तैयारी के तीन माह, सम्मेलन के 12 दिन-12 रातें, 50 हजार प्रतिभागी और समझौता मसौदा के 31 पन्ने: जलवायु दुरुस्त करने के मसले पर वैश्विक सहमति के लिये जैसे यह सब कुछ नाकाफी था; जैसे सबने तय कर लिया था कि इस बार नाकामयाब नहीं लौटेंगे। पेरिस जलवायु सम्मेलन की तारीखों में एक रात व एक दिन और जोड़े गए; वार- शनिवार, तारीख - 12 दिसम्बर, 2015।
सुबह 27 पेजी नया मसौदा आया और शाम को नया क्षण। समय- रात के सात बजकर, 16 मिनट; सजी हुई नाम पट्टिकाएँ, उनके पीछे बैठे 196 देशों के प्रतिनिधि, फ्रांसीसी विदेश मंत्री लारेंट फेबियस की मंच पर वापसी, साथ में संयुक्त राष्ट्र उच्चाधिकारी और माइक पर एक उद्घोषणा - “पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर हो चुके हैं।’’
दुनिया को जैसे बस इसी एक पंक्ति का इन्तजार था। तालियों की गड़गड़ाहट, चियर्स के शब्द बोल, सीटियों की गूँज और इन सबके बीच कई चेहरों को तरल कर गई हर्ष मिश्रित अश्रु बूँदे कह रही थी कि जो कुछ हुआ, वह आसान नहीं था।
यूरोपीय संघ के राष्ट्रों ने राष्ट्रीय स्तर पर कार्बन उत्सर्जन में स्वैच्छिक कटौती की कानूनी बाध्यता को स्वीकारा, अमेरिका ने ‘घाटा और क्षति’ की शब्दावली को और भारत-चीन ने वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस से ऊपर न जाने देने की आकांक्षा को।
134 देश, आज विकासशील की श्रेणी में हैं। उनके हक में माना गया कि विकसित की तुलना में गरीब व विकासशील देश कम कार्बन उत्सर्जन कर रहे हैं; जबकि कार्बन उत्सर्जन कटौती की कवायद में उनका विकास ज्यादा प्रभावित होगा; लिहाजा, विकसित देश घाटा भरपाई की जिम्मेदारी लें। इसके लिये ‘ग्रीन क्लाइमेट फंड’ बनाना तय हुआ। तय हुआ कि वर्ष 2025 तक इस विशेष कोष में 100 अरब डॉलर की रकम जमा कर दी जाये।
वर्ष 1992 से संयुक्त राष्ट्र द्वारा की जा रही वैश्विक जलवायु समझौते की कोशिशों की नाकामयाबी को भी देखें, तो कह सकते हैं कि सचमुच यह आसान नहीं था। इसे मुमकिन बनाने के लिये यह सम्मेलन भारत जैसे देशों को दबाव में लाने की कोशिशों से भी गुजरा।
भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील के बिना इस समझौते को अधूरा मानने की बात कही गई। इसके लिये दुनिया भर में बाकायदा हस्ताक्षर अभियान चलाया गया। तैयारी बैठकों में चले खेल से दुखी प्रतिनिधि कहते हैं कि अमेरिका ने गन्दी राजनीति खेली।
उसके संरक्षण में 100 देशों का एक गुट अचानक सामने आया और उसने उसके मुताबिक समझौता कराने में कूटनीतिक भूमिका निभाई। कहने वाले ये भी कहते हैं कि अमेरिका नेे भारत के कंधे पर बन्दूक रखकर निशाना साधा।
एक तरफ अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन केरी ने अपने एक साक्षात्कार में जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में भारत को ही एक चुनौती करार दे दिया, तो दूसरी तरफ अमेरिकी राष्ट्रपति, भारत के नेतृत्वकारी भूमिका की सराहना करते रहे। मशहूर पत्रिका टाइम ने भारत की भूमिका की तारीफ की।
इसे दबाव कहें या फिर रायनय कौशल, अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा भारतीय प्रधानमंत्री से बैठक, फोन वार्ताओं और फ्रांस के रायनय कौशल का असर यह रहा कि जो भारत और चीन, कार्बन उत्सर्जन कम करने की कानूनी बाध्यता के बन्धन में बँधने से लगातार इनकार करते रहे, संयुक्त राष्ट्र का पेरिस सम्मेलन, दुनिया की सबसे बड़ी आबादी और आर्थिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण इन दो मुल्कों को बाँधने में सफल रहा।
1997 में हुई क्योटो सन्धि की आयु 2012 में समाप्त हो गई थी। तभी से जिस नई सन्धि की कवायद शुरू हुई थी, वह कॉन्फ्रेंस ऑफ द पार्टीज ‘कोप 21’ के साथ सम्पन्न हुई।
गौर कीजिए कि पेरिस जलवायु समझौता, अभी सिर्फ एक समझौता भर है। कुल वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में से 55 प्रतिशत उत्सर्जन के लिये जिम्मेदार देशों में से 55 देशों की सहमति के बाद समझौता एक कानून में बदल जाएगा।
विकसित व अग्रणी तकनीकी देश, इन मसलों पर स्पष्ट रूपरेखा प्रस्तुत करने में आनाकानी बरतते रहे। वे चालाकी में हैं कि इस पर पेरिस सम्मेलन के बाहर हर देश से अलग-अलग समझौते की स्थिति में अपनी शर्तों को सामने रखकर दूसरे हित भी साध लेंगे। मसौदा, निश्चित तौर पर तकनीकी हस्तान्तरण के मसले पर कमजोर है। नए मसौदे में हवाई यात्रा के अन्तरराष्ट्रीय यातायात तंत्र पर बात नहीं है। सच्चाई यह है कि कार्बन बजट के साथ-साथ अन्य बाध्यताएँ न होने से अमेरिका और हरित तकनीकों के विक्रेता देश खुश हैं। यह कानून, सहमति तिथि के 30वें दिन से लागू हो जाएगा। इसी के मद्देनज़र तय हुआ है कि सदस्य देश 22 अप्रैल, 2016 को संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय पहुँचकर समझौते पर विधिवत हस्ताक्षर करेंगे।
जाहिर है कि पेरिस जलवायु समझौते को कानून में बदलता देखने के लिये हम सभी को अभी अगले पृथ्वी दिवस का इन्तजार करना है। किन्तु ‘कोप 21’ के समीक्षक इसका इन्तजार क्यों करें? कोप 21 के नतीजे में जीत-हार देखने का दौर तो सम्मेलन खत्म होने के तुरन्त बाद ही शुरू हो गया था।
किसी ने इसे ऐतिहासिक उपलब्धि कहा, तो किसी ने इसे धोखा, झूठ और कमजोर करार दिया; खासकर, गरीब और विकासशील देशों के हिमायती विशेषज्ञों द्वारा समझौते को आर्थिक और तकनीकी तौर पर कमजोर बताया जा रहा है। विशेषज्ञ प्रतिक्रिया है कि जो सर्वश्रेष्ठ सम्भव था, उससे तुलना करेंगे, तो निराशा होगी।
जलवायु मसले पर वैश्विक समझौते के लिये अब तक हुई कोशिशों से तुलना करेंगे, तो पेरिस सम्मेलन की तारीफ किये बिना नहीं रहा जा सकता। भारत के वन एवं पर्यावरण मंत्री श्री प्रकाश जावड़ेकर ने भी माना कि यह समझौता, हमें तापमान को दो डिग्री से कम रखने के मार्ग पर नहीं रखता।
समझौते को नाकाफी अथवा फरेब बताने वालों का मुख्य तर्क यह है कि जो जिम्मेदारियाँ, विकसित देशों के लिये बाध्यकारी होनी चाहिए थी, वे बाध्यकारी खण्ड में नहीं रखी गई। विकसित देश, बड़ी चालाकी के साथ भाग निकले।
मुख्य विरोध इसी बात का है कि ‘ग्रीन क्लाइमेट फंड’ के लिये 100 अरब डॉलर धनराशि एकत्र करना तो बाध्यकारी बनाया गया है, किन्तु कौन सा देश कब और कितनी धनराशि देगा; यह बाध्यता नहीं है। समझौते में कहा गया है कि 2025 तक अलग-अलग देश अपनी सुविधा से 100 बिलियन डॉलर के कोष में योगदान देते रहें।
गौर कीजिए कि समझौते के दो हिस्से हैं: निर्णय खण्ड और समझौता खण्ड। निर्णय खण्ड में लिखी बातें कानूनन बाध्यकारी नहीं होंगी। समझौता खण्ड की बातें सभी को माननी होंगी। विकासशील और गरीब देशों को इसमें छूट अवश्य दी गई है, किन्तु सम्बन्धित न्यूनतम अन्तरराष्ट्रीय मानकों की पूर्ति करना तो उनके लिये भी बाध्यकारी होगा।
मलाल इस बात का भी है कि 100 अरब डॉलर के कार्बन बजट को एक हकदारी की बजाय, मदद की तरह पेश किया है; जबकि सच यह है कि कम समय में कार्बन उत्सर्जन घटाने के लक्ष्य को पाने लिये जिन हरित तकनीकों को आगे बढ़ाना होगा, वे महंगी होगी। गरीब और विकासशील देशों के लिये यह एक अतिरिक्त आर्थिक बोझ की तरह होगा।
निगरानी व मूल्यांकन करने वाली अन्तरराष्ट्रीय समिति उन्हें ऐसा करने पर बाध्य करेंगी। न मानने पर कार्बन बजट में उस देश की हिस्सेदारी रोक देंगे। बाध्यता की स्थिति में तकनीकों की खरीद मजबूरी होगी। इसीलिये सम्मेलन पूर्व ही माँग की गई थी कि उत्सर्जन घटाने में मददगार तकनीकों को पेटेंट मुक्त रखना तथा हरित तकनीकी का हस्तान्तरण को मुनाफ़ा मुक्त रखना बाध्यकारी हो, किन्तु यह नहीं हुआ।
विकसित व अग्रणी तकनीकी देश, इन मसलों पर स्पष्ट रूपरेखा प्रस्तुत करने में आनाकानी बरतते रहे। वे चालाकी में हैं कि इस पर पेरिस सम्मेलन के बाहर हर देश से अलग-अलग समझौते की स्थिति में अपनी शर्तों को सामने रखकर दूसरे हित भी साध लेंगे। मसौदा, निश्चित तौर पर तकनीकी हस्तान्तरण के मसले पर कमजोर है।
एक महत्त्वपूर्ण कदम के तौर पर भारत ने 2030 तक 2.5 से तीन अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित करने का भी लक्ष्य रखा है। इसके लिये भारत वन क्षेत्र में पर्याप्त इजाफा करेगा। इन कवायदों के बदले में भारत को ‘ग्रीन क्लाइमेट फंड’ नामक विशेष कोष से मदद मिलेगी। यह पैसा बाढ़, सुखाड़, भूकम्प जैसी किसी प्राकृतिक आपदा की एवज में नहीं, बल्कि भारतीयों के रहन-सहन और रोजी-रोटी के तौर-तरीकों में बदलाव के लिये मिलेगा।नए मसौदे में हवाई यात्रा के अन्तरराष्ट्रीय यातायात तंत्र पर बात नहीं है। सच्चाई यह है कि कार्बन बजट के साथ-साथ अन्य बाध्यताएँ न होने से अमेरिका और हरित तकनीकों के विक्रेता देश खुश हैं।
राष्ट्रपति बराक ओबामा ने राहत की साँस ली है। वे जानते हैं कि बाध्यकारी होने पर सीनेट में उसका घोर विरोध होता। सम्मेलन में नेतृत्वकारी भूमिका निभाने के लिये भारतीय प्रधानमंत्री को बार-बार बधाई के पीछे एक बात सम्भवतः यह राहत की साँस भी है।
उक्त परिदृश्य के आइने में कह सकते हैं कि पेरिस सम्मेलन, आशंकाओं के साथ शुरू हुआ था और आशंकाओं के साथ ही खत्म हुआ। किन्तु इसमें भारत ने अहम भूमिका निभाई; इसे लेकर किसी को कोई आशंका नहीं है; न विशेषज्ञ स्वयंसेवी जगत को और न मीडिया जगत को।
हम गर्व कर सकते हैं कि सौर ऊर्जा के अन्तरराष्ट्रीय मिशन को लेकर फ्रांस के साथ मिलकर भारत ने वाकई नेतृत्त्वकारी भूमिका निभाई। भारत ने कार्बन उत्सर्जन में स्वैच्छिक कटौती की महत्त्वाकांक्षी घोषणा की; तद्नुसार भारत, वर्ष 2005 के अपने कार्बन उत्सर्जन की तुलना में 2030 तक 30 से 35 फीसदी तक कटौती करेगा।
इसके लिये भारत, अपने बिजली उत्पादन के 40 प्रतिशत हिस्से को कोयला जैसे जीवश्म ऊर्जा स्रोतों के बिना उत्पादित करेगा। 2022 से एक लाख, 75 हजार मेगावाट बिजली, सिर्फ अक्षय ऊर्जा स्रोतों से पैदा करेगा।
एक महत्त्वपूर्ण कदम के तौर पर भारत ने 2030 तक 2.5 से तीन अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित करने का भी लक्ष्य रखा है। इसके लिये भारत वन क्षेत्र में पर्याप्त इजाफा करेगा।
इन कवायदों के बदले में भारत को ‘ग्रीन क्लाइमेट फंड’ नामक विशेष कोष से मदद मिलेगी। यह पैसा बाढ़, सुखाड़, भूकम्प जैसी किसी प्राकृतिक आपदा की एवज में नहीं, बल्कि भारतीयों के रहन-सहन और रोजी-रोटी के तौर-तरीकों में बदलाव के लिये मिलेगा।
अन्य पहलू यह होगा कि किन्तु जीवाश्म ऊर्जा स्रोत आधारित बिजली संयंत्रों को विदेशी कर्ज मिलना लगभग असम्भव हो जाएगा। अन्य देशों की तरह भारत को भी हर पाँच साल बाद बताना होगा कि उसने क्या किया।
गौर करने की बात यह भी है एक वैश्विक निगरानी तंत्र बराबर निगाह रखेगा कि भारत कितना कार्बन उत्सर्जन कर रहा है। निगरानी, समीक्षा तथा मूल्यांकन - ये कार्य एक अन्तरराष्ट्रीय समिति की नजर से होगा। असल समीक्षा कार्य 2018 से ही शुरू हो जाएगा। अन्तरराष्ट्रीय मानकों के आधार पर समीक्षा होगी।
क्या इससे भारत पर अन्तरराष्ट्रीय मानक भारत की भू सांस्कृतिक, सामाजिक व आर्थिक विविधता के अनुकूल हैं या नहीं? समझौते के कारण भारत किन्ही नई और जटिल बन्दिशों में फँस तो नहीं जाएगा? भारत में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये वर्ष 2008 में भी राष्ट्रीय कार्ययोजना पेश की थी।
अक्षय ऊर्जा, ऊर्जा दक्षता, कचरे का बेहतर निस्तारण, पानी का कुशलतम उपयोग, हिमालय संरक्षण, हरित भारत, टिकाऊ कृषि व पर्यावरण ज्ञान तंत्र का विकास- उसके आठ लक्ष्य क्षेत्र थे। गत् सात वर्षों में हम कितना कर पाये? आगे नहीं कर पाएँगे, तो क्या हमें कार्बन बजट में अपना हिस्सा मिलेगा? नहीं मिला, तो भारत की आर्थिकी किस दिशा में जाएगी?
कहीं ऐसा तो नहीं कि कार्बन उत्सर्जन घटाने और अवशोषण बढ़ाने की हरित तकनीकों को लेकर हम अन्तरराष्ट्रीय निगरानी समिति के इशारे पर नाचने पर मजबूर हो जाएँगे? प्रश्न बता रहे हैं कि हवा-पानी ठीक करने का भारतीय मोर्चा भी इन तमाम आशंकाओं से मुक्त नहीं है।
सुबह 27 पेजी नया मसौदा आया और शाम को नया क्षण। समय- रात के सात बजकर, 16 मिनट; सजी हुई नाम पट्टिकाएँ, उनके पीछे बैठे 196 देशों के प्रतिनिधि, फ्रांसीसी विदेश मंत्री लारेंट फेबियस की मंच पर वापसी, साथ में संयुक्त राष्ट्र उच्चाधिकारी और माइक पर एक उद्घोषणा - “पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर हो चुके हैं।’’
दुनिया को जैसे बस इसी एक पंक्ति का इन्तजार था। तालियों की गड़गड़ाहट, चियर्स के शब्द बोल, सीटियों की गूँज और इन सबके बीच कई चेहरों को तरल कर गई हर्ष मिश्रित अश्रु बूँदे कह रही थी कि जो कुछ हुआ, वह आसान नहीं था।
यूरोपीय संघ के राष्ट्रों ने राष्ट्रीय स्तर पर कार्बन उत्सर्जन में स्वैच्छिक कटौती की कानूनी बाध्यता को स्वीकारा, अमेरिका ने ‘घाटा और क्षति’ की शब्दावली को और भारत-चीन ने वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस से ऊपर न जाने देने की आकांक्षा को।
134 देश, आज विकासशील की श्रेणी में हैं। उनके हक में माना गया कि विकसित की तुलना में गरीब व विकासशील देश कम कार्बन उत्सर्जन कर रहे हैं; जबकि कार्बन उत्सर्जन कटौती की कवायद में उनका विकास ज्यादा प्रभावित होगा; लिहाजा, विकसित देश घाटा भरपाई की जिम्मेदारी लें। इसके लिये ‘ग्रीन क्लाइमेट फंड’ बनाना तय हुआ। तय हुआ कि वर्ष 2025 तक इस विशेष कोष में 100 अरब डॉलर की रकम जमा कर दी जाये।
यूँ बँधे भारत-चीन
वर्ष 1992 से संयुक्त राष्ट्र द्वारा की जा रही वैश्विक जलवायु समझौते की कोशिशों की नाकामयाबी को भी देखें, तो कह सकते हैं कि सचमुच यह आसान नहीं था। इसे मुमकिन बनाने के लिये यह सम्मेलन भारत जैसे देशों को दबाव में लाने की कोशिशों से भी गुजरा।
भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील के बिना इस समझौते को अधूरा मानने की बात कही गई। इसके लिये दुनिया भर में बाकायदा हस्ताक्षर अभियान चलाया गया। तैयारी बैठकों में चले खेल से दुखी प्रतिनिधि कहते हैं कि अमेरिका ने गन्दी राजनीति खेली।
उसके संरक्षण में 100 देशों का एक गुट अचानक सामने आया और उसने उसके मुताबिक समझौता कराने में कूटनीतिक भूमिका निभाई। कहने वाले ये भी कहते हैं कि अमेरिका नेे भारत के कंधे पर बन्दूक रखकर निशाना साधा।
एक तरफ अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन केरी ने अपने एक साक्षात्कार में जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में भारत को ही एक चुनौती करार दे दिया, तो दूसरी तरफ अमेरिकी राष्ट्रपति, भारत के नेतृत्वकारी भूमिका की सराहना करते रहे। मशहूर पत्रिका टाइम ने भारत की भूमिका की तारीफ की।
इसे दबाव कहें या फिर रायनय कौशल, अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा भारतीय प्रधानमंत्री से बैठक, फोन वार्ताओं और फ्रांस के रायनय कौशल का असर यह रहा कि जो भारत और चीन, कार्बन उत्सर्जन कम करने की कानूनी बाध्यता के बन्धन में बँधने से लगातार इनकार करते रहे, संयुक्त राष्ट्र का पेरिस सम्मेलन, दुनिया की सबसे बड़ी आबादी और आर्थिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण इन दो मुल्कों को बाँधने में सफल रहा।
1997 में हुई क्योटो सन्धि की आयु 2012 में समाप्त हो गई थी। तभी से जिस नई सन्धि की कवायद शुरू हुई थी, वह कॉन्फ्रेंस ऑफ द पार्टीज ‘कोप 21’ के साथ सम्पन्न हुई।
क्या कहते हैं समीक्षक?
गौर कीजिए कि पेरिस जलवायु समझौता, अभी सिर्फ एक समझौता भर है। कुल वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में से 55 प्रतिशत उत्सर्जन के लिये जिम्मेदार देशों में से 55 देशों की सहमति के बाद समझौता एक कानून में बदल जाएगा।
विकसित व अग्रणी तकनीकी देश, इन मसलों पर स्पष्ट रूपरेखा प्रस्तुत करने में आनाकानी बरतते रहे। वे चालाकी में हैं कि इस पर पेरिस सम्मेलन के बाहर हर देश से अलग-अलग समझौते की स्थिति में अपनी शर्तों को सामने रखकर दूसरे हित भी साध लेंगे। मसौदा, निश्चित तौर पर तकनीकी हस्तान्तरण के मसले पर कमजोर है। नए मसौदे में हवाई यात्रा के अन्तरराष्ट्रीय यातायात तंत्र पर बात नहीं है। सच्चाई यह है कि कार्बन बजट के साथ-साथ अन्य बाध्यताएँ न होने से अमेरिका और हरित तकनीकों के विक्रेता देश खुश हैं। यह कानून, सहमति तिथि के 30वें दिन से लागू हो जाएगा। इसी के मद्देनज़र तय हुआ है कि सदस्य देश 22 अप्रैल, 2016 को संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय पहुँचकर समझौते पर विधिवत हस्ताक्षर करेंगे।
जाहिर है कि पेरिस जलवायु समझौते को कानून में बदलता देखने के लिये हम सभी को अभी अगले पृथ्वी दिवस का इन्तजार करना है। किन्तु ‘कोप 21’ के समीक्षक इसका इन्तजार क्यों करें? कोप 21 के नतीजे में जीत-हार देखने का दौर तो सम्मेलन खत्म होने के तुरन्त बाद ही शुरू हो गया था।
किसी ने इसे ऐतिहासिक उपलब्धि कहा, तो किसी ने इसे धोखा, झूठ और कमजोर करार दिया; खासकर, गरीब और विकासशील देशों के हिमायती विशेषज्ञों द्वारा समझौते को आर्थिक और तकनीकी तौर पर कमजोर बताया जा रहा है। विशेषज्ञ प्रतिक्रिया है कि जो सर्वश्रेष्ठ सम्भव था, उससे तुलना करेंगे, तो निराशा होगी।
जलवायु मसले पर वैश्विक समझौते के लिये अब तक हुई कोशिशों से तुलना करेंगे, तो पेरिस सम्मेलन की तारीफ किये बिना नहीं रहा जा सकता। भारत के वन एवं पर्यावरण मंत्री श्री प्रकाश जावड़ेकर ने भी माना कि यह समझौता, हमें तापमान को दो डिग्री से कम रखने के मार्ग पर नहीं रखता।
विरोध के बिन्दु
समझौते को नाकाफी अथवा फरेब बताने वालों का मुख्य तर्क यह है कि जो जिम्मेदारियाँ, विकसित देशों के लिये बाध्यकारी होनी चाहिए थी, वे बाध्यकारी खण्ड में नहीं रखी गई। विकसित देश, बड़ी चालाकी के साथ भाग निकले।
मुख्य विरोध इसी बात का है कि ‘ग्रीन क्लाइमेट फंड’ के लिये 100 अरब डॉलर धनराशि एकत्र करना तो बाध्यकारी बनाया गया है, किन्तु कौन सा देश कब और कितनी धनराशि देगा; यह बाध्यता नहीं है। समझौते में कहा गया है कि 2025 तक अलग-अलग देश अपनी सुविधा से 100 बिलियन डॉलर के कोष में योगदान देते रहें।
गौर कीजिए कि समझौते के दो हिस्से हैं: निर्णय खण्ड और समझौता खण्ड। निर्णय खण्ड में लिखी बातें कानूनन बाध्यकारी नहीं होंगी। समझौता खण्ड की बातें सभी को माननी होंगी। विकासशील और गरीब देशों को इसमें छूट अवश्य दी गई है, किन्तु सम्बन्धित न्यूनतम अन्तरराष्ट्रीय मानकों की पूर्ति करना तो उनके लिये भी बाध्यकारी होगा।
मलाल इस बात का भी है कि 100 अरब डॉलर के कार्बन बजट को एक हकदारी की बजाय, मदद की तरह पेश किया है; जबकि सच यह है कि कम समय में कार्बन उत्सर्जन घटाने के लक्ष्य को पाने लिये जिन हरित तकनीकों को आगे बढ़ाना होगा, वे महंगी होगी। गरीब और विकासशील देशों के लिये यह एक अतिरिक्त आर्थिक बोझ की तरह होगा।
निगरानी व मूल्यांकन करने वाली अन्तरराष्ट्रीय समिति उन्हें ऐसा करने पर बाध्य करेंगी। न मानने पर कार्बन बजट में उस देश की हिस्सेदारी रोक देंगे। बाध्यता की स्थिति में तकनीकों की खरीद मजबूरी होगी। इसीलिये सम्मेलन पूर्व ही माँग की गई थी कि उत्सर्जन घटाने में मददगार तकनीकों को पेटेंट मुक्त रखना तथा हरित तकनीकी का हस्तान्तरण को मुनाफ़ा मुक्त रखना बाध्यकारी हो, किन्तु यह नहीं हुआ।
विकसित व अग्रणी तकनीकी देश, इन मसलों पर स्पष्ट रूपरेखा प्रस्तुत करने में आनाकानी बरतते रहे। वे चालाकी में हैं कि इस पर पेरिस सम्मेलन के बाहर हर देश से अलग-अलग समझौते की स्थिति में अपनी शर्तों को सामने रखकर दूसरे हित भी साध लेंगे। मसौदा, निश्चित तौर पर तकनीकी हस्तान्तरण के मसले पर कमजोर है।
एक महत्त्वपूर्ण कदम के तौर पर भारत ने 2030 तक 2.5 से तीन अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित करने का भी लक्ष्य रखा है। इसके लिये भारत वन क्षेत्र में पर्याप्त इजाफा करेगा। इन कवायदों के बदले में भारत को ‘ग्रीन क्लाइमेट फंड’ नामक विशेष कोष से मदद मिलेगी। यह पैसा बाढ़, सुखाड़, भूकम्प जैसी किसी प्राकृतिक आपदा की एवज में नहीं, बल्कि भारतीयों के रहन-सहन और रोजी-रोटी के तौर-तरीकों में बदलाव के लिये मिलेगा।नए मसौदे में हवाई यात्रा के अन्तरराष्ट्रीय यातायात तंत्र पर बात नहीं है। सच्चाई यह है कि कार्बन बजट के साथ-साथ अन्य बाध्यताएँ न होने से अमेरिका और हरित तकनीकों के विक्रेता देश खुश हैं।
राष्ट्रपति बराक ओबामा ने राहत की साँस ली है। वे जानते हैं कि बाध्यकारी होने पर सीनेट में उसका घोर विरोध होता। सम्मेलन में नेतृत्वकारी भूमिका निभाने के लिये भारतीय प्रधानमंत्री को बार-बार बधाई के पीछे एक बात सम्भवतः यह राहत की साँस भी है।
भारत: क्या खोया, क्या पाया
उक्त परिदृश्य के आइने में कह सकते हैं कि पेरिस सम्मेलन, आशंकाओं के साथ शुरू हुआ था और आशंकाओं के साथ ही खत्म हुआ। किन्तु इसमें भारत ने अहम भूमिका निभाई; इसे लेकर किसी को कोई आशंका नहीं है; न विशेषज्ञ स्वयंसेवी जगत को और न मीडिया जगत को।
हम गर्व कर सकते हैं कि सौर ऊर्जा के अन्तरराष्ट्रीय मिशन को लेकर फ्रांस के साथ मिलकर भारत ने वाकई नेतृत्त्वकारी भूमिका निभाई। भारत ने कार्बन उत्सर्जन में स्वैच्छिक कटौती की महत्त्वाकांक्षी घोषणा की; तद्नुसार भारत, वर्ष 2005 के अपने कार्बन उत्सर्जन की तुलना में 2030 तक 30 से 35 फीसदी तक कटौती करेगा।
इसके लिये भारत, अपने बिजली उत्पादन के 40 प्रतिशत हिस्से को कोयला जैसे जीवश्म ऊर्जा स्रोतों के बिना उत्पादित करेगा। 2022 से एक लाख, 75 हजार मेगावाट बिजली, सिर्फ अक्षय ऊर्जा स्रोतों से पैदा करेगा।
एक महत्त्वपूर्ण कदम के तौर पर भारत ने 2030 तक 2.5 से तीन अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित करने का भी लक्ष्य रखा है। इसके लिये भारत वन क्षेत्र में पर्याप्त इजाफा करेगा।
इन कवायदों के बदले में भारत को ‘ग्रीन क्लाइमेट फंड’ नामक विशेष कोष से मदद मिलेगी। यह पैसा बाढ़, सुखाड़, भूकम्प जैसी किसी प्राकृतिक आपदा की एवज में नहीं, बल्कि भारतीयों के रहन-सहन और रोजी-रोटी के तौर-तरीकों में बदलाव के लिये मिलेगा।
अन्य पहलू यह होगा कि किन्तु जीवाश्म ऊर्जा स्रोत आधारित बिजली संयंत्रों को विदेशी कर्ज मिलना लगभग असम्भव हो जाएगा। अन्य देशों की तरह भारत को भी हर पाँच साल बाद बताना होगा कि उसने क्या किया।
गौर करने की बात यह भी है एक वैश्विक निगरानी तंत्र बराबर निगाह रखेगा कि भारत कितना कार्बन उत्सर्जन कर रहा है। निगरानी, समीक्षा तथा मूल्यांकन - ये कार्य एक अन्तरराष्ट्रीय समिति की नजर से होगा। असल समीक्षा कार्य 2018 से ही शुरू हो जाएगा। अन्तरराष्ट्रीय मानकों के आधार पर समीक्षा होगी।
आशंका प्रश्न
क्या इससे भारत पर अन्तरराष्ट्रीय मानक भारत की भू सांस्कृतिक, सामाजिक व आर्थिक विविधता के अनुकूल हैं या नहीं? समझौते के कारण भारत किन्ही नई और जटिल बन्दिशों में फँस तो नहीं जाएगा? भारत में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये वर्ष 2008 में भी राष्ट्रीय कार्ययोजना पेश की थी।
अक्षय ऊर्जा, ऊर्जा दक्षता, कचरे का बेहतर निस्तारण, पानी का कुशलतम उपयोग, हिमालय संरक्षण, हरित भारत, टिकाऊ कृषि व पर्यावरण ज्ञान तंत्र का विकास- उसके आठ लक्ष्य क्षेत्र थे। गत् सात वर्षों में हम कितना कर पाये? आगे नहीं कर पाएँगे, तो क्या हमें कार्बन बजट में अपना हिस्सा मिलेगा? नहीं मिला, तो भारत की आर्थिकी किस दिशा में जाएगी?
कहीं ऐसा तो नहीं कि कार्बन उत्सर्जन घटाने और अवशोषण बढ़ाने की हरित तकनीकों को लेकर हम अन्तरराष्ट्रीय निगरानी समिति के इशारे पर नाचने पर मजबूर हो जाएँगे? प्रश्न बता रहे हैं कि हवा-पानी ठीक करने का भारतीय मोर्चा भी इन तमाम आशंकाओं से मुक्त नहीं है।
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