पिथौरागढ़ की भवन निर्माण तकनीकी

परम्परागत वास्तु शैली में निर्मित भवन
परम्परागत वास्तु शैली में निर्मित भवन
इस आलेख का सम्बन्ध मुख्यतः पर्वतीय जिले पिथौरागढ़ के दूरस्थ ग्राम्यांचलों में निवास करने वाले लोगों व समुदायों के जन-जीवन से है। मैं 1940 के दशक में पिथौरागढ़ कस्बे के समीप रहता था। तब इस पूरे इलाके में मोटर सड़क नहीं थी। दूर-दराज में बिखरे पर्वतीय गाँव सँकरी पगडंडियों से जुड़े थे। नदी घाटी के मुहानों से अजपथ पहाड़ियों की पीठ पर रेंगते चढ़ते और पर्वतशीर्षों के समीप दर्रों से उतरते दूसरी नदी घाटी के इलाके में पहुँचते थे। मेरी पत्नी पेशे से डॉक्टर थी और उनका दवाखाना पिथौरागढ़ के निकट चण्डाक नामक स्थान में था। अनेक गम्भीर रोगों से ग्रस्त मरीज, जिन्हें इस कठिन पर्वतीय बटियों से दवाखाने तक नहीं लाया जा सकता था, उनके उपचार के लिये हमें बहुत दूर के गाँवों तक जाना पड़ता था। यह सब इस इलाके को जानने और गाँववासियों के जनजीवन को समझने में सहायक था। एक वास्तुकार होने के नाते मेरी रुचि इन पर्वतीय गाँवों के घरों की निर्माण शैली, आकार की सज्जा व कार्यात्मक व्यवस्था को देखने-समझने की अधिक रहती थी।

“किसी ग्राम में आदर्श घर वही कहा जायेगा जो गाँव की पाँच मील की परिधि में उपलब्ध स्थानीय भवन सामग्री से निर्मित किया गया हो”, महात्मा गाँधी के इस कथन ने मुझे लुभाया था और वास्तुशिल्प से जुड़ी मेरी चिन्तन प्रक्रिया को सबसे अधिक प्रभावित किया था। इस पर्वतीय अंचल में आश्चर्यजनक रूप से हमारे आस-पास अनेक अच्छे-खासे घर गाँधी जी के समझदार नजरिये के अनुरूप बने हुए देखने को मिलते हैं। घरों में प्रयुक्त लकड़ी, जो आकार व लम्बाई में काफी बड़ी होती, नजदीक से ही प्राप्त हो जाती क्योंकि वह वहाँ बहुतायत में उपलब्ध थी। पूरे वृक्ष का तना घर की छतों पर धूर व बल्लियों के रूप में प्रयोग में लाया जाता। चीड़ के पिरूल व अपशिष्टों के ऊपर पत्थर या पटालों (स्लेट) को मिट्टी के गारे से बिठाया जाता। छत में प्रयोग आने वाली सामग्री आस-पास ही उपलब्ध रहती। कुछ साधन-सम्पन्न लोग पतले पटालों को अन्य नियत स्थानों से प्राप्त करते थे। घरों पर इस तरह पटालों की ढालदार छत गर्मी के मौसम में ऊँचे ताप, वर्षा ऋतु में तेज मानसूनी फुहारों व जाड़ों में गहन हिम वर्षण को सहने में समर्थ थी और पर्वतीय परिवेश के पूर्णतः अनुकूल भी थी।

नियोजन की दृष्टि से ये घर सहज व कार्यात्मक थे। घर गहन पर्वतीय ढलानों के साथ बने होने के कारण भूढाल के अनुरूप सामान्यतः विभिन्न तलों वाले मिलते थे। अनावश्यक भूकटाव व मिट्टी को हटाने से बचा जाता था। मकान के सबसे निचले, बाहरी तल को गोठमाल कहा जाता था। इसमें बाहरी दीवार पर दरवाजे व खिड़कियाँ टंगी होती। इसके भीतर गोठ में पशु बँधते और कभी इसका कोई हिस्सा रसोई के रूप में प्रयोग में लाया जाता तो भण्डार भी गोठमाल में बनाये जाते थे। गोठ के ऊपर आधे तल पर धूप-छाँव के अनुरूप बरामदे बने होते, जिन पर नीची मेहराबदार खिड़कियाँ (बारखियाँ) व दरवाजे होते, इन पर लगी लकड़ी पर नक्काशी होती। इस चाख (बरामदे) से ही घर के भीतरी कक्षों में प्रवेश सम्भव होता। यह चाख ही आगन्तुक व परिवारजनों का बैठक स्थल होता। चाख में शीत ऋतु में बारखियों से छनकर धूप मिलती तो ग्रीष्म में छाया व ठण्डी हवा और सूर्य की तपन से राहत। रात्रि में खिड़की- दरवाजों को बन्दकर लोग यहाँ अँगीठी सेंकने को बैठते तो पूरे घर की हवा गरमा जाती। चाख से जुड़ी ऊपरी मंजिलों में छोटे-छोटे वर्गाकार कक्ष अपेक्षाकृत कम प्रकाश वाले होते जो परिवारजनों के शयनकक्ष एवं अनाज भण्डारण हेतु साथ-साथ प्रयोग में आते। कभी-कभी इन अन्तरवर्ती कक्षों में किसी कक्ष को भोजन करने के स्थान के रूप में प्रयोग में लाया जाता था। गोठ में पशुओं के बँधने से घर के भीतर अपेक्षित गरमी मिलती रहती।

बसाव, भू-प्रयोग और कार्यात्मकता की दृष्टि से ग्राम्य नियोजन सहज होता। अक्सर गाँवों में मकान (घर) एक कतार में एक-दूसरे से जुड़े होते। दस-बारह भाई ऐसे में साथ रहते और उनकी चाख एक होती। इन मकानों की लम्बी कतार एक ही छत तले होती। ढाल के अनुरूप भिन्न-भिन्न ऊँचाई पर मकानों की कतार एक से अधिक होती चली जाती और कभी-कभी आड़ी-टेढ़ी भी हो जाती। ऊँचाई लेती मकान की ये कतारें परिवेश के अनुरूप सीढ़ीनुमा खेतों की देखभाल, धूप, वर्षा, वनों से आती ठण्डी हवा से बचाव हेतु उपयुक्त लगती थी।

हिमालयी घरेलू भवन निर्माण की यह देशी वास्तु शैली मेरी दृष्टि में पूर्णतः सरल, सक्षम और कम खर्चीली थी। शानदार मकानों (घरों) का यह आनन्ददायक प्रदर्शन (नजारा) सिद्ध करता था कि यह हजारों वर्षों के अनुभव व शोध का परिणाम है जिसमें स्थानीय भवन सामग्री व संसाधनों का बेहतर प्रयोग इस इलाके की हिमालयी जलवायु के अनुरूप है तथा प्राकृतिक आपदाओं को सहने एवं सामाजिक दरकारों के नितान्त अनुकूल भी। गहन पर्वतीय ढलानों पर भूकम्प से बचाव, भू-स्खलन प्रवृत्त क्षेत्र से हटकर पगडंडियों के साथ (मकानों) के निर्माण की कठिन समस्या का यह प्रासंगिक हल है। कुछ घरों के तथाकथित आधुनिकीकरण के प्रयास स्पष्ट ही हमारे मिथ्याभिमान (दम्भ) को दर्शाते हैं और लगता है, हम कितने मूर्ख (बेवकूफ) हैं जो हजारों वर्षों की अपनी शोधजनित देशी भवन निर्माण की तकनीक व समृद्ध परम्परा को भुला देते हैं।

किन्तु आज पिथौरागढ़ जिले में निवास करने वाले बाशिन्दे अपने घरों की वास्तविक आवश्यकता के लिये क्या विचार रखते हैं?

मैं जानना चाहता हूँ, ये लोग अपने घरों के विषय में क्या सोचते हैं? आप में से अनेक लोग मूलतः पिथौरागढ़ के निवासी होंगे और नैनीताल, बरेली, लखनऊ, यहाँ तक कि दिल्ली के (स्थायी) शहरी प्रवासी हो चुके होंगे और आप निश्चित तौर पर सुविधाजनक किचन, बाथरूम व लैट्रिन, बुखारियों, धूम्ररहित चूल्हों, शीशेदार खिड़कियों, ईंट की दीवारों, सीमेंट, कंक्रीट के फर्श व छतों आदि की चाहत रखते होंगे लेकिन मेरा अपना व्यक्तिगत अनुभव है कि ऐसी सुविधाओं की चाहत का अन्तहीन सिलसिला ऐसी समस्या का कारण बनता है जिसका निदान सम्भव नहीं। विकास व तरक्की के नाम पर सुविधा सम्पन्न लोगों का विलासी नजरिया शायद ही सराहना पाता हो।

बहुत खुले मन से मैं प्रश्न करना चाहूँगा कि क्या दूरस्थ गाँवों में इस प्रकार के घरों की आवश्यकता है।

यदि सुदूरवर्ती गाँवों में घरों की वास्तव में जरूरत है तो परम्परागत देशी तरीके से बनने वाले मकानों को बनाने में आज क्या दिक्कतें हैं?

निश्चित ही ऊँची लागत, कीमत और मुख्यतः महँगी लकड़ी और मजदूरी। ऊँची होती मजदूरी से निरन्तर बढ़ती श्रम लागत पर न तो कुछ कहा जा सकता है, न ही कुछ किया जा सकता है। पिथौरागढ़ में घर बनाने की सभी लागतों में मुख्य लागत श्रम मूल्य है। उदाहरण के तौर पर घरों में लगने वाले पत्थर को ही लिया जाय तो वह मकानों के पास ही बहुतायत में उपलब्ध है। पत्थरों को निकालना, तराशना और उन्हें भवन निर्माण स्थल तक पहुँचाना व चिनाई के लिये राज (मिस्त्री) को देना, सब मजदूर का कार्य होने से लागत ऊँची हो जाती है। इसके विपरीत ईंटों के निर्माण में मजदूरी के अलावा अन्य निर्माण व परिवहन लागतों की बचत से वह नीची रह जाती है। यहाँ दूसरी बड़ी समस्या इमारती लकड़ी की है इधर वनों से अधिक लकड़ी कटी है और निजी पेड़ों व लकड़ी का अनियंत्रित कटान हुआ है जबकि इसके बदले नया वृक्षारोपण नहीं हुआ। कभी इस प्रदेश में वनों का कटान बेहद नियंत्रित था व लकड़ी की निकासी सीमित। इधर लोगों को लकड़ी के मूल्य की पहचान हुई और लालच के कारण जंगलों पर दबाव तेजी से बढ़ा। पिछले पच्चीस वर्षों में वन प्रचण्ड गति से सिमटे हैं। इमारती लकड़ी आज विलासिता की वस्तु हो गई है और हम घरों में इसका प्रयोग खुले हाथ से नहीं कर सकते।

हमें गृह-निर्माण एवं नियोजन में आवश्यक सुविधाओं के विस्तार एवं सुधारों को ध्यान में रखना होगा जिसके कारण नई समस्याएँ यथा लकड़ी (जलावन) आदि की आयेगी। अभी कुछ समय पूर्व तक जलावन व प्रकाश हेतु लकड़ी जंगलों से आती थी किन्तु अब नये ज्वलनशील पदार्थों एवं ऊर्जा साधनों के प्रयोग में आ जाने से मकानों (घरों) की अन्तर्व्यवस्था प्रभावित होगी, बदलाव चाहेगी।

विभिन्न प्रकार के परिवर्तनों व बदलते समय के साथ परम्परागत गाँधीवादी गृह निर्माण की देशी तकनीक आज के हालात में पूर्णतः उपयुक्त व सक्षम नहीं रह गयी है। अतः हमारे लिये यह आवश्यक हो गया है कि आधुनिक सन्दर्भों में अत्यधिक प्रचलित शब्द माध्यमिक तकनीकी, उपयुक्त तकनीकी और सहज स्वीकार्य तकनीकी हमारे सन्दर्भों में क्या माने रखते हैं। मेरा अपना विश्लेषण है कि ये सभी तकनीक उचित तरीके हैं जिनके प्रयोग से हम अपने दैनिक जीवन से जुड़ी समस्याओं के सहज, किफायती और कारगर हल निकाल सकते हैं। ऐसी तकनीकें हमारी पहुँच में हैं और इनके अपनाने में जिन वस्तुओं की जरूरत होगी व जिन बुद्धि- शिल्पज्ञों की आवश्यकता होगी उनकी सहज उपलब्धता है। मैं अवलोकन से इस निष्कर्ष में पहुँचा कि देशी वास्तु शैली में मकान से जुड़ी हमारी जरूरत व समस्याओं के अच्छे-खासे हल मौजूद हैं। जिस बात की जरूरत है वह यह कि हमारे बाप-दादाओं द्वारा की गई महत्त्वपूर्ण शोध प्रक्रिया को एक कदम आगे बढ़ायें जिसमें हमारे बीसवीं सदी के अनुभवों से इजाफा हो लेकिन संकलन का यह प्रयास योगदान सिद्ध हो न कि प्रतिवाद का कारण।

अनुवाद- ललित पन्त


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