देश की खाद्य सुरक्षा के लिए अन्य क्षेत्रों की ही तरह पहाड़ों में भी सिंचित खेती का क्षेत्रफल बढ़ाना होगा। पहाड़ों में सिंचित खेती का प्रतिशत बहुत कम, औसतन बीस प्रतिशत के लगभग ही है। पहाड़ों में सिंचित खेती का प्रसार अन्य कारणों से भी प्राथमिकता में रखा जाना चाहिए।
एक बात तो यह है कि पहाड़ों में औद्योगीकरण बहुत नहीं हुआ है और रोजगार के अवसर भी बहुत कम हैं। अतः खेतों में बहुत कुछ न होने पर भी पशुपालन के साथ खेती ही पहाड़ों में जीवनयापन का मुख्य साधन है। दूसरी बात यह है कि पहाड़ों के गाँव दुर्गम क्षेत्रों में व सड़कों से दूर होते हैं। सड़कें भी कई कारणों से समय-असमय अवरोधित हो जाती हैं। इस कारण वहाँ खाद्य सामग्री पहुँचाना आसान नहीं होता है। यदि सिंचाई के विस्तार से पहाड़ों पर कृषि पैदावारों की उपलब्धता बढ़ती है तो यह स्थानीय लोगों को संकट के समय ज्यादा आश्वस्त रखेगा। सिंचाई की व्यवस्था न होने से खेतों को बंजर छोड़ना भी कम होगा। सिंचाई से साल में फसल-चक्रों की संख्या बढ़ने की सम्भावना बढ़ जाती है। इस कारण खेती से जुड़े काम भी बढ़ जाते हैं। इससे ग्रामीणों के मौसमी प्रवास में भी कमी आएगी। इससे पहाड़ों से पलायन में भी कमी आएगी। जिन जगहों पर पहाड़ी क्षेत्रों में झूम खेती जैसी पद्धति है, वहाँ भी शायद स्थायित्व आएगा।
पहाड़ों में नहरों का रख-रखाव एक बड़ी समस्या है। खुली नहरों में भू-स्खलन व पहाड़ों में पत्थर व मिट्टी गिरने से नहरों में आगे पानी बहना बन्द हो जाता है। इसके अलावा नहरों के भीतर खरपतवार, काई आदि होने से नहरों में पानी के प्रवाह में ही अवरोध नहीं आता है, बल्कि तेजी से फैलते खरपतवारों से फसलों को बहुत नुकसान होता है।पहाड़ों में खेतों के सिंचाई प्रसार के सन्दर्भ में पहाड़ी भूगर्भीय व भू-आकृति विशिष्टताओं को भी ध्यान में रखना होगा। उदाहरण के लिए पहाड़ी नदियाँ घाटियों में बहती हैं व जब तक पम्पों से नदियों के पानी को ऊपर खेतों तक पहुँचाने की व्यवस्था नहीं की जाती है तब तक नीचे सदानीरा नदियों के बहते रहने के बावजूद कुछ ही मीटर ऊपर स्थित नदियों से लगे खेत भी सिंचाई से वंचित रह जाते हैं। पहाड़ों में कई जगहों पर पीने का पानी भी पम्प करके पहुँचाया जाता है और इस पर भारी खर्च आता है। निश्चित रूप से सिंचाई के लिए भी पहाड़ों में स्थानीय नदियों पर लिफ्टिंग योजनाएँ भी बन रही हैं। परन्तु विभिन्न तरीकों से बरसाती जल-ग्रहण करना और उससे ही बरसात के पहले की सिंचाई करना या फसलों का जीवन बचाने के लिए बेहद जरूरी सिंचाई करने का ही विकल्प पहाड़ी किसानों के पास अभी प्राथमिकता में बना हुआ है।
पहाड़ों में बरसात मुख्यतः मानसून के तीन महीनों में तथा थोड़ी-बहुत जाड़े के महीनों में होती है। पहाड़ी ढलानों में बरसात की अनियन्त्रित मार व अप्रवाह से ऊपरी मृदा का भी तेज क्षरण होता है। पहाड़ों में मृदा की ऊपरी परत बहुत पतली होती है। खेती के लिए मृदा की यह परत बहुत महत्वपूर्ण होती है। भू-क्षरण व भू-स्खलनों से इसके नष्ट होने के खतरे लगातार बने होते हैं। अतः पहाड़ों में जलागम प्रबन्धन के आधार पर पहाड़ों में सिंचाई व्यवस्था करना अपेक्षित है। जलागम विकास के सिद्धान्तों के अन्तर्गत पहाड़ी ढलानों में मिट्टी और पानी का संरक्षण करते हुए खेती की जाती है।
पहाड़ों पर मैदानों जैसी सिंचाई व्यवस्था नहीं हो सकती है। यहाँ गहरे-गहरे नलकूपों से सिंचाई नहीं हो सकती और न ही चौड़ी-चौड़ी नहरें बनाई जा सकती हैं। पहाड़ी नहरों को भी पहाड़ी सड़कों की तरह जगह-जगह मुड़ना होता है। पहाड़ी सड़कों की ही तरह वे भू-स्खलनों, पत्थरों के गिरने, नहरों में मलबा आने, बादलों के फटने, आसपास के निर्माण में बारूद विस्फोटों, आपदाओं आदि से क्षतिग्रस्त भी हो जाती हैं। कई बार लोग इन छोटी सर्पीली नहरों का उपयोग गाँवों में आने-जाने के लिए करने लगते हैं तब भी इनको नुकसान पहुँचता है। उत्तराखण्ड में इस तरह के छोटे-छोटे घुमावदार पहाड़ों से लगी नहरों को स्थानीय बोलचाल में गुल कहते हैं।
गुलों में पानी जमीन से फूटते जल-स्रोतों से पहुँचाया जाता है अथवा इनके लिए पहाड़ी धाराओं व नदियों से पतली-पतली नहरें निकाली जाती हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में कठोर चट्टानों से भी गुलें निकाली गई हैं। उत्तराखण्ड में टिहरी गढ़वाल जिले में सौ वर्ष से भी पहले की निकाली गई मलेथा गुल ऋषिकेश-बद्रीनाथ मार्ग पर कीर्तिनगर के पास देखी जा सकती है। कहते हैं कि यह गुल मलेथा के वीरभद्र माधो सिंह भण्डारी ने अपनी मेहनत से व अपने बेटे को न्योछावर कर निकाली थी। आज भी लोग इस वीर को मलेथा की लोक गाथाओं व नाटकों के माध्यम से याद करते हैं। किन्तु पहाड़ों में पिछले कुछ दशकों से शहरीकरण, वन विनाश, तरह-तरह के निर्माण कार्यों व मौसम में बदलाव आदि के कारण अनेक पहाड़ी स्रोतों व छोटी-छोटी नदियों का जल सूख रहा है। अतः गुलों से सिंचाई में भी दिक्कत आ रही है। अधिकतर गुलें सूखी दिखती हैं। पहाड़ी नहरों के उबड़-खाबड़ होने से भी पानी आगे पहुँचाने में मुश्किलें आती हैं।
गुलों में पानी पहुँचाने के लिए पहाड़ी छोटी-छोटी नदियों में स्थानीय लोग पत्थरों को जमा करके या अस्थायी बाँध बनाकर पानी को गुलों के लिए मोड़ते हैं। उत्तराखण्ड में गुलों का निर्माण व रख-रखाव आदि का काम लघु सिंचाई विभाग करता है।
पहाड़ों में बरसात व ऊपर से बहकर आते बरसाती पानी का प्रबन्धन कर सिंचाई की आंशिक जरूरत पूरी की जाती है। इस क्रम में खासतौर पर सीढ़ीनुमा खेतों में सिंचाई से फायदा लेने के लिए व सिंचाई से नुकसान न हो इसके लिए खेतों की ढाल ठीक करना जरूरी होता है। खेतों की ढाल की दिशा भीतर की ओर देना लाभकारी होता है। सीढ़ीनुमा खेतों में ऐसी भी व्यवस्था की जाती है कि ऊपर के खेत से पानी नीचे के खेतों में सिंचाई के बाद पहुँचता है।
यदि सिंचाई के विस्तार से पहाड़ों पर कृषि पैदावारों की उपलब्धता बढ़ती है तो यह स्थानीय लोगों को संकट के समय ज्यादा आश्वस्त रखेगा। सिंचाई की व्यवस्था न होने से खेतों को बंजर छोड़ना भी कम होगा।बरसाती पानी से सिंचाई के लिए कण्टूर या समोच्च रेखा पर क्षैतिज दिशा में नालियाँ या खाइयाँ बनाने से भी मदद मिलती हैं। इसमें हल भी कण्टूर रेखाओं के समानान्तर चलाया जाता है। बीज भी कण्टूरों के आधार पर बोए जाते हैं। बरसात का पानी व मिट्टी भी इन कण्टूर नालियों या खाइयों में जमा होती है। इससे जमीन में नमी रहती है और इसे भी पहाड़ी खेतों में सिंचाई का पानी पहुँचाना माना जा सकता है।
आज पहाड़ों में उद्यान विकास को जलवायु की अनुकूलता के अलावा अन्य कारणों से भी प्रोत्साहित किया जा रहा है। इसमें पेड़ों के नीचे गोल थाले बनाकर सिंचाई की जाती है। इनमें बरसात का पानी भी जमा रहता है। अब ‘स्प्रिंकलर’ व ‘ड्रिप’ पद्धति का भी उपयोग हो रहा है। इससे पानी की बचत होती है।
बिना बिजली के पहाड़ों पर नदियों से ऊपर खेतों तक पानी पहुँचाने के लिए हाइड्रमों का भी उपयोग हुआ करता है। इसमें बहती पहाड़ी नदियों के पानी के दबाव की ताकत से ही इन हाइड्रमों के माध्यम से बहते पानी को ऊपर स्तर पर पहुँचाया जाता है। परन्तु अब नदियों में कई जगह ये हाइड्रम निष्क्रिय खड़े दिखते हैं। ऐसा नदियों के हाइड्रम के मुहाने से दूर चले जाने के कारण या उनमें मलवा आने के कारण भी हुआ है।
नदियों या जलाशयों से पम्प के माध्यम से देश-विदेशों में सैकड़ों कि.मी. दूर पानी पहुँचाने के प्रयास होते रहे हैं। ऐसा पहाड़ों में बने बड़े बाँध, जलाशयों से सिंचाई के लक्ष्यों को पाने के लिए भी किया जा सकता है। निश्चित रूप से जब तक इन जलाशयों से पानी पम्पों द्वारा ऊपर खेतों में नहीं पहुँचाया जाता है तब तक इनसे भी पहाड़ी खेती को सिंचित करने में बहुत योगदान नहीं मिलने वाला है। गुरुत्व की ताकत से निचली ऊँचाइयों के और मैदानी खेतों की सिंचाई में पहाड़ी मानव निर्मित जलाशयों से मदद मिली है। परन्तु ये जलभराव की समस्या भी ला सकते हैं। पहाड़ों में ऊँचाइयों पर छोटे-छोटे जलाशय बनाकर उनसे अपेक्षाकृत कम ऊँचाइयों पर स्थित खेतों में सिंचाई हो सकती है। इन जलाशयों से नीचे जमीन में भी नमी पहुँच जाती है। नीचे के भू-जल-स्रोतों का पानी बढ़ता है एवं खेतों में भी नमी बनाए रखने में मदद मिलती है।
पहाड़ों में बरसाती जल-संग्रह व जलाशय बनाने के लिए सही जगह का चुनाव बहुत जरूरी है। जलाशय खेतों के पास बनाने से सिंचाई करने में आसानी रहती है। जलाशय के लिए ऐसी जगह चुननी चाहिए जिसमें ढालों से बहता हुआ पानी सीधे जलाशय तक पहुँच सके। जलाशयों में आया मलबा लगातार साफ किया जाना चाहिए।
पहाड़ों में, खासकर उत्तराखण्ड में किसान की भूमिका में मुख्यतः महिलाएँ ही होती हैं। अतः कोई भी ऐसा प्रयास जिससे खेती में लगे श्रम, समय व धन का अच्छा प्रतिदान मिलता है व जिससे घरवालों का भूखे रहने का डर कम होता हो वह सीधे तौर पर महिलाओं की चिन्ताओं को भी कम करेगा। पहाड़ी सिंचाई में जलाशयों का बहुत महत्व है। ये जलाशय पहाड़ों की ऊँचाइयों पर भी गहरे स्थानों पर होते हैं। ये प्राकृतिक या मानव निर्मित भी हो सकते हैं। मध्य हिमालय में निचले ढाल वाले क्षेत्रों में ये भूगर्भीय कुण्ड जैसे सीमित आकार की गहराइयों वाले क्षेत्र बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। इनमें बरसाती जल ढालों से आकर जमा होता है तब पारम्परिक रूप से इनके पानी का विभिन्न उपयोग होता आया है। उत्तराखण्ड में इन्हे खाल कहा जाता है। खालों का जगह-जगह अतिक्रमण हो गया है या वे मलबे से भर कर अनुपयोगी हो गई हैं। अब जलागम विकास कार्यक्रमों के अन्तर्गत इन्हें पुनः जीवित किया जा रहा है। इससे पहाड़ों में सिंचाई में तथा भूमिगत जल भण्डारों में पानी की मात्रा बढ़ाने में मदद मिलेगी। चाल-खालों का पहाड़ी खेतों की सिंचाई में बहुत महत्व है।
नदियों के अलावा पहाड़ों में मुख्य जल-स्रोत प्राकृतिक ‘सोते’ होते हैं। ये पहाड़ों में भूमिगत जल के सतह के ऊपर फूटने से बनते हैं। इससे निकलता पानी बहुत कम व क्षीण भी हो सकता है। कुछ सोते मौसमी भी होते हैं। इन पहाड़ी जल-स्रोतों से पानी कुण्ड में इकट्ठा कर या सीधे इन्हीं से नहरें निकाल कर पहाड़ी खेतों तक पानी पहुँचाया जाता है। इनसे न तो लम्बी दूरी तक के लिए नहरें निकाली जा सकती हैं और न ही बड़े क्षेत्रफल में सिंचाई हो सकती है।
वास्तव में जब पहाड़ों में प्राकृतिक स्रोतों के पानी का उपयोग किया जाता है तो वह भूमिगत जल भण्डार का ही उपयोग करना होता है। इनके जल से कई जगहों पर तो धन की खेती भी की जाती है। सोते जो बारहमासी होते हैं उनका पानी तो रात-दिन बहता ही रहता है चाहे कोई उनका उपयोग करे या न करे। वैसे ही जैसे सूरज की रोशनी। रात में शायद ही कोई पानी भरने आता है। दिन में भी कम ही उपयोग होता है। अतः यदि स्रोतों को जिन्दा रखने के कार्य भी चलते रहें तो बिना किसी विरोध के बेकार बहने के स्थान पर उस पानी को सिंचाई के काम लाया जा सकता है।
पहाड़ों में नहरों का रख-रखाव एक बड़ी समस्या है। खुली नहरों में भू-स्खलन व पहाड़ों में पत्थर व मिट्टी गिरने से नहरों में आगे पानी बहना बन्द हो जाता है। इसके अलावा नहरों के भीतर खरपतवार, काई आदि होने से नहरों में पानी के प्रवाह में ही अवरोध नहीं आता है, बल्कि तेजी से फैलते खरपतवारों से फसलों को बहुत नुकसान होता है। पहाड़ों में चूँकि नहरें अक्सर जंगली क्षेत्रों से होकर गुजरती हैं अतः जैविक गतिविधियों के कारण खरपतवारों के उगने की सम्भावनाएँ बहुत प्रबल होती हैं। पहाड़ों में यदि नहरें पक्की न हों तो उनके जगह-जगह टूटने की सम्भावनाएँ बहुत ज्यादा होती हैं। साथ ही जल रिसाव की समस्या भी पैदा हो जाती है। पहाड़ी ढलानों के कारण जमीन के नीचे व ऊपर यह अलग-अलग तरह के प्रभाव छोड़ती है। जमीन के भीतर यह भू-स्खलन की समस्या पैदा करती है। इससे जमीन ढह भी सकती है। तेज बरसात व बादलों के फटने की आपदाओं के समय टूटी या अवरोधित नहरों की सूचना जिला मुख्यालय में पहुँचने में देर हो जाती है। इस कारण मरम्मत में भी देरी होती है।
जैसे बरसात के मौसम में पहाड़ों में कई जगहों पर मौसमी जल-स्रोत फूटते हैं। उसी प्रकार कई मौसमी नदी-नाले भी जगह-जगह पैदा हो जाते हैं। इनके पानी को भी पहाड़ों में सिंचाई के काम लाने की बहुत सम्भावनाएँ हैं। इन सम्भावनाओं पर भी काम होना चाहिए। नयी वैज्ञानिक सम्भावना सिंचाई के लिए पहाड़ी कोहरे के उपयोग की भी है। साथ ही नमी बचाने की भी जरूरत है।
पहाड़ों में, खासकर उत्तराखण्ड में किसान की भूमिका में मुख्यतः महिलाएँ ही होती हैं। अतः कोई भी ऐसा प्रयास जिससे खेती में लगे श्रम, समय व धन का अच्छा प्रतिदान मिलता है व जिससे घरवालों का भूखे रहने का डर कम होता हो वह सीधे तौर पर महिलाओं की चिन्ताओं को भी कम करेगा। हमें यह न भूलना होगा कि पुरुषों के ज्यादातर बाहर रहने की मजबूरी के कारण भी पहाड़ की महिलाओं को घर चलाने की चिन्ताओं से जूझना पड़ता है।
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता व पर्यावरण वैज्ञानिक हैं)
ई-मेल: vkpainuly@rediffmail.com
एक बात तो यह है कि पहाड़ों में औद्योगीकरण बहुत नहीं हुआ है और रोजगार के अवसर भी बहुत कम हैं। अतः खेतों में बहुत कुछ न होने पर भी पशुपालन के साथ खेती ही पहाड़ों में जीवनयापन का मुख्य साधन है। दूसरी बात यह है कि पहाड़ों के गाँव दुर्गम क्षेत्रों में व सड़कों से दूर होते हैं। सड़कें भी कई कारणों से समय-असमय अवरोधित हो जाती हैं। इस कारण वहाँ खाद्य सामग्री पहुँचाना आसान नहीं होता है। यदि सिंचाई के विस्तार से पहाड़ों पर कृषि पैदावारों की उपलब्धता बढ़ती है तो यह स्थानीय लोगों को संकट के समय ज्यादा आश्वस्त रखेगा। सिंचाई की व्यवस्था न होने से खेतों को बंजर छोड़ना भी कम होगा। सिंचाई से साल में फसल-चक्रों की संख्या बढ़ने की सम्भावना बढ़ जाती है। इस कारण खेती से जुड़े काम भी बढ़ जाते हैं। इससे ग्रामीणों के मौसमी प्रवास में भी कमी आएगी। इससे पहाड़ों से पलायन में भी कमी आएगी। जिन जगहों पर पहाड़ी क्षेत्रों में झूम खेती जैसी पद्धति है, वहाँ भी शायद स्थायित्व आएगा।
पहाड़ों में नहरों का रख-रखाव एक बड़ी समस्या है। खुली नहरों में भू-स्खलन व पहाड़ों में पत्थर व मिट्टी गिरने से नहरों में आगे पानी बहना बन्द हो जाता है। इसके अलावा नहरों के भीतर खरपतवार, काई आदि होने से नहरों में पानी के प्रवाह में ही अवरोध नहीं आता है, बल्कि तेजी से फैलते खरपतवारों से फसलों को बहुत नुकसान होता है।पहाड़ों में खेतों के सिंचाई प्रसार के सन्दर्भ में पहाड़ी भूगर्भीय व भू-आकृति विशिष्टताओं को भी ध्यान में रखना होगा। उदाहरण के लिए पहाड़ी नदियाँ घाटियों में बहती हैं व जब तक पम्पों से नदियों के पानी को ऊपर खेतों तक पहुँचाने की व्यवस्था नहीं की जाती है तब तक नीचे सदानीरा नदियों के बहते रहने के बावजूद कुछ ही मीटर ऊपर स्थित नदियों से लगे खेत भी सिंचाई से वंचित रह जाते हैं। पहाड़ों में कई जगहों पर पीने का पानी भी पम्प करके पहुँचाया जाता है और इस पर भारी खर्च आता है। निश्चित रूप से सिंचाई के लिए भी पहाड़ों में स्थानीय नदियों पर लिफ्टिंग योजनाएँ भी बन रही हैं। परन्तु विभिन्न तरीकों से बरसाती जल-ग्रहण करना और उससे ही बरसात के पहले की सिंचाई करना या फसलों का जीवन बचाने के लिए बेहद जरूरी सिंचाई करने का ही विकल्प पहाड़ी किसानों के पास अभी प्राथमिकता में बना हुआ है।
पहाड़ों में बरसात मुख्यतः मानसून के तीन महीनों में तथा थोड़ी-बहुत जाड़े के महीनों में होती है। पहाड़ी ढलानों में बरसात की अनियन्त्रित मार व अप्रवाह से ऊपरी मृदा का भी तेज क्षरण होता है। पहाड़ों में मृदा की ऊपरी परत बहुत पतली होती है। खेती के लिए मृदा की यह परत बहुत महत्वपूर्ण होती है। भू-क्षरण व भू-स्खलनों से इसके नष्ट होने के खतरे लगातार बने होते हैं। अतः पहाड़ों में जलागम प्रबन्धन के आधार पर पहाड़ों में सिंचाई व्यवस्था करना अपेक्षित है। जलागम विकास के सिद्धान्तों के अन्तर्गत पहाड़ी ढलानों में मिट्टी और पानी का संरक्षण करते हुए खेती की जाती है।
पहाड़ों पर मैदानों जैसी सिंचाई व्यवस्था नहीं हो सकती है। यहाँ गहरे-गहरे नलकूपों से सिंचाई नहीं हो सकती और न ही चौड़ी-चौड़ी नहरें बनाई जा सकती हैं। पहाड़ी नहरों को भी पहाड़ी सड़कों की तरह जगह-जगह मुड़ना होता है। पहाड़ी सड़कों की ही तरह वे भू-स्खलनों, पत्थरों के गिरने, नहरों में मलबा आने, बादलों के फटने, आसपास के निर्माण में बारूद विस्फोटों, आपदाओं आदि से क्षतिग्रस्त भी हो जाती हैं। कई बार लोग इन छोटी सर्पीली नहरों का उपयोग गाँवों में आने-जाने के लिए करने लगते हैं तब भी इनको नुकसान पहुँचता है। उत्तराखण्ड में इस तरह के छोटे-छोटे घुमावदार पहाड़ों से लगी नहरों को स्थानीय बोलचाल में गुल कहते हैं।
गुलों में पानी जमीन से फूटते जल-स्रोतों से पहुँचाया जाता है अथवा इनके लिए पहाड़ी धाराओं व नदियों से पतली-पतली नहरें निकाली जाती हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में कठोर चट्टानों से भी गुलें निकाली गई हैं। उत्तराखण्ड में टिहरी गढ़वाल जिले में सौ वर्ष से भी पहले की निकाली गई मलेथा गुल ऋषिकेश-बद्रीनाथ मार्ग पर कीर्तिनगर के पास देखी जा सकती है। कहते हैं कि यह गुल मलेथा के वीरभद्र माधो सिंह भण्डारी ने अपनी मेहनत से व अपने बेटे को न्योछावर कर निकाली थी। आज भी लोग इस वीर को मलेथा की लोक गाथाओं व नाटकों के माध्यम से याद करते हैं। किन्तु पहाड़ों में पिछले कुछ दशकों से शहरीकरण, वन विनाश, तरह-तरह के निर्माण कार्यों व मौसम में बदलाव आदि के कारण अनेक पहाड़ी स्रोतों व छोटी-छोटी नदियों का जल सूख रहा है। अतः गुलों से सिंचाई में भी दिक्कत आ रही है। अधिकतर गुलें सूखी दिखती हैं। पहाड़ी नहरों के उबड़-खाबड़ होने से भी पानी आगे पहुँचाने में मुश्किलें आती हैं।
गुलों में पानी पहुँचाने के लिए पहाड़ी छोटी-छोटी नदियों में स्थानीय लोग पत्थरों को जमा करके या अस्थायी बाँध बनाकर पानी को गुलों के लिए मोड़ते हैं। उत्तराखण्ड में गुलों का निर्माण व रख-रखाव आदि का काम लघु सिंचाई विभाग करता है।
पहाड़ों में बरसात व ऊपर से बहकर आते बरसाती पानी का प्रबन्धन कर सिंचाई की आंशिक जरूरत पूरी की जाती है। इस क्रम में खासतौर पर सीढ़ीनुमा खेतों में सिंचाई से फायदा लेने के लिए व सिंचाई से नुकसान न हो इसके लिए खेतों की ढाल ठीक करना जरूरी होता है। खेतों की ढाल की दिशा भीतर की ओर देना लाभकारी होता है। सीढ़ीनुमा खेतों में ऐसी भी व्यवस्था की जाती है कि ऊपर के खेत से पानी नीचे के खेतों में सिंचाई के बाद पहुँचता है।
यदि सिंचाई के विस्तार से पहाड़ों पर कृषि पैदावारों की उपलब्धता बढ़ती है तो यह स्थानीय लोगों को संकट के समय ज्यादा आश्वस्त रखेगा। सिंचाई की व्यवस्था न होने से खेतों को बंजर छोड़ना भी कम होगा।बरसाती पानी से सिंचाई के लिए कण्टूर या समोच्च रेखा पर क्षैतिज दिशा में नालियाँ या खाइयाँ बनाने से भी मदद मिलती हैं। इसमें हल भी कण्टूर रेखाओं के समानान्तर चलाया जाता है। बीज भी कण्टूरों के आधार पर बोए जाते हैं। बरसात का पानी व मिट्टी भी इन कण्टूर नालियों या खाइयों में जमा होती है। इससे जमीन में नमी रहती है और इसे भी पहाड़ी खेतों में सिंचाई का पानी पहुँचाना माना जा सकता है।
आज पहाड़ों में उद्यान विकास को जलवायु की अनुकूलता के अलावा अन्य कारणों से भी प्रोत्साहित किया जा रहा है। इसमें पेड़ों के नीचे गोल थाले बनाकर सिंचाई की जाती है। इनमें बरसात का पानी भी जमा रहता है। अब ‘स्प्रिंकलर’ व ‘ड्रिप’ पद्धति का भी उपयोग हो रहा है। इससे पानी की बचत होती है।
बिना बिजली के पहाड़ों पर नदियों से ऊपर खेतों तक पानी पहुँचाने के लिए हाइड्रमों का भी उपयोग हुआ करता है। इसमें बहती पहाड़ी नदियों के पानी के दबाव की ताकत से ही इन हाइड्रमों के माध्यम से बहते पानी को ऊपर स्तर पर पहुँचाया जाता है। परन्तु अब नदियों में कई जगह ये हाइड्रम निष्क्रिय खड़े दिखते हैं। ऐसा नदियों के हाइड्रम के मुहाने से दूर चले जाने के कारण या उनमें मलवा आने के कारण भी हुआ है।
नदियों या जलाशयों से पम्प के माध्यम से देश-विदेशों में सैकड़ों कि.मी. दूर पानी पहुँचाने के प्रयास होते रहे हैं। ऐसा पहाड़ों में बने बड़े बाँध, जलाशयों से सिंचाई के लक्ष्यों को पाने के लिए भी किया जा सकता है। निश्चित रूप से जब तक इन जलाशयों से पानी पम्पों द्वारा ऊपर खेतों में नहीं पहुँचाया जाता है तब तक इनसे भी पहाड़ी खेती को सिंचित करने में बहुत योगदान नहीं मिलने वाला है। गुरुत्व की ताकत से निचली ऊँचाइयों के और मैदानी खेतों की सिंचाई में पहाड़ी मानव निर्मित जलाशयों से मदद मिली है। परन्तु ये जलभराव की समस्या भी ला सकते हैं। पहाड़ों में ऊँचाइयों पर छोटे-छोटे जलाशय बनाकर उनसे अपेक्षाकृत कम ऊँचाइयों पर स्थित खेतों में सिंचाई हो सकती है। इन जलाशयों से नीचे जमीन में भी नमी पहुँच जाती है। नीचे के भू-जल-स्रोतों का पानी बढ़ता है एवं खेतों में भी नमी बनाए रखने में मदद मिलती है।
पहाड़ों में बरसाती जल-संग्रह व जलाशय बनाने के लिए सही जगह का चुनाव बहुत जरूरी है। जलाशय खेतों के पास बनाने से सिंचाई करने में आसानी रहती है। जलाशय के लिए ऐसी जगह चुननी चाहिए जिसमें ढालों से बहता हुआ पानी सीधे जलाशय तक पहुँच सके। जलाशयों में आया मलबा लगातार साफ किया जाना चाहिए।
पहाड़ों में, खासकर उत्तराखण्ड में किसान की भूमिका में मुख्यतः महिलाएँ ही होती हैं। अतः कोई भी ऐसा प्रयास जिससे खेती में लगे श्रम, समय व धन का अच्छा प्रतिदान मिलता है व जिससे घरवालों का भूखे रहने का डर कम होता हो वह सीधे तौर पर महिलाओं की चिन्ताओं को भी कम करेगा। पहाड़ी सिंचाई में जलाशयों का बहुत महत्व है। ये जलाशय पहाड़ों की ऊँचाइयों पर भी गहरे स्थानों पर होते हैं। ये प्राकृतिक या मानव निर्मित भी हो सकते हैं। मध्य हिमालय में निचले ढाल वाले क्षेत्रों में ये भूगर्भीय कुण्ड जैसे सीमित आकार की गहराइयों वाले क्षेत्र बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। इनमें बरसाती जल ढालों से आकर जमा होता है तब पारम्परिक रूप से इनके पानी का विभिन्न उपयोग होता आया है। उत्तराखण्ड में इन्हे खाल कहा जाता है। खालों का जगह-जगह अतिक्रमण हो गया है या वे मलबे से भर कर अनुपयोगी हो गई हैं। अब जलागम विकास कार्यक्रमों के अन्तर्गत इन्हें पुनः जीवित किया जा रहा है। इससे पहाड़ों में सिंचाई में तथा भूमिगत जल भण्डारों में पानी की मात्रा बढ़ाने में मदद मिलेगी। चाल-खालों का पहाड़ी खेतों की सिंचाई में बहुत महत्व है।
नदियों के अलावा पहाड़ों में मुख्य जल-स्रोत प्राकृतिक ‘सोते’ होते हैं। ये पहाड़ों में भूमिगत जल के सतह के ऊपर फूटने से बनते हैं। इससे निकलता पानी बहुत कम व क्षीण भी हो सकता है। कुछ सोते मौसमी भी होते हैं। इन पहाड़ी जल-स्रोतों से पानी कुण्ड में इकट्ठा कर या सीधे इन्हीं से नहरें निकाल कर पहाड़ी खेतों तक पानी पहुँचाया जाता है। इनसे न तो लम्बी दूरी तक के लिए नहरें निकाली जा सकती हैं और न ही बड़े क्षेत्रफल में सिंचाई हो सकती है।
वास्तव में जब पहाड़ों में प्राकृतिक स्रोतों के पानी का उपयोग किया जाता है तो वह भूमिगत जल भण्डार का ही उपयोग करना होता है। इनके जल से कई जगहों पर तो धन की खेती भी की जाती है। सोते जो बारहमासी होते हैं उनका पानी तो रात-दिन बहता ही रहता है चाहे कोई उनका उपयोग करे या न करे। वैसे ही जैसे सूरज की रोशनी। रात में शायद ही कोई पानी भरने आता है। दिन में भी कम ही उपयोग होता है। अतः यदि स्रोतों को जिन्दा रखने के कार्य भी चलते रहें तो बिना किसी विरोध के बेकार बहने के स्थान पर उस पानी को सिंचाई के काम लाया जा सकता है।
पहाड़ों में नहरों का रख-रखाव एक बड़ी समस्या है। खुली नहरों में भू-स्खलन व पहाड़ों में पत्थर व मिट्टी गिरने से नहरों में आगे पानी बहना बन्द हो जाता है। इसके अलावा नहरों के भीतर खरपतवार, काई आदि होने से नहरों में पानी के प्रवाह में ही अवरोध नहीं आता है, बल्कि तेजी से फैलते खरपतवारों से फसलों को बहुत नुकसान होता है। पहाड़ों में चूँकि नहरें अक्सर जंगली क्षेत्रों से होकर गुजरती हैं अतः जैविक गतिविधियों के कारण खरपतवारों के उगने की सम्भावनाएँ बहुत प्रबल होती हैं। पहाड़ों में यदि नहरें पक्की न हों तो उनके जगह-जगह टूटने की सम्भावनाएँ बहुत ज्यादा होती हैं। साथ ही जल रिसाव की समस्या भी पैदा हो जाती है। पहाड़ी ढलानों के कारण जमीन के नीचे व ऊपर यह अलग-अलग तरह के प्रभाव छोड़ती है। जमीन के भीतर यह भू-स्खलन की समस्या पैदा करती है। इससे जमीन ढह भी सकती है। तेज बरसात व बादलों के फटने की आपदाओं के समय टूटी या अवरोधित नहरों की सूचना जिला मुख्यालय में पहुँचने में देर हो जाती है। इस कारण मरम्मत में भी देरी होती है।
जैसे बरसात के मौसम में पहाड़ों में कई जगहों पर मौसमी जल-स्रोत फूटते हैं। उसी प्रकार कई मौसमी नदी-नाले भी जगह-जगह पैदा हो जाते हैं। इनके पानी को भी पहाड़ों में सिंचाई के काम लाने की बहुत सम्भावनाएँ हैं। इन सम्भावनाओं पर भी काम होना चाहिए। नयी वैज्ञानिक सम्भावना सिंचाई के लिए पहाड़ी कोहरे के उपयोग की भी है। साथ ही नमी बचाने की भी जरूरत है।
पहाड़ों में, खासकर उत्तराखण्ड में किसान की भूमिका में मुख्यतः महिलाएँ ही होती हैं। अतः कोई भी ऐसा प्रयास जिससे खेती में लगे श्रम, समय व धन का अच्छा प्रतिदान मिलता है व जिससे घरवालों का भूखे रहने का डर कम होता हो वह सीधे तौर पर महिलाओं की चिन्ताओं को भी कम करेगा। हमें यह न भूलना होगा कि पुरुषों के ज्यादातर बाहर रहने की मजबूरी के कारण भी पहाड़ की महिलाओं को घर चलाने की चिन्ताओं से जूझना पड़ता है।
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता व पर्यावरण वैज्ञानिक हैं)
ई-मेल: vkpainuly@rediffmail.com
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