पलायन

बिहारी मजदूर और कारीगर दक्षिण भारत के प्रदेशों में भी मिल जाते हैं। वह गुजरात के कपड़ा और हीरे तराशने के कारखानों में मिल जायेंगे तो तमिलनाडु में बोरा सिलाई करते हुये दिखाई पड़ेंगे। महाराष्ट्र के लोहा और रसायन कारखानों में उनकी पहुंच है तो हिमाचल प्रदेश में सड़कों के निर्माण में उनके बिना गाड़ी नहीं चलेगी। पंजाब और हरियाणा की कृषि में से अगर बिहारी मजदूरों को निकाल दिया जाय तो वहाँ की खेती में क्या बचेगा, यह सोचने से भी पंजाब के किसान कतराते हैं। तटबन्धों के निर्माण के फलस्वरूप एक बड़ा क्षेत्र और उसी के हिसाब से एक बड़ी आबादी तटबन्धों के बीच फंस गई है। इस जमीन पर खेती संदिग्ध हो गई। तटबन्धों के बाहर पानी की निकासी में बाधा पड़ने से काफी जमीन वहाँ भी जल-जमाव से ग्रस्त हो गई है जिसकी वजह से अक्सर बड़े या मझोले, किसान छोटे किसानों की श्रेणी में आ गये। खेती के लिए उपलब्ध जमीन के घटने के कारण रोजगार की उम्मीदें घटने लगीं और जैसे-जैसे जल-जमाव, नदी का कटाव, खेतों पर बालू का पड़ना आदि बढ़ता गया वैसे-वैसे गरीबों के आशियाने उजड़ने लगे। सवाल पेट और परिवार की परवरिश का था इसलिए अब रोजगार की तलाश दूर-दराज के इलाकों में होने लगी। यह पलायन तटबन्धों के निर्माण के साथ-साथ 1960 के दशक के पहले) से ही शुरू हुआ। उन दिनों पलायन करने वालों की मंजिलें कोलकाता, आसनसोल के आसपास की कोयला खदानों के इलाकों और असम के चाय बागानों की ओर हुआ करती थीं। रोजगार की उपलब्धता की यह दिशा 1970 के दशक के अन्त में उलट गई। पश्चिम बंगाल यूँ तो 1960 के दशक के अन्त में अशान्त हो गया था और वहाँ कल-कारखाने बन्द होने लगे थे मगर 1980 आते-आते मजदूरी करने के लिए यह जगह अपना आकर्षण पूरी तरह खो चुकी थी। अब मजदूर हरित-क्रान्ति के प्रदेशों पंजाब और हरियाणा की ओर जाने लगे क्योंकि तब तक वहाँ रोजगार मिलने की गुंजाइश बढ़ने लगी थी। एशियाड-82 के समय दिल्ली में जो निर्माण के क्षेत्र में उछाल आया उसकी वजह से बहुत से बिहारी मजदूरों को निर्माण के क्षेत्र में अपना फन संवारने का मौका मिला और वहाँ से वह पूरे उत्तर भारत में माहिर राज-मिस्त्रियों के तौर पर फैल गये। उत्तरांचल के निर्माण उद्योग में बिहारी कारीगरों का अच्छा खासा योगदान है।

फिर धीरे-धीरे यह पलायन गुजरात और महाराष्ट्र की ओर बढ़ा और अब तो बिहारी मजदूर और कारीगर दक्षिण भारत के प्रदेशों में भी मिल जाते हैं। वह गुजरात के कपड़ा और हीरे तराशने के कारखानों में मिल जायेंगे तो तमिलनाडु में बोरा सिलाई करते हुये दिखाई पड़ेंगे। महाराष्ट्र के लोहा और रसायन कारखानों में उनकी पहुंच है तो हिमाचल प्रदेश मंं सड़कों के निर्माण में उनके बिना गाड़ी नहीं चलेगी। पंजाब और हरियाणा की कृषि में से अगर बिहारी मजदूरों को निकाल दिया जाय तो वहाँ की खेती में क्या बचेगा, यह सोचने से भी पंजाब के किसान कतराते हैं। वापस बिहार में उनकी गाढ़ी कमाई के भेजे हुये पैसे से परिवार और समाज चलता है। एक मोटे अनुमान के अनुसार वर्ष 2000-2001 में ग्रामीण डाकघरों में बाहर से करीब 800 करोड़ रुपयों की आमद हुई। बैंकों के नेटवर्क से भी, आशा की जाती है कि, इतनी ही राशि और आई होगी। अनुमान किया जाता है कि खाड़ी के देशों से हवाला के जरिये करीब 2000 करोड़ रुपये यहाँ हर साल पहुंचते हैं। इस तरह से बिहार में हर साल बाहर से आने वाली राशि करीब 3,500 करोड़ रुपयों के आसपास है जो कि राज्य के वार्षिक बजट के दो तिहाई से ज्यादा है और इसी पैसे की बदौलत बिहार के अधिकांश परिवारों में चूल्हे जलते हैं।

बिहार से हर साल कितने मजदूर/कारीगर बाहर काम खोजने जाते हैं, उनकी वहाँ जाने की बारम्बारता क्या है, वह वहाँ क्या-क्या काम करते हैं, और मेजबान राज्य की अर्थव्यवस्था में उनका क्या योगदान है, इस पर कोई आधिकारिक अध्ययन उपलब्ध नहीं है। इस सूचना के अभाव में दिसम्बर 2003 में बाढ़ मुक्ति अभियान द्वारा कोसी तटबन्धों के प्रायः ठीक बीचो-बीच स्थित तीन गाँवों की एक सर्वेक्षण रिपोर्ट के आधार पर हम यहाँ के पलायन का एक अंदाजा लगाने की कोशिश कर सकते हैं। इस सर्वेक्षण से सम्बन्धित कुछ सूचनाएं नीचे तालिका 9.2 में दी जा रही हैं-

तालिका 9.2


कोसी तटबन्धों के बीचों-बीच सर्वेक्षण किये गये गाँवों कीबुनियादी जानकारी

गांव

परसौनी

लिलजा

गोपालपुर खुर्द

प्रखंड

मधेपुर

मधेपुर

सुपौल

जिला

मधुबनी

मधुबनी

सुपौल

पूर्वी तटबंध से दूरी

9 कि.मी.

8 कि.मी.

4 कि.मी.

पश्चिमी तटबंध से दूरी

2 कि.मी.

3 कि.मी.

7 कि.मी.

पुनर्वास स्थल

बलथी

बलथी

बिजलपुर

कुल परिवारों की संख्या*

202 (30)

63 (17)

89 (19)

भूमिहीन परिवार

80

22

कुल जनसंख्या

1,656

491

596

पुरुष जनसंख्या

475

130

153

महिला जनसंख्या

427

107

150

बच्चे (0-14) वर्ष

754

254

293

शिक्षित

203 (22.50 प्रतिशत)

85 (35.86 प्रतिशत)

92 (30.36 प्रतिशत)

स्कूल जाने वाले बच्चे

-

67

59

बाल मजदूर

6

2

7

पलायन करने वाले व्यक्ति की मंजिल

पंजाब

278

72

86

दिल्ली

186

66

43

भदोही

64

4

37

सिल्लीगुड़ी

28

1

4

मुंबई

-

1

-

पटना

-

-

1



कुल परिवारों की संख्या के साथ कोष्ठ में दी गई संख्या उन परिवारों की है जहाँ से पलायन नहीं होता।

स्रोत: बाढ़ मुक्ति अभियान सर्वेक्षण-2003 दिसम्बर

परसौनी और लिलजा गाँवों को पुनर्वास बलथी गाँव में कोसी के पश्चिमी तटबन्ध के पश्चिम में दिया गया था और इस जगह पर आज से 40 साल पहले जल-जमाव था और आज भी है। इसलिए इन गाँवों से पुनर्वास में बसने के लिए कोई भी नहीं गया। गोपालपुर खुर्द गाँव के निवासियों को पुनर्वास बिजलपुर में मिला जो कि पूर्वी तटबन्ध के पूरब का गाँव है। यहाँ की जमीन आवंटित जमीन से कम थी और कुच्ची-कुच्ची थी। वहाँ केवल दो परिवार बसने के लिए गये और बाकी लोग अपने पुराने गाँव गोपालपुर खुर्द में ही रह गये। जब से कोसी पर तटबन्ध बने तब से (2006 तक) गोपालपुर ख़ुर्द कोसी की धारा से 11 बार कटा है। कृषि पर इस कटाव का बुरा असर पड़ा है और आजकल लोग यहाँ अनाज खरीद कर खाते हैं। वर्ष के चार महीने तो इस गाँव के लोग पानी में ही रहते हैं। अनाज जब खरीद कर खायेंगे तब खेती से जुड़ी सारी मेहनत-मशक्कत भी खत्म हो जाती है। कोसी के बालू को गाँव के लोग आम और बांस का दुश्मन मानते हैं सो यह दोनों यहाँ समाप्त हैं। गाँव के लोग इस बात से शर्मिन्दा हैं कि तटबन्धों के बाहर वाले उन्हें रिलीफखोर कहते हैं तटबन्धों के बाहर तथाकथित सुरक्षित क्षेत्रों में रहने वाले लोग इस गाँवों के लड़कों से अपनी बेटियों की शादी नहीं करते क्योंकि यहाँ के माहौल में उन्हें बड़ी तकलीफ उठानी पड़ेगी। तटबन्धों के अन्दर रहने वाले दूसरे गाँवों की ही तरह गोपालपुर खुर्द वाले लोग भी कहते रह जाते हैं कि उनकी बेटियों को कोई तकलीफ नहीं होगी, यहाँ खेती चौपट हो जाने से खेती-गृहस्थी में होने वाली तकलीफों से वास्ता नहीं पड़ेगा, चूल्हा नहीं जलाना पड़ेगा क्योंकि प्रायः सभी घरों से मिट्टी के तेल वाले स्टोव जलते हैं इसलिए धुआँ-धक्कड़ नहीं होता है। मगर इसकी कौन सुनता है? तटबन्धों के अन्दर रहने वाले लोग आपस में ही शादी ब्याह करने को मजबूर हैं। गाँव वालों की शिकायत है कि पास में स्कूल और प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र हैं मगर न तो स्कूलों में अध्यापक आते हैं, न स्वास्थ्य केन्द्रों में डॉक्टर। पोस्टमैन तक गाँव में नहीं आता, चिट्ठियाँ डाकखाने जाकर लानी पड़ती हैं। और तो और रेवेन्यू इन्सपेक्टर भी इन गाँवों में नहीं आते। ग्रामीणों की अब एक ही इच्छा बची है कि सरकार और कुछ करे न करे, इन लोगों को अनुसूचित जाति का दरजा दे दे तो भी वह लोग अपने लिए बहुत कुछ कर लेंगे। अब यह पूरा इलाका प्रकृति और भगवान के भरोसे जिन्दा है।

प्रवासी मजदूर मेजबान इलाकों से अपना खर्च निकाल कर परिवार के लिए पैसा भेजते हैं। इसमें अगर कुछ भी देरी होती है तो परिवार के सदस्यों पर महाजनों का तकादा और दबाव दोनों बढ़ता है और यह तब तक कायम रहता है जब तक कर्ज या किस्त की अदायगी न हो जाये। यह वह समय है जब महाजन को बेगारी करवाने का मौका मिल जाता है। अगर किसी सूरत से प्रवासी मजदूर पैसा नहीं भेज पाता है तब महाजन की नजर उनकी जमीन या दूसरी सम्पत्ति पर पड़ती है। तालिका 9.2 से स्पष्ट होता है कि परसौनी के 202 परिवारों में से 172 परिवारों से लोग कमाने के लिए बाहर जाते हैं। इन 172 परिवारों में बाहर जाने वालों की तादाद 278 है यानी प्रति परिवार औसतन 1.62 व्यक्ति परदेश में हैं। लिलजा और गोपालपुर खुर्द के लिए यह औसत आँकड़ा क्रमशः 1.57 और 1.23 व्यक्ति प्रति परिवार का है। यह पलायन आम तौर पर पंजाब और हरियाणा की फसल की बुआई, रोपनी और कटाई से जुड़ा होता है। यह प्रवासी लोग खेती का काम समाप्त हो जाने के बाद दूसरे-दूसरे उद्योगों में काम करके अपनी जीविका चलाते हैं और परिवार का पोषण करते हैं। जो लोग फैक्टरियों में काम पर गये हैं, उन पर खेती की विभिन्न प्रक्रियाओं और मौसम का कोई असर नहीं पड़ता। इस तरह के लोगों की तादाद मगर काफी कम है। ज्यादातर प्रवासी दिल्ली में फलों या फलों के रस का ठेला लगाते हैं जबकि वह लोग जो कि पंजाब चले जाते हैं वह खेती से सम्बद्ध रहते हैं। जहाँ इस पैमाने पर रोजगार की तलाश में पलायन होता है वहाँ गाँवों में जाने पर जवान बड़ी मुश्किल से देखने को मिलते हैं।

अधिकांश प्रवासी मजदूर गाँव के आसपास के महाजनों से पैसा उधार लेकर अपनी यात्रा का खर्च उठाते हैं और यह कर्ज उन्हें 5 से 8 प्रतिशत और कभी-कभी 10 प्रतिशत मासिक ब्याज की दर से मिलता है। ब्याज की दर अलग-अलग गाँवों में अलग-अलग हो सकती है और यह कर्ज लेने वाले की कर्ज अदायगी के इतिहास पर भी थोड़ा-बहुत बदल सकती है। यह ब्याज की दर प्रवासी की मंजि़ल पर भी निर्भर करती है। कर्ज के बाजार में भदोही या कालीन पट्टी का भाव गिरा हुआ है जबकि पंजाब जाने वाले मजदूरों से ब्याज की मोटी रकम वसूल की जाती है। परिवार की महिलाएँ गाँव में ही रह कर कुछ न कुछ काम करती रहती हैं जिससे परिवार की काफी मदद हो जाती है। बाहर से आने वाला पैसा पहले संगी-साथियों या नाते-रिश्तेदारों के साथ आता था फिर बाद में डाकखाने के जरिये आने लगा। पिछले कुछ वर्षों से बैंकों के माध्यम से भी रकम भेजी जाने लगी है। ऐसी भी शिकायतें मिलती हैं कि डाकखाने के कर्मचारी बाहर से आये पैसों को उसके वाजिब हकदार तक पहुँचाने के पहले सूद पर लगा दिया करते थे। बैंक दूर होने के बावजूद इस तरह के खतरे के बाहर हैं। अतः उनमें खाता खोलने का प्रचलन बढ़ा है।

प्रवासी मजदूर मेजबान इलाकों से अपना खर्च निकाल कर परिवार के लिए पैसा भेजते हैं। इसमें अगर कुछ भी देरी होती है तो परिवार के सदस्यों पर महाजनों का तकादा और दबाव दोनों बढ़ता है और यह तब तक कायम रहता है जब तक कर्ज या किस्त की अदायगी न हो जाये। यह वह समय है जब महाजन को बेगारी करवाने का मौका मिल जाता है। अगर किसी सूरत से प्रवासी मजदूर पैसा नहीं भेज पाता है तब महाजन की नजर उनकी जमीन या दूसरी सम्पत्ति पर पड़ती है। इस इलाके में बहुत से गाँव ऐसे मिल जायेंगे जहाँ गाय-गोरू, हल-बैल, मछली पकड़ने के जाल, फावड़ा-कुदाल आदि जैसी सारी चीजें गाँव वालों के दरवाजे पर मिल जायेंगी जिससे उनके ख़ुशहाल होने का धोखा होता है जबकि इनमें से उनका कुछ भी नहीं होता, सभी कुछ महाजन का है और यह लोग पीढ़ियों से इसी तरह से मालिकों की सेवा करते आये हैं और भविष्य में भी करते रहेंगे। बात यहीं खत्म नहीं होती। महाजन अक्सर अपने आसामियों का हाल-चाल पूछने के लिए उन शहरों में भी जाते है जहाँ उनके आसामी रहते हैं। महाजन की इस ‘कृपा’ का पूरा खर्च उसके आसामियों पर होता है, खातिर-बात, रेल-बस का टिकट, धोती-कुर्ता और दान-दक्षिणा ऊपर से। कर्ज की रकम और उसका ब्याज इस सद्भावना में शामिल नहीं होता, वह सब पूरा का पूरा अपनी जगह बना रहता है।

कर्ज की अदायगी न होने पर अगर जमीन पर आंच आने लगे तो आसामी के मां-बाप तो उसी सदमें से तिल-तिल कर मरते हैं। बीवी बच्चों के साथ मायके चली जाती है और लम्बे समय तक पति की कोई खबर नहीं मिलने पर यहाँ महिला को पुर्नविवाह की स्वीकृति है। अब मां अपने नये घर और बच्चे या तो नानी के पास या फिर नये पिता के पास। इन बच्चों के परिवार तो दो-दो होते हैं पर इनकी स्वीकृति किसी में भी नहीं होती। नतीजा यह होता है कि दलालों के हत्थे चढ़ कर यह बच्चे बाल मजदूरों का खिताब पा जाते हैं। इनकी मां के साथ जो गुजरता है उसे कहाँ कोई मान्यता देता है?

प्रवासी खेत मजदूर, आमतौर पर पंजाब-हरियाणा में अपने खेत मालिकों के व्यवहार के प्रति कोई शिकायत नहीं करते हैं और मानते है कि उनके साथ वहाँ अच्छा ही व्यवहार होता है। वह इतना जरूर कहते हैं कि वहाँ उनकी चाय में कुछ अफीम का अंश मिला कर पीने के लिए दिया जाता है जिससे कि वह ज्यादा समय तक बिना थकान महसूस किये काम कर सकें। यह मजदूर इसका बहुत बुरा भी नहीं मानते क्योंकि अक्सर अकेले रहने के कारण इन्हें दूसरा कुछ करने के लिए रहता भी नहीं है।कुछ वर्ष पहले तक पंचायत के मुखिया इन प्रवासियों को उनके निवास का प्रमाण पत्र दिया करते थे। अब यह रिवाज खत्म हो गया है। पहचान पत्र के अभाव में इन मेहनतकशों का शोषण रेल यात्रा के साथ ही शुरू हो जाता है। पंजाब में पुलिस के जवान इन लोगों से पहचान पत्र मांगते हैं और न दिखा पाने पर परेशान करते हैं। यही वजह है कि जब चुनाव आयोग द्वारा पहचान पत्र जारी करने की बात उठती है तो बिहार में इन केन्द्रों पर बेकाबू भीड़ इकट्ठी हो जाती है। बताते है कि पंजाब में पहचान पत्र न दिखा पाने पर पुलिस आजकल 120 से 150 रुपये प्रति व्यक्ति प्रति घटना के हिसाब से ऐंठ लेती है। अगर पहचान पत्र दिखा भी दिया गया तो टिकट में खामी बताई जाती है और उसके लिए भी बचाव का रास्ता पैसा देना ही है। रेलवे पुलिस के जवान और रेल कर्मचारी अपने स्तर पर यही सब बातें दुहरा कर अलग से पैसा वसूल करते हैं। यह सिलसिला पंजाब से मुगलसराय और बरौनी तक चलता रहता है। मजा यह है कि मजदूरों से जबरन वसूली की यह हरकत बिहार की ओर आने वाली गाड़ियों में ही होती है, यहाँ से पश्चिम या उत्तर की ओर जाने वाली गाड़ियों में नहीं क्योंकि रेलवे और पुलिस-कर्मियों को यह बात अच्छी तरह पता है कि मजदूरों के पास उन्हें देने के लिए पैसा वापसी के समय ही होता है।

प्रवासी खेत मजदूर, आमतौर पर पंजाब-हरियाणा में अपने खेत मालिकों के व्यवहार के प्रति कोई शिकायत नहीं करते हैं और मानते है कि उनके साथ वहाँ अच्छा ही व्यवहार होता है। वह इतना जरूर कहते हैं कि वहाँ उनकी चाय में कुछ अफीम का अंश मिला कर पीने के लिए दिया जाता है जिससे कि वह ज्यादा समय तक बिना थकान महसूस किये काम कर सकें। यह मजदूर इसका बहुत बुरा भी नहीं मानते क्योंकि अक्सर अकेले रहने के कारण इन्हें दूसरा कुछ करने के लिए रहता भी नहीं है। हम यहाँ प्रवासी मजदूरों की कठिनाइयों और मानसिक परेशानियों को कतई हलका करके नहीं रखना चाहते क्योंकि परिवार का विछोह तो उनका पीछा करता ही है। इसके अलावा यात्रा करते समय रेलगाड़ियों की छतों पर बैठे बिहारी मजदूरों का मारा जाना, आतंकवादियों के हाथों निर्दोष बिहारियों की मौत, अग्रिम क्षेत्रों के सड़क निर्माण में पहाड़ धंसने से उनकी सामूहिक मृत्यु आदि घटनाएं कुछ ऐसी त्रासदियाँ हैं जिनकी याद ही उन्हें अन्दर से तोड़ने के लिए काफी है। पिछले कुछ वर्षों में महाराष्ट्र, आंध्र-प्रदेश या असम में बिहार के मजदूरों/विद्यार्थियों के साथ बर्बरता के संकेत इन निर्दोष लोगों के लिए कुछ अच्छे नहीं हैं। इधर वापस अपने घर में इनकी पहचान पैसे वाले ‘पंजाबियों’ की है। बदले बात-व्यवहार और भाषा के लहजे में आये परिवर्तन के कारण इनकी पहचान छिपाये नहीं छिपती। यह ’पंजाबी’ मजदूर अक्सर स्थानीय रंगदारों के निशाने पर चढ़ जाते हैं।

यह सारी बातें तो प्रवासी जवां मर्दों की है मगर यही लोग और अधिक श्रम न कर सकने की स्थिति में बूढ़े होकर अपने गाँव लौटेंगे तब भी क्या गाँव-परिवार के लोग इन्हें स्वीकार करेंगे? एक अशक्त और न कमाने वाले व्यक्ति की पूछ का रिवाज समाज में धीरे-धीरे घटता जा रहा है। उसका बुजुर्ग होना अब परिवार के किसी काम नहीं आता। इनके वापस लौटने का एक मतलब यह भी होता है कि घर पर जो कुछ भी चल या अचल सम्पत्ति होगी उसमें यह अपना हिस्सा खोज सकते हैं। इसके लिए इनमें ताकत भले न हो मगर समय तो होगा। इससे संघर्ष पैदा होंगे और यह स्थिति अच्छे संकेत नहीं देती।

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Post By: tridmin
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