![महालिंग नाइक का प्रयास सफल हुआ](/sites/default/files/styles/node_lead_image/public/hwp-images/Mahaling%20Naik%201_3.jpg?itok=9NXTs5R_)
महालिंग नाइक का प्रयास सफल हुआ
गांव वाले तो कहते थे महालिंग व्यर्थ की मेहनत कर रहा है। लेकिन महालिंग को गांव के लोगों की आलोचना सुनाई तक नहीं देती थी। असफल होने का डर भी उन्हें नहीं लगता था। हां वे चार बार असफल भी रहे। सुरंग बनाई। लेकिन पानी नहीं मिला। मेहनत बेकार चली गई। लेकिन महालिंग ने हार नहीं मानी। वे लोगों से कहते रहे कि एक दिन ऐसा आएगा जब मैं यहीं इसी जगह इतना पानी ले आऊंगा कि यहां हरियाली का वास होगा।
दक्षिण कन्नड़ के किसान महालिंग नाईक पोथी वाली इकाई-दहाई तो नहीं जानते लेकिन उन्हें पता है कि बूंदों की इकाई-दहाई, सैकड़ा-हजार और फिर लाख- करोड़ में कैसे बदल जाती है। 58 साल के अमई महालिंग नाईक स्कूल कभी गए ही नहीं। उनकी शिक्षा-दीक्षा और समझ खेतों में रहते हुए ही बनी और संवरी थी।इसलिए वर्तमान शिक्षा प्रणाली के वे घोषित निरक्षर हैं। लेकिन दक्षिण कन्नड़ जिले के अडयानडका में पहाड़ी पर 2 एकड़ की जमीन पर जब कोई उनके पानी के काम को देखता है तो यह बताने की जरूरत नहीं रह जाती कि केवल गिटपिट रटंत विद्या ही साक्षरता नहीं होती। असली साक्षरता तो प्रकृति की गोद में प्राप्त होती है और इसमें तो हमारे ये महालिंग नाईक पीएचडी से कम नहीं। पानी का जो काम उन्होंने अपने खेतों के लिए किया है उसमें कठिन श्रम के साथ-साथ दूरदृष्टि और पर्यावरण का एक सुंदर दर्शन साफ झलकता है।पहले इस पहाड़ी पर केवल सूखी घास दिखाई देती थी। नाईक की इस बात में कुछ भी अतिरेक नहीं है। आसपास के इलाकों में फैली वैसी ही सूखी घास उनकी बात की तस्दीक करती है। महालिंग तो किसान भी नहीं थे। जबसे होश संभाला नारियल और सुपारी के बगीचों में मजदूरी करते थे। मेहनती थे और ईमानदार भी। किसी ने प्रसन्न होकर कहा कि ये लो 2 एकड़ जमीन और इस पर अपना खुद का कुछ काम करो। यह कोई 1970-72 की बात होगी। उन्होंने सबसे पहले वहां एक झोपड़ी बनाई और पत्नी बच्चों के साथ वहां रहना शुरु कर दिया। यह जमीन पहाड़ी पर थी और मुश्किल में बड़ी मुश्किल यह कि ढलान पर थी। एक तो पानी नहीं था और पानी आए भी तो रुकने की कोई गुंजाइश नहीं। फसल के लिए इस जमीन पर पानी थामना बहुत जरूरी था।
पानी रुके इसके लिए पानी का होना जरूरी था। अब मुश्किल यह थी कि पानी यहां तक लाया कैसे जाए? कुआं खोदना हो तो उसके लिए बहुत पैसे चाहिए थे, क्योंकि यहां से पानी निकालने के लिए गहरी खुदाई करनी पड़ती। फिर खतरा यह भी था कि इतनी गहरी खुदाई करने के बाद वह कुआं पानी निकलने से पहले ही बैठ भी सकता था। इसलिए कुएं की बात सोचना संभव नहीं था। तभी अचानक उन्हें पानी की सुरंग का ख्याल आया।
![महालिंग नाइक का प्रयास सफल हुआ महालिंग नाइक का प्रयास सफल हुआ](/sites/default/files/hwp/import/images/Mahaling Naik 1.jpg)
गांव वाले तो कहते थे महालिंग व्यर्थ की मेहनत कर रहा है। लेकिन महालिंग को गांव के लोगों की आलोचना सुनाई तक नहीं देती थी। असफल होने का डर भी उन्हें नहीं लगता था। हां वे चार बार असफल भी रहे। सुरंग बनाई। लेकिन पानी नहीं मिला। मेहनत बेकार चली गई। लेकिन महालिंग ने हार नहीं मानी। वे लोगों से कहते रहे कि एक दिन ऐसा आएगा जब मैं यहीं इसी जगह इतना पानी ले आऊंगा कि यहां हरियाली का वास होगा। नियति ने उनका साथ दिया। पांचवीं बार वे पानी लाने में सफल हो गए। पानी तो आ गया। अब अगली जरुरत थी जमीन को समतल करने की। यह काम भी उन्होंने अपने दम पर अकेले ही किया। उनकी इस मेहनत और जीवट का परिणाम है कि आज वे 300 पेड़ सुपारी और 40 पेड़ नारियल के मालिक हैं। समय लगा, श्रम लगा लेकिन परिणाम न केवल उनके लिए सुखद है बल्कि पूरे समाज के लिए भी प्रेरणा है।
![महालिंग नाइक का कृषि फार्म महालिंग नाइक का कृषि फार्म](/sites/default/files/hwp/import/images/Mahalinga Naik.jpg)
महालिंग नाईक अपने से कुछ भी कहने में सकुचाते हैं। कम बोलते हैं। चुपचाप अपने काम में लगे रहते हैं। दूसरों के लिए उदाहरण बन चुके महालिंग नाईक कर्ज लेने में विश्वास नहीं करते। वे मानते हैं कि जितना है, उतने में ही संयमित रूप से गुजारा करना चाहिए। हां एक बार घर बनाने के लिए गांव की बैंक से 1000 रुपए कर्ज लिया था। दक्षिण में कर्ज लेकर अमीर बनने का सपना पालते किसानों के लिए महालिंग चुपचाप बहुत कुछ कह रहे हैं। अगर लोग सुनना चाहें तो। चारों तरफ सूखे से घिरे इस पहाड़ी के माथे पर महालिंग ने पानी और अपनी मेहनत से हरियाली का एक सुंदर तिलक लगा दिया है।
श्री श्रीपद्रे ‘आदिके पत्रिके’ नामक कृषि पत्रिका के मानद संपादक रहे हैं। कन्नड़, मलयालम और अंग्रेजी में ऐसे विषयों पर लिखते हैं, जिन्हें प्रायः अन्य पत्रकार हाथ भी नहीं लगाते।
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