लोग जैसे अपने खेतों की देखभाल करते हैं उसी तरह जंगल की देखभाल करने लगे। धीरे-धीरे उनकी मेहनत रंग लाने लगी। दो-तीन सालों में ही सूखे जंगलों में फिर से हरियाली लौटने लगी। बांज, बुरास, काफल के पुराने ठूंठों पर फिर नई शाखाएं फूटने लगीं। अंयार, बंमोर, किनगोड हिंसर, सेकना, धवला, सिंसाआरू, खाकसी आदि पेड़-पौधे दिखाई देने लगे। और आज ये पेड़ लहलहा रहे हैं।
जो काम सरकार और वन विभाग नहीं कर पाया वह लोगों ने कर दिखाया। उन्होंने पहाड़ पर उजड़ और सूख चुके जंगल को फिर हरा-भरा कर लिया और वहां के सूख चुके जलस्रोतों को फिर सदानीरा बना लिया। यह गांव अब पारिस्थितिकी वापसी का अनुपम उदाहरण बन गया है।
और यह है उत्तराखंड की हेंवलघाटी का जड़धार गांव। सीढ़ीदार पहाड़ पर बसे लोगों का जीवन कठिन है। अगर पहाड़ी गांव के आसपास पानी न हो तो जीवन ही असंभव है। और शायद इसी अहसास ने उन्हें अपने पहाड़ पर उजड़े जंगल को फिर से पुनर्जीवित करने को प्रेरित किया। यह ग्रामीणों की व्यक्तिगत पहल और सामूहिक प्रयास का नतीजा है। अब यह प्रेरणा का प्रतीक बन गया है।
हाल ही मुझे इस सुंदर जंगल को देखने का मौका मिला। जंगल और पहाड़ को नजदीक से देखने का आनंद ही अलग होता है। ये हमें आज के भागमभाग और तनावपूर्ण माहौल में सदा आकर्षित करते हैं। जहां एक तरफ देश के अन्य इलाके में जंगल कम हुए हैं, उत्तराखंड इसका अपवाद कहा जा सकता है।
पिछले दिनों चिपको आंदोलन से जुड़े रहे और इसी गांव के निवासी विजय जड़धारी के साथ इस जंगल को देखने गया था। पारंपरिक खेती, जंगल, नदी और पर्यावरण पर उनकी जानकारी व ज्ञान विस्तृत है। उन्होंने अपने अनुभव व पारंपरिक ज्ञान के आधार पर कई किताबें लिखी हैं, जिनकी सराहना अकादमिक दुनिया में भी हुई है।
वे मुझे पेड़ों, वनस्पतियों, लताओं और फूलों के बारे में ऋषि-मुनियों की तरह बता रहे थे। मैं जंगल के सौंदर्य को अपनी आंखों में सदा बसा लेने का प्रयास कर रहा था।
जड़धारी बता रहे थे कि बांज का पेड़ न सिर्फ चारा, पत्ती व खाद का काम करता है बल्कि मिट्टी को बांधने एवं जलस्रोतों की रक्षा का काम भी अन्य पेड़ों के मुकाबले ज्यादा करता है। इसका जंगल ही पानी का सदानीरा स्रोत हैं। गर्मी के मौसम में भी इसका ठंडा जल रहता है।
वे एक पेड़ के पास जाकर रुक गए, बोले-इन दिनों जंगल में इसी पेड़ में सफेद फूल खिले हैं, यह है पदम का पेड़। इसे देववृक्ष भी कहा जाता है। ठंड में ही इसके फूल खिलते हैं, सफेद फूलों के कारण इसे पहचानना मुश्किल नहीं है। इसी फूल के पराग से मधुमक्खी मधु संचय करती है और हमें मधुमक्खी मंडराते हुए भी दिख गई। मेंहल पेड़ की लकड़ी से बैलों को जोतने के लिए जुआ बनता है, जो हल में लगता है। उसमें बैलों को गर्दन रखने में सुविधा होती है, क्योंकि वह बहुत हल्का होता है। इसका जंगली फल भी खाते हैं।
जंगल में जाने से पहले मैं सोच रहा था क्या जंगल को फिर से जीवित किया जा सकता है। इस शंका का कारण कुछ और नहीं वृक्षारोपण का पुराना अनुभव था। लेकिन जब मैंने यह जंगल देखा, गांव के लोगों से बात की, चौकीदार से जंगल की पूरी कहानी सुनी तो मैं आश्वस्त हो गया कि अगर आपसी सहयोग और मिलकर काम किया जाए तो जंगलों को नया जीवनदान दिया जा सकता है।
80 के दशक में यह जंगल पूरी तरह उजड़ और सूख चुका था। ईंधन, पानी और लकड़ी की कमी हो गई थी। लेकिन टिहरी-गढ़वाल की चंबा-मसूरी पट्टी में पहले अच्छा और सुंदर जंगल था। इस गांव में भी था।
पहाड़ के ढलानों से हरियाली की चादर हटने से बाढ़ और भूस्खलन का खतरा बना रहता है। जलस्रोतों का प्रवाह अस्थिर हो जाता है। साथ ही लोगों की दैनंदिन जरूरत के लिए लकड़ी-चारे का अभाव हो जाता है।
जब लोगों को इसका गहरा अहसास हुआ कि हमारा बांज-बुरास का जंगल उजड़ रहा है। और उसके कई सदाबहार जलस्रोत सूख गए हैं, तब वे चिंतित हो उठे, इकट्ठे बैठकर सोचने लगे और मिलकर कुछ करने के लिए खड़े हो गए और वनों के जतन में जुट गए।
जंगल बचाने के इस सार्थक और उपयोगी काम के पीछे चिपको आंदोलन की प्रेरणा रही है। अदवानी, सलेत के जंगलों को लोगों ने बचाने में लोगों ने महती भूमिका निभाई थी। जब इन जंगलों की काटने के लिए जंगल ठेकेदारों के लोग आए तो लोगों ने पेड़ से चिपक कर अनूठा सत्याग्रह किया था। इस आंदोलन की देश-दुनिया में कीर्ति फैली थी। जड़धार गांव में स्वयं चिपको के कार्यकर्ता रहे विजय जड़धारी का निवास है। जंगल को फिर से पुनर्जीवित करने में उनकी प्रमुख भूमिका है।
जड़धार गांव के लोगों ने मिलकर तय किया कि जंगल को बचाया जाए। इसके लिए एक वन सुरक्षा समिति बनाई गई। जंगल से किसी भी तरह के हरे पेड़, ठूंठ, यहां तक कि कंटीली हरी झाड़ियों को काटने पर रोक लगाई गई। कोई भी व्यक्ति यदि अवैध रूप से हरी टहनी या झाड़ी काटता है तो उसे दंडित किया जाएगा।
पशु चरने पर रोक लगाई गई। कोई व्यक्ति वनों को किसी प्रकार नुकसान न पहुंचाए, यह सुनिश्चित किया गया। अनुशासन और आपसी समझ से यह काम किया गया। यह काम गांव की जरूरतों को ध्यान में रखकर किया गया जिसमें जरूरत पड़ने पर थोड़ा बहुत फेरबदल किया जा सके।
जंगल की रखवाली के लिए वन सुरक्षा समिति ने दो चौकीदार नियुक्त किए, जिन्हें गांव वाले पैसे एकत्र कर कुछ आंशिक वेतन देने लगे। जो पैसा जुर्माने से एकत्र होता उसे चौकीदारों को वेतन के रूप में दे दिया जाता। हालांकि बहुत कम है, फिर भी वनसेवकों ने यह काम अपना समझकर किया है।
हालांकि यहां वृक्षारोपण व पेड़ लगाने का काम भी हुआ है लेकिन वनों को फिर से हरा-भरा करने में महती भूमिका वनों को विश्राम देने की है। उन्हें उसी हाल में छोड़ दिया जाए, जिसमें वह है। सिर्फ उनकी रखवाली की जाए और उसे पनपने दिया जाए। बढ़ने, पुष्पित-पल्लवित होने दिया जाए।
लोग जैसे अपने खेतों की देखभाल करते हैं उसी तरह जंगल की देखभाल करने लगे। धीरे-धीरे उनकी मेहनत रंग लाने लगी। दो-तीन सालों में ही सूखे जंगलों में फिर से हरियाली लौटने लगी। बांज, बुरास, काफल के पुराने ठूंठों पर फिर नई शाखाएं फूटने लगीं। अंयार, बंमोर, किनगोड हिंसर, सेकना, धवला, सिंसाआरू, खाकसी आदि पेड़-पौधे दिखाई देने लगे। और आज ये पेड़ लहलहा रहे हैं।
पिछले तीन दशक से हरियाली लौटाने के इस प्रेरणादायी काम का नतीजा यह हुआ कि जंगल में चारों तरफ हरियाली से आच्छादित हो गया। हजारों पेड़ जंगल में सौंदर्य की छटा बिखेर रहे हैं। पानी के स्रोत फिर से जी उठे हैं। वे सदानीरा हो गए हैं। यहां के कुलेगाड, मूलपाणी, लुआरका पाणी, सांतीपुर पाणी, नागुपाणी, खुलियो गउ पाणी, रांता पाणी और द्वारछुलापाणी हैं। ये सदाबहार जलस्रोतों से ही साल भर गांवों को पीने का पानी मिलता है।
पहाड़ में आजीविका प्रमुख आधार खेती और पशुपालन है। लेकिन उन्हें जंगल से कई गैर-खेती भोजन प्राप्त होता है। कई तरह के कंद-मूल, फल, फूल, पत्ते, मशरूम और शहद से उनकी भोजन की जरूरतें भी पूरी होती हैं। बच्चों के पोषण की दृष्टि से महत्वपूर्ण फल, फूल, शहद आदि मिलती है।
‘गोविंदबल्लभ पंत हिमालयी पर्यावरण व विकास संस्थान’ (श्रीनगर, गढ़वाल) के वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन में इसे पुनःजीवित सर्वश्रेष्ठ जंगलों में बताया है। पुणे के पक्षी विशेषज्ञ डा. प्रकाश गोले ने यहां कुछ ही घंटों में पक्षियों की 95 प्रजातियों की गिनती की। जंगल बढ़ाने में सहायक हुए हैं। जड़धारी कहते हैं कि दूर-दूर से यह पक्षी बीज लाकर इस जंगल के अवैतनिक सेवक बन गए हैं।
इसके अलावा, कई वन्य प्राणियों ने भी इस जंगल को अपना आशियाना बना लिया है। भालू, तेंदुआ, हिरण, जंगली सुअर आदि यहां प्रायः दिखते हैं।
वन सुरक्षा समिति का चौकीदार हुकुमसिंह बताते हैं कि हमने आग लगने से भी जंगल को बचाया है। जहां कहीं भी धुआं देखा वहां तुरंत पहुंच जाते और आग बुझाते। गांव वालों की भी मदद लेते। आग बुझाने में गांववासी बहुत मेहनत और साहस का परिचय देते हुए आग पर काबू पाते।
जलवायु बदलाव के इस दौर में जंगल को फिर से पुनर्जीवन प्रदान के इस काम का महत्व बढ़ जाता है। इस इलाके में पहले भी कुड़ी व पिपलेत गांवों में किया जा चुका है। कुल मिलाकर, इस पूरे काम से यह निष्कर्ष निकलता है कि गांवों की आपसी समझ, एकता और मेहनत से उजड़ रहे वनों को नया जीवनदान मिल सकता है। यह जड़धार के गांव के लोगों ने कर दिखाया है, जो सराहनीय होने के साथ-साथ अनुकरणीय है।
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