पञ्चम सूक्त
अपांभेषज (जल चिकित्सा), मन्त्रदृष्टा – सिन्धु द्वीप ऋषि। देवता – अपांनपात्, सोम, और आपः। छन्दः 1-2-3 गायत्री, 4 वर्धमान गायत्री।
मन्त्र
आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन।
महे रणाय चक्षसे।।1।।
हे आपः। आप प्राणीमात्र को सुख देने वाले हैं। सुखोपभोग एवं संसार में रमण करते हुए, हमें उत्तम दृष्टि की प्राप्ति हेतु पुष्ट करें।
यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेहः नः।
उशतीरिव मातरः।।2।।
जिनका स्नेह उमड़ता ही रहता है, ऐसी माताओं की भाँति, आप हमें अपने सबसे अधिक कल्याणप्रद रस में भागीदार बनायें।
तस्मा अरं गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ।
आपो जनयथा च नः।।3।।
अन्न आदि उत्पन्न कर प्राणीमात्र को पोषण देने वाले हे दिव्य प्रवाह! हम आपका सान्निध्य पाना चाहते हैं। हमारी अधिकतम वृद्धि हो।
ईशाना वार्याणां क्षयन्तीश्चर्षणीनाम्।
अपो याचामि भेषजम्।।4।।
व्याधि निवारक दिव्य गुण वाले जल का हम आवाहन करते हैं। वह हमें सुख-समृद्धि प्रदान करे। उस औषधि रूप जल की हम प्रार्थना करते हैं।
षष्ठः सूक्त
अपां भेषज (जल चिकित्सा) सूक्त, मन्त्रदृष्टा – सिन्धु द्वीप ऋषि, कृति अतवा अतर्वा, देवता – अपांनपात्, सोम और आपः, छन्दः -1-2-3 गायत्री,4 पथ्यापंक्ति।
मन्त्र
शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये।
शं योरभि स्रवन्तु नः।।1।।
दैवीगुणों से युक्त आपः (जल) हमारे लिए हर प्रकार से कल्याणकारी और प्रसन्नतादायक हो। वह आकांक्षाओं की पूर्ति करके आरोग्य प्रदान करे।
विशेष-दृष्टव्य है कि वर्तमान में इस मन्त्र का विनियोग ‘शनि’ की पूजा में किया जाता है।
अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा।
अग्निं च विश्वशम्भुवम्।।2।।
‘सोम’ का हमारे लिए उपदेश है कि ‘दिव्य आपः’ हर प्रकार से औषधीय गुणों से युक्त है। उसमें कल्याणकारी अग्नि भी विद्यमान है।
आपः प्रणीत भेषजं वरुथं तन्वे 3 मम।
ज्योक् च सूर्यं दृशे।।3।।
दीर्घकाल तक मैं सूर्य को देखूँ। अर्थात् जीवन प्राप्त करुँ। हे आपः!शरीर को आरोग्यवर्धक दिव्य औषधियाँ प्रदान करो।
शं न आपो धन्वन्याः 3:शभु सन्त्वनूप्याः।
शं नः खनित्रिमा आपः शमु याः कुम्भ आमृताः
शिवा नः सन्तु वार्षिकीः।।4।।
सूखे प्रान्त (मरुभूमि) का जल हमारे लिए कल्याणकारी हो। ‘जलमय देश’ का जल हमें सुख प्रदान करे। भूमि से खोदकर निकाला गया कुएँ आदि का जल हमारे लिए सुखप्रद हो। पात्र में स्थित जल हमें शान्ति देने वाला हो। वर्षा से प्राप्त जल हमारे जीवन में सुख-शांति की वृष्टि करने वाला सिद्ध हो।
33वाँ सूक्त
‘आपः सूक्त’, मन्त्रदृष्टा-शन्ताति ऋषि, देवता-चन्द्रमा/आपः, छन्दः-त्रिष्टुप्।
मन्त्र
हिरण्यवर्णाः शुचयः पावका यासु जातः सविता यास्वग्निः।
या अग्निं गर्भं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु।।1।।
जो जल सोने के समान आलोकित होने वाले रंग से सम्पन्न, अत्यधिक मनोहर शुद्धता प्रदान करने वाला है, जिससे सविता देव और अग्नि देव उत्पन्न हुए हैं। जो श्रेष्ठ रंग वाला जल ‘अग्निगर्भ’ है। वह जल हमारी व्याधियों को दूर करके हम सबको सुख और शान्ति प्रदान करे।
यासां राजा वरुणो याति मध्ये सत्यानृते अवपश्यज्जनानाम्।
या अग्निं गर्भं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु।।2।।
जिस जल में रहकर राजा वरुण, सत्य एवं असत्य का निरीक्षण करते चलते हैं। जो सुन्दर वर्ण वाला जल अग्नि को गर्भ में धारण करता है, वह हमारे लिए शान्तिप्रद हो।
यासां देवा दिवि कृण्वन्ति भक्षं या अन्तरिक्षे बहुधा भवन्ति।
या अग्निं गर्भं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु।।3।।
जिस जल के सारभूत तत्व तथा सोमरस का इन्द्र आदि देवता द्युलोक में सेवन करते हैं। जो अन्तरिक्ष में विविध प्रकार से निवास करते हैं। अग्निगर्भा जल हम सबको सुख और शान्ति प्रदान करे।
शिवेन मा चक्षुषा पश्यतापः
शिवया तन्वोप स्पृशत त्वचं में।
घृतश्चुतः शुचयो याः पावकास्ता,
न आपः शं स्योना भवन्तु।।4।।
हे जल के अधिष्ठाता देव! आप अपने कल्याणकारी नेत्रों द्वारा हमें देखें तथा अपने हितकारी शरीर द्वारा हमारी त्वचा का स्पर्श करें। तेजस्विता प्रदान करने वाला शुद्ध तथा पवित्र जल हमें सुख तथा शान्ति प्रदान करे।
षष्ठकाण्ड, 124वाँ सूक्त
‘निर्ऋत्यपस्तरण सूक्त’, मन्त्रदृष्टा – अथर्वा ऋषि, देवता – दिव्य आपः, छन्दः – त्रिष्ठुप्।
मन्त्रः
दिवो नु मां बृहतो अन्तरिक्षादपांस्तोको अभ्यपप्तद् रसेन।
समिन्द्रियेण पयसाहमग्ने, छन्दोभिर्यज्ञैः सुकृतां कृतेन।।1।।
विशाल द्युलोक से दिव्य-अप् (जल या तेज) युक्त रस की बूँदें हमारे शरीर पर गिरी हैं। हम इन्द्रियों सहित दुग्ध के समान सारभूत अमृत से एवं छन्दों (मन्त्रों) से सम्पन्न होने वाले यज्ञों के पुण्यफल से युक्त हों।
यदि वृक्षादभ्यपप्तत् फलं तद् यद्यन्तरिक्षात् स उ वायुरेव।
यत्रास्पृक्षत् तन्वो 3 यच्च वासस आपो नुदन्तु निर्ऋतिं पराचैः।।2।।
वृक्ष के अग्रभाग से गिरी वर्षा की जल बूँद, वृक्ष के फल के समान ही है। अन्तरिक्ष से गिरा जल बिन्दु निर्दोष वायु के फल के समान है। शरीर अथवा पहने वस्त्रों पर उसका स्पर्श हुआ है। वह प्रक्षालनार्थ जल के समान ‘निर्ऋतिदेव’ (पापो को) हमसे दूर करें।
अभ्यञ्जनं सुरभि सा समृद्धिर्हिरण्यं वर्चस्तदु पूत्रिममेव।
सर्वा पवित्रा वितताध्यस्मत् तन्मा तारीन्निर्ऋतिर्मो अरातिः।।3।।
यह अमृत वर्षा उबटन, सुगंधित द्रव्य, चन्दन आदि सुवर्ण धारण तथा वर्चस् की तरह समृद्धि रूप है। यह पवित्र करने वाला है। इस प्रकार पवित्रता का आच्छादन होने के कारण ‘पापदेवता’ और शत्रु हमसे दूर रहें।
/articles/panacama-sauukata