पौधों से सीखें जल का महत्त्व


सामान्यतः हम मानते हैं कि जल हमारी प्यास बुझाता है, मगर सच यह है कि खाने को भोजन और श्वसन के लिये ऑक्सीजन भी जल से ही मिलते हैं। प्यास बुझाने के लिये हम जल का सीधे प्रयोग कर लेते हैं, जब कि जल से भोजन व ऑक्सीजन प्राप्त करने हेतु हमें पादपों की मदद लेनी होती है। इस तथ्य से सभी परिचित हैं कि पौधे प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा भोजन बनाते हैं। उसी भोजन से चींटी से लेकर हाथी तक का पेट भरता है। पौधों में उपस्थित हरा पदार्थ यानि क्लोरोफिल या पर्णहरित सूर्य से ऊर्जा प्राप्त कर जल के अणु को तोड़ता है। जल के अणु के टूटने से बनी हाइड्रोजन से कार्बन डाइ ऑक्साइड का अपचयन होने से कार्बोहाइड्रेट बनते हैं। इस कार्बोहाइड्रेट के रुपांतरण से ही पौधों में विविध प्रकार के पदार्थ बनते हैं, जिनमें से कई को हम भोजन के रूप में ग्रहण करते हैं। पौधों में जल के अणु के टूटने से ऑक्सीजन भी बनती है। पौधे ऑक्सीजन को वायुमंडल में छोड़ देते हैं। वहीं ऑक्‍सीजन हमें जीवित रखती है। स्पष्ट है कि जल ही वह पदार्थ है जो हमारी भूख प्यास मिटाने के साथ ही हमारे श्वांस को चलने देता है।

खेजड़ी

पौधों में जल संरक्षण के लिये विकास


जल जीवन का आधार है यह बात सब जानते हैं, पर दैनिक आचरण में इस तथ्य को नहीं उतारते। अरबों वर्षों के विकासवादी प्रक्रम ने पौधों में उत्तरजीविता के लिये जल संरक्षण हेतु अनेक अनुकूलन-क्षम विकास किए हैं जिनसे हम जल संरक्षण का महत्त्व सीख सकते हैं।

पौधे बोलते नहीं, मगर पानी के महत्त्व को बहुत अच्छी तरह उजागर करते हैं। वे जल प्राप्त करने के लिये सभी प्रयास करते हैं, मगर पानी का दुरुपयोग नहीं करते। प्राप्त पानी को संभल-संभल कर खर्च करते हैं। पौधे पानी के महत्त्व को बहुत अच्छी तरह उजागर करते हैं। पानी को बरतने को लेकर पौधों में इतनी प्रवीणता उत्पन्न हो गई है कि हम पौधों से बहुत कुछ सीख सकते हैं। पानी का उपयोग करने में सभी पौधे एक सा व्यवहार नहीं करते हैं। जल की उपलब्धता व जल की गुणवत्ता के अनुसार पौधों का व्यवहार अलग-अलग तरह का होता है। यह विविधता पौधों में विकासवादी प्रक्रमों के कारण आई है। पौधे पृथ्वी पर मानव की अपेक्षा करोड़ों वर्ष पहले से विद्यमान हैं, इसलिये जीवनाधार जल को लेकर उन्होंने विकास के अद्भुत चरण तय किए हैं।

वर्षा के आने के साथ ही धरती पर चारों ओर हरी चादर बिछ जाती है। वर्षा समाप्त होने के साथ ही हरियाली ओझल होने लगती है। यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि वर्षा के पूर्व जहाँ किसी पौधे का कोई चिन्ह भी दिखाई नहीं देता था, वहीं प्रथम वर्षा के तुरन्त बाद इतने पौधे कहाँ से आ जाते हैं? इस प्रश्न का सीधा सा जवाब है कि कुछ पौधों ने अपने जीवन को वर्षा से बाँध लिया है। इन पौधों ने अपना जीवनकाल वर्षाऋतु जितना छोटा बना लिया है। वर्षा आने के साथ ही इन पौधों के बीज अंकुरित हो जाते हैं। ये तेजी से वृद्धि करते हैं तथा वर्षाऋतु की समाप्ति से पूर्व ही इन पर फूल आते हैं। वर्षाऋतु समाप्त होते-होते बीज पक कर बिखर जाते हैं तथा मिट्टी में पड़े-पड़े आने वाली वर्षाऋतु का इंतजार करते हैं।

कम वर्षा वाले क्षेत्रों के कई पशुपालक कुछ इसी प्रकार से अपना जीवनयापन करते हैं। ये पशुपालक वर्षा होने पर अपने स्थानों पर आ जाते हैं तथा वर्षाऋतु की समाप्ति के बाद उन स्थानों की ओर चले जाते हैं, जहाँ उनके पशुओं के लिये पर्याप्त पानी व चारा उपलब्ध हो। विश्व की महान सभ्यताओं के नदी किनारे विकसित होने का एक मात्र कारण जल की उपलब्धता ही रहा है। आज भी वे ही क्षेत्र अधिक विकसित हो पाते हैं जहाँ शुद्ध जल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है।

संघर्षशील पौधे


राजस्थान के मरुस्थलीय भाग में भी बहुत बड़ी मानव आबादी निवास करती है। ये लोग जमीन में गहरे कुएँ खोद कर उनसे पानी निकालते हैं। बहुत कठिनाई से प्राप्त करने के कारण ये जल के महत्त्व को अच्छी तरह समझते हैं। इस कारण ये जल को बहुत ही किफायत से खर्च करते हैं। कठिन क्षेत्र में भी अपना जीवन मस्ती से गुजारते हैं। इन लोगों ने ऐसा जीवन जीने की कला पौधों से ही सीखी है। रेगिस्तान में जब चारों ओर सूखे का साम्राज्य फैला हो तब बबूल, खेजड़ी आदि वृक्षों को लहलहाते, फूल खिलाते देखा जा सकता है। रेगिस्तानी वृक्षों की विशेषता यह है कि इनकी जड़, भूमि के ऊपर रहने वाले भाग की तुलना में कई गुणा लम्बी व शाखान्वित होती है। जो जमीन में गहराई में उपस्थित जल को पर्याप्त मात्रा में एकत्रित कर ऊपरी भाग को भेजती है। इनके प्रयासों के कारण पौधों को जल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होता है। इसका यह अर्थ नहीं होता कि जल को अनावश्यक रूप से खर्च किया जाए। इन पौधों की पत्तियाँ छोटी होती हैं। पत्तियों पर जलरोधी पदार्थ की पर्त चढ़ी होती हैं, जिस कारण गर्मियों में भी इनकी सतह से बहुत कम जल खर्च होता है। रेगिस्तान में प्रमुख रूप से पाया जाने वाला केर का वृक्ष तो जल की बचत करने में इनसे भी एक कदम आगे बढ़ जाता है। केर में पत्तियाँ काँटे में बदल जाती हैं। इससे दो लाभ व एक हानि होती है। पहला लाभ यह है कि पत्तियाँ नहीं होने से वाष्प के रूप में जल की हानि नहीं होती। दूसरा लाभ यह कि काँटे होने के कारण कोई पशु इन्हें हानि नहीं पहुँचाता। हानि यह होती है कि पत्तियों के बिना भोजन कौन बनावे? केर ने उस हानि को रोकने का उपाय भी कर लिया। केर का तना हरा होकर पत्तियों की जिम्मेदारी को सम्भाल लेता है। तने पर जलरोधी पदार्थ की मोटी पर्त चढ़ी होती है, इस कारण जल की तनिक भी हानि नहीं होती। यही कारण है कि तपती रेत के समुद्र के बीच केर अकेला मुस्कराता नजर आ जाता है।

जल संग्राही पौधे


रेगिस्तानी जिलों बाड़मेर और जैसलमेर में यह परम्परा है कि वर्षा आने पर घर की छत पर गिरने वाले पानी को बाहर बहने नहीं दिया जाता। पानी को एकत्रित कर घर में भूमि में बने ‘टांके’ यानि एक संग्राहक में एकत्रित कर लिया जाता है। बाद के दिनों में इस एकत्रित जल को बहुत ही सावधानी से खर्च किया जाता है। जब मेरी नियुक्ति बाड़मेर में थी तो प्रति दिन एक बाल्टी पानी टांके में से दिया जाता था। प्राप्त पानी का एक भाग नहाने के काम में लाता था, मगर नहाने के काम में आए पानी को भी व्यर्थ बहने नहीं देता था। उस पानी को एकत्रित कर उसका उपयोग कमरे में पोछा लगाने या अन्य ऐसे ही किसी काम में करता था।

आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि मानव ने वर्षाजल को एकत्रित करने व बाद में सावधानी से खर्च करने की बात भी पौधों से ही सीखी है। नागफनी, ग्वारपाठा, थोर आदि कई मांसल पौधे हैं जो रेगिस्तान में आसानी से रह लेते हैं। ये पादप वर्षा के दिनों में उपलब्ध जल को अपने तने या पत्तियों में संग्रहित कर लेते हैं। अगामी वर्षाऋतु तक इसी जल को सावधानी से खर्च करते हैं। जल के अपव्यय को रोकने के सभी उपायों को ये पादप काम में लाते हैं। सर्वाधिक जल खर्च करने वाले पादप भाग पत्तियों को ये भी त्याग देते हैं या रूपान्तरित कर लेते हैं। तना हरा होकर पत्तियों की भोजन बनाने की जिम्मेदारी सम्भाल लेता है। सभी भागों पर जलरोधी उपत्वचा का आवरण चढ़ा लिया जाता है। ऐसा लगता है कि ये पादप केवल भोजन बनाने के अलावा किसी बात पर जल खर्च नहीं करते हैं। भोजन बनाने के लिये इन पौधों को कार्बन डाइ ऑक्साइड वायुमंडल से लेनी होती है। कार्बन डाइ ऑक्साइड को अन्दर लेने के लिये रन्ध्र खोलने होते हैं। रन्ध्र खुलेंगे तो जलवाष्प्प की हानि होने की सम्भावना रहेगी। ये पौधे जल हानि की इस सम्भावना से बचने हेतु प्रकाश संश्लेषण क्रिया के रासायनिक चरणों में भी परिवर्तन कर लेते हैं। ये पौधे रात्रि में रन्ध्र खोल कर कार्बन डाइ ऑक्साइड प्राप्त करते हैं। संग्रहित कार्बन डाइ ऑक्साइड को दिन में प्रकाश उपलब्ध होने पर भोजन में बदलते हैं। सामान्य पौधे ( सी-3 पादप ) से भिन्न होने के कारण इन्हें सी-4 पादप कहते हैं। इनके इस गुण के कारण ये उन स्थानों पर आसानी से रह लेते हैं, जहाँ अन्य कोई पादप नहीं रह सकता।

एक और एक, एक सौ ग्यारह


पौधों में जल संरक्षण की बात की जाए और लाइकिन को भूल जाएँ ऐसा नहीं हो सकता। संगठन में शक्ति है कहावत का अनुपम उदाहरण है लाइकिन। लाइकिन किसी एक पादप का नाम नहीं है, अपितु एक शैवाल तथा एक कवक के मिल कर रहने का उदाहरण है। शैवाल में भोजन बनाने की क्षमता होती है। कवक भोजन नहीं बना सकती मगर शैवाल को ढ़ककर उसे बाहरी खतरों से बचाने व जीवन के लिये आवश्यक खनिज पदार्थ जुटाने आदि का कार्य बहुत ही दक्षता से करती है। कहावत है कि एक और एक ग्यारह होते हैं, मगर लाइकिन में तो एक और एक मिल कर एक सौ ग्यारह होते दिखाई देते हैं। एकदम ठोस एवं सूखी सतहों पर जहाँ किसी वनस्पति के पनपने की कल्पना नहीं की जा सकती, वहाँ पर भी लाइकिन अपना डेरा जमाने में सफल रहते हैं। लाइकिन डेरा जमाने के बाद धीरे-धीरे वहाँ मिट्टी की पतली पर्त जमा कर देते हैं जिससे कालान्तर में शैवाल, ब्रायोफाइटा आदि उच्चतर पादप वहाँ बसते जाते हैं। एक समय ऐसा आता है, जब ठोस एवं सूखा क्षेत्र घने जंगल में बदल जाता है। आज हम पृथ्वी वासी मंगल ग्रह पर बसने की योजना बना रहे हैं, तब हम लाइकिन की इस नेतृत्वकारी भूमिका की उपेक्षा नहीं कर सकते। जर्मनी में किया गया एक प्रयोग मंगल पर मानव बस्ती बसाने की संभावना बढ़ाता है। जर्मनी के अन्तरिक्ष अनुसंधान संस्थान ने तापक्रम, वायुदाब, प्रकाश, खनिज सान्द्रता आदि को नियंत्रित कर पृथ्वी पर मंगल जैसा वातावरण रचा। इस प्रकार रचे गए मंगल जैसे वातावरण में सहजीवी जीव लाइकिन को रखा गया। प्रयोग में पाया गया कि लाइकिन जैसे जीव मंगल के वातावरण में पनप सकते हैं।

अनेक पादप लवण युक्त जल में भी निर्वाह कर लेते हैं। कुछ प्रदूषित जल से भी परहेज नहीं करते। कई पादप भूमि से हानिकारक रसायनों को अवशोषित कर उन्हें अच्छा बना देते हैं। स्पष्ट है की जल संरक्षण के गुण को पादपों ने विकास क्रम में बहुत पहले तथा बहुत गम्भीरता से अपना लिया था। मानव ने भी कुछ सीमा तक पौधों का अनुकरण किया, मगर अब आवश्यकता पौधों जैसी गम्भीरता लाने की है। जितना जल्दी हम इस बात को समझेंगे तथा दूसरों को समझाएँगे उतना ही अच्छा रहेगा, अन्यथा अस्तित्व का संकट उत्पन्न हो जाएगा। क्योंकि जो प्रजाति अपने पर्यावरण से सामंजस्य नहीं बना पाएँगी, उसका मिटना तो विकासवादी प्रक्रम में तय है।

सम्पर्क


विष्णु प्रसाद चतुर्वेदी
पूर्व प्रधानाचार्य, 2 तिलक नगर, पाली, राजस्थान-306401, फोन: 09829113431


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