प्लास्टिक थैलियों से छुटकारा

प्लास्टिक की पर्यावरणरोधी थैलियाँ कहाँ से आती हैं — तीन समूह बनाए गए। उन्हें पता चला कि बाहर से आने वाले व्यापारी ये थैलियाँ लाते हैं। इसके बाद कार्रवाई की गई। अधिकारियों के दल शहर में फैल गए। उन्होंने थैलियाँ बरामद कीं और उन्हें रि-साइक्लिंग के लिए भेज दिया। जो लोग इन थैलियों का इस्तेमाल करते पाए गए, उन्हें सख्ती से समझाया गया। जल्दी ही लोगों ने इन थैलियों का प्रयोग बन्द कर दिया।ऐसे समय जब पर्यावरण और दुनिया के बढ़ते तापमान के असर जैसे महत्वपूर्ण विषय पर राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर गरमागरम बहस चल रही हो, गुजरात की सिद्धपुर नगरपालिका ने पर्यावरण रक्षा की दिशा में अनुकरणीय कदम उठाया है।

सरकार ने 20 माइक्रोन मोटाई से कम की प्लास्टिक थैलियों के उत्पादन पर भले ही रोक लगा दी है, लेकिन पतली थैलियों का उत्पादन और प्रयोग धड़ल्ले से किया जा रहा है। इससे जाहिर होता है कि हम इस मामले में कितने लापरवाह हैं। यह ऐसा मुद्दा है जो सिर्फ हमारे ही नहीं, हमारे समूचे पर्यावरण को प्रभावित करता है। कभी-कभी हमें इसकी तरफ ध्यान देने के लिए अपनी ही अन्तरात्मा की आवाज सुनने की जरूरत होती है कि प्रदूषित पर्यावरण कितना खतरनाक है और इसे प्रदूषणमुक्त रखना हमारी जिम्मेदारी है। सिद्धपुर के मामले में ऐसी आवाज नगरपालिका की ओर से सुनाई दी। इस आवाज में दम महसूस किया गया क्योंकि इसके लिए लीक से हटकर कुछ करने की जरूरत थी।

यह जानने के लिए कि प्लास्टिक की पर्यावरणरोधी थैलियाँ कहाँ से आती हैं — तीन समूह बनाए गए। उन्हें पता चला कि बाहर से आने वाले व्यापारी ये थैलियाँ लाते हैं। इसके बाद कार्रवाई की गई। अधिकारियों के दल शहर में फैल गए। उन्होंने थैलियाँ बरामद कीं और उन्हें रि-साइक्लिंग के लिए भेज दिया। जो लोग इन थैलियों का इस्तेमाल करते पाए गए, उन्हें सख्ती से समझाया गया। यह कार्रवाई सरकार की तरफ से की गई अतः इसका असर हुआ।

जल्दी ही लोगों ने इन थैलियों का प्रयोग बन्द कर दिया। असली चुनौती थी लोगों को इन थैलियों का व्यावहारिक विकल्प सुझाना। सुझाव भी ऐसा हो जिससे तुरन्त विकल्प मिले और लम्बे अरसे तक मान्य रहे। साथ ही, इसके जरिये स्थानीय लोगों में जागरुकता लाई जाए और उनका व्यवहार बदले। इसके लिए 47 सखी मण्डल (महिला समूह) गठित किए गए। इन्हें ये राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी अधिनियम के तहत गठित किया गया। यह ऐसा तन्त्र था जिसकी जरूरत नगरपालिका महसूस कर रही थी और जिसके जरिये लोगों को कागज की थैलियाँ इस्तेमाल करने के लिए समझाना था।

सखी मण्डलों के जरिये यह सन्देश पहुँचाने के बजाय नगरपालिका ने एक कदम और आगे बढ़ाया और सिर्फ इसी काम के लिए एक समूह को प्रशिक्षित किया। गरीबी रेखा के नीचे के परिवारों की जीविकोपार्जन के लिए 50 महिलाओं को कागज की थैलियाँ बनाने का प्रशिक्षण देने के लिए चुना गया। उन्हें प्रशिक्षण में शामिल किया गया और उनका एक समूह बना दिया गया। यह उनके लिए खुशी की बात है कि ऐसा करके इन महिलाओं ने 100 रुपए मासिक की बचत करना शुरू कर दिया। यह एक उल्लेखनीय शुरुआत थी लेकिन काफी नहीं थी। महत्वपूर्ण बात यह थी कि इन थैलियों की अच्छी गुणवत्ता सुनिश्चित की जाए ताकि वे बाजार में अपनी जगह बना सकें और उपभोक्ताओं का व्यवहार बदल सकें। नगरपालिका ने बाजार का व्यापक सर्वेक्षण कराया और गुणवत्ता, डिजाइन, माल की पसन्द, कागज की मोटाई और थैलियों की लम्बाई-चौड़ाई के बारे में उनकी अपेक्षाएँ दर्ज की।

इसे परिपक्व व्यापार बुद्धि और सामाजिक परिवर्तन लाने का विशुद्ध व्यावसायिक रवैया ही कहा जाएगा जिसे इस महत्वपूर्ण उद्देश्य को पूरा करने के लिए अपनाया गया और इसमें प्रगति हुई। कागज की थैलियाँ बनाने का काम कोई तात्कालिक उद्देश्य की बात नहीं बल्कि सर्वेक्षण करके ग्राहकों की जरूरतें पूरी करने के लिए शुरू किया गया। महिलाओं के नवगठित समूह इस सफलता के भागीदार बने। थैलियों के उत्पादन के लिए कच्चा माल खरीदने की बात आई तो उन्होंने बहुत उत्साह और भागीदारी की भावना दिखाई। कागज की थैलियों का इस्तेमाल करने के विचार ने जड़ें जमा लीं और यह इस काम में लगे लोगों को पसन्द आ गया। उन्होंने इस काम के हर चरण में हाथ बँटाया।

इन महिलाओं ने विक्रय मूल्य तय करने से पहले कच्चे माल, इसमें लगे समय और लाभ की गणना की। इस हिसाब-किताब के बाद कागज की थैलियाँ 54 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से बेचने का निश्चय किया गया जबकि प्लास्टिक थैलियाँ 120 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से मिलती थीं। जल्दी ही लोगों को इसके इस्तेमाल से होने वाले दोहरे लाभ का अहसास हो गया। स्पष्ट हो गया कि पर्यावरण हित में काम करते हुए 66 रुपए की बचत भी हो रही है साथ ही गरीब महिलाओं को रोजी-रोटी कमाने का अवसर भी उपलब्ध हुआ है।

वर्तमान में यह समूह परचून की दुकानों पर इस्तेमाल में आने वाली ऐसी थैलियाँ बना रहा है जो 250 ग्राम से लेकर 2 किलोग्राम तक सामान बेचने के काम में आती हैं। ये महिलाएँ प्रतिदिन 2 से 8 किलोग्राम तक थैलियाँ बना लेती हैं। इस प्रकार वे अपने घर में काम करके 30 से 120 रुपए प्रतिदिन की आमदनी कर लेती हैं। वे अपनी गृहस्थी चलाने में महत्वपूर्ण आर्थिक योगदान कर रही हैं साथ ही, पर्यावरण रक्षा में भी हाथ बँटा रही हैं।

एक और महत्वपूर्ण लाभ इस उपयोगी उपाय को सार्थक सिद्ध करता है। अब शहर से निकलने वाले कचरे में प्लास्टिक थैलियाँ नहीं होतीं। इससे कचरे का निपटान आसान हो गया है। नगरपालिका के अधिकारियों द्वारा किया गया यह प्रयास अब स्थानीय क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रहा। उनकी कोशिशों और इसके महत्वपूर्ण प्रभाव को गुजरात का सिटी मैनेजर्स एसोसिएशन कलमबद्ध कर रहा है। इस नगरपालिका की सफलता से प्रेरणा लेकर अन्य स्थानीय निकाय भी कागज की थैलियों को लोकप्रिय बनाने के काम में लग गए हैं। समय बदल रहा है और सही दिशा में उठाए गए एक कदम के बाद अनेक कदम खुद-ब-खुद उसी दिशा में उठ जाते हैं।

(चरखा फीचर्स)

Path Alias

/articles/palaasataika-thaailaiyaon-sae-chautakaaraa

×