![पहाड़ों में वनाग्नि](/sites/default/files/styles/node_lead_image/public/2024-05/forest%20fire%20in%20Uttarakhand.jpg?itok=jfijNpaO)
पिछले कई दिनों से उत्तराखण्ड के पहाड़ी भागों के जंगल आग से बुरी तरह सुलग रहे हैं। इस फायर सीजन में 550 हैक्टेयर से अधिक वनक्षेत्र की वन सम्पदा को नुकसान पहुंचा है। कई जगहों पर वनों की यह आग आबादी वाले इलाकों तक भी पंहुच रही है। वन महकमा अपने भरसक प्रयासों बाबजूद वनाग्नि की रोकथाम करने में पर्याप्त सफल नहीं दिख रहा है। दूसरी ओर राज्य के उच्च वनाधिकारी और राज्य के मुख्यमंत्री भी इस सन्दर्भ में लगातार नजर गढ़ाये हुए रहे हैं। जंगलों में लगने वाली आग से उस क्षेत्र की जैव विविधता जिसमें असंख्य पेड़-पौधों और छोटे -बड़े वन्य जीवों की दुनिया बसी हुई रहती है उस पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। तमाम वनस्पति व जीव-जन्तु, पक्षी, कीड़े-मकोड़े आग की विभीषिका में जलकर नष्ट हो जाते हैं। कई छोटी वनस्पतियां जो पानी को जमीन के अन्दर ले जाने में मददगार साबित होती हैं वह आग से जल जाती हैं। फलतः जमीन के पूरी तरह शुष्क हो जाने पर जहां भू-कटाव का खतरा बढ़ जाता है वहीं जमीन की जलधारण क्षमता घट जाने से आसपास के जलस्रोतों में पानी की मात्रा भी कम होने लगती है अथवा वे सूखने के कगार पर पहुंच जाते हैं।
लघु हिमालयी क्षेत्र में वनाग्नि के प्रमुख कारणों में चीड़ की पत्तियों (पिरुल) को जिम्मेदार ठहराया जाता है, क्योंकि अपनी तीव्र ज्वलनशील विशेषता से यह तुरंत आग पकड़ लेता है। आग लगने के दौरान चीड़ का जलता हुआ शंकु फल जब पहाड़ी ढाल में लुढ़कने लगता है तो यह आग को फैलाने का काम कर देता है। यह बात उल्लेखनीय है कि उत्तराखण्ड के कुल वनक्षेत्र के 15.25 प्रतिशत भाग पर फैले एकल चीड़ वनों में मार्च से जून के मध्य चीड़ की नोकदार पत्तियां जमीन में गिरने लगती हैं जो आग लगने का कारण बनतीं हैं। अन्य मिश्रित वनों की तुलना में चीड़ के जंगल में नमी की मात्रा कम पायी जाती है इसलिए इसके जंगलों में आग तेजी से फैलती है। चीड़़ में विद्यमान लीसा आग को तुरन्त पकड़ लेता है और इससे चीड़ के पेड़ बुरी तरह जलने लगते हैं।
पहाड़ के जंगलों में आग लगने की घटनाओं के मूल में स्थानीय ग्रामीणों का वनों के प्रति अधिक सजग व जागरुक न होना माना जा सकता है। सामान्यतः आग लगने की शुरुआत सड़क, खेतों व गांव की सीमा से लगे वन क्षेत्रों से ही होती है। यदि यहीं से वनाग्नि की शुरुआती रोकथाम करने के प्रयास हों तो तो स्थिति पर काफी हद तक नियंत्रित की जा सकती है। वनविभाग व वन पंचायतों और स्थानीय लोगों के आपसी तालमेल व सहभागिता से रणनीति बनाकर इस दिशा में वनाग्नि नियंत्रण में काफी हद तक सफलता पायी जा सकती है।
उत्तराखण्ड राज्य बनने के पश्चात बाहरी क्षेत्रों में पलायन होने से पहाड़ के गांव जिस तरह खाली हो रहे हैं, उस वजह से भी अग्नि नियंत्रण में मिलने वाली स्थानीय सहभागिता में भी कमी देखने में आ रही है।वन विभाग में मौजूद वित्तीय व मानव संसाधनों की कमी और समुचित योजनाओं का अभाव में भी अग्नि नियंत्रण में कहीं न कहीं बाधक बना हुआ है। इस दिशा में वन विभाग की ओर से अग्नि शमन के अत्याधुनिक उपकरणों की खरीद करने, आग पतरौलों की अस्थाई नियुक्ति करने, फायर लाइनों की संख्या को बढ़ाये जाने जैसे प्रयास भी कारगर साबित हो सकते हैं। वन संरक्षण कानूनों में आवश्यक संशोधन करते हुए उसे और अधिक जनपयोगी बनाकर स्थानीय ग्रामीण जनों में स्थानीय वनों के प्रति जागरुकता का भाव लाया जा सकता है। निश्चित ही इससे वनों को आग से बचाने के प्रयास किये जा सकते हैं।
उत्तराखण्ड के वनों में लगने वाली आग से हर साल प्रदेश की वन सम्पदा को भारी क्षति पहुंचती है। हजारों हैक्टेयर वन जलकर खाक हो जाते हैं जिनमें कई महत्वपूर्ण प्रजातियां भी होती हैं। वन विभाग से प्राप्त आंकड़ो से पता चलता है कि वर्ष 2000 से लेकर 2017 तक प्रदेश में सर्वाधिक अग्नि प्रभावित वन क्षेत्र वर्ष 2003 व 2004 में रहा। वर्ष 2003 में आग से 4983.00 हैक्टेयर वन क्षेत्र जलकर खाक हो गये थे। वर्ष 2017 में उत्तराखण्ड में कुल 805 वनाग्नि की घटनाएं हुई जिसमें 1244.64 हैक्टेयर वन क्षेत्र को नुकसान पहुंचा जिसकी अनुमानित क्षति रु.18.34 लाख आंकी गयी थी। इस समय उत्तरी कुमाऊं वृत्त के अल्मोड़ा व पिथौरागढ़ प्रभाग वन क्षेत्र वनाग्नि से अत्यधिक प्रभावित रहे थे।
हांलाकि वनों को आग से बचाने के लिए उत्तराखण्ड के वन विभाग द्वारा अपने स्तर पर समय-समय पर समुचित प्रयास भी किये जाते रहे हैं। इनमें प्रमुख कार्य फायर लाइनों का निर्माण करना व आग की पूर्व सूचना देने तथा वनाग्नि को नियंत्रित करने के लिए मास्टर कन्ट्रोल रुम व क्रू स्टेशनों का बनाया जाना भी है परन्तु स्थ्ति जस की तस ही रहती है। हर साल सैंकडों हैक्टयर जंगल जलकर खाक होते रहते हैं। बेहतर होगा कि इस दिशा में उचित रणनीति बनाकर स्थानीय समुदाय की सहभगिता बढ़ाने के कारगर प्रयास किये जांय तथा गरमी के सीजन से पूर्व ही फायर लाइन बनाने का काम किया जा सके तो पहाड़ों की वनाग्नि को काफी सीमा तक नियंत्रित करने में सफलता मिल सकती है।
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