(1)
आगे-आगे भगीरथ पीछे-पीछे गंगा
पवित्र पानी खाता है पछाड़
कटता है पहाड़ बनता है रास्ता
वेग, गति और प्रवाह से गंगा बन गई नदी
नदी की देह में मटमैला गाद
बनते जाते हैं फैलते जाते हैं दोआब
नदी के मुंह पर झाग ही झाग
आगे-आगे भगीरथ पीछे-पीछे गंगा
तल मल बहता है जैसे पुरखों के शव
पानी के पहिए पर पाँव और बीच भँवर घोड़े
चट्टानों से टकराते हैं खुर पेड़ों से थोबड़े
भागते भगीरथ का पीछा करता है पानी नदी बनकर
अड़ती हैं चट्टानें खिसकते हैं जंगल
कैद हो जाती है नदी
कटता है कैदखाना बनता है मैदान
जहाँ-जहाँ भगीरथ प्रतीक्षा करता है तीर्थ बन जाते हैं
पिपासुओं की, मुमुक्षुओं की, जिज्ञासुओं की सभ्यता नगर बना देती है
बहता पानी नदी बन जाता है नदी के बनते हैं कई घाट
नदी बन जाती है एक मार्ग भगीरथ दौड़ रहा है बिना मार्ग के
भगीरथ घुसता है नल में
खुली टोंटी के नीचे खुले में नहा रहा है भिखमंगा
आगे-आगे भगीरथ पीछे-पीछे गंगा
फैला है गंगा का कछार
गंगा घुस जाती है पोलिथीन पाउच में
पहुँच जाती है फाइव स्टार
पहुँच जाती है समुद्र पार
हे गंगा मइया सगर के साठ हजार पुत्रों की तरह
भगीरथ का भी कर दे उद्धार।
(2)
गांव की आदतें आती हैं नगर में
नगर की आदतें लानत बरपाती हैं
लेकर अपनी गँवई उदासी डटा रहता है भगीरथ
हर चीज में रुपया-पैसा फूँ-फाँ मचाए हुए हैं
छोड़ आया है भगीरथ बिना पैसे की ग्रामीण शांति
कठिन मेहनत और अर्थहीन सन्नाटा
दुःख के पहाड़
पनघट पर मिलन और मरघट पर पछतावा
बहुत कुछ छोड़ आया है भगीरथ
पचास पनघटों जैसी भीड़ तो एक चौराहे पर है
जब गंगा लाया था भगीरथ तब भी नहीं उमड़े थे इतने लोग
सार्वजनिक नल पर और निपटान घर पर जितने खड़े हैं
छोड़े हुए बहुत कुछ में पनघट जैसा एकांत भी शामिल है
कभी भी खाली नहीं रहता, रुका नहीं रहता यहा कोई भी क्षण
वेग गति प्रवाह सब पर भागम-भाग
जिला मुख्यालय-सी हो गई हैं आदतें
आते ही कोई हाकिम विचार कष्ट बढ़ जाते हैं।
तुरंत ही दुबक जाता है। मन शहर में फलीभूत होने के लिए
कोई-न-कोई चिंगोड़ा आदमी ठेस पहुँचाए बिना टलता नहीं।
बेजड़ बेल और पत्तियाँ दिखती हैं ताजा
दिखते हैं कसोरे में पीपल प्याले में चीड़ दिखते हैं रँगे हुए भाँड़े
याद आते हैं गंदगी और धुलाई के ठिकाने
घिर आती हैं चिरपरिचित मक्खियाँ
याद आता है उसे पनघट पर मिलन का गीत
फटे हुए नल-सी छरछराती हैं देहाती यादें
झुग्गी में गाता है भगीरथ सुना हुआ गाना
-पिय तुम पनघट पर आना।
1989
आगे-आगे भगीरथ पीछे-पीछे गंगा
पवित्र पानी खाता है पछाड़
कटता है पहाड़ बनता है रास्ता
वेग, गति और प्रवाह से गंगा बन गई नदी
नदी की देह में मटमैला गाद
बनते जाते हैं फैलते जाते हैं दोआब
नदी के मुंह पर झाग ही झाग
आगे-आगे भगीरथ पीछे-पीछे गंगा
तल मल बहता है जैसे पुरखों के शव
पानी के पहिए पर पाँव और बीच भँवर घोड़े
चट्टानों से टकराते हैं खुर पेड़ों से थोबड़े
भागते भगीरथ का पीछा करता है पानी नदी बनकर
अड़ती हैं चट्टानें खिसकते हैं जंगल
कैद हो जाती है नदी
कटता है कैदखाना बनता है मैदान
जहाँ-जहाँ भगीरथ प्रतीक्षा करता है तीर्थ बन जाते हैं
पिपासुओं की, मुमुक्षुओं की, जिज्ञासुओं की सभ्यता नगर बना देती है
बहता पानी नदी बन जाता है नदी के बनते हैं कई घाट
नदी बन जाती है एक मार्ग भगीरथ दौड़ रहा है बिना मार्ग के
भगीरथ घुसता है नल में
खुली टोंटी के नीचे खुले में नहा रहा है भिखमंगा
आगे-आगे भगीरथ पीछे-पीछे गंगा
फैला है गंगा का कछार
गंगा घुस जाती है पोलिथीन पाउच में
पहुँच जाती है फाइव स्टार
पहुँच जाती है समुद्र पार
हे गंगा मइया सगर के साठ हजार पुत्रों की तरह
भगीरथ का भी कर दे उद्धार।
(2)
गांव की आदतें आती हैं नगर में
नगर की आदतें लानत बरपाती हैं
लेकर अपनी गँवई उदासी डटा रहता है भगीरथ
हर चीज में रुपया-पैसा फूँ-फाँ मचाए हुए हैं
छोड़ आया है भगीरथ बिना पैसे की ग्रामीण शांति
कठिन मेहनत और अर्थहीन सन्नाटा
दुःख के पहाड़
पनघट पर मिलन और मरघट पर पछतावा
बहुत कुछ छोड़ आया है भगीरथ
पचास पनघटों जैसी भीड़ तो एक चौराहे पर है
जब गंगा लाया था भगीरथ तब भी नहीं उमड़े थे इतने लोग
सार्वजनिक नल पर और निपटान घर पर जितने खड़े हैं
छोड़े हुए बहुत कुछ में पनघट जैसा एकांत भी शामिल है
कभी भी खाली नहीं रहता, रुका नहीं रहता यहा कोई भी क्षण
वेग गति प्रवाह सब पर भागम-भाग
जिला मुख्यालय-सी हो गई हैं आदतें
आते ही कोई हाकिम विचार कष्ट बढ़ जाते हैं।
तुरंत ही दुबक जाता है। मन शहर में फलीभूत होने के लिए
कोई-न-कोई चिंगोड़ा आदमी ठेस पहुँचाए बिना टलता नहीं।
बेजड़ बेल और पत्तियाँ दिखती हैं ताजा
दिखते हैं कसोरे में पीपल प्याले में चीड़ दिखते हैं रँगे हुए भाँड़े
याद आते हैं गंदगी और धुलाई के ठिकाने
घिर आती हैं चिरपरिचित मक्खियाँ
याद आता है उसे पनघट पर मिलन का गीत
फटे हुए नल-सी छरछराती हैं देहाती यादें
झुग्गी में गाता है भगीरथ सुना हुआ गाना
-पिय तुम पनघट पर आना।
1989
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