सनातन धर्म की परम्परा के मुताबिक साल में एक बार पितृपक्ष आता है। मान्यता है कि पूर्वज भौतिक तौर पर हमारे बीच नहीं हैं, मगर उनका अस्तित्व किसी-न-किसी रूप में हमारे आस-पास रहता है। पितृपक्ष में अब इस परम्परा के साथ दिवंगत प्रियजन की याद में पौधे रोपकर पेड़ बनाने का नवाचार पिछले कुछ वर्षों से देश के विभिन्न स्थानों पर आरम्भ हुआ है।
हिन्दू मान्यता के अनुसार अभी देश में पितृपक्ष चल रहा है। इन पन्द्रह दिनों में परिवार के दिवंगत लोगों को याद में श्राद्ध कर तर्पण किया जाता है एवं ब्राह्मणों को भोजन करवाकर कागवास (कौओं के लिये भोजरी भी डाला जाता है।) पितृपक्ष में अब इस परम्परा के साथ दिवंगत प्रियजन की याद में पौधे रोपकर पेड़ बनाने का नवाचार पिछले कुछ वर्षों से देश के विभिन्न स्थानों पर प्रारम्भ हुआ है। घटती हरियाली एवं बिगड़ते पर्यावरण में इस प्रकार पितरों (दिवंगत प्रियजन) की याद में पेड़ लगाने का कार्य न केवल प्रशंसनीय अपितु अनुकरणीय भी है।उत्तराखण्ड की राजधानी देहरादून से करीब 16-17 किलोमीटर की दूरी पर स्थित शुक्लापुर गाँव के श्मशान घाट पर आसपास के कई गाँवों के लोग परिजनों का अन्तिम संस्कार करते हैं। अन्तिम संस्कार के बाद दिवंगत परिजन की याद में एक पौधा लगाकर चिता की राख ठंडी होने पर खाद के रूप में डाली जाती है।
विज्ञान के क्षेत्र में पुनर्जन्म की अवधारणा भले ही विवादित हो परन्तु यहाँ के गाँवों के लोगों का विश्वास है कि दिवंगत पौधे से पेड़ बनकर फिर उनके साथ रहेगा। इसी विश्वास के कारण वहाँ के लोगों में श्मशान घाट का नाम ‘पुनर्जन्म’ रख दिया है। परिवार के लोग लगाये पौधे में अपने दिवंगत परिजन की छवि देखकर वे भावनात्मक रूप से जुड़ जाते हैं। हिमालयीन क्षेत्र में संरक्षण के कार्य से जुड़े पद्मश्री डॉ. अनिल प्रकाश जोशी की प्रेरणा से दिसम्बर 2011 में यह कार्य प्रारम्भ किया।
बिहार के गया जिले में रोशनपुरा ग्राम पंचायत के गाँव भलुआर में भी व्यक्ति के दाह संस्कार के बाद एक पौधा लगाया जाता है। रोपित पौधे की देखभाल दिवंगत व्यक्ति के परिवार वाले करते है। गाँव में स्थापित नवयुवक संघ में पौधे लगाने की यह शुरुआत 2007 में की थी, जो आज एक परम्परा बन गई है।
एक हजार से अधिक पौधे अब तक लगाए जा चुके हैं जिसमें से कई वृक्ष का स्वरूप ले चुके है। यहाँ दिवंगत की जीवनी एक छोटी पुस्तिका में लिखी जाती है जिस पर गाँव के लोग शोकसभा के बाद अपने हस्ताक्षर भी करते हैं। राजस्थान के बाँसवाड़ा स्थित गाँव नया प्रान्त के स्कूल शिक्षक दिनेश व्यास भी पुरखों की याद में पेड़ लगा रहे हैं।
देश में स्वच्छता में पिछले दो वर्षों से प्रथम स्थान पर रहने वाले मध्य प्रदेश के शहर इन्दौर में भी वर्ष 1974-75 में स्थानीय गैर सरकारी संस्था इन्दौर-इको-सोसायटी द्वारा भी पूर्वजों की याद में पेड़ लगाने का कार्य किया था। शहर के महू-नाका से फूटी कोठी वाले मार्ग पर 4-5 वर्षों में 30-35 पेड़ सड़क के दोनों किनारों पर शहर के कुछ परिवारों ने अपने पुरखों की याद में लगाए थे। स्थानीय लोग ने भी इस कार्य में भरपूर सहयोग दिया था।
दिवंगत लोगों की याद में पेड़ लगाने के कारण शहर में लोग इसे ‘स्मृति-मार्ग’ कहने लगे थे। स्थानीय गुजराती साइंस कॉलेज के प्राध्यापक स्व. डॉ. राकेश त्रिवेदी तथा डॉ. ओ.पी.जोशी (लेखक) ने इस कार्य में अहम भूमिका निभाई थी। बाद में शहर के विकास एवं मार्ग चौड़ीकरण आदि के कारण पेड़ काट दिये गए जिससे स्मृति-मार्ग विस्मृति मार्ग हो गया। सम्भवतः इसी कार्य से प्रेरणा लेकर वर्ष 2002 में पितृ-पर्वत योजना शुरू की गई थी।
तत्कालीन महापौर श्री कैलाश विजयवर्गीय के कार्यकाल में लगभग 400 एकड़ में फैले देवधरम पहाड़ी पर पौधे लगाए गए एवं यह पितृ-पर्वत में बदल गया।
आज भी 30 हजार के लगभग पौधे यहाँ लगे हैं जिनमें कई पेड़ बन गए हैं। देश के कई जाने-माने लोगों ने इन्दौर प्रवास के दौरान यहाँ आकर पौधे रोपे। स्थानीय लोग रु. 250 नगर निगम में जमाकर अपने परिवार के किसी दिवंगत प्रियजन को याद में यहाँ पेड़ लगा सकते थे। इसी पहाड़ों पर अब 66 फीट ऊँची 90 टन वजन की एक हनुमान प्रतिमा भी लगाई जा रही है, जो अष्टधातु की बनी है।
दिल्ली सरकार ने वर्ष 2017 में हरियाली बढ़ाने हेतु एक योजना ‘अपनों की यादें’ नाम से प्रारम्भ करने की पहल की है। इस योजना के तहत लोग अपने दिवंगत परिजन को याद में पेड़ लगाकर देखभाल करेंगे एवं चाहे तो पेड़ का नाम भी परिजन के नाम पर रख सकते हैं। दिल्ली सरकार ने इस योजना के क्रियान्वयन हेतु दिल्ली विकास प्राधिकरण से 100 एकड़ जमीन की माँग भी की है।
देश के ज्यादातर शहरों में हरियाली की कमी है क्योंकि विकास की योजनाओं को लागू करने के लिये वृक्षों का बेतरतीब विनाश किया गया। वृक्षों की कमी से शहरों का पर्यावरण बिगड़ रहा है एवं वायु प्रदूषण का प्रभाव ज्यादा घातक हो रहा है। ज्यादातर लोग अपने दिवंगतों का आदर से यादकर पितृ पक्ष में उनका श्राद्ध करते हैं।
पितृ पक्ष वर्षाकाल के एक दम बाद में आता है अतः शहरों को स्थानीय निकाय एवं सामाजिक संगठन तथा गैर सरकारी संस्थाएँ दिवंगतों की याद में पौधारोपण की कोई योजना बनाए तो ज्यादा सफल होगी। लोग भी भावनात्मक रूप से महसूस करेंगे कि उनके दिवंगत की स्मृति पेड़ के स्वरूप मौजूद है।
डॉ. ओ.पी. जोशी स्वतंत्र लेखक हैं तथा पर्यावरण के मुद्दों पर लिखते रहते हैं।
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