नदी जल विवाद : पुनः जल निर्धारण की उठाई मांग, पानी घटने पर अपने तर्क भी गिनाए
चंडीगढ़। अन्तरराज्यीय नदी जल विवाद निपटारे के लिए योग्य ट्रिब्यूनल के गठन की मांग करते हुए पंजाब ने सुप्रीम कोर्ट में दस्तक दे दी है। मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के निर्देशानुसार प्रदेश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में भारतीय संविधान की धारा 131 के तहत केस दायरकर केन्द्र सरकार को अन्तरराज्यीय नदी जल विवाद निपटारा कानून-1956 के सेक्शन 4 के तहत योग्य ट्रिब्यूनल गठित करने और पंजाब द्वारा बहुत पहले उक्त कानून की धारा 3 के तहत दायर शिकायत के निर्णय के लिए आवश्यक निर्देश देने की मांग की है।
पंजाब ने शीर्ष कोर्ट से की अपील में यह भी निर्णय करने की मांग रखी है कि क्या हरियाणा और राजस्थान रिपेरियन राज्य हैं या नहीं। सीएम ऑफिस के एक प्रवक्ता ने बताया कि राज्य सरकार ने बहुत पहले केन्द्र सरकार से अनुरोध किया था कि समय बीतने के साथ रावी-ब्यास नदी के जल में हुई कमी के मद्देनजर पुनः वितरण हेतु जल विवादों के निपटारे के लिए योग्य ट्रिब्यूनल गठित किया जाए।
हरियाणा ने गंवाया अधिकार
पंजाब सरकार ने दावा किया है कि रावी ब्यास के पानी पर पहला हक पंजाब का है, जहां पहले ही पानी की कमी है। हरियाणा ने यमुना बेसिन क्षेत्र में 12 मई 1994 को यमुना समझौता कर और शारदा यमुना लिंक चैनल का प्रोजेक्ट बनाकर रावी ब्यास के पानी से अधिकार पूरी तरह से गवां लिया है। ब्यास नदी के पानी की यदि यमुना बैसिन क्षेत्र को सप्लाई की जाती है तो इससे पहले ही पानी की कमी से जूझ रहे पंजाब के फिरोजपुर, फरीदकोट, श्री मुक्तसर साहिब, मोगा, संगरूर, मानसा और बठिंडा जिलों में सूखा और बढ़ जाएगा। इन क्षेत्रों को राज्यों के पुनर्गठन से पूर्व कानूनी तौर पर पानी का वितरण किया गया था और बीते पाँच दशकों से ये क्षेत्र रिपेरियन सिद्धांत के अनुसार इस पानी का इस्तेमाल करते आ रहे हैं। इसलिए इस क्षेत्र को नदी जल पर आधारित नहरी पानी की सप्लाई अनिवार्य है, क्योंकि इन क्षेत्रों में फिरोजपुर, फरीदकोट, श्री मुक्तसर साहिब, बठिंडा आदि में भू-जल भी खारा है और यह पानी खेती सिंचाई के लिए इस्तेमाल योग्य नहीं है।
1981-2002 तक के पानी बहाव के आंकड़ों के अनुसार रावी-ब्यास नदियों में जल उपलब्धता 17.17 एमएएफ से घटकर 14.37 एमएएफ रह गई थी, जबकि 1981-2013 तक के जल बहाव के आंकड़ों के अनुसार पानी की यह उपलब्धता 13.38 एमएएफ तक घट चुकी है। पंजाब में भू-जल के गिरते स्तर, वातावरण परिवर्तन और 12 मई 1994 के उत्तर प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश के बीच हुए यमुना समझौते के अनुसार यमुना बेसिन क्षेत्रों को 4.65 एमएएफ पानी दिए जाने से उपलब्धता और भी घटी है।
कोर्ट में तर्क दिया गया है कि केंद्र भू-जल बोर्ड सर्वेक्षण के अनुसार राज्य में सिंचाई के लिए नदी जल की कमी के कारण पंजाब के 138 ब्लॉकों में से 110 ब्लॉकों में भू-जल का सीमा से अधिक प्रयोग करना पड़ा है। केस में मांग की गई है कि इन स्थितियों के मद्देनजर केन्द्र सरकार को निर्देश दिए जाएं कि वह पंजाब की मांग के अनुसार नदी जल विवाद निपटारे के लिए ट्रिब्यूनल का गठन करे। राज्य सरकार ने यह भी तर्क रखा है कि सैद्धांतिक तौर पर 20-25 वर्ष बाद पानी का वितरण फिर से किया जाना बनता है।
राज्य सरकार ने अपनी अपील में कहा है कि नदी जल विवाद कानून के तहत किसी भी राज्य द्वारा शिकायत मिलने के एक वर्ष में ट्रिब्यूनल का गठन किए जाने का नियम है, लेकिन पंजाब द्वारा 10 वर्ष पूर्व भारत सरकार के पास दिए आवेदन पर भी इतना लम्बा समय बीत जाने के बावजूद कोई कार्यवाई नहीं हुई है। पंजाब लम्बे समय से इस संबंध में लिखित तौर पर केन्द्र से यह मसला उठाता रहा है और खुद सीएम भी समय-समय पर यह मुद्दा केन्द्र सरकार के पास उठाते रहे हैं।
शीर्ष कोर्ट के तेज-तर्रार वकील करेंगे मामले की पैरवी
एसवाईएल का पानी हासिल करने के लिए हरियाणा सरकार सुप्रीम कोर्ट में केस दायर करेगी। राज्य सरकार इसके लिए सुप्रीम कोर्ट के तेज-तर्रार और वरिष्ठ वकीलों की टीम खड़ी करेगी। सुत्रों का कहना है कि टॉप के वकीलों को तलाश करने का जिम्मा प्रदेश के महाधिवक्ता बलदेव राजमहाजन को सौंपा गया है। एसवाईएल मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 2002 में हरियाणा के पक्ष में फैसला सुनाया था तो जुलाई 2004 में पंजाब विधानसभा ने इस मामले में बिल पास कर दिया, जिससे हरियाणा को अब तक पानी नहीं मिल पाया। अब पंजाब पानी के फिर से बंटवारे के मामले में सुप्रीम कोर्ट चला गया है। मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर पहले ही कह चुके हैं कि वह इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में लड़ाई लड़ेंगे, जैसे ही मुख्यमंत्री का यह बयान आया उसके तुरन्त बाद पंजाब ने इस मामले में हरियाणा से पहले ही सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा दिया।
राज्य सरकार के प्रवक्ता ने स्पष्ट किया कि मुल्लापेरियार मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के उपरांत यह स्थापित कानून हो गया है कि अंतरराज्यीय नदियों के पानी से संबंधित हुए समझौतों को एक तरफा समाप्त करना कानून की दृष्टि से अपुष्ट है। उन्होंने कहा कि पंजाब सरकार द्वारा उठाए गए कदम में हरियाणा के हक में दिये गए फैसले को लागू करने में विलंब करने की एक सोची-समझी चाल है। हरियाणा सरकार सतलुज-यमुना संपर्क नहर को शीघ्र पूरा करवाने तथा हांसी-बुटाना नहर को शीघ्रातिशीघ्र चालू करवाकर किसानों को न्याय दिलवाने के लिए प्रतिबद्ध है। प्रवक्ता ने कहा कि हरियाणा सरकार राष्ट्रपति संदर्भ 2004, जिस पर 2005 के बाद कोई सुनवाई नहीं हुई, पर शीघ्र सुनवाई करने और निर्णय देने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में केस दायर करने जा रही है।
गरमाई सियासत
पंजाब सरकार के रावी-ब्यास के पानी के पुनः आवंटन के लिए ट्रिब्यूनल गठित करने की मांग से अब दोनों राज्यों में सियासत गरमा गई है। हरियाणा और राजस्थान इस मामले में रिपेरियन राज्य है या नहीं के बारे में हरियाणा ने पहले ही सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का निर्णय लिया है। हरियाणा ने त्रि-पक्षीय जल समझौते-1974 को एक तरफा समाप्त करने के पंजाब सरकार के निर्णय की भी आलोचना की है।
ट्रिब्यूनल गठन के लिए शीर्ष पहुंचा पंजाब
चंडीगढ़। अन्तरराज्यीय नदी जल विवाद निपटारे के लिए योग्य ट्रिब्यूनल के गठन की मांग करते हुए पंजाब ने सुप्रीम कोर्ट में दस्तक दे दी है। मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के निर्देशानुसार प्रदेश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में भारतीय संविधान की धारा 131 के तहत केस दायरकर केन्द्र सरकार को अन्तरराज्यीय नदी जल विवाद निपटारा कानून-1956 के सेक्शन 4 के तहत योग्य ट्रिब्यूनल गठित करने और पंजाब द्वारा बहुत पहले उक्त कानून की धारा 3 के तहत दायर शिकायत के निर्णय के लिए आवश्यक निर्देश देने की मांग की है।
पंजाब ने शीर्ष कोर्ट से की अपील में यह भी निर्णय करने की मांग रखी है कि क्या हरियाणा और राजस्थान रिपेरियन राज्य हैं या नहीं। सीएम ऑफिस के एक प्रवक्ता ने बताया कि राज्य सरकार ने बहुत पहले केन्द्र सरकार से अनुरोध किया था कि समय बीतने के साथ रावी-ब्यास नदी के जल में हुई कमी के मद्देनजर पुनः वितरण हेतु जल विवादों के निपटारे के लिए योग्य ट्रिब्यूनल गठित किया जाए।
हरियाणा ने गंवाया अधिकार
पंजाब सरकार ने दावा किया है कि रावी ब्यास के पानी पर पहला हक पंजाब का है, जहां पहले ही पानी की कमी है। हरियाणा ने यमुना बेसिन क्षेत्र में 12 मई 1994 को यमुना समझौता कर और शारदा यमुना लिंक चैनल का प्रोजेक्ट बनाकर रावी ब्यास के पानी से अधिकार पूरी तरह से गवां लिया है। ब्यास नदी के पानी की यदि यमुना बैसिन क्षेत्र को सप्लाई की जाती है तो इससे पहले ही पानी की कमी से जूझ रहे पंजाब के फिरोजपुर, फरीदकोट, श्री मुक्तसर साहिब, मोगा, संगरूर, मानसा और बठिंडा जिलों में सूखा और बढ़ जाएगा। इन क्षेत्रों को राज्यों के पुनर्गठन से पूर्व कानूनी तौर पर पानी का वितरण किया गया था और बीते पाँच दशकों से ये क्षेत्र रिपेरियन सिद्धांत के अनुसार इस पानी का इस्तेमाल करते आ रहे हैं। इसलिए इस क्षेत्र को नदी जल पर आधारित नहरी पानी की सप्लाई अनिवार्य है, क्योंकि इन क्षेत्रों में फिरोजपुर, फरीदकोट, श्री मुक्तसर साहिब, बठिंडा आदि में भू-जल भी खारा है और यह पानी खेती सिंचाई के लिए इस्तेमाल योग्य नहीं है।
घट गई है पानी की उपलब्धता
1981-2002 तक के पानी बहाव के आंकड़ों के अनुसार रावी-ब्यास नदियों में जल उपलब्धता 17.17 एमएएफ से घटकर 14.37 एमएएफ रह गई थी, जबकि 1981-2013 तक के जल बहाव के आंकड़ों के अनुसार पानी की यह उपलब्धता 13.38 एमएएफ तक घट चुकी है। पंजाब में भू-जल के गिरते स्तर, वातावरण परिवर्तन और 12 मई 1994 के उत्तर प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश के बीच हुए यमुना समझौते के अनुसार यमुना बेसिन क्षेत्रों को 4.65 एमएएफ पानी दिए जाने से उपलब्धता और भी घटी है।
काफी गिर चुका है भू-जल स्तर
कोर्ट में तर्क दिया गया है कि केंद्र भू-जल बोर्ड सर्वेक्षण के अनुसार राज्य में सिंचाई के लिए नदी जल की कमी के कारण पंजाब के 138 ब्लॉकों में से 110 ब्लॉकों में भू-जल का सीमा से अधिक प्रयोग करना पड़ा है। केस में मांग की गई है कि इन स्थितियों के मद्देनजर केन्द्र सरकार को निर्देश दिए जाएं कि वह पंजाब की मांग के अनुसार नदी जल विवाद निपटारे के लिए ट्रिब्यूनल का गठन करे। राज्य सरकार ने यह भी तर्क रखा है कि सैद्धांतिक तौर पर 20-25 वर्ष बाद पानी का वितरण फिर से किया जाना बनता है।
आवेदन पर नहीं हुई कार्रवाई
राज्य सरकार ने अपनी अपील में कहा है कि नदी जल विवाद कानून के तहत किसी भी राज्य द्वारा शिकायत मिलने के एक वर्ष में ट्रिब्यूनल का गठन किए जाने का नियम है, लेकिन पंजाब द्वारा 10 वर्ष पूर्व भारत सरकार के पास दिए आवेदन पर भी इतना लम्बा समय बीत जाने के बावजूद कोई कार्यवाई नहीं हुई है। पंजाब लम्बे समय से इस संबंध में लिखित तौर पर केन्द्र से यह मसला उठाता रहा है और खुद सीएम भी समय-समय पर यह मुद्दा केन्द्र सरकार के पास उठाते रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट में केस दायर करेगी हरियाणा सरकार
शीर्ष कोर्ट के तेज-तर्रार वकील करेंगे मामले की पैरवी
एसवाईएल का पानी हासिल करने के लिए हरियाणा सरकार सुप्रीम कोर्ट में केस दायर करेगी। राज्य सरकार इसके लिए सुप्रीम कोर्ट के तेज-तर्रार और वरिष्ठ वकीलों की टीम खड़ी करेगी। सुत्रों का कहना है कि टॉप के वकीलों को तलाश करने का जिम्मा प्रदेश के महाधिवक्ता बलदेव राजमहाजन को सौंपा गया है। एसवाईएल मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 2002 में हरियाणा के पक्ष में फैसला सुनाया था तो जुलाई 2004 में पंजाब विधानसभा ने इस मामले में बिल पास कर दिया, जिससे हरियाणा को अब तक पानी नहीं मिल पाया। अब पंजाब पानी के फिर से बंटवारे के मामले में सुप्रीम कोर्ट चला गया है। मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर पहले ही कह चुके हैं कि वह इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में लड़ाई लड़ेंगे, जैसे ही मुख्यमंत्री का यह बयान आया उसके तुरन्त बाद पंजाब ने इस मामले में हरियाणा से पहले ही सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा दिया।
राज्य सरकार के प्रवक्ता ने स्पष्ट किया कि मुल्लापेरियार मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के उपरांत यह स्थापित कानून हो गया है कि अंतरराज्यीय नदियों के पानी से संबंधित हुए समझौतों को एक तरफा समाप्त करना कानून की दृष्टि से अपुष्ट है। उन्होंने कहा कि पंजाब सरकार द्वारा उठाए गए कदम में हरियाणा के हक में दिये गए फैसले को लागू करने में विलंब करने की एक सोची-समझी चाल है। हरियाणा सरकार सतलुज-यमुना संपर्क नहर को शीघ्र पूरा करवाने तथा हांसी-बुटाना नहर को शीघ्रातिशीघ्र चालू करवाकर किसानों को न्याय दिलवाने के लिए प्रतिबद्ध है। प्रवक्ता ने कहा कि हरियाणा सरकार राष्ट्रपति संदर्भ 2004, जिस पर 2005 के बाद कोई सुनवाई नहीं हुई, पर शीघ्र सुनवाई करने और निर्णय देने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में केस दायर करने जा रही है।
गरमाई सियासत
पंजाब सरकार के रावी-ब्यास के पानी के पुनः आवंटन के लिए ट्रिब्यूनल गठित करने की मांग से अब दोनों राज्यों में सियासत गरमा गई है। हरियाणा और राजस्थान इस मामले में रिपेरियन राज्य है या नहीं के बारे में हरियाणा ने पहले ही सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का निर्णय लिया है। हरियाणा ने त्रि-पक्षीय जल समझौते-1974 को एक तरफा समाप्त करने के पंजाब सरकार के निर्णय की भी आलोचना की है।
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