पावन है तेरी लहर, लहर

जो पाप-दुर्ग पर दुर्गा-सी टूटती सर्वदा घहर-घहर,
हे अमरधुनी सरयू मैया! पावन है तेरी लहर-लहर।
नगपति के व्यापक आंगन में कन्या-समान इठलाती है,
धरती को करने हरा - भरा, ऊपर से नीचे आती है,
करती प्रचंड गर्जना कभी तू मधुर-मधुर कुछ गाती है,
पथबंधु वनों के वैभव से अपना संसार सजाती है,
तेरे पानी से मोती-सी आभा उठती है छहर-छहर।

अगणित मिथकों में भारत का सांस्कृतिक लोकविश्वास लिए,
नेपाल और तिब्बत की तू सीमा असीम उल्लास लिए,
वह बहराइच में आती है जब अपना विपुल विकास लिए,
तब फूली नहीं समाती है बहु नाम-रूप-इतिहास लिए,
जीवन की छवियां लगती है प्रिय राष्ट्रध्वज-सी फहर-फहर।

खीरी, बाराबंकी, गोंडा को नित्य भेटती चलती तू,
छोटी-छोटी सरिताओं को खुद में समेटती चलती तू,
अपने उद्दाम प्रवाहों में गिरि-वन लपेटती चलती तू,
शीतलता का संचार लिए, परिताप मेटती चलती तू,
तेरे जीवन की संगति से पुण्याम्रित बनता पाप जहर।

(‘सरयू’ काव्य से एक अंश)

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