जिन वजहों से क्लाइमेट इमरजेंसी के हालात पैदा हुए हैं, उनमें से एक है ग्लोबल वॉर्मिंग के असर से ग्लेशियरों और ध्रुवीय इलाकों की बर्फ का पिघलना। हाल ही के वर्षों में वहां बर्फ इतनी तेजी से पिचलने लगी है कि जिसे देखकर डर लगता है डर की वजह यह है कि इन इलाकों की एक सेंटीमीटर बर्फ पिघलने का असर 60 लाख लोगों पर पड़ता है। इसका अभिप्राय यह है कि इस तरह 60 लाख नए लोग डूब क्षेत्र की जद में आ जाते हैं। इसीलिए वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं कि सिर्फ बर्फ पिघलने की वजह से इस सदी के अंत तक करोड़ों लोगों का जीवन दांव पर होगा। जिन इलाकों में बर्फ पिघलने की रफ्तार तेज है, उनमें से एक है बर्फ से हमेशा ढका रहने वाला द्वीप ग्रीनलैंड, ग्रीनलैंड आर्कटिक और अटलांटिक महासागर के बीच मौजूद दुनिया का सबसे बड़ा द्वीप है। इस द्वीप के बीचों-बीच बर्फ की चादर एक मील मोटी है। ग्लोबल वॉर्मिंग के असर से ग्रीनलैंड की बर्फीली चादर धीरे-धीरे पतली होती जा रही है। आकलन है कि 1990 में जिस गति से यहां पर बर्फ पिघल रही थी, उसके मुकाबले अब सालाना इसकी गति 7 गुना तेज हो गई है। साइंस जर्नल नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, 89 वैज्ञानिकों ने 26 साल तक 11 सटेलाइट तस्वीरों के जरिये 1992 से लेकर 2018 के बीच यहां की बर्फ की मोटाई, उसके बहाव और गुरुत्वाकर्षण (ग्रेविटी) का अध्ययन किया। ग्रीनलैंड का अध्ययन करने के बाद जो नया आकलन पेश किया है, उसके अनुसार पृथ्वी की जलवायु को नियंत्रित करने वाले इस द्वीप की अगर यही हालत रही तो आने वाले दिनों में पूरी दुनिया को इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा। इस शोध के मुताबिक अगर इसी दर से ग्रीनलैंड की बर्फ पिघलती रही तो आने वाले दिनों में समुद्र का जल स्तर इस सदी के अंत 7 सेंटीमीटर तक बढ़ जाएगा, जिससे करोड़ों लोगों की जिंदगी के लिए मुश्किलें पैदा हो जाएंगी। इन वैज्ञानिकों के अनुसार सदी के अंत तक ग्रीनलैंड की पिघलती बर्फ की वजह से 420 लाख लोगों पर गाज गिरने वाली है।
ग्लेशियर की समाधि
बर्फ सिर्फ ग्रीनलैंड में नहीं पिघल रही, बल्कि दुनिया भर के ग्लेशियरों पर भी ऐसा ही संकट मंडरा रहा है। वर्ष 2019 में ऐसी ही चर्चित घटना आइसलैंड में हुई, जहां करीब सात सौ साल पुराना ओकोजोकुल ग्लेशियर जाते- जाते आखिर चला ही गया। दावा किया गया कि यह पहला ऐसा ग्लेशियर है जो जलवायु परिवर्तन की जानी-मानी समस्या की चपेट में आकर दुनिया के नक्शे से पूरी तरह मिट गया। सात सदी पुराना ग्लेशियर गला, तो दुनिया में पहली बार एक ग्लेशियर की याद में एक शोक सभा हुई। शोक में डूबे आइसलैंड के प्रधानमंत्री कैटरीन जोकोबस्दोतियर की अगुआई में ओकोजोकुल की मौत पर मर्सिया पढ़ा गया और दुआ की गई कि दुनिया का कोई और ग्लेशियर इस तरह हमसे हमेशा के लिए जुदा न हो जाए करीब 35 बरस तक लगातार पिघलती बर्फ के कारण यह नौबत आई कि 38 वर्गफीट किलोमीटर से सिकुड़कर एक किलोमीटर तक रह गए इस ग्लेशियर की अंततः समाधि बन गई और इसके समाधि लेख में दुनिया के बाकी बचे ग्लेशियरों को लेकर शोकसभा में चिंता प्रकट की गई। ग्लेशियर यानी हिमनद हमारे देश में भी पिघल रहे हैं। हमारे देश में ग्लेशियरों (हिमनदों) के पिघलने और इस वजह से प्राकृतिक आपदाओं की खबरें तो अरसे से आती रही हैं पर इसे एक बड़ा खतरा मानते हुए अदालतों का ध्यान भी इधर गया है। तीन साल पहले 2016 में उत्तराखंड हाईकोर्ट ने इस मामले में एक बड़ी पहल कदमी करते हुए राज्य के सभी हिल स्टेशनों और ग्लेशियरों को 3 महीने में इको सेंसिटिव घोषित करने और ग्लेशियरों के 25 किलोमीटर के क्षेत्र में सभी प्रकार के निर्माण कार्यों पर रोक लगाने के आदेश दिए थे। इसके अलावा ग्लेशियर घूमने जाने वाले पर्यटकों पर टैक्स लगाने और उनकी संख्या नियंत्रित करने का आदेश भी अदालत ने दिया था। उत्तराखंड हाई कोर्ट का यह आदेश एक जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान आया था, जिसमें नैनीताल के आस-पास अवैध निर्माण और वृक्षों के अवैध रूप से कटाई पर रोक लगाने के लिए अदालत से दखल का अनुरोध किया गया था। हाई कोर्ट ने भीम ताल, सात ताल, नौकुचिया ताल, नैनीताल और खुरपा ताल के चारों और 2 किमी और 5 किमी के क्षेत्र में सभी प्रकार के निर्माण और वृक्षों की कटाई पर रोक लगा दी थी। यह आदेश भी दिया था कि गंगोत्री और यमुनोत्री ग्लेशियरों के 25 किमी के क्षेत्र में कोई नया निर्माण नहीं होगा, जबकि 10 किमी के क्षेत्र में कोयला या अन्य किसी प्रकार का जीवाश्म ईंधन नहीं जलाया जाएगा। अदालत के ऐसे आदेशों-निर्देशों पर कितना अमल किया जाता है, यह तो समय बताएगा पर यह जरूर है कि अब ऐसे ही उपायों से ग्लेशियरों को बचाया जा सकता है पर सवाल यह है कि आखिर ग्लेशियरों के संरक्षण के लिए ऐसे उपायों की जरूरत क्यों पड़ रही है।
हमारे देश में गंगोत्री के अलावा पिंडारी और शिगरी नाम के दूसरे बड़े हिमनद पिघले हैं। जम्मू-कश्मीर का पिंडारी हिमनद 1848 से 1957 के बीच 108 वर्षों में 1350 मीटर सिकुड़ चुका था। इसी तरह, तंजानिया (अफ्रीका) में किलिमंजारो के ग्लेशियर लगभग गायब हो चुके हैं। पेरू की दक्षिणी एंडस पर्वतमाला में स्थित क्युलस्सया बर्फ टोपियां 1963 के बाद 20 फीसदी पिघल गईं हैं।
अमरीका में ओहियो स्थित बायर्ड पोलर रिसर्च सेंटर के विज्ञानियों ने दो दशकों के दौरान किए गए शोध में पाया कि अफ्रीका के अलावा, दक्षिणी अमरीका, चीन, तिब्बत, भारत और दूसरी जगहों पर ग्लोबल वॉर्मिंग आदि अनेक पर्यावरणीय कारणों से हिमनद पिघल रहे हैं। निश्चय ही पर्यावरण हितैषी उपाय ही इन्हें बचाने में कारगर हो सकते हैं। यदि हम हिमालय के पर्यावरण से छेड़छाड़ न करें, नदियों का प्राकृतिक प्रवाह न रोकें और सीमित दायरे में रहकर तीर्थयात्रा व पर्यटन करें, तो ही प्रकृति की ये सौगातें वरदान के रूप में मौजूद रहेंगी और इनसे ऐसा विनाश नहीं होगा। कोशिश होनी चाहिए कि हिमनदों के रूप में प्रकृति के इस ठंडे व श्वेतवर्णी वरदान को हमेशा के लिए बचाकर रखा जा सके।
अमीर-गरीब पर भी जलवायु का असर
जलवायु परिवर्तन का एक सीधा असर देशों की अमीर-गरीब पर भी पड़ता है। इसका शायद ही पहले कोई अंदाजा लगाता रहा हो पर अब यह साबित हो रहा है कि असल में बढ़ती गर्मी और बदलते मौसम अमीरों को और धनी, जबकि गरीबों और ज्यादा मुफलिसी की हालत में पहुंचा रहे हैं। इस सिलसिले में स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं का एक अध्ययन इसी साल अमेरिका के प्रतिष्ठित रिसर्च जर्नल प्रोसीडिंग्स ऑफ दि नेशनल अकेडमी ऑफ साइंसेज (पीएनएएस) में प्रकाशित हुआ है, जिसका मत है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को जलवायु परिवर्तन के कारण 31 फीसदी का नुकसान हुआ है। यह अध्ययन कहता है कि ग्लोबल वार्मिंग का नकारात्मक असर नहीं होता तो भारतीय अर्थव्यवस्था तकरीबन एक तिहाई और ज्यादा मजबूत होती। दूसरे कई देशों की अर्थव्यवस्था भी जलवायु परिवर्तन से प्रभावित हुई है। जैसे कि इससे सूडान को 36 फीसदी, नाइजीरिया को 29, इंडोनेशिया को 27 और ब्राजील को 25 परसेंट का नुकसान हुआ है। बीते 50 वर्षों के आर्थिक विकास और उस पर जलवायु परिवर्तन पर हुए असर को शामिल करने वाली इस रिपोर्ट में कहा गया है. कि 1961 से 2010 के बीच विभिन्न देशों के बीच पैदा हुई कुल आर्थिक असमानता के एक चौथाई हिस्से की वजह मानव गतिविधियों से हो रही ग्लोबल वार्मिंग ही है। अध्ययन में इस बात को पहला आधार बनाया गया कि जलवायु परिवर्तन की वजह सेकिस देश का तापमान कितना बढ़ा। इसके पश्चात् यह आकलन किया गया कि अगर ऐसा न होता तो उस देश का आर्थिक उत्पादन कितना होता।
इस तरह पिछले 50 वर्षों में 165 देशों के बढ़ते तापमान और जीडीपी के रिश्तों का हिसाब लगाया गया। इस अध्ययन की सबसे रोचक बात यह आकलन करना रही है कि जिन विकसित ठंडे देशों का इस दौरान तापमान बढ़ा है उन्हें तो ग्लोबल वॉर्मिंग से लाभ ही हुआ है। जैसे कि नॉर्वें, जिसने इन 50 वर्षों में क्लाइमेट चेंज के विपरीत हालात में तेज विकास किया। जबकि भारत जैसे गर्म देश में न सिफ जैवविविधता इस दौरान खतरे में पड़े, बल्कि साफ हवा-पानी का संकट बढ़ा, जिसकी चोट अंततः अर्थव्यवस्था पर पड़ी।
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