एक मनुष्य के पूरे शरीर की तरह यदि शरीर का एक अंग नष्ट हो जाये तो उससे सारा शरीर बिना प्रभावित हुये नहीं रह सकता। इसी प्रकार इस प्रकृति के सारे तत्व एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और यदि कोई एक तत्व प्रभावित होता है तो इससे पूरा पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित होता है। अतः आकाश की सुन्दरता को पक्षीविहीन होने से जिस प्रकार यह ग्रामीण सतत् प्रयासरत् हैं, यह अपने आप एक सराहनीय प्रयास है और इससे हमें सबक लेना चाहिये।
उन्नीसवीं सदी की शुरूआत में ब्रिटिश हुकूमत के एक अफसर को लहूलुहान कर देने से यह गाँव चर्चा में आया मसला था। एक खूबसूरत पक्षी प्रजाति को बचाने का, जो सदियों से इस गाँव में रहता आया। बताते हैं कि ग्रामीण ये लड़ाई भी जीते थे, कोर्ट मौके पर आयी और ग्रामीणों के पक्षियों पर हक जताने का सबूत मांगा, तो इन परिन्दों ने भी अपने ताल्लुक साबित करने में देर नहीं की, इस गाँव के बुजुर्गों की जुबानी कि उनके पुरखों की एक ही आवाज पर सैकड़ों चिड़ियां उड़ कर उनके बुजुर्गों के आस-पास आ गयी, मुकदमा खारिज कर दिया गया। गाँव वालों के घरों के आस-पास लगे वृक्षों पर ये पक्षी रहते हैं और ये ग्रामीण उन्हें अपने परिवार का हिस्सा मानते हैं, यदि कोई इन्हें हानि पहुंचाने की कोशिश करता है तो उसका भी हाल उस बरतानियां सरकार के नुमाइंदे की तरह हो जाता है...अद्भुत और बेमिसाल संरक्षण। खास बात ये है कि हजारों की तादाद में ये पक्षी यहां रहते आये हैं और इन्हें किसी भी तरह का सरकारी सरंक्षण नहीं प्राप्त है और न ही कथित सरंक्षण वादियों की इन पर नजर पड़ी है, शायद यही कारण है कि यह पक्षी बचे हुए हैं! अफसोस सिर्फ ये है कि ग्रामीणों के इस बेहतरीन कार्य के लिए सरकारों ने उन्हें अभी तक कोई प्रोत्साहन नहीं दिया, जिसके वो हकदार हैं।
जिला लखीमपुर का एक गांव सरेली, जहां पक्षियों की एक प्रजाति सैंकड़ों वर्षों से अपना निवास बनाये हुये हैं और यहां के ग्रामीण इस पक्षी को पीढ़ियों से संरक्षण प्रदान करते आ रहे हैं। यह गांव मोहम्मदी तहसील के मितौली ब्लाक के अन्तर्गत आता है। पक्षियों की यह प्रजाति जिसे ओपनबिलस्टार्क कहते हैं। यह पक्षी सिकोनिडी परिवार का सदस्य है। इसकी दुनिया में कुल 20 प्रजातियां पाई जाती हैं, जिनमें से 8 प्रजातियां भारत में मौजूद हैं। ओपनबिलस्टार्क सामान्यतः भारतीय उपमहाद्वीप, थाईलैण्ड व वियतनाम, में निवास करते हैं तथा भारत में जम्मू कश्मीर व अन्य बर्फीले स्थानों को छोड़कर देश के लगभग सभी मैदानी क्षेत्रों में पाये जाते हैं। चिड़ियों की यह प्रजाति लगभग 200 वर्षों से लगातार हजारों की संख्याओं में प्रत्येक वर्ष यहां अपने प्रजनन काल में जून के प्रथम सप्ताह में आती हैं। यह अपने घोसले मुख्यतः इमली, बरगद, पीपल, बबूल, बांस व यूकेलिप्टस के पेड़ों पर बनाते हैं। स्टार्क पक्षी इस गांव में लगभग 400 के आसपास अपने घोसले बनाते हैं। एक पेड़ पर 40 से 50 घोसले तक पाये जाते हैं। प्रत्येक घोसले में 4 से 5 अण्डे होते हैं। सितम्बर के अन्त तक इनके चूजे बड़े होकर उड़ने में समर्थ हो जाते हैं और अक्टूबर में यह पक्षी यहां से चले जाते हैं।
यह सिलसिला ऐसे ही वर्षों से चला आ रहा है। चूंकि यह पक्षी मानसून के साथ-साथ यहां आते हैं इसलिए ग्रामीण इसे बरसात का सूचक मानते हैं। गांव वाले इसको पहाड़ी चिड़िया के नाम से पुकारते हैं, जबकि यह चिड़िया पहाड़ों पर कभी नहीं जाती। इनके पंख सफेद व काले रंग के और पैर लाल रंग के होते हैं। इनका आकार बगुले से बड़ा और सारस से छोटा होता है। इनकी चोंच के मध्य खाली स्थान होने के कारण इन्हें ओपनबिल कहा गया। चोंच का यह आकार घोंघे को उसके कठोर आवरण से बाहर निकालने में मदद करता है। यह पक्षी पूर्णतया मांसाहारी है। जिससे गांव वालों की फसलों को कोई नुकसान नहीं पहुंचता। गांव वालों के अनुसार आज से 100 वर्ष पूर्व यहां के जमींदार बल्देव प्रसाद ने इन पक्षियों को पूर्णतया संरक्षण प्रदान किया था और यह पक्षी उनकी पालतू चिड़िया के रूप में जाने जाते थे। तभी से उनके परिवार द्वारा इन्हें आज भी संरक्षण दिया जा रहा है। यह पक्षी इतना सीधा व सरल स्वभाव का है कि आकार में इतना बड़ा होने के बावजूद यह अपने अण्डों व बच्चों का बचाव सिकरा व कौओं से भी नहीं कर पाता। यही कारण है कि यह पक्षी यहां अपने घोसले गांव में ही पाये जाने वाले पेड़ों पर बनाते हैं। जहां ग्रामीण इनके घोसले की सुरक्षा सिकरा व अन्य शिकारी चिड़ियों से करते हैं।
यहा गाँव दो स्थानीय नदियों पिरई और सराय के मध्य स्थिति है गाँव के पश्चिम नहर और पूरब सिंचाई नाला होने के कारण गाँव के तालाबों में हमेशा जल भरा रहता है। जिससे इन पक्षियों का भोजन घोंघा, मछली आदि प्रचुर मात्रा में उपलब्ध रहता है। ओपनबिलस्टार्क का मुख्य भोजन घोंघा, मछली, केंचुऐ व अन्य छोटे जलीय जन्तु हैं। इसी कारण इन पक्षियों के प्रवास से यहां के ग्रामीणों को प्लेटीहेल्मिन्थस संघ के परजीवियों से होने वाली बीमारियों पर नियंत्रण रखता है क्योंकि सिस्टोसोमियासिस, आपिस्थोराचियासिस, सियोलोप्सियासिस व फैसियोलियासिस (लीवरफ्लूक) जैसी होने वाली बीमारियां जो मनुष्य व उनके पालतू जानवरों में बुखार, यकृत की बीमारी पित्ताशय की पथरी, स्नोफीलियां, डायरिया, डिसेन्ट्री आदि पेट से संबंधित बीमारी हो जाती हैं। चूंकि इन परजीवियों का वाहक घोंघा (मोलस्क) होता है जिसके द्वारा खेतों में काम करने वाले मनुष्यों और जलाशयों व चारागाहों में चरने व पानी पीने वाले वाले पशुओं को यह परजीवी संक्रमित कर देता है।
इन पक्षियों की बहुतायत से यहां घोंघे लगभग पूर्णतया इनके द्वारा नष्ट कर दिये जाते हैं, जिससे यह परजीवी अपना जीवनचक्र पूरा नहीं कर पाते और इनसे फैलने वाला संक्रमण रुक जाता है। इन रोगों की यह एक प्रकृति प्रदत्त रोकथाम है। इतना ही नहीं इन पक्षियों के मल में फास्फोरस, नाइट्रोजन, यूरिक एसिड आदि कार्बनिक तत्व होने के कारण जिन पेड़ों पर यह आवास बनाते हैं उसके नीचे इनका मलमूत्र इकट्ठा होकर बरसात के दिनों में पानी के साथ बहकर आस पड़ोस के खेतों की उर्वरकता को कई गुना बढ़ा देता है। इतनी संख्या में ओपनबिल स्टार्क पूरे उत्तर प्रदेश में कहीं अन्यत्र देखने को नहीं मिलती। अतः स्थानीय लोगों को इन पक्षियों का शुक्रगुजार होना चाहिए और सहयोग देकर पक्षियों के इस स्वर्ग को नष्ट होने से बचाना चाहिए ताकि पक्षियों का यह अनूठा निवास और भारत की जैव विविधता हमेशा फलती-फूलती रहे। वैसे तो आज भी प्रत्यक्ष रूप से यहां इन पक्षियों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाता पर लगातार पेड़ों की कटाई और अवैध रूप से खेती के लिए तालाबों की कटाई जारी है जिससे इन पक्षियों के आवास और भोजन प्राप्ति के स्थानों पर खतरा मंडरा रहा है जो भविष्य में इनकी संख्या को कम कर देगा।
आज के इस आपाधापी के दौर में जब मनुष्य सिर्फ भौतिकता की दौड़ में शामिल है, तब भी कुछ लोग ऐसे हैं, जो प्रकृति की इन खूबसूरत रचनाओं को बचाने में लगे हुये हैं। यह प्रशंसनीय है। मनुष्य लगातार विकास के नाम पर प्रकृति से दूर होता जा रहा है। प्रकृति में सारी क्रियाएं सुसंगठित व सुनिश्चित होती हैं। जब तक कि इसमें कोई छेड़छाड़ न किया जाय। परन्तु मानव जाति की भौतिकतावादी सोच ने प्रकृति का दोहन करके इसे पूरी तरह से असन्तुलित कर दिया है और यही कारण है कि हम आज प्रकृति के संरक्षण की बात कर रहे हैं ताकि वह सन्तुलन बरकरार रहे। नहीं तो अब तक पर्यावरण संरक्षण, जीव-जन्तु संरक्षण, जल संरक्षण और पर्यावरण प्रदूषण जैसे शब्द सिर्फ किताबी हुआ करते थे। यह एक हास्यास्पद बात ही है कि अब सारा विश्व पर्यावरण संरक्षण के कार्यों में बड़े जोर-शोर से लगा हुआ है। पहले तो हम किसी वस्तु को नष्ट करते हैं और जब उसके दुष्प्रभाव अपना असर दिखाने लगते हैं तब हम संरक्षण की बात करते हैं। आज पर्यावरण प्रबन्धन में बड़ी-बड़ी संस्थाएं व सरकारें लगी हुई हैं। एक सोचनीय प्रश्न है कि मनुष्य सिर्फ किसी निश्चित स्थान का प्रबंधन करने में सक्षम है पर क्या उसने कभी सोचा है कि वह पूरी पृथ्वी के पारिस्थितिकी तंत्र का प्रबंधन कर सकता है।
आज के इस वाद काल के दौर में जातिवाद, धर्मवाद, भौतिकवाद, साम्यवाद अन्य के स्थान पर अगर हम प्रकृतिवाद को महत्व दें तो हमारी सारी समस्यायें खुद-ब-खुद दूर हो जायेंगी, यह शाश्वत सत्य है। अगर हम इसे एक दार्शनिक के दृष्टिकोण से देखें तो यह सारा संसार सारी चीजों से मिलकर बना है और वह सारी चीजें आपस में एक दूसरे को प्रभावित करती हैं, चाहे वह प्रत्यक्ष रूप में करें अथवा अप्रत्यक्ष। एक मनुष्य के पूरे शरीर की तरह यदि शरीर का एक अंग नष्ट हो जाये तो उससे सारा शरीर बिना प्रभावित हुये नहीं रह सकता। इसी प्रकार इस प्रकृति के सारे तत्व एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और यदि कोई एक तत्व प्रभावित होता है तो इससे पूरा पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित होता है। अतः आकाश की सुन्दरता को पक्षीविहीन होने से जिस प्रकार यह ग्रामीण सतत् प्रयासरत् हैं, यह अपने आप एक सराहनीय प्रयास है और इससे हमें सबक लेना चाहिये।
ये पक्षी अपने घोंसले इस गांव के अलावा खीरी जनपद में ऐठापुर फार्म के मालिक आलोक शुक्ल के निजी जंगल में काफी तादाद में बनाते हैं। एक खास बात यह कि दुधवा नेशनल पार्क के बाकें ताल के निकट के वृक्षों पर इन पक्षियों की प्रजनन कालोनी विख्यात थी किन्तु सन् 2001 से पक्षियों का सह बसेरा उजड़ गया। यानी संरक्षित क्षेत्रों के बजाय ग्रामीण क्षेत्रों में इन चिड़ियों का जीवन चक्र अधिक सफल है। कुल मिलाकर जब आज मानव जनित कारणों से पक्षियों की कई प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं और कई प्रजातियां विलुप्ति की कगार पर हैं ऐसे में खीरी जनपद में पक्षियों के यह सुरम्य वास स्थल जीवों के संरक्षण की एक नई राह दिखाते हैं प्रदेश में इन पक्षियों के घोसलों के बारे में यदि कोई जानकारी हो तो मुझे सूचित करे ताकि इनके व्यवहार के अध्ययन व इनके संरक्षण के समुचित प्रयास किये जा सके।
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