उत्तराखण्ड की दुर्गम पहाड़ियों के बीच बसा एक बहुत ही छोटा गाँव पाटुड़ी की कहानी भी कुछ ऐसी है। जल संकट और इससे उबरने की इस गाँव की कहानी बेहद दिलचस्प और प्रेरणा देने वाली है।
इस गाँव के लोगों ने 1998-1999 में ही जल संकट का इतना खतरनाक खौफ देखा जो किसी आपदा से कमतर नहीं थी, खैर लोगों ने संयम बाँधा डटकर जल संकट से बाहर आने की भरसक कोशिश की। इसी के बदौलत इस संकट से ऊबरे और आज यह गाँव खुशहाल है। गाँव के लोगों ने मिलकर एक संगठन का निर्माण किया, टैंक बनवाये, खुद ही फंड इकट्ठा किया और बिना सरकारी मदद के असम्भव को सम्भव बना दिया।
गाँव के ऊपर जल संकट एकदम कैसा आया यह कोई नई कहानी नहीं वरन यह तो सरकारी प्रपंच की गरीबी दूर करने के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों का अन्धाधुन्ध और अवैज्ञानिक तरीके से दोहन करने की एक रची रचाई योजना थी। इसी तरह के दोहन की चपेट में आया था पाटुड़ी गाँव। यह गाँव टिहरी जनपद में आता है जहाँ से हिमालय की शृंखला देखी जा सकती है।
गाँव ऋषिकेश-गंगोत्री मुख्य मार्ग पर नागनी से 03 किलोमीटर की पैदल चढ़ाई वाले रास्ते में है। फिलहाल इस गाँव को सड़क मार्ग से जोड़ने का काम चल रहा है। बारिश के मौसम को छोड़ दें तो कच्ची सड़क से होकर इस गाँव तक पहुँचा जा सकता है। गाँव बहुत छोटा है और इसमें महज 70 परिवार निवास करते हैं।
गाँव में अधिकतम तापमान 30 डिग्री सेल्सियस के ऊपर नहीं पहुँचता है। सर्दी के मौसम में इस गाँव में बर्फबारी भी होती है। ऊँचाई पर बसे होने तथा आस-पास सघन जंगल के कारण यहाँ शाक-सब्जियाँ भी उगाई जाती हैं। गाँव में राजमा की खेती बहुत होती है। गाँव में पशुपालन भी आजीविका का एक प्रमुख साधन है।
पशुपालन व ईंधन की आपूर्ति के लिये पहाड़ के हरेक गाँव की तरह ही पाटुड़ी गाँव भी पास के जंगल पर ही निर्भर है। पाटुड़ी में पानी का एकमात्र स्रोत है और वह है-मुलवाड़ी धारा। सदियों से इस गाँव को यही धारा पानी दे रही है, लेकिन लोगों द्वारा भारी पैमाने पर घास और लकड़ी के लिये वनों की कटाई की गई। स्थानीय लोगों ने इसका विरोध भी किया कि इससे धारा सूख सकती है।
वर्ष 1998-99 में पहाड़ी क्षेत्रों में वर्षा कम हुई और लोगों को सूखे का सामना करना पड़ा। मुलवाड़ी स्रोत का पानी कम होने लगा और आसपास के तीन और छोटे-छोटे कुएँ भी सूख गए। मुलवाड़ी स्रोत से आ रही पाइप लाइन जिसका निर्माण सन 1985 में करवाया गया था उसमें भी पानी आना बन्द हो गया।
1998 में फरवरी व मार्च के महीने तक गाँववासियों को उतना ही पानी मिल जाया करता था जितने में एक-दो बर्तन भर जाये, लेकिन इसके लिये उन्हें प्रातः चार बजे से लाइन में लगना पड़ता था। इस पर अन्दाजा लगाया जा सकता है कि एक-दो बर्तन का मतलब होता है 5-10 ली. पानी।
उसी वर्ष मई व जून में इस धारा से रोज महज 300 से 400 लीटर पानी ही निकल पाया, जो गाँव वालों के लिये अपर्याप्त था। ऐसे हालात में गाँव के लोगों के पास दो ही विकल्प थे। पहला विकल्प था तीन किलोमीटर नीचे से पानी भरकर लाया जाय। तीन किमी को ऊपर चढ़ते और उतरते वक्त का रास्ता बड़ा ही जोखिम भरा था।
दूसरा विकल्प था कि चार किलोमीटर दूर दूसरे गाँव से पानी लाना। खैर, दूसरे विकल्प को अपनाते हुए गाँव के लोगों ने चार किलोमीटर दूर जाकर चोपड़ियाली गाँव से पानी भरकर लाया। उसी वर्ष सप्ताह में एक बार कपड़े धोने के लिये तीन किलोमीटर दूर पहाड़ पर चढ़कर-उतरकर जाना पड़ता था। उक्त जलस्रोत पर पाँच गाँव निर्भर थे इसलिये वहाँ भी पानी कम ही आता था। उस वर्ष पानी का संकट इतना गहरा गया कि गाँववासियों को अपने पालतू पशुओं को नीलाम करना पड़ा।
पानी की आपूर्ति करने के लिये हर सम्भव प्रयास किया गया, लेकिन इससे एक बड़ा सबक यह भी मिला कि प्राकृतिक संसाधनों का सदुपयोग नहीं किया गया तो परिणाम बेहद गम्भीर होंगे। बहरहाल गाँव के इस संकट को ईश्वरीय देन भी माना जाने लगा और मुलवाड़ी स्रोत के निकट गाँव के ही एक बुजुर्ग स्व. अमर सिंह कैंतुरा ने पूजा-अर्चना की। लगातार 15 दिनों तक वहाँ पूजा हुई और स्व. अमर सिंह तब तक वहाँ से नहीं हटे जब तक बारिश नहीं हुई।
इधर हिमकान संस्था द्वारा पाटुड़ी गाँव में सन 1998 में 63 महिलाओं को साथ लेकर महिला मंगल दल का गठन किया। इस दल के मुखिया की जिम्मेदारी तत्काल कुंवर सिंह नेगी को सौंपी क्योंकि वे क्षेत्र में उन दिनों एक सक्रीय सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में कार्य कर थे।
महिला मंगल दल के सभी सदस्य हर माह के पहले सप्ताह में एक बैठक कर सामाजिक जीवन के विभिन्न पहलुओं पर विचार-विमर्श करते थे जो आज भी जारी है मगर उन दिनों उनकी चर्चा का केन्द्र बिन्दु पाटुड़ी गाँव की पेयजल की समस्या थी। यह तारतम्य चलता रहा तो आगामी दिनों में कुँवर सिंह नेगी की पुत्रवधु शोभा देवी गाँव की प्रधान बन गई। उन्होंने सबसे पहले विभिन्न सामाजिक संस्थाओं के माध्यम से गाँव में प्रमुख रूप से जल संरक्षण का काम किया।
हिमकॉन संस्था द्वारा महिला मंगल दल के साथ मिलकर सर्वप्रथम मुलवाड़ी के आसपास 2000 से अधिक पौधे लगाए गए। इसके पश्चात अगले तीन वर्षों तक इसके जल ग्रहण क्षेत्र में 10,000 पौधों का रोपण किया गया, तथा खेती वाली जमीन पर भी चारे वाले पौधों का रोपण किया गया, जिसमें प्रमुख रूप से शहतूत व गुरीयाल को प्राथमिकता दी गई।
यही नहीं मुलवाड़ी जलस्रोत के जल ग्रहण क्षेत्र में संस्था ने समूह की सहभागिता के साथ तीन चालों (वाटर हार्वेस्टिंग पॉण्ड) का निर्माण भी करवाया गया। बाद में महिला मंगल दल द्वारा मनरेगा कार्यक्रम के माध्यम से 10 चालों का और निर्माण करवाया गया। इसके अलावा इस जल ग्रहण क्षेत्र में ही तीन चेकडैम का निर्माण भी हिमकॉन के माध्यम से किया गया। बाद के वर्षों में मनरेगा कार्यक्रम के माध्यम से भी पाटुड़ी गाँव में चेकडैम बने जो कि आज भी काम कर रहे हैं व गाँव के लोग इनका मलबा साफ करते हैं। हिमकॉन द्वारा सन 2001 में पाटुड़ी गाँव में 20,000 लीटर क्षमता वाली पानी की टंकी का निर्माण भी करवाया गया। जिसमें बरसात के पानी को एकत्रित किया जाता है।
सन 1998-99 में ग्राम पाटुड़ी में जंगल सुरक्षा समिति का गठन भी किया गया था और इसका अध्यक्ष भी कुंवर सिंह नेगी को ही बनाया गया था। जंगल सुरक्षा समिति का मुख्य कार्य मुलवाड़ी के जंगलों की सुरक्षा करना था ताकि कोई भी इस 20 हेक्टेयर के जंगल से चारा और ईंधन न ला सके। इसके पश्चात कुंवर सिह की अध्यक्षता में इस जंगल सुरक्षा समिति व महिला मंगल दल ने वन विभाग की सहायता से 20 तथा विकासखण्ड की सहायता से 30 चेकडैमों का निर्माण करवाया गया। इस तरह आज भी जंगल सुरक्षा समिति व महिला मंगल दल सक्रीय रूप से प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिये कार्य कर रही है। मौजूदा समय में इस समिति के अध्यक्ष अतर सिंह हैं।
इस गाँव की दास्तां ही दिलचस्प है। एक तरफ संघर्ष और दूसरी तरफ रचनात्मक काम को अंजाम देना कोई मखौल नहीं है। अब तक संगठन तो बन गए थे लेकिन काम करने के लिये फंड कहाँ से आये यह भी एक बड़ी चुनौती ग्रामीणों के पास आन पड़ी। इस चिन्ता को दूर करने के लिये एक बैठक की गई, जिसमें तय हुआ कि सदस्य खुद ही संसाधन जुटाएँगे।
सभी इस बात पर सहमत हो गए कि सभी सदस्य हर महीने 10-10 रुपए जमाकर फंड तैयार करेंगे और इसका उपयोग प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के कामों में किया जाएगा। महिला मंगल दल आज भी हर महीने निर्धारित राशि फंड में दे रहे हैं। इस छोटी राशि के जरिए ही आज कोष में 2 लाख से अधिक रुपए जमा हो चुके हैं।
गाँव के लोगों ने जल संकट से निपटने के लिये बारिश की बूँदों को सहेजने को भी बेहद गम्भीरता से लिया। हालांकि पहले भी वे बारिश के पानी को संजोकर रखते थे लेकिन अनौपचारिक तौर पर या कभी-कभार ही। जल संकट बढ़ने पर इन्होंने व्यापक स्तर पर बारिश के पानी को संरक्षित करने की योजना बनाई। हिमकॉन संस्था की मदद से बारिश के पानी को टंकियों में संरक्षित करने की रणनीति तैयार की गई।
इस विचार को अमलीजामा पहनाने के लिये पाटुड़ी में 10 फेरोसीमेंट टंकियों का निर्माण किया गया। एक-एक टंकी की क्षमता 5-5 हजार लीटर है। वैसे पाटुड़ी की पेयजल व्यवस्था मुख्य रूप से मुलवाड़ी स्रोत पर आज भी निर्भर है। जबकि यहाँ सन 1995 से पर्वतीय परिसर रानीचौरी से पाइप लाइन द्वारा पेयजल उपलब्ध करवाया जा रहा है लेकिन लम्बी पाइपलाइन होने के कारण गर्मी में पानी उपलब्ध नहीं हो पाता था। मुलवाड़ी जलस्रोत व जंगल संरक्षण की कहानी 1998 में आरम्भ हुई जिसे पाटुड़ी निवासी आज भी जारी रखे हुए हैं।
पाटुड़ी गाँव के मुलवाड़ी जलस्रोत से जुड़ी और कहानी भी है। ऐसा नहीं कि इस गाँव में कभी जल संचयन का काम नहीं हुआ। गाँव के पास एक टंकी खण्डहर की हालात में पड़ी है। जिसकी बनावट सिर्फ मिट्टी और गारे से बनाई हुई लगती है। स्थानीय लोगों का कहना है कि इस जलस्रोत पर निर्मित पानी की टंकी 120 सालों से भी पुरानी है।
इन टंकियों को बनाने के लिये पत्थर व चूने का प्रयोग किया गया है। उस वक्त चूना बनाने के लिये इस स्रोत के पास ही स्थानीय बजरी का चूना बनाया गया, जिसके लिये पास की जगह पर भट्टी के लिये गड्ढा बनाया गया था और नीचे ईंधन के लिये लकड़ी व सूखे पेड़ डाल दिये गए थे तथा उसके ऊपर स्थानीय बजरी (लाइम स्टोन) का भरान किया गया था। इस तकनीक में दक्ष स्थानीय चर्मकार कारीगरों के द्वारा इस भट्टी को जलाया गया। भट्टी लगातार तीन महीने तक जली थी और उसे बुझने में भी 3 महीने का वक्त लगा था।
स्थानीय लोगों के सहयोग से इस भट्टी से निकले चूने, पत्थर द्वारा एक टंकी मूलवाड़ी जलस्रोत पर तथा दो टंकियाँ गाँव में बनाई गई। इन टंकियों का प्रयोग आज भी लोग पानी भरने के लिये करते हैं। मूलवाड़ी स्रोत से पानी के वितरण के लिये गाँव के दोनों हिस्सों के लिये कच्ची गूलों का निर्माण किया गया था, जिस पर हर वर्ष दोमट मिट्टी की लिपाई की जाती थी, ताकि पानी का रिसाव कम हो। इसके साथ ही पेड़ों की मदद से नालियाँ बनाई गईं। इन्हें नियमित अन्तराल पर बदलना पड़ता था।
गर्मी के मौसम में जब पानी कम हो जाता था तब लोग इन नालियों का प्रयोग नहीं करते थे बल्कि बर्तनों से जलस्रोत का पानी भरा करते थे। यहाँ आज भी यही परम्परा चल रही है। लोग बर्तन लेकर जाते हैं और जलस्रोत से पानी भरते हैं, लेकिन यहाँ भी तय है कि किसे कितना पानी भरना होगा ताकि सभी को समान रूप से पानी मुहैया हो सके।
मौजूदा समय में हिमकॉन संस्था द्वारा इस वर्ष हिमालय सेवा संघ और अर्घ्यम, बंगलुरु की सहायता से यहाँ पर पानी के टैंकों की मरम्मत का कार्य करवाया गया। इसके साथ ही पुराने ढाँचे को ‘स्लो सैंड फिल्टर’ के रूप में बदला गया।
उल्लेखनीय है कि सघन जंगलों के बीच जलस्रोतों के करीब जल संरक्षण-संग्रहण एवं व्यवस्थित शोधन करने की एक लोक परम्परा इस पूरे दुर्गम हिमालयी क्षेत्र में रही है। परन्तु जो जल संकट पाटुड़ी के गाँव ने भोगा और फिर उससे ऊबरने के जो तौर-तरीके ग्रामीणों ने इजाद किये वह काबिलेगौर है।
बता दें कि पाटुड़ी गाँव में बिना सरकारी अनुदान लिये उपलब्ध स्थानीय संसाधनों एवं लोक भागीदारी से सैकड़ों वर्षों से यहाँ जल संरक्षण का काम निरन्तर किया जा रहा है। यह उन क्षेत्रों के लिये प्रेरणा है जिन क्षेत्रों के लोग सरकारी लापरवाही को कोसते रहते हैं। पाटुड़ी गाँव ने यह दिखा दिया कि सरकारी मदद के बिना भी बहुत कुछ किया जा सकता है।
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Post By: RuralWater