पारंपरिक जल संचय प्रणालियों का इतिहास

Traditional water harvesting
Traditional water harvesting

सदियों से जारी है जद्दोजहद
ईसा पूर्व तीसरी सहस्त्राब्दी में ही बलूचिस्तान के किसानों ने बरसाती पानी को घेरना और सिंचाई में उसका प्रयोग करना शुरू कर दिया था। कंकड़-पत्थर से बने ऐसे बांध बलूचिस्तान और कच्छ में मिले हैं।

सिंधु घाटी सभ्यता (3000-1500 ई.पू.) के महत्वपूर्ण स्थल धौलावीरा में मानसून के पानी को संचित करने वाले अनेक जलाशय थे। यहां जल निकासी की व्यवस्था भी बहुत अच्छी थी।

कुएं बनाने की कला शायद हड़प्पा सभ्यता के लोगों ने विकसित की। सिंधु घाटी सभ्यता वाले स्थलों के हाल के सर्वेक्षण से यह बात सामने आई है कि हर तीसरे मकान में एक कुआं था।

ई.पू. पहली शताब्दी में इलाहाबाद के निकट श्रृंगवेरपुरा में गंगा की बाढ़ के पानी को संचित करने की बहुत कुशल प्रणाली के अवशेष मिले हैं।

जल संचय करके सिंचाई करने वाली प्रणालियों की मौजूदगी का पता ई.पू. तीसरी सदी में लिखी कौटिल्य की किताब अर्थशास्त्र से भी चलता है। इससे पता चलता है कि लोगों को बरसात के चरित्र, मिट्टी के भेद और सिंचाई तकनीकों का पता था। राजा भी इस काल में मदद करता था। पर इन्हें बनाने, चलाने और रखवाली का काम गांववाले खुद करते थे। इस मामले में गड़बड़ करने वालों को सजा मिलती थी।

पुरातात्विक और ऐतिहासिक प्रमाणों से स्पष्ट है कि चंद्रगुप्त मौर्य (ई.पू. 321-297) के समय भारतीय किसान बांध, तालाब और अन्य सिंचाई साधनों का निर्माण करने लगा था। नदियों, तालाबों और सिंचने वाले खेतों पर नजर रखने वाले अधिकारी भी तब तक वजूद में आ गए थे।

दूसरी सदी की जूनागढ़ शिलालेख बाढ़ से क्षतिग्रस्त बांध की मरम्मत, सुदर्शन झील को दुरुस्त करने के बारे में बहुत कुछ बताता है। यह झील नौवीं सदी तक थी।

भोपाल के राजा भोज ने दो पहाड़ियों के बीच तटबंध डालकर विशालकाय जलाशय का निर्माण कराया। 11वीं सदी में यह भारत का सबसे बड़ा कृत्रिम जलाशय था और इसका क्षेत्रफल 65,000 हेक्टेयर से ज्यादा था और इसमें 365 स्रोतों और झरनों का पानी आता था।

कल्हण ने राजतरंगिनी में कश्मीर के 12वीं सदी का इतिहास लिखा है। उसमें व्यवस्थित सिंचाई प्रणाली, डल और आंचर झील के आसपास के निर्माणों और नंदी नहर बनाने का विवरण है।

बंगाल में 17वीं सदी से प्रचलित जलप्लावित सिंचाई प्रणाली अंग्रेजों के आने तक व्यवस्थित ढंग से चली। इससे मिट्टी की उर्वरा तो बढ़ी ही, मलेरिया का नाश भी होता था।

भारत में जल संचय अनंतकाल से किया जाता रहा है। इस परंपरा के प्रमाण प्राचीनतम लेखों, शिलालेखों और स्थानीय रस्म-रिवाजों तथा पुरातात्विक अवशेषों में मिलते हैं। देश भर में जल संचय के साधनों का वर्णन करने के लिए कई किताबें लिखनी पड़ेंगी। प्रागैतिहासिक काल में भी जल संचय की उत्तम व्यवस्था के कुछ प्रमाण मिलते हैं। पुराणों, महाभारत, रामायण और वैदिक, बौद्ध और जैन अभिलेखों में नहरों, तालाबों, बांधों और कुओं के कई वर्णन मिलते हैं। कृषि और वास्तुकला पर भी कई ग्रंथों में उनके बारे में विस्तृत ब्यौरे मिलते हैं।

‘पारंपरिक जल संचय प्रणालियों का इतिहास’ के इस अध्याय से हमें ये जानकारियां मिलती हैं।

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