पहाड़ की आत्मकथा : हाँ, मैं हूं हिमालय का पहाड़ बहुत उदास, नित दरकता, सूखता।

बड़ी-बड़ी मशीनें मेरी रूह पर निरंतर और घंटों चल रही हैं। मुझे खोदा जा रहा है ताकि उनका सफर आसान हो। मुझसे मिट्टी और पत्थर खरोंचे जा रहे हैं। जब मानव का दिल चाहता है वो एक विस्फोट करता है और मुझसे मरे शरीर का एक हिस्सा ले लेता है। जो काम का नहीं, उसे फिर मेरे शरीर पर ही डाल देता है और वृक्ष रूपी मेरे शरीर के बाल भी इस मलबे में दफन हो जाते हैं। वो जब मुझे विकास के नाम पर बलि चढ़ाते हैं, मेरे प्रवाह को रोक बांध बनाते हैं तब तक तो ठीक पर जब वो मेरी और उनकी सांसों के लिए जरूरी पेड़ों को काटते हैं तो बहुत दुख होता है। मैं अभागा रोता हूं तो वो समझते हैं कि बाढ़ आई है। मेरे शरीर के किसी हिस्से में धूप से जलन होती है तो वो समझते हैं, वनाग्नि है। मैं मानव हस्तक्षेप के कारण दर्द से दरकता हूं तो उसे भूस्खलन नाम देकर प्रकृति को कोसते हैं। हां, मैं पहाड़ हूं और बहुत उदास हूं। मुझे जिस तरह से प्रकृति से अलग किया जा रहा है तो मैं दर्द से दरक रहा हूं और मेरे आंसुओं के सैलाब से बर्फ पिघल रही है। जो कुछ भी हो रहा है, उससे यही लगता है कि मेरे सब अंग गल रहे हैं और मैं बेकार होता जा रहा हूं। उपेक्षित, उत्पीड़ित और अपमानित-सा महसूस कर रहा हूं।

सृजन के लिए मेरा पहाड़ 

सदियों पुरानी बात है। जब पृथ्वी पर एक ही सागर था। फिर धरती दो भागों में बंटी तो सागर भी दो हो गये। अत्यधिक दबाव, दरार व घर्षण के बीच मैंने जन्म लिया और अपने आवरण पर मिट्टी और पत्थरों की चट्टानें बनानी शुरू कर दी। मैं बड़ा होने लगा। मुझे एहसास होता था कि प्रकृति ने मेरा निर्माण मनुष्य जाति के उत्थान कि लिए किया है। कुछ लोगों ने मुझे मुडवा कहा तो किसी ने नामकरण किया वलन तो कोई फोल्ड माउंटेन कहने लगा। जिसने जो नाम दिया, पहचान दी, मैंने सब स्वीकार कर लिया। सदियों से मैं घिस-घिस कर बड़ा हुआ। मेरी मिट्टी और चट्टानों पर पेड़ उगे, घास उगी, स्रोत और जलधारे भी निकलने लगे। मैंने जहां गर्मियों में वनाग्नि का सामना किया तो वहीं सर्दियों में जमा देने वाली ठंड और बर्फ को भी अपने जीवन का हिस्सा बना लिया। मुझे प्रकृति से कोई शिकायत नहीं है क्योंकि मैं मानव और अन्य जीवों को जीवन दे रहा थ और जीवन दे रहा हूं, जहां तक संभव होगा, जीवन देता रहूंगा। जब हाथी के पांव मुझे गुदगुदी देते हैं और खरगोश को देख छोटा बच्चा किलकारी मारता है तो मेरे तमाम दुख और थकान दूर हो जाती है।

समृद्ध और गौरवशाली इतिहास है मेरा

जब भी फुरसत मिलती है तो मैं अपने अतीत को देखता हूं। मेरा अतीत गौरवशाली रहा है। मैंने अपनी आंखों से हिंदुस्तान को सोने की चिड़िया के तौर पर देखा है। मैं कण्वाश्रम में राजा दुष्यंत और शकुंतला के छोटे-से बालक भरत की वीरता का साक्षी हूं जो शेर का का मुंह खोल उसके दांत गिन लेता था। मैं पांडवों के लाक्ष्यागृह से लेकर उनके शिव की तलाश में केदारनाथ जाने का साक्षी रहा हूं और इसके बाद ही पांडवों के मेरे मेरू पर्वत से स्वर्ग जाने की गाथा का भी प्रमाण रहा हूं। मैं अतीत, वर्तमान और भविष्य का साक्षी रहूंगा। लेकिन दुख की बात है कि जहां मेरा अतीत गौरवशाली रहा वहीं मेरा वर्तमान दुख में है और भविष्य अंधकार में।

अब तक नहीं समझा, क्या होती है आल वेदर रोड?

पिछले दो साल से लगातार बड़ी मशीनें मेरा सोना खोद रही हैं। लाखों पेड़ काट डाले गये हैं और सड़के चैड़ी हो रही हैं। मैं देखता हूं कि चार महीने छोड़ दिये जाएं तो बाकी आठ महीने इन सड़कों पर मैं वाहन देखने को तरस जाता हूं। सब जानते हैं कि मैं सबसे युवा पहाड़ हूं और कच्चा भी। मेरी प्लेट लगातार तिब्बतियन प्लेट के साथ घर्षण कर रही है। ज्यादा घर्षण या दबाव से मैं दरक रहा हूं। मेरे शरीर में जितने भी वी-सेप होंगे, उतना ही मैं कमजोर होता जाऊंगा। लेकिन कोई परवाह ही नहीं कर रहा है। मैंने देखा है कि ऋषिकेश-शिवपुरी से आगे लगातार ही मेरा सीना खोदा जा रहा है और मलब सड़क के नीचे पेड़ों पर डाल रहे हैं। इससे नीचे के पेड़ भी नष्ट हो रहे हैं और इसका कोई रिकॉर्ड नहीं है।

मानव, क्या भूल गये 2013 का तांडव?

मानव व अन्य जीव मेरी संताने हैं। मैं हूं तो मानव भी हूं और अन्य जीव-जंतु भी। लेकिन यदि मैं ही नहीं बचा तो फिर क्या रहेगा? यह बात मानव के समझ में नहीं आती है। जब 2013 में जलप्रलय आई तो मुझे बहुत दुख हुआ लेकिन यह मेरा कसूर नहीं था। अंधाधुंध बांध, पेड़ों का कटान और मानवीय हस्तक्षेप से प्रकृति ने संतुलन खो दिया था। हजारों लोग मंदाकिनी के प्रभाव में सिमट गये। हमें प्रकृति से सीखना चाहिये था लेकिन मनुष्य हठी है, सीखने और विकास का पैमाना स्वयं निर्धारित कर आगे बढ़ने की बात कर रहा है। ऐसे में उसे तो भान नहीं हो रहा है कि वह शाखा पर बैठा है उसे ही काट रहा है।

पेड़ नहीं, तो जीवन नहीं

देवप्रयाग और सतपुली के बीच में व्यासचट्टी है। कभी यहां बद्रीनाथ जाने वाले तीर्थयात्रियों का जमघट लगा रहता था लेकिन अब यहां सन्नाटा है। दूर-दूर तक गांव हैं लेकिन वहां मानवी हलचल ही नहीं है। व्यासघाट में भी आधा दर्जन लोग ही रह गए हैं। यह सड़क भी ऑल वेदर रोड है लेकिन यहां सन्नाटा है कि कभी-कभार ही यहां वाहन आते हैं। जब पहाड़ में लोग ही नहीं रहेंगे तो आएंगे- जाएंगे भी कहां? हां, मेरे शरीर पर बंदर और लंगूर गुदगुदी करते हैं और सूअर खुजली। व्यासचट्टी से सतपुली के आगे बढ़ने पर एक ओर हरियाली नजर आती है तो दूसरी ओर दिनों-दिन सूख रही घास। कारण, यहां कोई मानवीय दखल है ही नहीं। मानव का वनों से नाता टूट रहा है। तिमला, अंजीर, बेडू, बांस, बुरांश और अन्य फलदार व जड़ी-बूटी वाले पेड़ तो मेरे शरीर से कम होते जा रहे हैं। इस कारण खाद्य श्रंखला भी नष्ट हो रही है। मानव और वन्यजीवों के बीच में संघर्ष बढ़ रहा है, लेकिन दोषी कौन है? मानव का वनों से लगाव नहीं होगा तो वनाग्नि तो भड़केगी ही। हर साल मेरे एक हजार से भी अधिक हेक्टेयर शरीर पर वनाग्नि होती है। कई बार तो यह आंकड़ा आप दो हजार हेक्टेयर तक जा पहुंचा है। मैं इस वनाग्नि का दोषी मानव को न मानूं तो किसे दोष दूं?

लहलहाते खेत देख खिल उठता है मन

सतपुली के निकट बिलखेत में आज भी हरी-भरी खेती है। गेहूं की बालियां स्यारा में लहलहाती नजर आ रही हैं तो यह हरियाली देख मेरा मन झूम उठता है। उम्मीद की एक किरण नजर आने लगती है लेकिन खेती का यह दायरा अब रहा ही कितना? पूरे प्रदेश में चार प्रतिशत भूमि पर ही खेती हो रही है। मैं मानव को एक बार फिर से चेतावनी देना चाहता हूं कि जागो, यदि उत्पादन नहीं हुआ तो  एक दिन ऐसा आएगा कि मानव के पास बहुत से कागज के नोट और चांदी के सिक्के होंगे, लेकिन खाने के लिए अनाज नहीं होगा। ठीक वेनेजुएला की तरह।

सिमट रहे लोग तो ग्लोबल विलेज की क्या बात?

मेरे पहाड़ से मानव मैदानों की ओर जा रहा है। काम नहीं करना चाहता, मेहनत से नाता तोड़ रहा है। उसे मैदान के लोग लालच दे रहे हैं, कोई मुफ्त की राशन देने की बात करता है तो कोई हर माह निश्चित आय। ऐसे में कौन भला काम करना चाहता है? मानव ही मानव का दुश्मन है और मानव ही सबसे अधिक लालची और आलसी भी। मेहनत नहीं करना चाहता है। गांव भुतहा हो रहे हैं और लोग सिमट रहे हैं। ऐसे में ग्लोबल विलेज की बात बेमानी है। ऐसे में मेरी उदासी और चिंता निरंतर बढ़ रही है।

बांज, बुरांश और चीड़ की हरियाली

मैंने मानव को संजीवनी दी है और भी कई अन्य जड़ी-बूटियां। मैंने मानव को जहां अथाह प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध कराए हैं तो उसे इस तरह भी विकसित भी किया है कि वह जमाने वाली ठंड में तपस्या कर सके, क्योंकि मानव के अंदर अथाह उत्साह है और दृढ़ निश्चय है। मानव ही सोचने की ताकत रखता है लेकिन पहाड़ को बसाने की दिशा में उस की उपेक्षा से मन दुखी हो रहा है। प्रकृति मानव को पहाड़ से प्रेम करने की सीख देता है लेकिन मानव तो प्रकृति को अपने बस में करने में जुटा हुआ है, बिना यह देखे कि आखिर प्रकृति चाहती क्या है, पहाड़, वन और नदी-झरने क्या चाहते हैं? विकास और विज्ञान की आड़ में मानव अहंकारी और हठी हो गया है। इतिहास गवाह है क्या अहंकार तो रावण का भी नहीं रहा। कहीं ऐसा ना हो कि मेरे सबसे प्रिय वस्तु मानव मुझसे पहले नष्ट हो जाए, मेरी उदासी और मेरी चिंता का कारण यही है। ऐसे माहौल में मेरा दम घुट रहा है और मैं निरंतर दरक रहा हूं। जागो और संभलो, ऐ मानव!

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