरती है और बादलों में पानी के संपर्क में आती है (एम.बी. X॥, 328.36) इस प्रकार है:
पृथिव्यायन्तरिक्षे च यत्र संवान्त वायव:।
सप्तैतेवायुमार्गा वै तान् निवोधानुपूर्वशः:।। एम.बी. VII,328.31।|
प्रेरयत्यभ्रसंधातान धूमजांश्चोष्मजांष्व य:।
प्रथम: प्रथमे मार्गे प्रवहो नाम योनिल:।। एम.बी. 328.36 ।।
दूसरी वायु जिसे आवह कहा गया है, तेज आवाज के साथ बहती है (एम.बी. XII. 329.37)। जो हवा चारों महासागरों से पानी पीती है और उसे चूसती है, इसे बादलों को देती है, उन्हें वर्षा के देवता के सामने प्रस्तुत करती है, यह तीसरे नंबर पर है और इसे उत्दह के रूप में जाना जाता है (एम.बी. XII 328.38-39-40)।
अम्बरे स्नेहमम्येत्य विधुदभयश्च महाघुति:।
आवहो नाम संमवाति द्वितीय: श्वसनो नदन्।। एम.बी. VII,328.37।|
उदयं ज्योतिषां शश्वत सोमादीनां करोति यः।
अन्तर्देहेषु चोदानं यं वदान्त मनीषिण:।। एम.बी. VII,328.38।।
यश्चतुभर्य: समुद्रेभयो वायुर्धारियते जलम्।
उद्दत्याददते चापो जीमूतेम्योम्बरे बिल।| एम.बी. ,>त,328.39।|
योदिभ: संयोज्य जीमूतान पर्जन्याय प्रथच्छति।
उत्दतो नाम बंहिष्ठस्तृतीय: स सदागति:।। एम.बी. VII,328.40 ।।
हवाएँ जो बादलों का सहारा देती हैं और उन्हें विभिन्न भागों में विभाजित करती हैं, जो उन्हें वर्षा करने के लिए पिघला देती हैं और उन्हें एक बार फिर जमा देती हैं, जिन्हें बादलों की गर्जना वाली आवाज़ के रूप में पहचाना जाता है, उन्हें संवह नाम से जाना जाता है- पांचवीं परत को विवह कहा जाता है और छठी को परिवह कहा जाता है। सातवी परत जिसे परावह कहा जाता है शायद कुछ लौकिक क्षेत्र को संदर्भित करती है (एम.बी. XII.328.41-42-43-47-48)।
समूहयमाना बहुधा येन नीता: पृथक घना:।
वर्षमोक्षकृतारम्भास्ते भवन्ति घनाघना:।। एम.बी. XII,328.4]।|
संहता येन चाविद्वा भवन्ति नदतं नदा:।
रक्षणार्थाय सम्भूता मेघत्वमुपयान्ति च।। एम.बी. XII,328.42।।
यो सौ वहति भूतानां विमानानि विहायसा।
चतुर्थ: संवहो नाम वायु: स गिरिमदिन:।। एम.बी.XII,328.43।|
दारुणोत्यातसंचारो नभस: स्तनयित्नुमान।
'पज्चम: स महावेगो विवहो नाम मारुत:।। एम.बी.XII,328.48।
षष्ठ: परिवहों नाम स वायुर्जयतां दर:।। एम.बी.XII,328.45।|
येन स्पृष्ट:पराभूतो यात्येव न निवर्तते।
परावहो नाम परो वायु: स दुरतिक्रम:।। एम.बी.XII,328.52।
यहां, पांच स्थानों पर, प्रयुक्त किये गये पारिभाषिक शब्द हवा का वास्तविक अर्थ एक गोला या परत है। ये पांच नाम पुराणों और अन्य बाद के साहित्य में भी पाए गए हैं। महाकाव्य बादलों के चार वर्ग देकर भी बादलों का एक और वर्गीकरण देता है। बादलों के चार प्रकार हैं
संवर्तक, वल्लाहक (एम.बी. VIII, 34.28), कुण्डधार (XII 271.6) और उतंक (एम.बी. XIV 55.35-36-37)। वलाहक बादल वायुमंडल की विवह परत (पहले वर्णित) में बनते हैं। रेगिस्तानी क्षेत्र में वर्षा
लाने वाले बादलों को उतंक कहा जाता है। बादलों का ये वर्गीकरण रामायण और पुराणों में वर्णित वर्गीकरण से अलग है।
सोथ सौम्येन मनसा देवानुचरयन्तिके।
प्रत्यप्श्यज्जलधरं कुण्डधारमवस्थितंम्।। एम.बी. ,XII,27.6।।
तदा मरौ भविष्यन्ति जलपूर्णा: प्योधरा:।
रसवच्च प्रदास्यन्ति तोयं ते भगुनन्दन,
उत्तक्ड़मेघा इत्युक्ता: ख्याति यास्यन्ति चापि ते।। एम.बी.,XIV,55.36।।
लगभग 600-700 ईसा पूर्व में, कणाद ने अपने वैशिका सूत्र में पानी की संघनन और विघटन प्रक्रिया का उल्लेख किया है (वैस. सूत्र, 2.8)। उन्होंने टिप्पणी की है "पानी का संघनन और विघटन आग या गर्मी के साथ संयोजन के कारण है”। मेघगर्जन की घटना के बारे में,
उनका कहना है कि " मेघगर्जन आकाश के प्रकाश के प्रवेश का एक निशान है (वैस.सूत्र, V, 2.9)", यानी यह मेघ गरजना है जो प्रवेश का अधिकार देती है। वह फिर कहता है (वैस.सूत्र. वी, 2.11) कि मेघगर्जन के परिणामस्वरूप पानी के साथ संयोजन और बादल से विघटन होता है। यह पूरी तरह से स्पष्ट है कि महान ऋषि जानते थे कि मेघगर्जना धनात्मक और ऋणात्मक आवेशित के बादलों के प्रभाव के कारण होती है।
अपां सड्घातो विलयनज्व तेज: संयोगात्।| वै.सूत्र V,2.8 ।।
तत्र विस्फूर्ज थुर्लिंड्गम् ।। वै.सूत्र V,2.9।।
अपां संयोगाद्विभागाच्च स्तनयित्नो:।। वै.सूत्र V.2.11।।
वर्षा की बूंदों के गिरने और धाराओं के प्रवाह पर चर्चा करते हुए, उन्होंने आगे संयोजन के अभाव में गुरुत्वाकर्षण से पानी के गिरने के कारणों को प्रस्तुत किया है (वैस.सूत्र. वी, 2.3) अर्थात
वर्षा के रूप में पानी के गिरने में, गुरुत्वाकर्षण गैर-संयोगी कारण है।
अपां संयोगाभावे गुरुत्वात् पवनम्।| वै.सूत्र V,2.3।।
श्लोक V 2.4, में यह कहा गया है कि धारा या गिरते हुए पानी या वर्षा की बूंदों के आपसी संयोजन से बनी विशाल जलीय इकाई का दूर दूर तक प्रगमन, गुरुत्वाकर्षण के यथार्थ कारण और तरलता के गैर- संयोगी कारण द्वारा निर्मित होता है।
द्रवत्वात स्यन्दनम्।| वै.सूत्र V,2.4 ।।
वाष्पीकरण, बादल बनने, बादलों के वर्गीकरण और हवाओं या वायुमंडल के क्षेत्रों (वातस्कन्ध) के साथ उनके संबंधों पर भी कई पुराणों (वायु अध्याय 51, लिंगा खंड 1, अध्याय 36, मत्स्य खंड.। अध्याय 54) में काफी संतोषजनक रूप से चर्चा की गयी है। बादलों की सामान्य उत्पत्ति के बारे में बताते हुए वायु पुराण (51.22-25) में कहा गया है कि दुनिया की सभी चल या अचल वस्तुओं में नमी होती है और आतपन या सूर्य की किरणों के कारण उस नमी का वाष्पीकरण होता है और इस प्रक्रिया से बादलों की उत्पत्ति होती है। अर्थात
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