हमारे देश में बड़े-बड़े मकानों के और शहरों के भग्नावशेष अनेक जगह पाये जाते हैं। अच्छे और नये मकानों की अपेक्षा इन अवशेषों का काव्य कुछ अधिक होता है। कर्ण के जैसा कोई दानी पुरुष जब दारिद्रय से क्षीण होता है, कोई बड़ा पहलवान या योद्धा जब जराजरजरित होकर लकड़ी के सहारे चलता दीख पड़ता है तब उसके प्रति हमारा आदर करुणा के साथ मिश्रित होकर भक्तिभाव पैदा करता है। इसी तरह प्राचीन किले के या नगर के अवशेष हमारे चित्त को अन्तर्मुख करके उनके प्राचीन गौरव का विषादमय स्मरण कराते हैं।
हमारे मन की यही हालत थी जब हमने सिंध लारकाना जाकर इतिहास पूर्वकालीन मोहन-जो-दड़ों का उत्खनन देखा था। बिहार में पटना के पास जब हमने सम्राट अशोक के राजप्रासाद के अवशेष देखे तब भी चित्त की ग्लानि ने दो आंसू सारकर ‘कालाय तस्मै नमः’ का उद्घोष किया था। बनारस के पास सारनाथ और बिहार में नालन्दा जाकर जब वहां के अवशेष देखे तब भी इतिहास प्रेमी चित्त ऐसा ही अस्वस्थ हुआ था। पंजाब से कश्मीर जाते करीब अबटाबाद तक पहुंचा था, लेकिन तक्षशिला के अवशेष नहीं देख पाया इसलिए उसके बारे में चित्त में कोई संस्मरण अंकित नहीं है। जब जरासंध की राजधानी बिहार में देखी तब प्राचीन मल्लयुद्ध का चित्र नजर के सामने खड़ा हुआ सही, लेकिन उसके साथ कोई विषाद जुड़ा हुआ नहीं था। भग्नावशेष मानवी जीवन की एक विशेष विरासत है।
लेकिन क्या प्रकृति के घर में भी भग्नावशेष नहीं हैं? भारत की आज की भूरचना स्थायी नहीं बनी थी उन दिनों जो प्राचीन नदियां बहती थी वे आज कहां हैं? आज तो हम राजस्थान में बहनेवाली प्राचीन नदी सरस्वती के अवशेष का ही स्मरण कर सकते हैं जिसे भूस्तर-शास्त्र हकरा के नाम से पहचानते हैं। इसे हम नामशेष भी नहीं कह सकते क्योंकि लोगों में उस नदी का नाम तक नहीं रहा है।
ऐसे ही एक अवशिष्ट पर्वत का आज हम स्मरण करना चाहते हैं जो भूस्तरशास्त्र के अनुसार भारत का सबसे प्राचीन पर्वत है। लोगों को आश्चर्य होता है जब हम कहते हैं कि पहाड़ों की जमात में सबसे युवान है हिमालय। दुनिया में यह कितना ही ऊंचा क्यों न हो, उसकी उम्र थोड़े ही लाख वर्षों की है। विंध्य और पारियात्र जैसे बुड्ढों के सामने वह कलका बच्चा ही है। भारत के कुल पर्वतों की सूची में उसे स्थान तक नहीं है। महेन्दरो (उत्कल), मलयः (केरल) सह्यः (कोंकण), शुक्तिमान्, ऋक्षपर्वतः (सौराष्ट्र), विन्ध्यश्च (मध्य भारत), पारियात्रश्च (राजस्थान) सप्तैते कुलःपर्वताः। यह प्राचीन पारियात्र ही आज का अरवली पर्वत है ऐसा माना गया है। भूचाल होकर, लाखों-वर्ष की गरमी और बारिश के कारण और केवल कालबल से यह प्राचीन पहाड़ छिन्न-भिन्न हो गया है। अब उसके अवशेष ही पाये जाते हैं। राजस्थान में यह पहाड़ नैऋत्य दिशा से चलता हुआ ईशान्य दिशा में करीब दिल्ली तक पहुंचा है। अगर गुजरात के किनारे अर्बुद् या आबू का पहाड़ उसका एक सिरा है तो दिल्ली के पास की छोटी-छोटी पहाड़ियां, जिन्हें अंग्रेजों ने दी रिज (The Ridge) नाम दिया और हमारी भोली जनता ने जिसका धीरज रूप बना दिया, वह है इस पारियात्र का दूसरा सिरा। आबू के पहाड़ का सबसे ऊंचा शिखर गुरुशिखर पांच हजार फुट से भी अधिक ऊंचा है और हमारी धीरज टेकिरियों की ऊंचाई पचास फुट की भी नहीं होगी!
अरावली नाम कहां से आया? शायद उसका असली नाम आडावली है। सिंधु को लांघकर मध्य प्रदेश की ओर जाते यह पहाड़ और उसकी अनेक शाखाएं आड़ी आती हैं इसलिए इसका आडावली नाम पड़ा होगा। लेकिन चंद लोग कहते हैं कि चमार लोग चमड़े को काटने के लिए जिस आर या आरी का उपयोग करते हैं उसी के जैसा इस पहाड़ का आकार है इसिलिए उसे आरावली या अरवल्ली कहते हैं।
जो हो, यह प्राचीनतम पहाड़ आज के आक्रमणकारी शत्रुओं को तो रोक नहीं सकता, किन्तु पश्चिम की ओर से आने वाली रेत की बाढ़ को भी पूरी तरह से रोक नहीं पाता। इसका दक्षिण का सिरा, जिसे आबू या अबुर्द कहते हैं वह तो पश्चिम समुद्र से आने वाले बादलों को रोककर उनसे बारिश का करभार आज भी लेता है सही। आबू का विशाल नखी तालाब देखते यही ख्याल आता है कि बादलों से पाया हुआ करभार संभालकर रखने का यह उसका खजाना या कोष है।
आडावली के पहाड़ बड़े हों या छोटे, वनस्पति-सृष्टि को आज भी प्रश्रय देते हैं और उन जंगलों में शेर, चीता आदि वन्य पशुओं को भी प्रश्रय मिलता है और यहां कई पहाड़ी वन्य जातियां भी उसके आश्रय से कृतार्थ होकर लोकगीतों में अपनी कृतज्ञता व्यक्त करती हैं।
आरावली के परिसर में जन्म लेने वाली नदियों की संख्या भी कम नहीं है। केन, बेतवा, धसान, सिंध, पार्वती, काली सिन्धु, बनास और सबसे अधिक पुरानी और अधिक महत्त्व की चर्मण्वती ये सब नदियां, एक ओर अरावली और दूसरी ओर विन्ध्य पर्वतमाला के समकोन में जन्म लेकर अपना जीवनकार्य सफल करती है और इन सब नदियों का करभार एकत्र करने का काम यमुना ईमानदारी से करती है। कोटा, टोंक और सांभर ये सब प्रदेश इन्हीं नदियों की कृपा से उपजाऊ होते हैं। लावण्यवती लूनी, सुक्री और बनास आदि नदियां भी अरावली की ही लड़कियां है लेकिन वे अपना पानी पश्चिम की ओर ले जाती हैं। साबरमती और मही ये दो गुजरात की नदियां आबू के पहाड़ का दक्षिणी पानी अपनी अनेक सखियों की मदद से इकट्ठा करके स्तम्भतीर्थ-खम्भात की ओर ले जाती हैं।
आबू के पहाड़ों में मैं घूमा हूं। पृथ्वी के बाल्यकाल में जब उस पहाड़ पर बर्फ गिरती थी तब वहां के पत्थरों ने बर्फ के घर्षण से जो विचित्र आकार धारण किये हैं उन्हें ध्यान से देखा है। दिल्ली की धीरज टेकड़ी और उस पर खड़े किये अशोक के शीलस्तंभ का भी दर्शन मैंने किया है। रेलवे का सफर करते अरावली की कुछ पहाड़ियां अनेक बार देखी होंगी। लेकिन जितना परिचय हिमालय का या सह्याद्रि का है उतना अरावली का नहीं है। काश, राजस्थान का कोई सहृदय भक्तिमान, भारतपुत्र अरावली का विविध परिचय करा देता! ऋग्वेद में अबुर्द नामक असुर का जिक्र आता है और वहां कहा है कि इन्द्र ने उस असुर को बर्फ के प्रहार से मार डाला। क्या इस आख्ययिका का अर्थ हम भूस्तर-शास्त्र से पा सकेंगे?
स्वतंत्र भारत के नवयुवकों का काम है कि वे भारत के कोने-कोने की यात्रा करें, वेद और पुराणों से लेकर अद्यतन विज्ञान तक की सब मदद लेकर भारत का सम्पूर्ण परिचय अपने लोगों को और दुनिया को करायें। हमारी जाति, हमारी संस्कृति भग्नावशिष्ट नहीं है। वह चिरंतन हैं, सनातन है और इसीलिए आज भी वह यौवनपूर्ण है।
हमारे मन की यही हालत थी जब हमने सिंध लारकाना जाकर इतिहास पूर्वकालीन मोहन-जो-दड़ों का उत्खनन देखा था। बिहार में पटना के पास जब हमने सम्राट अशोक के राजप्रासाद के अवशेष देखे तब भी चित्त की ग्लानि ने दो आंसू सारकर ‘कालाय तस्मै नमः’ का उद्घोष किया था। बनारस के पास सारनाथ और बिहार में नालन्दा जाकर जब वहां के अवशेष देखे तब भी इतिहास प्रेमी चित्त ऐसा ही अस्वस्थ हुआ था। पंजाब से कश्मीर जाते करीब अबटाबाद तक पहुंचा था, लेकिन तक्षशिला के अवशेष नहीं देख पाया इसलिए उसके बारे में चित्त में कोई संस्मरण अंकित नहीं है। जब जरासंध की राजधानी बिहार में देखी तब प्राचीन मल्लयुद्ध का चित्र नजर के सामने खड़ा हुआ सही, लेकिन उसके साथ कोई विषाद जुड़ा हुआ नहीं था। भग्नावशेष मानवी जीवन की एक विशेष विरासत है।
लेकिन क्या प्रकृति के घर में भी भग्नावशेष नहीं हैं? भारत की आज की भूरचना स्थायी नहीं बनी थी उन दिनों जो प्राचीन नदियां बहती थी वे आज कहां हैं? आज तो हम राजस्थान में बहनेवाली प्राचीन नदी सरस्वती के अवशेष का ही स्मरण कर सकते हैं जिसे भूस्तर-शास्त्र हकरा के नाम से पहचानते हैं। इसे हम नामशेष भी नहीं कह सकते क्योंकि लोगों में उस नदी का नाम तक नहीं रहा है।
ऐसे ही एक अवशिष्ट पर्वत का आज हम स्मरण करना चाहते हैं जो भूस्तरशास्त्र के अनुसार भारत का सबसे प्राचीन पर्वत है। लोगों को आश्चर्य होता है जब हम कहते हैं कि पहाड़ों की जमात में सबसे युवान है हिमालय। दुनिया में यह कितना ही ऊंचा क्यों न हो, उसकी उम्र थोड़े ही लाख वर्षों की है। विंध्य और पारियात्र जैसे बुड्ढों के सामने वह कलका बच्चा ही है। भारत के कुल पर्वतों की सूची में उसे स्थान तक नहीं है। महेन्दरो (उत्कल), मलयः (केरल) सह्यः (कोंकण), शुक्तिमान्, ऋक्षपर्वतः (सौराष्ट्र), विन्ध्यश्च (मध्य भारत), पारियात्रश्च (राजस्थान) सप्तैते कुलःपर्वताः। यह प्राचीन पारियात्र ही आज का अरवली पर्वत है ऐसा माना गया है। भूचाल होकर, लाखों-वर्ष की गरमी और बारिश के कारण और केवल कालबल से यह प्राचीन पहाड़ छिन्न-भिन्न हो गया है। अब उसके अवशेष ही पाये जाते हैं। राजस्थान में यह पहाड़ नैऋत्य दिशा से चलता हुआ ईशान्य दिशा में करीब दिल्ली तक पहुंचा है। अगर गुजरात के किनारे अर्बुद् या आबू का पहाड़ उसका एक सिरा है तो दिल्ली के पास की छोटी-छोटी पहाड़ियां, जिन्हें अंग्रेजों ने दी रिज (The Ridge) नाम दिया और हमारी भोली जनता ने जिसका धीरज रूप बना दिया, वह है इस पारियात्र का दूसरा सिरा। आबू के पहाड़ का सबसे ऊंचा शिखर गुरुशिखर पांच हजार फुट से भी अधिक ऊंचा है और हमारी धीरज टेकिरियों की ऊंचाई पचास फुट की भी नहीं होगी!
अरावली नाम कहां से आया? शायद उसका असली नाम आडावली है। सिंधु को लांघकर मध्य प्रदेश की ओर जाते यह पहाड़ और उसकी अनेक शाखाएं आड़ी आती हैं इसलिए इसका आडावली नाम पड़ा होगा। लेकिन चंद लोग कहते हैं कि चमार लोग चमड़े को काटने के लिए जिस आर या आरी का उपयोग करते हैं उसी के जैसा इस पहाड़ का आकार है इसिलिए उसे आरावली या अरवल्ली कहते हैं।
जो हो, यह प्राचीनतम पहाड़ आज के आक्रमणकारी शत्रुओं को तो रोक नहीं सकता, किन्तु पश्चिम की ओर से आने वाली रेत की बाढ़ को भी पूरी तरह से रोक नहीं पाता। इसका दक्षिण का सिरा, जिसे आबू या अबुर्द कहते हैं वह तो पश्चिम समुद्र से आने वाले बादलों को रोककर उनसे बारिश का करभार आज भी लेता है सही। आबू का विशाल नखी तालाब देखते यही ख्याल आता है कि बादलों से पाया हुआ करभार संभालकर रखने का यह उसका खजाना या कोष है।
आडावली के पहाड़ बड़े हों या छोटे, वनस्पति-सृष्टि को आज भी प्रश्रय देते हैं और उन जंगलों में शेर, चीता आदि वन्य पशुओं को भी प्रश्रय मिलता है और यहां कई पहाड़ी वन्य जातियां भी उसके आश्रय से कृतार्थ होकर लोकगीतों में अपनी कृतज्ञता व्यक्त करती हैं।
आरावली के परिसर में जन्म लेने वाली नदियों की संख्या भी कम नहीं है। केन, बेतवा, धसान, सिंध, पार्वती, काली सिन्धु, बनास और सबसे अधिक पुरानी और अधिक महत्त्व की चर्मण्वती ये सब नदियां, एक ओर अरावली और दूसरी ओर विन्ध्य पर्वतमाला के समकोन में जन्म लेकर अपना जीवनकार्य सफल करती है और इन सब नदियों का करभार एकत्र करने का काम यमुना ईमानदारी से करती है। कोटा, टोंक और सांभर ये सब प्रदेश इन्हीं नदियों की कृपा से उपजाऊ होते हैं। लावण्यवती लूनी, सुक्री और बनास आदि नदियां भी अरावली की ही लड़कियां है लेकिन वे अपना पानी पश्चिम की ओर ले जाती हैं। साबरमती और मही ये दो गुजरात की नदियां आबू के पहाड़ का दक्षिणी पानी अपनी अनेक सखियों की मदद से इकट्ठा करके स्तम्भतीर्थ-खम्भात की ओर ले जाती हैं।
आबू के पहाड़ों में मैं घूमा हूं। पृथ्वी के बाल्यकाल में जब उस पहाड़ पर बर्फ गिरती थी तब वहां के पत्थरों ने बर्फ के घर्षण से जो विचित्र आकार धारण किये हैं उन्हें ध्यान से देखा है। दिल्ली की धीरज टेकड़ी और उस पर खड़े किये अशोक के शीलस्तंभ का भी दर्शन मैंने किया है। रेलवे का सफर करते अरावली की कुछ पहाड़ियां अनेक बार देखी होंगी। लेकिन जितना परिचय हिमालय का या सह्याद्रि का है उतना अरावली का नहीं है। काश, राजस्थान का कोई सहृदय भक्तिमान, भारतपुत्र अरावली का विविध परिचय करा देता! ऋग्वेद में अबुर्द नामक असुर का जिक्र आता है और वहां कहा है कि इन्द्र ने उस असुर को बर्फ के प्रहार से मार डाला। क्या इस आख्ययिका का अर्थ हम भूस्तर-शास्त्र से पा सकेंगे?
स्वतंत्र भारत के नवयुवकों का काम है कि वे भारत के कोने-कोने की यात्रा करें, वेद और पुराणों से लेकर अद्यतन विज्ञान तक की सब मदद लेकर भारत का सम्पूर्ण परिचय अपने लोगों को और दुनिया को करायें। हमारी जाति, हमारी संस्कृति भग्नावशिष्ट नहीं है। वह चिरंतन हैं, सनातन है और इसीलिए आज भी वह यौवनपूर्ण है।
Path Alias
/articles/pahaadaon-kaa-paitaamaha-araavalai
Post By: Hindi